(1)
चीलों का झुंड उचक्का है, लोभी, बेरहम, लुटेरा भी;
रोटियाँ देख कमज़ोरों पर क्यों नहीं झपट्टे मारेगा ?
डैने इनके झाड़ते रहो दम-ब-दम कड़ी फटकारों से,
बस, इसीलिए तो कहता हूं, आवाजें अपनी तेज करो।
औ' हो जाएँ तो ढीठ, न मानें अदब-रोब फटकारों का;
तो कहीं रोटियों के पीछे नेजों की नोकें खड़ी करो ।
(2)
सांपों को तो देखिए, मौत का रस दाँतों में भरे हुए,
चन्दन से लिपट पड़े रहते, खेलते फूल की छाँहों में ।
जन्नत से कढ़वा दिया शुरू में ही बेचारे आदम को,
औ' तब से ही ये पड़े स्वर्ग में दूध-बताशे खाते हैं ।
सांपों से पाएँ त्राण, अक्ल में आती कोई बात नहीं,
जनमेजय कितना करे ? देवता ही सांपों के बस में हैं ।
शंकर को तो देखिए, गले में हैं नागों के हार लिए ।
औ' विष्णुदेव भी सांपों की गुलगुली सेज पर सोते हैं ।
(3)
जो घटा घुमड़ती फिरती है, वह बिना बुलाए ही आई?
आकाश ! नहीं क्या चीख-चीख तूने इसका आह्वान किया ?
क्वांरी थी, कांप उठा था मन कुंती का रवि के आने पर,
थरथरी तुझे क्यों लगी? अरे, तू तो उस्ताद पुराना है ।
है वृथा यत्न दम साध पेट में यह तूफान पचाने का;
मानेंगे बरसे बिना नहीं ये न्योते पर आनेवाले ।
(4)
पीयूष गाड़ का शीशे में दूकान सजाना काम नहीं,
तारों को भट्ठी-बीच डाल सिक्के न ढालना आता है ।
यों तो किस्मत ने फेंक दिया मुझको भी उन्हीं जनों में जो,
बेचते नहीं शरमाते हैं ईश्वर को भी बाजारों में।
पर, एकरूप होकर भी हम दोनों आपस में एक नहीं,
अय चांद ! देख मत मुझे आदमी समझ शुभा की आँखों से ।
(5)
ओ बदनसीब ! क्या साथ उठाए है? आगे को पाँव बढ़ा;
छाया देने के लिए घटा कोई न स्वर्ग से आएगी ।
संयोग, कभी मिल जाय, सभी दिन तो 'ओयसिस' नहीं मिलती,
पर, प्यास पसीने से भी तो बुझती है रेगिस्तानों में ।
आगे बढ़, खड़ा-खड़ा किसकी आशा में समय बिताता है?
जिनकी थी आस बहुत तुझको, वे वले गए तहखानों में ।
(1949 ई.)