shabd-logo

पहली वर्षगाँठ

18 फरवरी 2022

13 बार देखा गया 13

ऊपर-ऊपर सब स्वांग, कहीं कुछ नहीं सार, 

केवल भाषण की लड़ी, तिरंगे का तोरण । 

कुछ से कुछ होने को तो आजादी न मिली, 

वह मिली गुलामी की ही नकल बढ़ाने को। 

  

आजादी खादी के कुरते की एक बटन, 

आजादी टोपी एक नुकीली तनी हुई। 

फैशनदारों के लिए नया फैशन निकला, 

मोटर में बांधो तीन रंगवाला चिथड़ा 

औ' गिनो कि आँखें पड़ती हैं कितनी हम पर, 

हम पर यानी आजादी के पैगम्बर पर । 

  

है कहाँ तुम्हारी आजादी? क्या स्कूलों में, 

अनुशासन लंगड़ा हुआ जहाँ बिललाता है? 

हडताल, कर्ण-भेदी प्रचंड कोलाहल में 

है जहाँ गर्क भावी नेताओं के समूह? 

या उस इंजन पर जिसे ड्राइवर खड़ा छोड़ 

है चला गया बाजार कहीं सुरती लाने? 

अथवा मुट्ठी भर उन नोटों के बंडल में 

हो रहे देखकर जिन्हें चाँद-सूरज अधीर ? 

  

टोपी कहती है, मैं थैली बन सकती हूं । 

कुरता कहता है, मुझे बोरिया ही कर लो। 

ईमान बचाकर कहता है, आँखें सबकी, 

बिकने को हूं तैयार, खुशी हो जो दे दो। 

  

सौदा करने को चले देख सब एक लग्न । 

बहती गंगा में पद पखारने की खातिर 

देखो, तट पर कैसों-कैसों की जुटी भीड़? 

आजादी आई नहीं, विकट कुहराम मचा, 

है मची हुई अच्छों-अच्छों में मार-पीट । 

कहते हैं, जो थे साथु-सरीखे पाक-साफ, 

डुबकियां लगा वे भी अब पानी पीते हैं । 

  

बिक रही आग के मोल आज हर जिन्स, मगर, 

अफसोस, आदमीयत की ही कीमत न रही 

आ रही, शोर है, आजादी की वर्षगाँठ । 

है मुझे हुक्म, कोई उन्मादक गीत लिखो, 

जी, बहुत खूब सेवा में हाजिर हुआ अभी 

अंगारों की कड़ियोंबाली कविता लेकर । 

  

लेकिन, यह क्या? सपनों में हाथ बढ़ाने पर 

आता न पकड़ में कुछ भी, है सब शून्य-शून्य । 

मुट्ठी रह जाती रिक्त, नहीं कुछ मी मिलता, 

कल्पना फूंक से भरी हुई, पर, पोली है। 

  

महंगी आजादी के जीवन का एक साल ! 

बापू को डाला मार; नमक का दाम दिया। 

महँगी आजादी के जीवन का एक साल, 

कश्मीर-हैदराबाद धधकते-जलते हैं । 

जाड़े का मौसिम, बड़े जोर की ठंडक है। 

है देश ठिठुर कर ताप रहा इस ज्वाला को । 

  

महंगी आजादी की यह पहली साल-गिरह, 

रहने दो; बापू की वर्षी है दूर नहीं। 

औ' धूमधाम से नहीं मनाओगे तुम क्या 

कुछ ही वर्षों में दशक चोरबाजारी का? 

छल, छद्म, कपट का, राजनीति की तिकड़म का, 

क्रम-क्रम से उत्सव इनका भी होना चाहिए। 

  

लपटों से चारों और घिरी आजादी है, 

हां, अभी ग्रन्थ को खोल धर्म से राय करो, 

हिंसा हो जाती वैध कहां तक सहने पर? 

गोलियां दगाने लगे शत्रु जब, तब उनको 

गोलों से रोकें याकि सूत के पोलों से ? 

  

लपटों से चारों ओर घिरी आजादी है; 

मत हिलो-डुलो, बस, ध्यान लगायो, सुनो, गुनो, 

है कौन ठीक? गांधीवादी या कम्यूनिस्ट? 

या सोशलिस्ट जो कांग्रेस से अलग कूद 

कुछ नये ढंग के शस्त्र बनानेवाले हैं ? 

  

व्याख्यान सुनो, शायरी करो, सरकारों को 

गालियां सुनायो, थूको भीतर का बुखार । 

सरदार-जवाहरलाल नहीं कुछ भी निकले, 

हम होते तो किस्मत ही आज बदल जाती। 

औ' आजादी की सालगिरह के आने पर 

तोरण सजवाओ और निकालो विशेषांक। 

दर्शनवेत्तायों के बेटे क्या और करें ? 

  

हां, खूब मनाओ आजादी की वर्षगाँठ, 

पर, नहीं इस खुशी में कि साल भर हुआ उसे । 

इसलिए कि वह अब तक भी तुमसे छिनी नहीं । 

(15 अगस्त, 1948 ई.  

14
रचनाएँ
नीम के पत्ते
0.0
‘पहली वर्षगाँठ’ कविता की ये पंक्तियाँ तत्कालीन सत्ता के प्रति जिस क्षोभ को व्यक्त करती हैं, उससे साफ पता चलता है कि एक कवि अपने जन, समाज से कितना जुड़ा हुआ है और वह अपनी रचनात्मक कसौटी पर किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं। यह आजादी जो गुलामों की नस्ल बढ़ाने के लिए मिली है, इससे सावधान रहने की जरूरत है। देखें तो ‘नीम के पत्ते’ संग्रह में 1945 से 1953 के मध्य लिखी गई जो कविताएँ हैं, वे तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों की उपज हैं; साथ ही दिनकर की जनहित के प्रति प्रतिबद्ध मानसिकता की साक्ष्य भी।
1

नेता

18 फरवरी 2022
1
0
0

 नेता ! नेता ! नेता !     क्या चाहिए तुझे रे मूरख !  सखा ? बन्धु ? सहचर ? अनुरागी ?  या जो तुझको नचा-नचा मारे  वह हृदय-विजेता ?  नेता ! नेता ! नेता !     मरे हुओं की याद भले कर,  किस्मत से फर

2

रोटी और स्वाधीनता

18 फरवरी 2022
0
0
0

 (अय ताइरे-लाहूती ! उस रिज़्क से मौत अच्छी,  जिस रिज़्क से आती हो परवाज़ में कोताही।-इक़बाल)     (1)  आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?  मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?  आ

3

सपनों का धुआँ

18 फरवरी 2022
0
0
0

 "है कौन ?", "मुसाफिर वही, कि जो कल आया था,  या कल जो था मैं, आज उसी की छाया हँ,  जाते-जाते कल छट गये कुछ स्वप्न यहीं,  खोजते रात में आज उन्हीं को आया हँ ।     "जीते हैं मेरे स्वप्न ? आपने देखा थ

4

राहु

18 फरवरी 2022
0
0
0

चेतनाहीन ये फूल तड़पना क्या जानें ?  जब भी आ जाती हवा की पग बढाते हैं ।  झूलते रात भर मंद पवन के झूलों पर,  फूटी न किरण की धार कि चट खिल जाते हैं ।     लेकिन, मनुष्य का हाल ? हाय, वह फूल नहीं,  द

5

निराशावादी

18 फरवरी 2022
0
0
0

पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा,  धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास;  उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,  बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।     क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?  तब तुम

6

व्यष्टि

18 फरवरी 2022
0
0
0

तुम जो कहते हो, हम भी हैं चाहते वही,  हम दोनों की किस्मत है एक दहाने में,  है फर्क मगर, काशी में जब वर्षा होती,  हम नहीं तानते हैं छाते बरसाने में ।     तुम कहते हो, आदमी नहीं यों मानेगा,  खूंटे

7

पंचतिक्त

18 फरवरी 2022
0
0
0

 (1)  चीलों का झुंड उचक्का है, लोभी, बेरहम, लुटेरा भी;  रोटियाँ देख कमज़ोरों पर क्यों नहीं झपट्टे मारेगा ?  डैने इनके झाड़ते रहो दम-ब-दम कड़ी फटकारों से,  बस, इसीलिए तो कहता हूं, आवाजें अपनी तेज करो।

8

अरुणोदय

18 फरवरी 2022
0
0
0

 (15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतंत्रता के स्वागत में रचित)     नई ज्योति से भींग रहा उदयाचल का आकाश,  जय हो, आँखों के आगे यह सिमट रहा खग्रास ।     है फूट रही लालिमा, तिमिर की टूट रही घन कारा है,  जय

9

स्वाधीन भारती की सेना

18 फरवरी 2022
0
0
0

जाग रहे हम वीर जवान,  जियो जियो अय हिन्दुस्तान !     (1)  हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,  हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल ।  हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की

10

जनता

18 फरवरी 2022
0
0
0

 मत खेलो यों बेखबरी में, जनता फूल नहीं है।  और नहीं हिन्दू-कुल की अबला सतवन्ती नारी,  जो न भूलती कभी एक दिन कर गहनेवालों को,  मरने पर भी सदा उसी का नाम जपा करती है।     जनसमुद्र यह नहीं, सिन्धु ह

11

जनता और जवाहर

18 फरवरी 2022
0
0
0

फीकी उसांस फूलों की है,  मद्धिम है जोति सितारों की;  कूछ बुझी-बुझी-सी लगती है  झंकार हृदय के तारों की ।     चाहे जितना भी चांद चढ़े,  सागर न किन्तु, लहराता है;  कुछ हुआ हिमालय को, गरदन  ऊपर को

12

हे राम

18 फरवरी 2022
0
0
0

लो अपना यह न्यास देवता !  बाँह गहो गुणधाम !  भक्त और क्या करे सिवा,  लेने के पावन नाम ?     स्वागत नियति-नियत क्षण मेरे,  बजा विजय की भेरी;  मुक्तिदूत ! जानें कब से थी  मुझे प्रतीक्षा तेरी । 

13

मैंने कहा, लोग यहाँ तब भी हैं मरते?

18 फरवरी 2022
0
0
0

 (सन् 1945 ई. में, उत्तर-बिहार में, हैजा और मलेरिया, दोनों बड़े जोर से उठे थे । यह वह समय था जब अधिकांश नेता और सामाजिक कार्यकर्त्ता जेलों में बन्द थे । बिहार ने पुकार की कि जनता की सेवा के लिए राजेंद

14

पहली वर्षगाँठ

18 फरवरी 2022
0
0
0

ऊपर-ऊपर सब स्वांग, कहीं कुछ नहीं सार,  केवल भाषण की लड़ी, तिरंगे का तोरण ।  कुछ से कुछ होने को तो आजादी न मिली,  वह मिली गुलामी की ही नकल बढ़ाने को।     आजादी खादी के कुरते की एक बटन,  आजादी टोपी

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए