1947 में देश का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ। बंटवारे के समय राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दूओं को बहुसंख्यक व् मुस्लिम को अल्पसंख्यक कहा जाने लगा। जैसा कि विदित ही है- “सामाजिक नियम फिजिक्स, मैथ्स की तरह स्थायी नहीं होते। इसके मूल्यों, नियमों व् जनसंख्या समीकरणों में समय, स्थान के अनुसार निरंतर परिवर्तन होता रहता है। आजादी के 70 वर्ष बाद भारत में भी जनसख्या समीकरणों में निरंतर बदलाव हो रहा है। परन्तु फिर भी देश में बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का पैमाना वही वर्ष 1947 वाला ही चला आ रहा है । समयानुकूल इसके मापदंड में परिवर्तन अति आवश्यक है। अब सवाल यह है कि आखिर अल्पसंख्यक हैं कौन ? मन में ढेरों प्रश्न है। इस समय देश में अल्पसंख्यक घोषित करने के क्या मापदण्ड हैं ? क्या परिभाषा है? सीमापार से आये घुसपैठिये, जो अपने देश में बहुसंख्यक है , भारत में चोरी छुपे सीमा पर करते ही कैसे अल्पसंख्यक बन जाते है ? सीमा पार से अवैध रूप से प्रवेश करने वाले बांग्लादेशी, पाकिस्तानी , रोहिंग्या लोगों का हिन्दुस्तान में प्रवेश आकर्षण कहीं यहां मिलने वाले अल्पसंख्यक दर्जे व् विशेष सुविधाएँ तो नहीं है । जिसकी भरपाई यहाँ के नागरिक ऊचीं कर दर चुका कर करतें है । भारत में अल्पसंख्यकों को समान अधिकार के साथ साथ ,विशेषाधिकार भी प्राप्त है जिसमें अन्य सुविधाओं के अतिरिक्त , सरकारी नौकरियों में 5% आरक्षण भी शामिल है। व्यावहारिक अर्थों में देखें तो भारत में अल्पसंख्यक शब्द आज एक धर्म विशेष का पर्यायवाची (Alternate Word ) शब्द बन कर रह गया है ? मजेदार बात यह है कि सरकार , मीडिया में सही माइनों में अन्य अल्पसंख्यक को कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं दिया जाता !
क्या किसी जैन , सिख , बौद्ध , पारसी अल्पसंख्यक को देश अहिष्णू नजर आता है ? फिर मीडिया में इस वर्ग का पक्ष क्यों नहीं रखा जाता ? मीडिया भी पक्षपाती नजर आता है ? मीडिया में , सरकार में सभी अल्पसंख्यकों का केवल एक वर्ग विशेष ही प्रतिनिधित्व करता नजर आ रहा है। हजारों वर्ष पुरानी भारतीय संस्कृति में शायद ही अल्पसंख्यक शब्द का कहीं प्रयोग हुआ हो।
1977 की जनता क्रांति से केंद्र में एक पार्टी का एकाधिकार खत्म होने से वोट बैंक को लेकर अल्पसंख्यक वर्ग पर जोरदार बयानबाजी व् बहस होनी होने लगी है । कोई देश के संसाधनों पर उनका पहला हक़ बताता है तो कोई उन पर सत्ता के लिए जान देने को तैयार है। यह बात अलग है कि हाथी के दाँत खाने के कुछ और है व् दिखाने के कुछ और !
नेतागण चुनाव जीतने के लिए - M-Y (मुस्लिम-यादव), D-M( दलित- मुस्लिम ), D-M-Y( दलित-मुस्लिम-यादव)जैसे चुनावी समीकरण बनाने लगे है । कुछ नेता सत्ता सुख की खातिर अल्पसंख्यक शब्द को एक ढाल की तरह इस्तेमाल करते है।
अल्प + संख्यक दो शब्दों से मिलकर "अल्पंख्यक" बना है। अल्प का अर्थ कम व् संख्यक से आशय संख्या से है। अर्थात जिसकी संख्या कम हो वो अल्पसंख्यक है । परन्तु विभिन्न धर्मों में जनसख्या अनुपात कितना हो, इसका कोई मापदंड ,कोई परिभाषा नहीं है। जनसंख्या अनुपात, कुल जनसंख्या का 8%, 25% 47 % या 60%, 70% या 100 %,कितना हो ? यहां तो 68% भी भी अपने को अल्पसंख्यक घोषित कर , दी जाने वाली सभी सुविधा भोग रहा है । यह तो यही बात हुई अंधा बांटें रेवड़ी फिरी-फिरी अपनों को दे । काश्मीर इसका ताजा उदाहरण है। जहां 68% अल्पसंख्यक अपने बच्चों को अल्पसंख्यक छात्र वृत्ति दे रहें है। अल्पसंख्यक छात्रों को मिलने वाली छात्रवृत्ति को लेकर इसी तरह का एक वाद माननीय सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है । कश्मीर में कथित बहुसंख्यकों को छात्रवृत्ति से वंचित किया जा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय नियमों, परम्पराओं, मान्यताओं के अनुसार किसी धार्मिक समूह को अल्पसंख्यक घोषित करते समय निम्न मापदंड होते है - " अल्पसंख्यक धर्म के अनुयाइयों की जनसख्या कुल जनसख्या अनुपात का 8 % से कम होना चाहिए अर्थात 8% या उससे अधिक की जनसख्या अनुपात वाले धार्मिक समूह को अल्पसंख्यक श्रेणी में नहीं रखा सकता।" देश में इस समय 6 धर्मों के अनुयाइयों को अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है :- 1- मुस्लिम
2- ईसाई
3- बौध्ध,
4- -सिख,
5- जैन
6- पारसी
यद्यपि भारत में यहूदी धर्म के अनुयाइयों का अनुपात भारत की कुल जनसख्या से काफी कम है, को अल्पसंख्यक नहीं माना जाता। शायद उनका चुनावी वोट कम है ,इसी लिए उनको उपरोक्त समूह में नहीं रखा गया।
आज जिस प्रकार से रोजगार, शिक्षा व् विशेषकर कुछ राज्यों में सुरक्षा कारणों से लोगों का लगातार पलायन हो रहा है, इससे देश के कई राज्यों , जिलों , कस्बों आदि में बहुसंख्यक जनसख्या अनुपात में इतना बड़ा बदलाव आ गया है कि जहाँ बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक श्रेणी में रखा जा सकता है। ऐसे स्थानों में बहुसंख्यक की सुरक्षा, रोजगार , धार्मिक आजादी पर उचित ध्यान देने की जरूरत है। जिससे वहां वह धार्मिक पर्व स्वछंद रूप से मना सके । पश्चिम बंगाल में मां दुर्गा के विसर्जन में राज्य सरकार दवरा लगाई गई पाबंदी जिसे कलकत्ता है हाई कोर्ट ने निरस्त कर दिया , इसका जीता जागता उदाहरण है।
इस समय बहुसंख्यक वर्ग को समझ में नहीं आ रहा कि वह अपने को अल्पसंख्यक माने या बहुसंख्यक। UP, बिहार, केरल, असम, J&K राज्य के कुछ जिलों में धार्मिक जनसख्या समीकरण पूरी तरह से बदल गया है। वहां राष्ट्रीय स्तर पर बहुसंख्यक आज स्थानीय व् क्षेत्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक है । ऐसे में ऐसे सभी नागरिकों के हितों की रक्षा करनी जरूरी है ।
शामली-कैराना (UP) से सुरक्षा के कारण पलायन , कश्मीर से कश्मीरी पंडितों का पलायन इसके ज्वलंत उदाहरण है। देश में घोषित अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक अनुपात देख आप ज़रा सोचिये क्षेत्रीय , स्थानीय स्तर पर कौन बहुसंख्यक है ?
स्पष्ट है आज 70 वर्ष बाद जनसख्या अनुपात में क्षेत्रीय , स्थानीय स्तर पर सुरक्षा व् अन्य कारणों से पलायन के कारण जनसंख्या समीकरणों में बदलाव आया है । अतः अल्पसंख्यक व् बहुसंख्यक घोषित करने का वर्तमान मापदंड एकदम पक्षपात पूर्ण व् गलत है। यह निरंतर चलने वाली प्रकिर्या है जिसे प्रत्येक दस वर्ष बाद होने वाली जनगणना के साथ ही क्षेत्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक- बहुसंख्यक घोषित किया जाए। ताकि जनसख्या अनुपात के अनुसार उचित अल्पसंख्यक- बहुसंख्यक का निर्धारण किया जा सके ।
सभी को रोजगार , सुरक्षा , धार्मिक आजादी दी जा सके। । सभी भारतीयों का यदि विकास करना है तो सरकारों , कार्यपालिका को अल्पसंख्यक व् बहुसंख्यक नाम के " फूट डालों व् राज करो की नीति को त्यागना होगा। यदि चुनावी मजबूरी के कारण ऐसा करना जरूरी लगे तो फिर अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आंकड़े राष्ट्रीय जनसख्या स्तर के बजाय राज्य, जिला, तहसील आदि के आधार पर एकत्रित किये जाने चाहिए और उसी जनसंख्या अनुपात के आधार पर अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की श्रेणी बननी चाहिए। ताकि भारत के सभी नागरिकों का समान विकास हो। सभी नागरिकों की शिक्षा, चिकित्सा , रोजगार व् सुरक्षा की गारंटी हो। सुरक्षा के अभाव में किसी भी राज्य से , जिले या तहसील से पलायन न हो ।
आइये मिलकर विचार करें कि हमें हिंदुस्तान को हिन्दुस्तानियों का देश बनानां है या अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का।
देश है- तो हम है ! देश बढ़ेगा ! तो हम बढेंगे !
जय हिन्द , जय भारत !