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मैंने कहा, लोग यहाँ तब भी हैं मरते?

18 फरवरी 2022

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 (सन् 1945 ई. में, उत्तर-बिहार में, हैजा और मलेरिया, दोनों बड़े जोर से उठे थे । यह वह समय था जब अधिकांश नेता और सामाजिक कार्यकर्त्ता जेलों में बन्द थे । बिहार ने पुकार की कि जनता की सेवा के लिए राजेंद्र बाबू रिहा किए जाएं । किंतु सरकार ने उन्हें रिहा नहीं किया । तब भी रिलीफ के नाम पर कई कार्यकर्त्तायों को छुड़ाकर रिलीफ का काम शुरु कर दिया । सरकार उन दिनों रांची में थी, और रिलीफ का संगठन पटने में हो रहा था । अतएव रांची और पटने के बीच नेताओं और अफसरों का आवागमन खूब बढ़ा । रिलीफ के काम के लिए सेठ भी दौड़े, साहूकार और बाबू भी तथा स्कूलों और कालेजों के लड़के भी । पटने के एक अंग्रेजी दैनिक ने उत्तर-बिहार की विपत्ति का प्रचार जोरों से शुरू किया । यहाँ तक कि गांधी
जी को उसने खास तौर से तार भेजा कि उत्तर-बिहार में कस्तूरबा-स्मारक निधि का काम बंद कीजिए । मजे की बात यह हुई कि सरकार इस अखबार से बिगड़ उठी, बल्कि प्रधान सम्पादक को सरकार ने निकलवाकर दम लिया । फिर भी, लोग बदस्तूर मरते ही गए, मरते ही गए। रिलीफ कागज पर ज्यादा व्यवहार में कम कामयाब हुआ। यह कविता तभी लिखी गई थी और पटने के विख्यात साप्ताहिक 'योगी' में बाबा अगिनगिर के नाम से छपी थी ।)
 

 भीषण विशूचिका, मलेरिया विकट है। 

बना दुआ उत्तरी बेहार मरघट है। 

एक-एक गाँव में पचास रोज मरते, 

लाशें कढ़ती हैं हाय, रोज घर-घर से। 

  

विधि की बिगाड़ी कौन बात थी बिहार ने? 

मोटे हरफों में छाप डाला अखबार ने। 

हलचल मच गई पूरे एक देश में, 

दौड़े कई लोग उपकारियों के वेश में । 

कुनैन, हंडुली भर, बड़ा भर फाज ले, 

कुछ साबू-चीनी, कुछ बोरिया अनाज ले। 

चुल्लू भर पानी से बुझाने आग गाँव की, 

चल पड़ीं टोलियां अमीर-उमराव की । 

  

फट पड़ी मीटिंग-कमेटी सब ओर से, 

बड़े-बड़े लोग लगे रोने जोर-शोर से ।  

नेता लगे रोने, "ईश देश पै दया करें, 

कैद हैं राजेन्द्र बाबू, हम हाय, क्या करें?" 

  

अखबार रोने लगे तार चढ़-चढ़ के, 

गांधी जी के पास जा पहुंचे बढ़-बढ़ के । 

लम्बे-लम्बे रोने के बयान लगे छपने, 

ऐसा हुआ हल्ला कि पहाड़ लगा कंपने । 

  

रोते देख दूसरों को रोयी सरकार भी, 

और इसी बात पर हुई तकरार भी । 

डांटा एक को कि तेरा रोना बड़ा तेज है, 

धीरे-धीरे रो, न हाल हैरतअंगेज है। 

  

रो रही हूं मैं, यथेष्ट यही अश्रुधार है, 

तू तो सनकी-सा गले को ही रहा फाड़ है। 

हाकिम-हुक्काम ने भी कोई कमी की नहीं, 

लेकिन, वो चीज उन्हें मिलने को थी नहीं । 

  

मिलती है सिर्फ जो कि उसको बाजार में, 

छपते हैं जिसके रुदन अखबार में। 

आँसुओं की बाढ़ देख कोसी हुई मात है। 

और इस साल रुक गई बरसात है। 

  अथ क्षेपक  

और कल की ही ये कहानी जरा सुन लो, 

सच कहता हूँ या कि झूठ खुद गुन लो। 

एक गाँव हो के जा रही थीं बैलगाड़ियां 

ढोती हुई दस मरे हुओं की सवारियां। 

  

गांववाले कहते थे, भाई! ठहरो जरा, 

एक मुरदा है पहले से ही यहां पड़ा। 

और चार आदमी घड़ी के मेहमान हैं, 

पांच लाशें ढोने के यहाँ नहीं सामान हैं। 

  

ठहरो अमी ही गाड़ियों में लाशें भरके। 

साथ होंगे हम मी कलेजा भरके । 

इति क्षेपक 

सेवा छोड़ हम कोई काम नहीं करते । 

मैंने कहा, लोग यहां तब भी हैँ मरते? 

गाँव-गंवई के लोग मानते न गुन हैं, 

जो भी करो, बस, इन्हें मरने की धुन है । 

  

इनके लिए है पड़ा किसको न खटना? 

एक हो रहा है आज रांची और पटना। 

नेता इनके लिए ही जुट रहे टूट के, 

जेलों से हैं दौड़ रहे नेता छूट-छूट के । 

  

देखने को आने ही वाले हैं छोटे लाट भी। 

फिर भी, पनाह ले पड़े हैं लोग खाट की । 

अरे ओ मुमूर्षु ! मरने से जरा पहले, 

एक सीधी बात का जवाब मुझे कह ले । 

  

नेता परीशान, परीशान सरकार है । 

बोल; मरने का तुझे कौन अधिकार है? 

और मरना भी चाहता उस रोग से 

जिसका इलाज है सहज सिद्ध-योग से? 

  

मरने का पाप इस मुल्क पै धरेगा क्या? 

छपते बयान, तिस पर भी मरेगा क्या? 

तेरा नाम ले के चल पड़े अखबार हैं, 

और कई लोगों ने गरेबाँ लिए फाड़ हैं, 

  

गूंज रहे शोर से अनेक हाट-बाट हैं, 

दौड़ रहे नेतागण, दौड़ रहे लाट हैं। 

देख, दौड़ते हैं मुरदे भी दबी गोर के, 

छोकड़े हैं दौड़ रहे अंडे तोड़-फोड़ के। 

  

अगुनी ! कृतघ् !न तब भी तू मरने चला? 

देश के ललाट पै कलंक धरने चला? 

(1945 ई.)  

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रचनाएँ
नीम के पत्ते
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‘पहली वर्षगाँठ’ कविता की ये पंक्तियाँ तत्कालीन सत्ता के प्रति जिस क्षोभ को व्यक्त करती हैं, उससे साफ पता चलता है कि एक कवि अपने जन, समाज से कितना जुड़ा हुआ है और वह अपनी रचनात्मक कसौटी पर किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं। यह आजादी जो गुलामों की नस्ल बढ़ाने के लिए मिली है, इससे सावधान रहने की जरूरत है। देखें तो ‘नीम के पत्ते’ संग्रह में 1945 से 1953 के मध्य लिखी गई जो कविताएँ हैं, वे तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों की उपज हैं; साथ ही दिनकर की जनहित के प्रति प्रतिबद्ध मानसिकता की साक्ष्य भी।
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