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पंचतिक्त

18 फरवरी 2022

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 (1) 

चीलों का झुंड उचक्का है, लोभी, बेरहम, लुटेरा भी; 

रोटियाँ देख कमज़ोरों पर क्यों नहीं झपट्टे मारेगा ? 

डैने इनके झाड़ते रहो दम-ब-दम कड़ी फटकारों से, 

बस, इसीलिए तो कहता हूं, आवाजें अपनी तेज करो। 

औ' हो जाएँ तो ढीठ, न मानें अदब-रोब फटकारों का; 

तो कहीं रोटियों के पीछे नेजों की नोकें खड़ी करो । 

  

(2) 

सांपों को तो देखिए, मौत का रस दाँतों में भरे हुए, 

चन्दन से लिपट पड़े रहते, खेलते फूल की छाँहों में । 

जन्नत से कढ़वा दिया शुरू में ही बेचारे आदम को, 

औ' तब से ही ये पड़े स्वर्ग में दूध-बताशे खाते हैं । 

सांपों से पाएँ त्राण, अक्ल में आती कोई बात नहीं, 

जनमेजय कितना करे ? देवता ही सांपों के बस में हैं । 

शंकर को तो देखिए, गले में हैं नागों के हार लिए । 

औ' विष्णुदेव भी सांपों की गुलगुली सेज पर सोते हैं । 

  

(3) 

जो घटा घुमड़ती फिरती है, वह बिना बुलाए ही आई? 

आकाश ! नहीं क्या चीख-चीख तूने इसका आह्वान किया ? 

क्वांरी थी, कांप उठा था मन कुंती का रवि के आने पर, 

थरथरी तुझे क्यों लगी? अरे, तू तो उस्ताद पुराना है । 

है वृथा यत्न दम साध पेट में यह तूफान पचाने का; 

मानेंगे बरसे बिना नहीं ये न्योते पर आनेवाले । 

  

(4) 

पीयूष गाड़ का शीशे में दूकान सजाना काम नहीं, 

तारों को भट्ठी-बीच डाल सिक्के न ढालना आता है । 

यों तो किस्मत ने फेंक दिया मुझको भी उन्हीं जनों में जो, 

बेचते नहीं शरमाते हैं ईश्वर को भी बाजारों में। 

पर, एकरूप होकर भी हम दोनों आपस में एक नहीं, 

अय चांद ! देख मत मुझे आदमी समझ शुभा की आँखों से । 

  

(5) 

ओ बदनसीब ! क्या साथ उठाए है? आगे को पाँव बढ़ा; 

छाया देने के लिए घटा कोई न स्वर्ग से आएगी । 

संयोग, कभी मिल जाय, सभी दिन तो 'ओयसिस' नहीं मिलती, 

पर, प्यास पसीने से भी तो बुझती है रेगिस्तानों में । 

आगे बढ़, खड़ा-खड़ा किसकी आशा में समय बिताता है? 

जिनकी थी आस बहुत तुझको, वे वले गए तहखानों में । 

(1949 ई.)  

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रचनाएँ
नीम के पत्ते
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‘पहली वर्षगाँठ’ कविता की ये पंक्तियाँ तत्कालीन सत्ता के प्रति जिस क्षोभ को व्यक्त करती हैं, उससे साफ पता चलता है कि एक कवि अपने जन, समाज से कितना जुड़ा हुआ है और वह अपनी रचनात्मक कसौटी पर किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं। यह आजादी जो गुलामों की नस्ल बढ़ाने के लिए मिली है, इससे सावधान रहने की जरूरत है। देखें तो ‘नीम के पत्ते’ संग्रह में 1945 से 1953 के मध्य लिखी गई जो कविताएँ हैं, वे तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों की उपज हैं; साथ ही दिनकर की जनहित के प्रति प्रतिबद्ध मानसिकता की साक्ष्य भी।
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नेता

18 फरवरी 2022
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रोटी और स्वाधीनता

18 फरवरी 2022
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 (अय ताइरे-लाहूती ! उस रिज़्क से मौत अच्छी,  जिस रिज़्क से आती हो परवाज़ में कोताही।-इक़बाल)     (1)  आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?  मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?  आ

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सपनों का धुआँ

18 फरवरी 2022
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 "है कौन ?", "मुसाफिर वही, कि जो कल आया था,  या कल जो था मैं, आज उसी की छाया हँ,  जाते-जाते कल छट गये कुछ स्वप्न यहीं,  खोजते रात में आज उन्हीं को आया हँ ।     "जीते हैं मेरे स्वप्न ? आपने देखा थ

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राहु

18 फरवरी 2022
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चेतनाहीन ये फूल तड़पना क्या जानें ?  जब भी आ जाती हवा की पग बढाते हैं ।  झूलते रात भर मंद पवन के झूलों पर,  फूटी न किरण की धार कि चट खिल जाते हैं ।     लेकिन, मनुष्य का हाल ? हाय, वह फूल नहीं,  द

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निराशावादी

18 फरवरी 2022
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पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा,  धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास;  उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,  बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।     क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?  तब तुम

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व्यष्टि

18 फरवरी 2022
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तुम जो कहते हो, हम भी हैं चाहते वही,  हम दोनों की किस्मत है एक दहाने में,  है फर्क मगर, काशी में जब वर्षा होती,  हम नहीं तानते हैं छाते बरसाने में ।     तुम कहते हो, आदमी नहीं यों मानेगा,  खूंटे

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पंचतिक्त

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अरुणोदय

18 फरवरी 2022
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 (15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतंत्रता के स्वागत में रचित)     नई ज्योति से भींग रहा उदयाचल का आकाश,  जय हो, आँखों के आगे यह सिमट रहा खग्रास ।     है फूट रही लालिमा, तिमिर की टूट रही घन कारा है,  जय

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स्वाधीन भारती की सेना

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जाग रहे हम वीर जवान,  जियो जियो अय हिन्दुस्तान !     (1)  हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,  हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल ।  हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की

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जनता

18 फरवरी 2022
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 मत खेलो यों बेखबरी में, जनता फूल नहीं है।  और नहीं हिन्दू-कुल की अबला सतवन्ती नारी,  जो न भूलती कभी एक दिन कर गहनेवालों को,  मरने पर भी सदा उसी का नाम जपा करती है।     जनसमुद्र यह नहीं, सिन्धु ह

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जनता और जवाहर

18 फरवरी 2022
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फीकी उसांस फूलों की है,  मद्धिम है जोति सितारों की;  कूछ बुझी-बुझी-सी लगती है  झंकार हृदय के तारों की ।     चाहे जितना भी चांद चढ़े,  सागर न किन्तु, लहराता है;  कुछ हुआ हिमालय को, गरदन  ऊपर को

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हे राम

18 फरवरी 2022
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लो अपना यह न्यास देवता !  बाँह गहो गुणधाम !  भक्त और क्या करे सिवा,  लेने के पावन नाम ?     स्वागत नियति-नियत क्षण मेरे,  बजा विजय की भेरी;  मुक्तिदूत ! जानें कब से थी  मुझे प्रतीक्षा तेरी । 

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मैंने कहा, लोग यहाँ तब भी हैं मरते?

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 (सन् 1945 ई. में, उत्तर-बिहार में, हैजा और मलेरिया, दोनों बड़े जोर से उठे थे । यह वह समय था जब अधिकांश नेता और सामाजिक कार्यकर्त्ता जेलों में बन्द थे । बिहार ने पुकार की कि जनता की सेवा के लिए राजेंद

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पहली वर्षगाँठ

18 फरवरी 2022
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ऊपर-ऊपर सब स्वांग, कहीं कुछ नहीं सार,  केवल भाषण की लड़ी, तिरंगे का तोरण ।  कुछ से कुछ होने को तो आजादी न मिली,  वह मिली गुलामी की ही नकल बढ़ाने को।     आजादी खादी के कुरते की एक बटन,  आजादी टोपी

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