चेतनाहीन ये फूल तड़पना क्या जानें ?
जब भी आ जाती हवा की पग बढाते हैं ।
झूलते रात भर मंद पवन के झूलों पर,
फूटी न किरण की धार कि चट खिल जाते हैं ।
लेकिन, मनुष्य का हाल ? हाय, वह फूल नहीं,
दिनमान निठुर सारा दिन उसे जलाता है ।
औ' फुटपाथों पर लेट रातभर पड़ा-पड़ा
आदमी चाँद को अपना घाव दिखाता है ।
जिसका सारा जादू समाप्त हो फूलों पर,
वह सूर्य जगत में किस बूते पर जीता है ?
मरता न डूब क्यों चाँद, हृदय का मधु जिसका
मानव की आत्मा नहीं, दग्ध तन पीता है ?
यह जलन ? और यह दाह ? सूर्य अम्बर छोड़े;
यह पीला-पीला चाँद ? इसे बुझ जाने दो ।
क्या अन्धकार इससे भी दुखदायी होगा ?
मत रोको कोई राह, राहु को आने दो ।
(1949)