हमारे
बचपन में आज की तरह प्ले-स्कूल नहीं होता था। बस एक ही प्ले-स्कूल था
जो किताबी ज्ञान पर आधारित न हो, व्यवहारिक
ज्ञान व् प्रकृति करीब से जुड़ा था ।
प्ले
स्कूल के लिए पांच-छह बरस तक हम अपने फार्म हाउस ( खेत खलियान
) में घूमना, गन्ने के खेतों में लुका-छुपी (आइस-पाइस)
खेलना, केचुओं , मेढकों, झींगुर आदि से खेलना, मटर
के सफ़ेद-नीले-जामुनी-लाल-गुलाबी फूलों के साथ अटखेलिया करना, कच्चे मटर
के पापड़ों (फलियों) को जी भर कर खेत में ही खाना, अपने बचपन
के प्ले स्कूल का हिस्सा था।
प्ले-स्कूल में फरवरी-मार्च
में पशुओं के लिए हरे चारे के लिए बोई जाने वाली मुलायम हरी बरसीम के खेतों
में तितलियों पकड़ने के लिए पागलों की तरह उनके पीछे
दौड़ना , तितली का कच्चा लाल-पीला-गुलाबी रंग हाथ पर लग
जाने पर शर्ट से पौंछना, आये दिन के करतबों में शामिल।
मुलायम
, मखमली से दूर-दूर तक फ़ैली हरी-हरी बरसीम ( वह घास है जो
सर्दी में पशुओं को हरे चारे के रूप में खिलाई जाती है) में गधे की
तरह लौट-पोट होते हुए, मकरासन करते ( यह आसन कमर, पीठ दर्द आदि
में सहायक है ) जो खुशी मिलती थी, उसकी बात ही कुछ और
थी।
खड़ी बरसीम के
ऊपर खेत में लौटने से बरसीम की फसल जमीन पर बिछ जाती थी, जिससे उसकी
कटाई में काफी कठिनाई होती थी। अतः डांट के डर
से गेहूं या गन्ने के खेत में छुप, दम-साध कर बैठ जाना, हमारे प्ले-स्कूल
में आज की तरह सेल्फ मेडिटेशन की तरह का एक ऐसा हिस्सा था ,
जिससे एक पंथ कई काज हो जाते थे अर्थात डांट भी न पड़ती व्
पिताश्री बात भूल ,हमारे साथ लुका-छुपी में शामिल हो जाते थे, जिससे हींग लगे
न फिटकरी रंग चौखा आता तथा मन व् तन को शांति रुंगा (प्रसाद/फ्री
) में मिल जाती थी।
उन दिनों
वर्षा लगातार हप्ते भर या पंद्रह पंद्रह दिन (पखवाड़े )तक चलती
रहती थी। वृक्षारोपण के लिए जुलाई-अगस्त में खेतों के किनारे
बाड़ व् ईंधन के लकड़ी की जलावन के लिए शीशम के पेड़ लगाये
जाते थे । शरारत में हम शीशम की डंडी ही जमीन में गाड़ देते
थे । लगातार बारिश से बिना जड़ वाली रोपी डंडी
भी हरी हो , जीवन का सन्देश देने लग जाती थी। जो हमारे बालपन में
खुशी व् उलझन भर देती थी।
बरसात
के दिनों में शाम को अन्धेरा होते ही जुगनू ( रुड़की गावं क्षेत्र
में इन्हे पटबीजणा कहते थे ) खेतों में , फसलों पर , घर
के आँगन में चमकने लगते थे। दौड़कर पकड़ना व् उनमें पैदा होने वाली
रोशनी पर गहरी छान- बीन/ रिसर्च करना , यह भी हमारे
बचपन प्ले-स्कूल में शामिल था।
सितम्बर के
अंत या अक्टूबर के शुरू में जब बारिश खत्म हो जाती थी तो गांव के
तालाब ( जिसे हम बड़ी डाबर कहते थे), में अचानक ही कमल ( स्थानीय भाषा में
बबूल ) के फूल खिलने शुरू हो जाते थे। हम गहरे पानी से इन
फूलों को इनकी खोखरी डंठल सहित पानी से बाहर लाने के लिए केले के
पेड़ काटकर उसकी नाव बनाकर , उस पर तैरते हुए फूलों को गहरे पानी से
निकाल अपने बचपन के प्ले--स्कूल की सफलता पर इतराते थे।
यहाँ यह
भी ध्यान देने वाली बात है कि इसी तरह का नाव का प्रयोग केरल में आयी
बाढ़ में भी कही किया गया है। ऐसा न्यूज पेपर के माध्यम से पढ़ने को मिला
है।
बचपन के
प्ले-स्कूल में बछड़े के साथ मिलकर गाय का दूध पीना भी बचपन के प्ले का
एक हिस्सा था। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है दूध की आवश्यकता के
कारन खेल-खेल मैंने गाय माता की दूध निकलना सीखा। दूध निकालने के
बाद गाय बछड़े के लिए थनों में दूध
(डोके) उतारती है , मैं भी थनों से
निकलते गर्म दूध का हिस्सेदार, बछड़े व् पालतू बिल्ली के
साथ बन जाता था। बिल्ली मौसी दूध के चक्कर में गाय के आस-पास
ही मंडराती रहती थी , उसके मुहं में दूर से दूध
की धार मार, बिल्ली की भूख को शांत करना भी बचपन प्ले-स्कूल
की एक ट्रेनिंग का एक हिस्सा था। खेल-खेल में आम, अमरूद, जामुन के पेड़ पर
उतरना-चढ़ना, लटकना ,पेड़ पर लगे पक्षियों के घोंसलों में अण्डों व् उनके
बच्चों की छान-बीन करना , ऊंची से ऊंची टहनी (डाल) घंटों बैठ ध्यान
लगाकर बैठना, अपनी बचपन की पाठशाला का अटूट हिस्सा थी।
ध्यान में
दीन-दुनिया से बेखबर कभी-कभी तो टूटती डाल पैरासूट की तरह ऊपर से जमीन पर
फैले सूखे पत्तों पर धम से हमें लेकर आ गिरती। ऐसे में हल्की
सी मुस्कान से ध्यान भंग हो जाता। डर के कारण पेड़ से गिरने की घटना
का जिक्र न हो जाये, यही सोचकर हम घर में भीगी बिल बन दबे -पाव
दाखिल हो जाते।
भैस, गाय,
बैल, भैसा (झोटा) आदि संग , गर्मी में अपने इस्लामिया प्राइमरी स्कूल के
पीछे गावं के जोहड़ (तालब ) में भैस की पीठ पर बैठ कर तैराकी का
प्रशिक्षण लेते थे। सचमुच ही बचपन का प्ले- स्कूल को जीवन
को आनंदमय बना देता था।
उन दिनों गांव
में कच्ची मिट्टी की छत-दीवार की मरम्मत जोहड़ के गारे (चिकनी मिट्टी
) से बरसात आने से पहले की जाती थी। जिसे अप्रैल-मई-जून माह में तालाब
में कम पानी हो जाने पर निकाला जाता था।
प्ले
करते हुए गारे की बाल्टी ( चिकनी मिट्टी ) तालाब से
भर कर लाते थे , पर न जाने क्यों गहरे
पानी में गारे से भरी बाल्टी का वजन न के बराबर लगता
था। ऐसा क्यों होता था ?कारण जानने के लिए हम जिज्ञाशा वश बार
बार दोहरा कर रिसर्च करते थे ।
अंत
में लब्बोलुवाब ( निष्कर्ष ) यह कि बचपन में हमे
भले किताबी ज्ञान से दूर रहें हो परन्तु प्रकृति का प्यार
उसके नजदीक रहकर व्यवहारिक ज्ञान के साथ मिला। जो यही सन्देश देता
था - "जीवो और जीनों दो " में ही जीवन का असीम
सुख है।
बचपन की यादें
कभी फिर एक अन्य ब्लॉग में !
ब्लॉग के अंत
में सभी को जन्मास्टमी की दिल से शुभकामनाएं !
जय श्री कृष्ण
! जय श्री श्याम !