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स्वाधीन भारती की सेना

18 फरवरी 2022

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जाग रहे हम वीर जवान, 

जियो जियो अय हिन्दुस्तान ! 

  

(1) 

हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल, 

हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल । 

हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं । 

हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं। 

वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं 

गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं। 

तन मन धन तुम पर कुर्बान, 

जियो जियो अय हिन्दुस्तान ! 

  

(2) 

हम सपूत उनके जो नर थे अनल और मधु मिश्रण, 

जिसमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन ! 

एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल, 

जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल। 

थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर, 

स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर 

हम उन वीरों की सन्तान, 

जियो जियो अय हिन्दुस्तान ! 

  

(3) 

हम शकारि विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलनेवाले, 

रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलनेवाले। 

हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते हैं 

मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, लहू वक्ष का पीते हैं। 

हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे, 

मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे। 

देंगे जान , नहीं ईमान, 

जियो जियो अय हिन्दुस्तान। 

  

(4) 

जियो, जियो अय देश! कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम। 

वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम। 

हिन्द-सिन्धु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता । 

सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है ? 

पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किन्तु बचायेंगे, 

जिसकी उँगली उठी उसे हम यमपुर को पहुँचायेंगे। 

हम प्रहरी यमराज समान 

जियो जियो अय हिन्दुस्तान! 

(1948)  

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रचनाएँ
नीम के पत्ते
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‘पहली वर्षगाँठ’ कविता की ये पंक्तियाँ तत्कालीन सत्ता के प्रति जिस क्षोभ को व्यक्त करती हैं, उससे साफ पता चलता है कि एक कवि अपने जन, समाज से कितना जुड़ा हुआ है और वह अपनी रचनात्मक कसौटी पर किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं। यह आजादी जो गुलामों की नस्ल बढ़ाने के लिए मिली है, इससे सावधान रहने की जरूरत है। देखें तो ‘नीम के पत्ते’ संग्रह में 1945 से 1953 के मध्य लिखी गई जो कविताएँ हैं, वे तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों की उपज हैं; साथ ही दिनकर की जनहित के प्रति प्रतिबद्ध मानसिकता की साक्ष्य भी।
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नेता

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रोटी और स्वाधीनता

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सपनों का धुआँ

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राहु

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चेतनाहीन ये फूल तड़पना क्या जानें ?  जब भी आ जाती हवा की पग बढाते हैं ।  झूलते रात भर मंद पवन के झूलों पर,  फूटी न किरण की धार कि चट खिल जाते हैं ।     लेकिन, मनुष्य का हाल ? हाय, वह फूल नहीं,  द

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निराशावादी

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व्यष्टि

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तुम जो कहते हो, हम भी हैं चाहते वही,  हम दोनों की किस्मत है एक दहाने में,  है फर्क मगर, काशी में जब वर्षा होती,  हम नहीं तानते हैं छाते बरसाने में ।     तुम कहते हो, आदमी नहीं यों मानेगा,  खूंटे

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पंचतिक्त

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 (1)  चीलों का झुंड उचक्का है, लोभी, बेरहम, लुटेरा भी;  रोटियाँ देख कमज़ोरों पर क्यों नहीं झपट्टे मारेगा ?  डैने इनके झाड़ते रहो दम-ब-दम कड़ी फटकारों से,  बस, इसीलिए तो कहता हूं, आवाजें अपनी तेज करो।

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अरुणोदय

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 (15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतंत्रता के स्वागत में रचित)     नई ज्योति से भींग रहा उदयाचल का आकाश,  जय हो, आँखों के आगे यह सिमट रहा खग्रास ।     है फूट रही लालिमा, तिमिर की टूट रही घन कारा है,  जय

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स्वाधीन भारती की सेना

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जाग रहे हम वीर जवान,  जियो जियो अय हिन्दुस्तान !     (1)  हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,  हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल ।  हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की

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जनता

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 मत खेलो यों बेखबरी में, जनता फूल नहीं है।  और नहीं हिन्दू-कुल की अबला सतवन्ती नारी,  जो न भूलती कभी एक दिन कर गहनेवालों को,  मरने पर भी सदा उसी का नाम जपा करती है।     जनसमुद्र यह नहीं, सिन्धु ह

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जनता और जवाहर

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फीकी उसांस फूलों की है,  मद्धिम है जोति सितारों की;  कूछ बुझी-बुझी-सी लगती है  झंकार हृदय के तारों की ।     चाहे जितना भी चांद चढ़े,  सागर न किन्तु, लहराता है;  कुछ हुआ हिमालय को, गरदन  ऊपर को

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हे राम

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लो अपना यह न्यास देवता !  बाँह गहो गुणधाम !  भक्त और क्या करे सिवा,  लेने के पावन नाम ?     स्वागत नियति-नियत क्षण मेरे,  बजा विजय की भेरी;  मुक्तिदूत ! जानें कब से थी  मुझे प्रतीक्षा तेरी । 

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मैंने कहा, लोग यहाँ तब भी हैं मरते?

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 (सन् 1945 ई. में, उत्तर-बिहार में, हैजा और मलेरिया, दोनों बड़े जोर से उठे थे । यह वह समय था जब अधिकांश नेता और सामाजिक कार्यकर्त्ता जेलों में बन्द थे । बिहार ने पुकार की कि जनता की सेवा के लिए राजेंद

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पहली वर्षगाँठ

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ऊपर-ऊपर सब स्वांग, कहीं कुछ नहीं सार,  केवल भाषण की लड़ी, तिरंगे का तोरण ।  कुछ से कुछ होने को तो आजादी न मिली,  वह मिली गुलामी की ही नकल बढ़ाने को।     आजादी खादी के कुरते की एक बटन,  आजादी टोपी

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