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भाग 11

9 अगस्त 2022

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देवदत्त नहा-धोकर, हाथ मलता हुआ अपने घर के सामने आ खड़ा हुआ। जब कभी वह हाथ मलता हो, या दाएँ हाथ से मुँह और नाक सहलाता हुआ फिर से दोनों हाथ मलने लगे तो समझ लो देवदत्त अपनी कार्य-सूची तैयार कर रहा है। देवदत्त के दिमाग में डायरी थी। वह हाथ मलता, नाक सहलाता डायरी में एक के बाद एक काम टाँक रहा था। 'रत्तेवाले साथी से रिपोर्ट नहीं आ पाएगी, रत्ते में गड़बड़ है। किसी साथी को वहाँ भेजना होगा।'  'शहर में दंगों को रोकने के लिए एक बार फिर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के लीडरों को इकट्ठा करना होगा। हयातबख्श और बख्शी को आपस में मिलाना होगा। कल भी देवदत्त जैसे-तैसे बहुत-से लोगों के घर बारी-बारी से गया था। राजाराम ने उसे देखते ही दरवाज़ा बन्द कर दिया था, रामनाथ तुनककर बोला था, कम्युनिस्टों को बुरा-भला कहता रहा था पर हयातबख्श मिलने के लिए तैयार हो गया था; हयातबख्श की आँखें लाल हो रही थीं, वह नारे लगाने लगा था; 'लेके रहेंगे पाकिस्तान!' 'बनके रहेगा पाकिस्तान!' उसने देवदत्त को बात करने का मौका ही नहीं दिया था। आज उनके पास फिर जाना होगा।' देवदत्त ने फिर हाथ मले, नाक सहलाई। बख्शीजी को हयातबख्श के पास भेजो, अटल को साथ लेकर बख्शीजी के पास जाओ और अमीन को लेकर हयातबख्श के पास। फिर तजवीज़ रद्द कर दी। लीडरों को छोड़ो, दस-दस आदमी कांग्रेस, मुस्लिम लीग और सिंह सभा के मिल बैठे। उसने सिर हिलाया। पार्टी आफिस में जाकर साथियों के साथ इसे अमली जामा पहनाना होगा। एक और मसला सामने उतरा : मज़दूरों के इलाकों में गड़बड़ को रोकने के लिए एक-एक साथी काफ़ी नहीं है। रत्ता मुसलमानी इलाका है। वहाँ साथी जगदीश को भेजा गया है, अकेला जगदीश काफ़ी नहीं है; गाँवों में फौरन दो-तीन साथी भेजे जाने चाहिए जो एक गाँव से दूसरे गाँव का दौरा करें। साथियों की कमी है, मगर जहाँ तक बन पड़े दंगों को रोकने का काम करना होगा। उसने फिर नाक पर हाथ फेरा, फिर कलाई पर बँधी घड़ी देखी। कम्यून में दस बजे मीटिंग है, जिसमें साथी अपने-अपने इलाके की रिपोर्ट देंगे। अब चलूँ। देवदत्त चुपचाप अन्दर जाकर चुपके से बरामदे में से साइकल निकालने लगा।

"कौन है? देवदत्त?"

देवदत्त ने साइकल को छोड़ दिया और कमरे के अन्दर चला गया।

"फिर कहीं जा रहे हो?" खाट पर बैठा अधेड़ उम्र का स्थूलकाय बाप बोला, “मरना चाहते हो तो पहले अपने घरवालों को मारकर जाओ। देखते नहीं बाहर की क्या हालत हो रही है?"

देवदत्त दहलीज़ पर चुपचाप खड़ा हाथ मलता और नाक सहलाता रहा। माँ रसोईघर में से दुपट्टे के साथ हाथ पोंछती अन्दर आई, "तुझे क्या मिलता है हम लोगों को तड़पाने में? देखते नहीं कैसे हमने रात काटी है, उधर से आग, उधर तुम रात-भर गायब रहे।"

देवदत्त हाथ रगड़कर बोला, “पीछे से मरी रोड तक और आगे से कम्पनी बाग तक सारा इलाका हिन्दुओं का है। चारों तरफ़ खाते-पीते हिन्दू लोग रहते हैं। आप लोगों को कोई खतरा नहीं।"

"तुझे इलहाम हो गया है कि हमें कोई खतरा नहीं?" बाप गुर्राकर बोला।

“इस लाइन में दस घरों के पास बन्दूकें हैं, इसी मुहल्ले के युवकसभावाले तीन क़त्ल कर चुके हैं..."

"ओ उल्लू के पठे, अपने ख़तरे के बारे में कौन सोच रहा है? हम तो तेरे ख़तरे के बारे में सोच रहे हैं।"

“ऐसी खतरे की कोई बात नहीं।" और देवदत्त फिर लौटकर बरामदे में आ गया और साइकल निकालने लगा।

माँ ने दुपट्टा गले में डाल लिया और उसका रास्ता रोकने लगी।

“सारी रात मैंने तड़प-तड़कर बिताई है। देखता नहीं कौन-पा वक्त ऊपर आया है?" मसला टेढ़ा हो रहा था, देवदत्त ने फिर नाक सहलाई, हाथ मले और माँ के पास मुँह ले जाकर बोला, "मैं जल्दी लौट आऊँगा, तू चिन्ता न कर।"

"मुझे चरकाता है, कल भी कहके गया था, लौट आऊँगा। मेरे जिस्म को हाथ लगाके कह, दिन ढलने से पहले लौट आएगा?"

“लौट आऊँगा, लौट आऊँगा, कसमें मैं नहीं खाता।" और वह साइकल लेकर आगे बढ़ने लगा। अन्दर से पिताजी की आवाज़ आई :

"यह हरामी नहीं मानेगा, क्यों सिर खपा रही है? यह हमें ज़लील करके रहेगा। सुअर का बच्चा, माँ-बाप का ख्याल नहीं, फसाद बन्द करने जा रहा है, हरामी कहीं का...।"

देवदत्त साइकल लेकर घर के बाहर आ चुका था।

अन्दर से आवाज़ बराबर ऊँची होती जा रही थी।

"सभी गालियाँ देते हैं, न काम, न धाम। दो-दो पैसे के पाँड़ियों, मज़दूरों, कुलियों को इकट्ठा करता फिरता है, उन्हें लेक्चर झाड़ता फिरता है, हरामी, मुँह पर दाढ़ी नहीं उतरी, लीडर बन गया है, सुअर का बच्चा...।"

देवदत्त चौक तक पहुँच चुका था।

स्थिति में पहले से कहीं अधिक उग्रता आ गई थी। सड़कों की सड़कें सूनी पड़ी थीं, न कोई दूकान खुली थी, न कहीं कोई टाँगा-मोटर चल रही थी। अगर किसी दूकान के किवाड़ खुले हों तो समझ लो लूट ली गई है। अगर लाठियाँ लिये कुछ लोग खड़े हों तो समझ लो उन्हीं के सम्प्रदाय के लोगों का वह मुहल्ला है और जहाँ वे खड़े हैं, वहाँ से दूसरे सम्प्रदाय के लोगों का मुहल्ला शुरू हो जाता है। पर सभी मुहल्ले यों बँटे हुए नहीं थे। सड़क के किनारे-किनारे के पक्के दो-मंजिला मकान हिन्दुओं के, पीछे गलियों में कच्चे मकान मुसलमानों के, या देवदत्त की शब्दावली में, सड़कों पर खुलनेवाले मकान मध्यमवर्ग के, गलियों में खुलनेवाले मकान निम्नवर्ग के।

"देवदत्त!" चौक के बाएँ हाथ से किसी ने आवाज़ लगाई। साइकल पर बैठे-बैठे ज़मीन पर पैर रखकर देवदत्त रुक गया।

“आगे मत जाओ, एक आदमी मरा पड़ा है।"

हाथ में लाठी उठाए, गिठने क़द का एक आदमी सड़क पर आ गया।

“कहाँ पर?"

"चौक के पार, ढलान पर।"

"कौन है?"

"मुसलमान है, और कौन? तुम इस वक़्त कहाँ जा रहे हो?"

"मैं अपने काम से पार्टी ऑफ़िस जा रहा हूँ।"

"एक हिन्दू उस तरफ़ क़ब्रिस्तान में मरा पड़ा है।" कहते हुए ठिगने क़द के आदमी ने झुंझलाकर कहा, “तुम बड़ा मुसलमानों के हक में बोलते थे, अब उनसे जाकर कहो हमारी लाश ले जाएँ, अपनी उठा ले जाएँ।"

दाएँ हाथ ऊपर छज्जे पर से आवाज़ आई, “मत आओ, वे लोग मार डालेंगे।"

"यह मुसलमानों की बग़ल में घुसा रहता है, इसे कोई नहीं मारेगा।"

“है तो हिन्दू।" छज्जे पर से आवाज़ आई।

जो लोग पहले छिप-लुककर काम करते थे, अब बेधड़क बाहर आ गए थे।

“उनसे जाकर कह दो, हमारा एक मरेगा, हम उनके तीन मारेंगे।"

आदमी शायद मरा नहीं था, सिसक रहा था। ढलान पर उसका शरीर थोड़ा नीचे खिसक आया था। उसके दाढ़ी थी जो पहले खिचड़ी रही होगी, अब खून के रंग की थी। खाकी कोट पर जिस्त के बटन थे, सबसे सस्ते जो एक पैसे के आठ आते हैं। जूतों के फीते खुले थे मानो अगले जहान जाने से पहले खुद ही खोल दिए हों। कोई कश्मीरी जान पड़ता था। देवदत्त ने मुड़कर सड़क की ओर देखा, सड़क के नाके पर एक टोली खड़ी थी और उसे घूरे जा रही थी। दूसरी बार लाश को देखने पर उसने पहचान लिया, यह कश्मीरी हतो है जो फतहचन्द के टाल पर काम करता था, कोयला और लकड़ियाँ घर-घर पहुँचानेवला। फतहचन्द का टाल कुछ ही दूरी पर था।

देवदत्त ने नाक सहलाई और सिर हिला दिया। यह वक्त इस आदमी को बचाने की कोशिश करने का या लाश ठिकाने लगाने का नहीं था। न ही हिन्दू की लाश के दर्शन करने का था। यह वक्त पार्टी-ऑफिस में पहुँचने का था।

पार्टी-ऑफ़िस में झंडे ही झंडे थे, आदमी ले-देकर तीन बैठे थे। कम्यून में कुल आठ आदमी थे। इस समय पाँच ड्यूटी पर थे। एक बुरी खबर भी थी। एक मुसलमान कामरेड का विश्वास टूट चुका था और वह कम्यून छोड़कर जा रहा था। अपनी बात कहते-कहते उसके होंठ काँप-काँप जाते थे और गुस्से से आगबबूला हो रहा था :

"अंग्रेज़ की शरारत, अंग्रेज़ की शरारत, इसमें अंग्रेज़ कहाँ से आ गया! मस्ज़िद के सामने सुअर फेंकते हैं, मेरी आँखों के सामने तीन गरीब मुसलमानों को काटा है, हटाओ जी, सब बकवास है।"

देवदत्त बौखलाए हुए कामरेड को इतना ही कह पाया, "जल्दबाजी में कोई काम नहीं करो साथी, हम मध्यमवर्ग के लोग हैं, पुराने संस्कारों का हम पर गहरा प्रभाव है। मजदूर वर्ग के होते तो हिन्दू-मुसलमान का सवाल तुम्हें परेशान नहीं करता।" पर साथी ने बुचका उठाया और कम्यून छोड़कर निकल गया।

“साथी का सैद्धान्तिक आधार कच्चा है। जज़्बात की रौ में बहकर कोई कम्युनिस्ट नहीं बनता, इसके लिए समाज विकास को समझना ज़रूरी है।"

मीटिंग शुरू हुई। 'शहर की स्थिति' पहला आइटम था। इसमें भी मज़दूर बस्तियों पर विचार करना सबसे पहले ज़रूरी था।

“रत्ते में गड़बड़ की बात गलत है। किसी मज़दूर बस्ती में अभी तक कोई गड़बड़ नहीं हुई, हाँ तनाव पाया जाता है। साथी जगदीश मुसलमान मजदूरों की बस्ती में बैठा है, लोग अभी भी उसकी बात सुनते हैं, सिख मज़दूरों के वहाँ बीस घर हैं, एक भी वारदात वहाँ पर अभी तक नहीं हुई; लेकिन साथी जगदीश ने इत्तला दी है कि स्थिति बिगड़ रही है। दो मज़दूरों के बीच कल गाली-गलौज हो गई थी। बाहर से आनेवाली अफवाहें बहुत बुरा असर पैदा कर रही हैं।"

फैसला हुआ कि क़ुर्बानअली को भी रत्ते में भेज दिया जाए ताकि साथी जगदीश अकेला न रहे। और देवदत्त ने काग़ज़ पर फैसला आँक लिया।

'दारा' गाँवों में जा चुके हैं। कोई खबर नहीं। आमदरफ्त बन्द हो चुकी है। केवल एक मोटर, गहरे नीले रंग की मोटर गाँव-गाँव जाती देखी गई है। किसकी मोटर थी, क्यों गई, कुछ मालूम नहीं। कुछ लोगों का कहना है कि शाहनवाज़ की मोटर थी।

मीटिंग देर तक चलती रही। तीनों कामरेड देर तक देवदत्त के साथ बैठे विचार करते रहे, कॉपी पर एक-एक आइटम पेंसिल से टिक होता गया। फिर अन्तिम आइटम सामने आया :

"सभी पार्टियों के नुमाइन्दों की मीटिंग बुलाना!"

"यह मीटिंग नहीं हो सकेगी," एक साथी बोला, “कांग्रेस दफ्तर पर ताला चढ़ा है। लीगवालों से बात करो तो पाकिस्तान के नारे लगाने लगते हैं। वे हर बात में कहते हैं, पहले कांग्रेसवाले कबूल करें कि कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है, फिर हम उनके साथ बैठने के लिए तैयार हैं। और इस वक्त तो अपने-अपने मुहल्लों से कोई बाहर ही नहीं निकल रहा। मीटिंग किसके साथ करोगे?"

नाक फैलाते हुए देवदत्त ने फिर मत बदल लिया : दस-दस नुमाइन्दोंवाली बात नहीं चलेगी, चुनिन्दा-चुनिन्दा लीडरों को ही जैसे-तैसे इकट्ठा करो। उन्हीं के साथ कुछ लोग आ जाएँगे।

“कोई नहीं आएगा, कामरेड,” दूसरे साथी ने कहा, “अगर आएँगे भी तो तू-तू, मैं-मैं होगी, नतीज़ा कुछ नहीं निकलेगा।"

“कामरेड, उनके मिल बैठने से ही लोगों पर अच्छा असर होगा। फिर हम उनके नाम से शहर में अमन कायम करने की अपील कर सकते हैं। मुहल्ले-मुहल्ले में उसकी मुनादी करवा सकते हैं। इस वक्त क्या है? इस वक्त फसाद और खुली मार-काट नहीं हो रही, लेकिन जहाँ इक्का-दुक्का आदमी मिलता है उसे काट दिया जाता है। उन्हें आपस में मिलाना निहायत ज़रूरी है।..."

कुछेक और पहलुओं पर विचार किया गया। कहाँ पर मीटिंग बुलाई जाए? फैसला हुआ हयातबख्श के घर पर। "मैं बख्शीजी को लाऊँगा। मुसलमानों के मुहल्ले में पहुँचने पर साथी अज़ीज़ मुहल्ले के दो-तीन मुसलमान शहरियों को लेकर मिलेगा और हम सब हयातबख्श के घर जाकर बैठेंगे।"

“हयातबख्श के साथ बात कर ली है?"

"अभी जाकर बात करूँगा।"

"कामरेड, तुम किस दुनिया में रह रहे हो। हयातबख्श के घर पर तुम जाओगे? वहाँ तक तुम्हें पहुँचने कौन देगा?"

"तुम मेरे साथ चलोगे।" देवदत्त ने मुस्कराकर अज़ीज़ से कहा। "ये पानी के छींटे हैं कामरेड, इनसे यह आग नहीं बुझेगी।"

पर मीटिंग के बाद सचमुच देवदत्त और अज़ीज़ गलियाँ लाँघते, छिपते-लुकते कहीं गालियाँ खाते, कहीं धमकियाँ सुनते हयातबख्श के घर जा पहुंचे।

और सचमुच उस दोपहर को हयातबख्श के घर मीटिंग भी हुई। बख्शीजी को देवदत्त लाया, किसी और कांग्रेसी से देवदत्त कहता तो वह शायद नहीं आता, देवदत्त को विश्वास था कि बख्शी आएगा क्योंकि वह कुल मिलाकर सोलह साल जेल में रह चुका था। भले ही उसका जेहन साफ़ न हो, राजनीतिक गुत्थियाँ सुलझाने में वह असमर्थ हो लेकिन वह खूरेज़ी नहीं चाहता। वह तुनक-तुनककर पिछले दिनों में सबसे बोल रहा है, क्योंकि वह बौखलाया हुआ है, अन्दर से परेशान है, स्थिति उसके काबू में नहीं है। देवदत्त के साथ आते हुए सारे रास्ते कम्युनिस्टों को गालियाँ देता रहा, पर वह आया था और उसके साथ दो जवान कांग्रेसी और भी आए और मीटिंग हुई। और तू-तू मैं-मैं भी हुई, और आधा घंटे तक हयातबख्श इस बात पर अड़ा रहा कि बख्शी कबूल करे कि वह हिन्दुओं की नुमाइन्दगी करने आए हैं, कि कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है। फिर देवदत्त ने कहा, "साहिबान, यह मौका इन बहसों में पड़ने का नहीं है। बाहर लोग मर रहे हैं, घर जल रहे हैं, सुनते हैं आग गाँवों में भी फैलनेवाली है। इस वक़्त हमारा फर्ज़ है? मैं गुज़ारिश करूँगा कि हम वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए इस आग को फैलने से रोकें।" फिर देवदत्त ने अमन की अपील पढ़कर सुनाई। बहस फिर से छिड़ गई। यह कांग्रेस और लीग की तरफ़ से नहीं हो सकती। यह हयातबख्श और बख्शी की तरफ़ से हो सकती है। नहीं, इसमें और लोगों को भी शामिल किया जाए।...

फिर लोग थक गए, और हयातबख्श के कान में उसके बेटे ने कहा कि अपील पर दस्तख़त करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, अमन की अपील ही तो है। तो उसने दस्तख़त कर दिए। बख्शी ने भी दस्तख़त कर दिए। फिर पाकिस्तान ज़िन्दाबाद के नारे लगे और इन्हीं नारों के बीच बख्शीजी अभी जूता पहन रहे थे कि खबर आई कि रत्ते में, मज़दूरों की एक बस्ती में भी फसाद हो गया है, और दो सिख बढ़ई मार डाले गए हैं...।

पहले तो देवदत्त ने ख़बर को झूठ कहा, मानने से इनकार कर दिया। "वहाँ पर दंगा आपने देखा है? अपनी आँखों से? कौन ख़बर लाया है?" यह वाक्य तो वह अन्त तक दोहराता रहा, पर उसका सिर झुक गया, और उसे लगा कि अगर मज़दूर आपस में लड़ सकते हैं, तो यह विष बहुत गहरा असर कर चुका है। तो फिलहाल इस मीटिंग को पानी पर खिंची लकीर ही समझना चाहिए।

और तभी देवदत्त ने मन ही मन फैसला किया कि दफ़्तर से साइकल उठाओ और सीधे रत्ता पहुँचो, जैसे भी हो रत्ता पहँचो, अकेले साथी जगदीश के बस की यह बात नहीं रह गई है। मेरे पहुंचने से शायद स्थिति बेहतर हो जाए, मज़दूर आपस में न लड़ें।

पर जब देवदत्त जैसे-तैसे दफ्तर में पहुँचा तो उसका बाप वहाँ पहले से मौजूद था। हाथ में छड़ी उठाए हुए। और जब देवदत्त ने स्थिति का मार्सा विश्लेषण किया और बताया कि दंगा रोकने की कोशिश जारी है और फिर साइकल निकालने लगा, तो उसका बाप बिफर उठा, "उल्लू के पट्टे, हरामी, कोई मार डालेगा तो लाश उठानेवाला भी नहीं मिलेगा। तू देखता नहीं, वक़्त कैसा जा रहा है। हरामी, तू अकेला दंगा रोकने जा रहा है?..." और बाप ने गली में खुलनेवाला दरवाज़ा बन्द कर दिया। उसका मन चाहता था बेटे को धुन दे। उसने छड़ी उठाई भी, पर फिर दहाड़ मारकर रो पड़ा, "क्यों हमें रुला रहा है? हमारा तू एक ही बेटा है। कुछ समझ से काम ले। कुछ अकल कर। देख, तेरी माँ कितनी परेशान है। तू कहता है तो पगड़ी तेरे पैरों पर रख देता हूँ। चल घर।"

देवदत्त ने नाक सहलाई, हाथ मले, स्थिति टेढ़ी हो रही थी। किसी को बीच में डालना होगा। इन्हें घर तक पहुँचाना होगा।

“मुझे रत्ता जाना है," वह बोला, “मैं रुक नहीं सकता। पर मैं आपको घर पहुँचाने का इन्तज़ाम किए देता हूँ, साथी रामनाथ आपके साथ जाएगा।"

उसी दोपहर एक और मौत हुई। जरनैल मारा गया। सनकी तो वह पहले ही था, बग़ल में छड़ी दबाए, लेफ्ट-राइट करता हुआ दंगा रोकने निकल पड़ा। कोई नहीं जानता कि उसके मन में कोई विचार उठते थे या नहीं, पर दिल में वलवले ज़रूर उठते थे और क़दम ज़रूर उठते थे, और दिमाग में शायद सनक उठती थी। शहर में दंगा हो रहा है, यह क्या कोई अच्छी बात है और वे सभी कांग्रेसी गद्दार हैं जो घर पर बैठे हुए हैं।

वह निकला और जगह-जगह सड़क के किनारे कभी एक चबूतरे पर तो कभी दूसरे चबूतरे पर खड़ा होकर लेक्चर देने लगा।

“साहिबान, मैं आपको इत्तला देना चाहता हूँ कि श्री जवाहरलाल नेहरू जी ने रावी के किनारे पूर्ण स्वराज्य की शपथ ली थी, और वह वहाँ रावी के किनारे नाचे थे और मैं भी नाचा था और हम सबने शपथ ली थी। आज जो लोग घरों में बैठे हैं वे सब गद्दार हैं, मैं एक-एक को जानता हूँ। मैं पूछता हूँ ये लोग घरों में बैठे क्या कर रहे हैं? इन्हें बुर्का पहनकर बैठना चाहिए, इनको अपने हाथों पर मेहँदी लगानी चाहिए। साहिबान, गांधीजी ने कहा है कि हिन्दू-मुसलमान भाई-भाई हैं। इन्हें आपस में नहीं लड़ना चाहिए। मैं आपसे, बच्चे, बूढ़े, जवान, मर्द और औरतों सभी से अपील करता हूँ कि आपस में लड़ना बन्द कर दें। इससे मुल्क को नुकसान पहुँचता है। देश की दौलत इंगलिस्तान में जाती है, अंग्रेज़-यह गोरा बन्दर, हम पर हुक्म चलाता है..."

एक चबूतरे से दूसरे चबूतरे पर। गलियाँ-सड़कें लांघता वह कमेटी मुहल्ले में जा पहुंचा। उधर दिन ढल रहा था। वह वाअज़ कर रहा था जब कुछ मनचले आकर खड़े हो गए थे। जरनैल को कुछ मालूम नहीं था वह किस मुहल्ले में है, कहाँ है।

“साहिबान, मैं आपसे कहता हूँ कि हिन्दू-मुसलमान भाई-भाई हैं, शहर में फसाद हो रहा है, आगजनी हो रही है और उसे कोई रोकता नहीं। डिप्टी कमिश्नर अपनी मेम को बाँहों में लेकर बैठा है और मैं कहता हूँ कि हमारा दुश्मन अंग्रेज़ है। गांधीजी कहते हैं कि वही हमें लड़ाता है और हम भाई-भाई हैं। हमें अग्रेजों की बातों में नहीं आना चाहिए। और गांधीजी का फर्मान है कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा। मैं भी यही कहता हूँ कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा, हम एक हैं, हम भाई-भाई हैं, हम मिलकर रहेंगे..."

"तेरी माँ की..." आसपास खड़े लोगों में से एक ने कहा और लाठी के एक ही भरपूर वार से जरनैल की खोपड़ी फोड़ दी। छड़ी कहाँ गई, और फटी हुई मूँगिया पगड़ी कहाँ गई और फटी हुई चप्पलें कहाँ गईं, और फिकरा ख़त्म किए बिना ही जहाँ जरनैल खड़ा था वहीं ढेर हो गया।

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रचनाएँ
तमस
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'तमस' की कथा परिधि में अप्रैल १९४७ के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है। 'तमस' कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षों की कथा हो जाती है। आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी होने के बावजूद इसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उदघाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं।
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आले में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर बाद ब

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भाग 2

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प्रभातफेरी में भाग लेने के लिए आरंभ में दो गिने-चुने लोग ही पहुँचते थे। बाद मे गलियाँ और बाज़ार लाँघते हुए जिस किसी का घर रास्ते में पड़ता वह तोंद खुजलाता, जम्हाइयाँ लेता साथ में शामिल हो जाता था। ह

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पहली बस खानपुर से चलकर सुबह आठ बजे गाँव पहुँचती थी। वह नहीं आई। उसके बाद हर घंटे दो घंटे के बाद शहर की ओर से भी और खानपुर की ओर से भी बसें आती थीं। आज दोपहर हो गई, एक भी बस नहीं आई। चाय की दुकान में क

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भाग 15

9 अगस्त 2022
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गुरुद्वारा खचाखच भरा था और संगत मस्ती में झूम रही थी! बस अनमोल समय था। रागी पूरी तन्मयता से आँखें बन्द किए गा रहे थे : “तुम बिन कौन मेरे गोसाईं..." संगत में सबके हाथ जुड़े हुए, आँखें बन्द और सिर वजद

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भाग 16

9 अगस्त 2022
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हरनामसिंह ने दूसरी बार साँकल खटखटाई तो अन्दर से किसी स्त्री की एआवाज़ आई : "घर पर नहीं हैं, मर्द बाहर गए हैं।" हरनामसिंह ठिठका खड़ा रहा। बन्तो की आँखें दाएँ-बाएँ देख रही थीं कि आसपास उन्हें किसी ने

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भाग 17

9 अगस्त 2022
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इस बीच देहात की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर एक और नाटक खेला जा रहा २ था। रमज़ान और उसके साथी ढोक इलाहीबख्श और मुरादपुर की ओर से लूटपाट का सामान उठाए हँसते-बतियाते लौट रहे थे जब उन्हें दूर एक टीले के पास, एक भ

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भाग 18

9 अगस्त 2022
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तुर्क आए थे पर वे अपने ही पड़ोसवाले गाँव से आए थे। तुर्कों के ज़ेहन में भी यही था कि वे अपने पुराने दुश्मन सिखों पर हमला बोल रहे हैं और सिखों के जेहन में भी वे दो सौ साल पहले के तुर्क थे जिनके साथ खाल

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भाग 19

9 अगस्त 2022
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शहर की सड़क पर निकलते ही पता चल जाता था कि माहौल बदल गया है। मुहल्ला कुतुबदीन की मस्जिद के सामने, सड़क के पार चार हथियारबन्द फौज़ी कुर्सियाँ डाले बैठे थे। सड़क पर चलते हुए हर चौक पर दो-तीन फौजी बन्दूक

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भाग 20

9 अगस्त 2022
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हमें आँकड़े चाहिए, केवल आँकड़े! आप समझते क्यों नहीं? आप लम्बी हाँकने लगते हैं, सारी रामकहानी सुनाने लगते हैं, मुझे रामकहानी नहीं चाहिए, मुझे केवल आँकड़े चाहिए। कितने मरे, कितने घायल हुए, कितना माली नु

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भाग 21

9 अगस्त 2022
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अमन कमेटी की मीटिंग के लिए लोग हॉल में इकट्ठे हो रहे थे। यही एक जगह चुनी गई थी जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी, क्योंकि कालिज न हिन्दुओं का था, न मुसलमानो का, कालिज ईसाइयों का था, प्रिंसिपल भी ह

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