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भाग 16

9 अगस्त 2022

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हरनामसिंह ने दूसरी बार साँकल खटखटाई तो अन्दर से किसी स्त्री की एआवाज़ आई :

"घर पर नहीं हैं, मर्द बाहर गए हैं।"

हरनामसिंह ठिठका खड़ा रहा। बन्तो की आँखें दाएँ-बाएँ देख रही थीं कि आसपास उन्हें किसी ने देखा तो नहीं।

"तू दरवाज़ा खोलने को कह, बन्तो, अन्दर औरत जात है।" और हरनामसिंह एक ओर को हट गया।

बन्तो ने दरवाज़ा खटखटाया और साथ में ऊँची आवाज़ में बोली, “करमावालियो दरवाज़ा खोलो, असी मुसीबत दे मारे आए हाँ।"

अपनी पत्नी की आवाज़ सुनकर क्षण-भर के लिए हरनामसिंह की आँखें झुक गईं। यह वक़्त भी देखना बदा था जब उसकी पत्नी आश्रय माँगने के लिए गिड़गिड़ाएगी।

दरवाजे के पीछे क़दमों की आहट सुनाई दी फिर अन्दर से किसी ने साँकल खोली। थोड़ा-सा दरवाज़ा खुला। उनके सामने ऊँची-लम्बी बड़ी उम्र की एक ग्रामीण औरत खड़ी थी, उसके दोनों हाथ गोबर से सने थे और उसने दुपट्टा उतार रखा था। उसके पीछे उलझे बालोंवाली छोटी उम्र की एक युवती खड़ी थी, उसने भी आस्तीनें चढ़ा रखी थीं जिससे लगता गाय-भैंस के लिए सानी-पानी कर रही है।

"कौन हो? क्या काम है?"

बड़ी उम्र की औरत ने पूछा हालाँकि एक नज़र में ही वह उनकी स्थिति को समझ गई थी।

"बदनसीब हैं, ढोक इलाहीबख्श से आए हैं। वहाँ बलवाई आ गए थे। हमारा घर-बार लूट लिया है। रात-भर चलते रहे हैं।"

क्षण-भर के लिए वह औरत ठिठकी खड़ी रही, वह निर्णायक क्षण जब मनुष्य अपने समस्त संस्कारों, विचारों, मान्यताओं के पुंजीभूत प्रभाव के आधार पर कोई निर्णय लेता है। और कुछ देर तक उनकी ओर देखती रही। फिर उसने दरवाज़ा पूरा खोल दिया।

“आ जाओ, अन्दर आ जाओ।"

हरनामसिंह और बन्तो की पलकें उठीं और दोनों दहलीज़ लाँघकर आँगन में आ गए। उनके अन्दर आ जाने पर उस औरत ने बाहर झाँककर दाएँ-बाएँ देखा और फिर झट से साँकल चढ़ा दी।

छोटी उम्र की लड़की एकटक इन दोनों की ओर देख रही थी। उसकी आँखों में संशय और अविश्वास था।

“खाट बिछा दे, अकराँ।" औरत ने कहा और स्वयं ज़मीन पर बैठकर पहले की तरह गोबर से थापियाँ बनाने लगी।

अकराँ कोठरी में से कन्धों पर पल्ला ओढ़ती हुई चली आई और दीवार के साथ लगी खाट को वहीं पर बिछा दिया।

"भला हो तेरा बहन, हम एक दिन में ही घर से बेघर हो गए हैं।" और बन्तो की आँखों में आँसू आ गए।

"ढोक इलाहीबख्श में सारी उम्र काटी है। वहीं पर दूकान थी, अपना घर था। पहले तो सबने कहा, यहीं बैठे रहो, कुछ नहीं होगा। फिर कल करीमखान ने मशवरा दिया कि गाँव में बने रहने में ख़तरा है तुम चले जाओ। उसने ठीक ही कहा। हमारी पीठ मोड़ने की देर थी कि बलवाई आ गए, दूकान भी लूट ली और उसे आग भी लगा दी।" हरनामसिंह ने कहा। और चुप रहा। इस बीच बन्तो खाट पर से उठकर नीचे आ गई और उस औरत के पास आकर बैठ गई।

अकराँ आई और बड़े तसले में रखी थापियाँ उठाकर ले गई और एकएक करके आँगन की दीवार पर लगाने लगी। औरत चुपचाप गोबर के ढेर में हाथ डाल-डालकर थापियाँ बनाती रही। मुँह से कुछ नहीं बोली।

"मर्द कहाँ गए हैं?" हरनामसिंह ने पूछा।

औरत ने एक बार घूमकर हरनामसिंह की ओर देखा, पर उसके सवाल का जवाब नहीं दिया। हरनामसिंह को सहसा समझ आ गया कि मर्द कहाँ गए होंगे और उसका सारा शरीर झनझना उठा।

"हम तो इन दो कपड़ों में निकल आए हैं।" बन्तो बोली, "सलामत रहे करीमखान, उसने हमारी जान बचा दी। और सलामत रहो तुम बहन, जिसने आसरा दिया है।"

घर में अजीब तरह की चुप्पी छाई थी जिससे हरनामसिंह कुछ कहते-कहते चुप हो जाता था। छोटी स्त्री अन्दर चली गई थी और हरनामसिंह को बार-बार लगता जैसे वह कोठरी के अँधेरे में खड़ी उनकी ओर घूर-धूरकर देख रही है।

औरत उठ खड़ी हुई और तसले में रखे पानी से हाथ धोकर एक ओर को चली गई जहाँ रसोई के बरतन रखे थे। फिर उसने मिट्टी का कटोरा उठाया और उसमें लस्सी डालकर ले आई। हरनामसिंह अभी भी बन्दूक को कन्धे के साथ लटकाए हुए था। कारतूसों की पेटी पसीने से सनी उसकी कमीज़ से जैसे चिपकी हुई थी।

"लो लस्सी पी लो, रात-भर के थके हो।"

कटोरा हाथ में लेते ही हरनामसिंह फफक-फफककर रो पड़ा। रात-भर की थकान, उत्तेजना और दबी भावनाएँ एकाएक फूटकर निकल आई और वह बच्चों की तरह बिलख उठा। आख़िर तो खाता-पीता दूकानदार था, कमर में सौ-दो सौ रुपए भी बाँधकर ले आया था, सारी उम्र किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया था और अब एक दिन में दर-दर की ठोकरें खाने लगा था।

“यहाँ ऊँचा-ऊँचा रोओ नहीं सरदारजी, गली-मुहल्लेवाले सुनेंगे तो दौड़े आएँगे। चुपचाप बैठे रहो।"

हरनामसिंह अपनी सिसकियाँ दबाकर चुप हो गया, और पगड़ी में से शमला निकालकर आँसू पोंछने लगा।

"भला हो तुम्हारा बहन, तुम्हारा किया हम कभी नहीं उतार सकेंगे।"

"रब्ब घरों बेघर किसी आँ न करे। रब्ब दी मेहर होई ताँ सब ठीक हो जाएगा।"

(भगवान किसी को घर से बेघर न करे। अल्लाह की कृपा बनी रही तो सब ठीक हो जाएगा।)

औरत अभी भी लस्सी का कटोरा हाथ में पकड़े बन्तो के सामने खड़ी थी। लस्सी के कटोरे की ओर देखकर बन्तो असमंजस में पड़ गई। बन्तो ने आँखें उठाकर पति की ओर देखा, उसका पति उसी की ओर देख रहा था। मुसलमान के हाथ से कटोरा कैसे ले ले? उधर रात-भर की थकान, हलक सूख रहा था। उनकी झिझक को घर की औरत समझ गई।

"तुम्हारे पास अपना कोई बर्तन हो तो उसमें डाल लो। इधर गाँव में एक पंडित की दूकान है। अगर वह घर पर हुआ तो मैं उससे तुम्हारे लिए दो बर्तन ले आऊँगी। पर क्या मालूम वह मिलता है या नहीं। हमारे हाथ का नहीं लो, पर दिन-भर भूखे कहाँ पड़े रहोगे?"

इस पर हरनामसिंह ने हाथ बढ़ाकर कटोरा ले लिया।

"तेरे हाथ का दिया अमृत बराबर है बहन, हम तुम्हारा किया कभी नहीं उतार सकते।"

धूप निकल आई थी, और आसपास के घरों से आवाजें आने लगी थीं। हरनामसिंह ने आधी लस्सी पीकर कटोरा बन्तो के आगे बढ़ा दिया।

“सुनो जी सरदारजी, मैं तुमसे कुछ छिपाऊँगी नहीं।" घर की मालकिन बोली, “मेरा घरवाला और बेटा दोनों गाँववालों के साथ बाहर गए हुए हैं। वे अभी लौटते होंगे। मेरा घरवाला तो अल्लाह से डरनेवाला आदमी है, तुम्हें कुछ नहीं कहेगा, पर मेरा बेटा लीगी और उसके साथ और लोग भी हैं। तुमसे वे कैसा सलूक करेंगे, मैं नहीं जानती। तुम अपना नफा-नुकसान सोच लो।"

हरनामसिंह का दिल धक् से रह गया। अभी-अभी तो यह औरत अलग से बर्तन देने तक की बात कह रही थी और अब कुछ और ही सुनाने लगी है। उसने हाथ बाँध दिए।

"इस वक़्त दिन-दहाड़े हम कहाँ जाएँ?"

"मैं क्या जानूँ? और दिन होता तो कोई बात नहीं थी, पर अब कोई किसी की नहीं सुनता। मैंने तुम्हें बता दिया है कि मर्द बाहर गए हैं और अब लौटनेवाले होंगे। वे तुम्हारे साथ कैसा सुलूक करेंगे, मैं नहीं जानती। अगर कोई चंगी-मन्दी हो गई तो मुझे नहीं कहना।"

हरनामसिंह देर तक गहरे सोच में डूबा बैठा रहा, फिर शिथिल-सी आवाज़ में बोला, “सत बचन, जो वाहगुरु को मंजूर होगा वहीं होगा। तेरे दिल में रहम जगा, तूने दरवाज़ा खोल दिया। अब तू कहेगी बाहर चले जाओ तो हम बाहर चले जाएँगे। चल बन्तो, उठ..."

हरनामसिंह ने बन्दूक सँभाली और दोनों पति-पत्नी दरवाज़े की ओर बढ़े। वह जानता था कि दरवाज़े के बाहर प्रलय मुँह फाड़े खड़ी है। पर कोई चारा न था।

औरत ज्यों की त्यों आँगन के बीचोबीच खड़ी रही और उनकी ओर देखती रही।

जब हरनामसिंह ने साँकल खोलने के लिए हाथ उठाया तो औरत फिर बोल पड़ी, “न जाओ जी, रुक जाओ, साँकल चढ़ा दो।" वह बोली, "तुमने मेरे घर का दरवाज़ा खटखटाया है, दिल में कोई आस लेकर आए हो। जो होगा देखा जाएगा। तुम लौट आओ।"

पीछे अँधेरी कोठरी की दहलीज़ पर खड़ी अकराँ अपनी सास की ओर देखे जा रही थी, उसे बोलते देखकर आगे बढ़ आई, "जाने दो न माँ, हमने मर्दो से पूछा भी नहीं है। उन्हें बहुत बुरा लगेगा।"

“मैं जवाब दे लूँगी। तू जा अन्दर से सीढ़ी उठा ला, जल्दी कर । घर आए को निकाल दूँ? अल्लाह की दरगाह में सभी को जाना है। जा, खड़ी मेरा मुँह क्या देख रही है, अन्दर से सीढ़ी उठा ला!"

हरनामसिंह और उसकी पत्नी दरवाजे पर से मुड़ आए। हरनामसिंह ने फिर हाथ बाँध लिए।

“वाहगुरु तुम्हें सलामत रखे बहन, तू हमें जैसा कहेगी हम वैसा ही करेंगे।"

दिन निकल आया था। पास-पड़ोस की स्त्रियाँ एक-दूसरी के घर आने-जाने लगी थीं, जगह-जगह फ़सादों की चर्चा हो रही थी। इस गाँव से भी पिछली शाम बहुत-से मर्द नारे लगाते, बर्ले-भाले हवा में झुलाते और ढोल बजाते गाँव में घूमते रहे थे और बाद में पूरब की दिशा में निकल गए थे। न जाने वे कहाँ घूमते रहे थे और रात-भर क्या करते रहे थे, पर अब दिन निकल आया था और घर-घर में उनका इन्तज़ार था।

अकराँ सीढ़ी ले आई। उसकी सास ने सीढ़ी उसके हाथ से ले ली और दीवार के साथ लगा दी जहाँ कोठरी के ऊपर एक छोटी-सी मियानी बनी थी।

“इधर आओ जी, तुम दोनों ऊपर चढ़कर मियानी में बैठ जाओ। आवाज़ नहीं करना, किसी को पता नहीं चले कि तुम यहाँ पर हो। आगे, अल्लाह मालिक है।"

हरनामसिंह को चढ़ने में कठिनाई हुई। एक तो बोझल देह, दूसरे कन्धे पर से लटकती बन्दूक बार-बार टाँगों में उलझ रही थी। जैसे-तैसे हाँफता हुआ वह ऊपर पहुँच गया, पीछे-पीछे बन्तो भी चढ़ गई। मियानी छोटी-सी थी, मुश्किल से उकइँ होकर बैठ पाने की जगह थी, पीछे ठसाठस सामान भरा था। और जब हरनामसिंह ने ताकी बन्द की तो कुछ अँधेरा हो गया। दोनों चुपचाप बैठे अँधेरे में आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे। न कुछ सोचने को था, न कहने को। एक पतले-से डोरे के सहारे किस्मत लटक रही थी।

देर तक हरनामसिंह हाँफता रहा। मियानी के अन्दर घुटन थी, कुछ अँधेरा था। कुछ देर तक बैठे रहने के बाद लाचार होकर हरनामसिंह ने ताकी को थोड़ा-सा खोल दिया ताकि थोड़ी-सी हवा और रोशनी अन्दर आ सके। उस पतले से छिद्र में से उसे बाहर खुलनेवाला आँगन का दरवाज़ा और थोड़ा-सा आँगन का हिस्सा नज़र आ रहे थे। नीचे चुप्पी थी।

उसे लगा जैसे सास और बहू दोनों आँगन में से हट गई हैं।

"अगर कोई बुरी बात हो गई बन्तो, हमारी जान पर बन आई, तो मैं पहले तुम पर गोली चलाऊँगा, तुम्हें अपने हाथ से ख़त्म कर दूंगा..." हरनामसिंह ने फुसफुसाकर तीसरी बार कहा। “अगर हम पकड़े गए तो और कोई चारा नहीं।"

बन्तो चुप रही। वह एक-एक क्षण गिन रही थी कि अब क्या होगा, अब क्या होगा, उसकी सूझ इससे आगे जा ही नहीं पा रही थी।

नीचे, पिछली कोठरी के अन्दर सास-बहू के बीच दबा-दबा वार्तालाप चल रहा था। अकराँ मुँह फुलाए हुए थी।

“काफरों की पनाह देने ओ। बहु माड़ा करने ओ। मड़द तुदाँ पुछसन।"

(काफिरों को पनाह दी है, बहुत बुरा किया है। मर्द आकर तुमसे पूछेंगे।)

पर उसकी सास विचलित नहीं हुई।

"तू चुप कर। कोई बदनसीब आए मैं उसे धक्का देकर बाहर निकाल दूँ ?"

“न जान-पहचान। ये हमारे क्या लगते हैं? कितना बुरा लगेगा अब्बा को भी और रमज़ान को भी। ऊपर दोनों चढ़ बैठे हैं, और सिखड़े के हाथ में बन्दूक है। अगर हमारे मर्द आए और उसने गोली चला दी, तो? तुमने तो एतबार करके उन्हें ऊपर बैठा दिया।"

सास अकराँ के चेहरे की ओर देखती रह गई। उसकी बात में सार था। अगर बात बिगड़ जाए, मर्दो के लौटने पर उन्हें पता चल जाए और उनके बीच तू-तू मैं-मैं हो जाए, गाली-गलौज हो जाए, रमज़ान यों भी कितने दिनों से बौखलाया हुआ है और यह ऊपर बैठा गोली चला दे तो क्या होगा? नीचे खड़े आदमी को तो हलाक कर ही देगा। किसी को पनाह देना और बात है, और अपने बेटे और घरवाले की जान जोखिम में डालना दूसरी बात। इसमें क्या अक्लमन्दी है। यह बात उसे सूझी क्यों नहीं?

वह उठकर मियानी के नीचे जा खड़ी हुई। "सुण, सरदारजी मेरी बात।" उसने दबी आवाज़ में कहा।

हरनामसिंह ने ताकी को और थोड़ा खोल दिया।

"क्या है बहन?" “अपनी बन्दूक मुझे दे दे। इधर से लटका दे, मैं पकड़ लूंगी।"

हरनामसिंह उत्तर देने से पहले ठिठका चुप बना रहा।

"मैं बन्दूक कैसे दे दूँ बहन?"

"नहीं, तू बन्दूक दे दे। बन्दूक लेकर तुम ऊपर नहीं बैठ सकते।"

फिर दोनों के बीच चुप्पी छा गई। बन्दूक दे देने का मतलब था अपनी जान उनके हाथ में दे देना। अगर वह इनकार कर दे तो वह फौरन घर से बाहर निकाल सकती है, और बाहर, दिन-दहाड़े बन्दूक कन्धे से लटक भी रही हो, तो कोई हिफाजत नहीं।

“सुनते हो सरदारजी, बन्दूक दे दे। मेरे घर के अन्दर रहते तुझे बन्दूक की क्या ज़रूरत है?"

“बन्दूक देकर तो मैं बिलकुल निहत्था हो जाऊँगा बहन! कहाँ मारा-मारा फिरूँगा। इसका मुझे हौसला है।"

“तू बन्दूक दे दे, इधर लटका दे, जब जाएगा तो मैं तुम्हें लौटा दूंगी।"

हरनामसिंह ने अपनी पत्नी के चेहरे की ओर देखा। फिर चुपचाप बन्दूक नीचे लटका दी।

बन्दूक दे चुकने के बाद हरनामसिंह को इस बात का ध्यान आया कि देने से पहले उसमें से गोलियाँ तो निकाल लेता। भरी हुई बन्दूक उसके हाथ में दे दी। पर फिर सिर झटक दिया। जहाँ जिन्दगी ही अनिश्चय में डोल रही है, वहाँ क्या फर्क पड़ता है कि बन्दूक में से गोलियाँ निकाल ली या नहीं निकालीं। निकाल लेता तो मौत का एक और मनसूबा कम हो जाता, नहीं निकालीं तो मौत के हज़ार मनसूबों में एक और मनसूबा जा मिला। हरनामसिंह ने ठंडी साँस भरी, इतनी गहरी कि बन्तो को लगा नीचे खड़ी औरत और उसकी बहू ने भी सुन ली होगी।

मियानी में फिर अँधेरा छा गया।

क्या-से-क्या हो गया था। कल इस वक़्त बन्तो अपने घर में सन्दूक में से कपड़े सहेज रही थी, आज पति-पत्नी चूहों की तरह इस अँधेरी मियानी में घुसे बैठे थे। कल वह और करीमखान इन फ़िसादों को बुरा-भला कह रहे थे, उन लोगों को बुरा-भला कह रहे थे जिनकी आँखों में से 'दीद' उड़ गया था, मानो जो कुछ हो रहा था वह उनके बाहर कहीं हो रहा था, जिस पर वे तटस्थता से बहस कर सकते थे, अपनी टिप्पणियाँ दे सकते थे। और अब वे स्वयं फ़िसादों के एक ही झोंके से कहाँ-से-कहाँ पटक दिए गए थे।

सहसा यह सोचकर उसका दिल डूब गया कि बन्दूक हाथ से निकल गई है, कि अब वह उसे वापस नहीं मिलेगी। यह मैं क्या कर बैठा? अपने हाथों से अपने हाथ काट लिए। बन्दूक तो मेरे लिए अन्धे की लाठी के समान थी। अब वह मुझे कहाँ मिलेगी? सोचते ही हरनामसिंह का पसीना छूट गया। उसे अपने से भी अधिक अपनी पत्नी की स्थिति शोचनीय लगी। अब मैं इसे अपने साथ ले जाऊँगा तो किस बूते पर? अब तो लोग पत्थर मार-मारकर हमें मार डालेंगे। भक्ति और ज्ञान और मानव-प्रेम की बरसों की कमाई हरनामसिंह यथार्थ के एक ही थपेड़े में खो बैठा था।

“जसबीरो का कुछ पता चल जाता।" सहसा बन्तो बुदबुदाई।

हरनामसिंह चुप रहा। कहता भी क्या। रह-रहकर किसी-किसी वक़्त बन्तो के अन्दर माँ बोलने लगती। रात को नाले के किनारे चलते हुए भी उसने दो-एक बार अपने बच्चों को याद किया था, अब फिर से करने लगी थी। जब भी कुछ देर के लिए उसके अपने सिर पर से ख़तरे का साया टल-सा जाता, उसे अपने बच्चों की याद सताने लगती थी।

गाँव में शोर हुआ। शोर बढ़ता जा रहा था, मर्द-औरतें एक साथ बतियाती सुनाई देने लगीं। तभी किसी ने दरवाज़े को ज़ोर से खटखटाया और किसी स्त्री की आवाज़ आई :

“री अकराँ, आ बाहर, देख वे लोग आ रहे हैं।"

अकराँ की किसी सहेली की आवाज़ थी। अकराँ भागती हुई दरवाज़ा खोलकर बाहर चली गई।

ऊपर बैठे हरनामसिंह का दिल फिर से धड़कने लगा। बन्तो ने आँखें ऊपर उठाकर पति के चेहरे की ओर देखा। रोज़ दमकता रहनेवाला चेहरा पीला पड़ गया था और कपड़े मुचड़े हुए और मैले हो रहे थे। मियानी की अधखुली ताकी में से हरनामसिंह को घर की मालकिन नज़र आई। आँगन में खुले दरवाजे के सामने कमर पर दोनों हाथ रखे खड़ी थी। उसका ऊँचा-लम्बा क़द, सीधी सतर काया देखकर उसका मन सँभल-सा गया। उसका विश्वास फिर जैसे लौट आया। इस औरत के रहते अभी सबकुछ खो नहीं गया है, सबकुछ मर नहीं गया है।

“अगर वाहगुरु को मंजूर होगा तो हम पर आँच नहीं आएगी। तुम तो भगत हो, तुम्हें किस बात का डर है!" बन्तो ने अपने पति को आश्वासन देते हुए कहा। हरनामसिंह चुप बना रहा।

बाहर आवाजें बढ़ने लगीं, हँसी-ठठे की आवाजें थीं, बढ़ते कदमों का शोर था। आँगन का दरवाज़ा खुला पड़ा था। तभी अकराँ के बोलने और ऊँचा-ऊँचा हंसने की आवाज़ आई। हरनामसिंह समझ गया कि घर के मर्द रात-भर की कारगुजारियों के बाद लौट आए हैं।

कुछ ही देर बाद अकराँ का ससुर और अकराँ एक बड़ा-सा काले रंग का ट्रंक उठाए हुए आँगन के अन्दर आए। ससुर के सिर की पगड़ी बैठी हुई थी, लगता था ट्रंक को गाँव तक सिर पर उठाकर लाया है।

हरनामसिंह ने हाथ बढ़ाकर अपनी पत्नी के घुटने को छुआ।

"हमारा ट्रंक है, बड़ा काला ट्रंक। हमारी दूकान लूटते रहे हैं।"

बन्तो ने बाहर झाँककर देखने की कोशिश नहीं की।

"अभी तक ताला चढ़ा है।" हरनामसिंह बुदबुदाया।

अकराँ का ससुर ट्रंक के ऊपर बैठ गया था और पगड़ी उतारकर माथे का पसीना पोंछ रहा था। उसकी पत्नी ने आगे बढ़कर दरवाज़ा बन्द कर दिया।

"रमज़ान नहीं आया?" "रमज़ान तबलीग करने गया है।"

ऊपर बैठे हरनामसिंह ने हाथ बढ़ाकर अपनी पत्नी का घुटना छुआ : "एहसानअली है। मैं इसे जानता हूँ। इसका मेरे साथ लेन-देन रहा है।"

"बन्द का बन्द ट्रंक उठा लाए हो, अब्बा, क्या मालूम इसमें कुछ है भी या नहीं।"

"क्यों? इतना भारी था, मेरी तो कमर दोहरी हो गई। कपड़ों का ट्रंक है, कुछ न कुछ तो ज़रूर होगा।"

"बस, एक ट्रंक ही लाए हो? रमज़ाना भी कुछ लाया है?"

"वही यह खींचकर बाहर लाया था। साबूत का साबूत ट्रंक उठा लाए हैं, तुम्हें और क्या चाहिए?"

"लाओ, इसे खोलते हैं, इसका ताला तोड़ें।" अकराँ ने कहा और भागकर कोठरी में से हथौड़ी उठा लाई। चोरी के माल को देख पाने की उत्सुकता में वह अपने ससुर से मियानी में छिपे कराड़ों के बारे में बताना भी भूल गई। उसकी सास अभी भी चुपचाप पास खड़ी थी।

“लस्सी पिला राजो, प्यास लगी है।" ससुर ने कहा और उसकी पत्नीराजो-उन्हीं क़दमों से लस्सी लाने चली गई। ट्रंक के ताले पर ठकाठक शुरू हो गई।

एहसानअली कटोरा हाथ में लिये लस्सी पी रहा था जब राजो-उसकी पत्नी ने उसे बताया कि उसने घर में एक सिख और उसकी पत्नी को पनाह दे रखी है।

तभी ऊपर से हरनामसिंह ने ताकी खोल दी और गर्दन निकालकर बोला, "ताला क्यों तोड़ती हो बेटी, यह लो चाभी, यह हमारा ही ट्रंक है।" फिर एहसानअली की तरफ़ मुखातिब होकर बोला, “एहसानअली, मैं हरनामसिंह हूँ, तुम्हारी घरवाली ने हमें यहाँ पनाह दी है। गुरु महाराज तुम्हें सलामत रखें। यह ट्रंक हमारा है, पर अब इसे तुम अपना ही समझो। अच्छा हुआ जो यह तुम्हारे हाथ लगा, किसी दूसरे के हाथ नहीं लगा।"

एहसानअली ने नज़र ऊपर उठाई तो झेंप गया, मानो वह चोरी करते पकड़ा गया हो।

अकराँ के हाथ थम गए और वह चिल्लाकर बोली, “अम्मा ने इन्हें पनाह दी है। मैंने कहा भी था काफिर हैं, इन्हें अन्दर मत घुसने दो, पर अम्मा ने मेरी बात नहीं मानी।"

अकराँ अपने ससुर को खुश करने के लिए कह रही थी, पर एहसानअली अभी भी ठिठका खड़ा और अटपटा महसूस कर रहा था। किसी ज़माने में दोनों के बीच लेन-देन रहा था और अच्छी जान-पहचान रही थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि हरनामसिंह के प्रति कैसा व्यवहार करे, ऐसे साक्षात की उसे उम्मीद नहीं थी। उसके खून में ऐसी गर्मजोशी भी नहीं थी कि किसी हिन्दू अथवा सिख को देखकर आगबबूला हो उठे।

"हरनामसिंह, नीचे आ जा।" फिर अपनी चोरी को उस एहसान की ओट में छिपाते हुए, जो राजो ने इन दो व्यक्तियों पर किया था, तनिक दिलेरी के साथ बोला, “खैर मनाओ, जो तुमने मेरे घर में पनाह ली। और किसी के घर जाते तो इस वक्त जान से भी हाथ धो चुके होते।"

अकराँ ताला खोलने के लिए उतावली हो रही थी, लेकिन राजो ने उसके हाथ से चाभी ले ली थी और उसके बार-बार माँगने पर भी देने से इनकार कर रही थी।

“मैं तो तुमसे कुछ नहीं कहूँगा, हरनामसिंह, तुम मेरे घर आए हो, पर अब तुम यहाँ से चले जाओ। मेरे बेटे को पता चल गया कि तुम यहाँ पर हो तो वह तुम्हारे साथ अच्छा सुलूक नहीं करेगा। गाँववालों को भी पता चले कि हमने तुम्हें पनाह दी है तो हमारे लिए बहुत बुरा होगा।"

हमें सब मंजूर है एहसानअली, हमारा क्या कोई बस चल सकता है? पर इस वक़्त दिन-दहाड़े हम बाहर जाएँगे तो हमें कौन छोड़ेगा?"

एहसानअली चुप हो गया और अपनी पत्नी के चेहरे की ओर देखने लगा मानो कह रहा हो, यह कौन-सा बखेड़ा तुमने खड़ा कर दिया है।

“कल रात भी लोग तुम्हें ढूँढ़ रहे थे।" एहसानअली ने कहा, “अब अगर किसी को पता चल गया कि तुम यहाँ छिपे बैठे हो, तो लोग हमें भी नहीं छोड़ेंगे। तुम्हारा भी इसी में भला है और हमारा भी इसी में भला है कि तुम यहाँ से चले जाओ।"

अकराँ अपने-आप सीढ़ी उठाकर ले आई और मियानी के नीचे लगा दी। दोनों पति-पत्नी चुपचाप नीचे उतर आए। दोनों बलि के बकरे नज़र आ रहे थे।

पर फिर वही नाटक हुआ जो सुबह के वक्त हुआ था। दोनों नीचे उतर आए थे। दोनों में कोई भी नहीं गिड़गिड़ाया। दोनों शान्त थे और चुपचाप खड़े थे। हरनामसिंह अपनी बन्दूक माँगने जा रहा था और राजो आँगन के बीचोबीच चुपचाप कमर पर हाथ रखे खड़ी थी, जब एहसानअली बोला, "इन्हें भूसे की कोठरी में बैठा दे, राजो, बाहर से ताला चढ़ा दे। ले, यही ताला खोलकर ले जा, जा जल्दी कर।" फिर हरनामसिंह पर एहसान जताते हुए बोला, “निगाह का लिहाज है हरनामसिंह, पर जो कुछ काफिरों ने शहर में किया है, खुदा कसम उसे याद करके खून खौल उठता है।"

आगे-आगे राजो चल रही थी और पीछे-पीछे बन्तो और हरनामसिंह। कोठरी लाँधकर घर के पीछे वे एक अँधेरे-से दालान में पहुँचे जहाँ गोबर, चारा और मवेशियों की तीखी गन्ध आ रही थी। यहीं पर राजो ने एक कोठरी का दरवाज़ा खोला। कोठरी फर्श से लेकर छत तक सूखे चारे से भरी थी।

"इधर बैठ जाओ। मेरा आदमी बड़ा नेकबख्त है। मुझे नहीं मालूम था कि तुम लोगों की जान-पहचान है। जैसे-तैसे यहाँ वक़्त काट लो।"

हरनामसिंह और उसकी पत्नी यहाँ भी उसी तरह जा बैठे जैसे मियानी में बैठ गए थे। यहाँ राजो ने दरवाज़ा भेड़ दिया और बाहर से साँकल लगा दी।

वक़्त कटने लगा, दोनों को कुछ-कुछ हौसला होने लगा कि यहाँ शाम तक पनाह मिली रहेगी। दिन में किसी वक़्त राजो रोटियाँ और लस्सी भी दे गई। दोनों के पेट में रोटी गई तो त्राण मिला। देर तक दोनों अँधेरे में बैठे फटी-फटी आँखों से अँधेरे में देखते रहे। बन्तो ने फिर हरनामसिंह से पूछा, "तुम क्या सोचते हो, इकबालसिंह गाँव में ही होगा या वहाँ से भाग गया होगा?"

"जो वाहगुरु को मंजूर होगा। कोई नेकबख्त उसे भी मिल जाए तो उसकी जान बच जाए।"

"जसबीरो अकेली नहीं है, यह अच्छा है। गाँव में अपनी संगत के लोग बहुत हैं, सभी एक जगह इकट्ठे हो गए होंगे।"

इस पर हरनामसिंह ने पूछा, “यह लोग हमारी बन्दूक लौटा देंगे न? तू क्या सोचती है? पर मेरा दिल नहीं मानता।"

वे देर तक बातें करते रहे। कोठरी बन्द थी, पर यहाँ उतनी उमस नहीं थी जितनी मियानी में रही थी, चारे के गट्ठरों के आगे बैठे-बैठे दोनों की आँखें झपकने लगीं। रात-भर के थके थे, कुछ देर बाद दोनों को झपकी आ गई।

उनकी नींद तब टूटी जब उनके दरवाज़े पर कुल्हाड़े पड़ रहे थे और कोई चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था, “निकलो ओ बाहर, कहाँ घुसे बैठे हो, तुम्हारी माँ की...निकलो बाहर तुम्हारी..."

कुल्हाड़ी के प्रहार बराबर पड़ते जा रहे थे। हरनामसिंह और उसकी पत्नी दोनों हड़बड़ाकर उठ बैठे, मानो कोई दुःस्वप्न देखकर उठे हों, और सिर से पाँव तक काँप उठे

“निकाल चाभी, काफिरों को पनाह दी है। तुम्हारी काफिरों की मैं...।" और फिर एक और प्रहार दरवाजे पर पड़ा।

"आहिस्ता बोल रमज़ाना।" किसी औरत की आवाज़ थी। शायद अकराँ अपने पति को धीमा बोलने को कह रही थी।

दरवाज़े पर फिर से कुल्हाड़ी पड़ने लगी। दरवाज़ा ऊपर से चिर गया था जिससे रोशनी की एक और दरार नज़र आने लगी।

फिर किसी दूसरी औरत की आवाज़ सुनाई दी, "क्यों भौंक रहा है तू? क्या हुआ है?" राजो की आवाज़ थी, “किधर है यह चुडैल? तेरी मैंने जीभ न खींच ली तो कहना, हरामजादी, तुझे मना किया था इसे नहीं बताना, क्यों बताया है? तेरे पेट में बात नहीं पचती?...तू क्या चाहता है, रमज़ाना? घर में खून करेगा? घर में पनाह लेनेवाले को मारेगा? यह आदमी हमारी जान-पहचान का है, हम इसके देनदार रहे हैं।"

बहुत बक-बक नहीं कर माँ, शहर में इन काफिरों ने दो सौ मुसलमान हलाल कर डाले हैं।" इस पर कुल्हाड़ी का एक और प्रहार हुआ, “निकलो ओ बाहर काफिरो, तुम्हारी..."

दो प्रहारों में की कुंडा टूट गया और दरवाज़ा भरभराकर खुल गया। ढेरों रोशनी एक साथ आ गई थी। रमज़ान हाँफ रहा था, कुल्हाड़ी उसके हाथ में थी, पास में अकराँ खड़ी थी, पीला ज़र्द सहमा हुआ-सा चेहरा, एक ओर राजो खड़ी थी। उसके दोनों हाथ कमर पर थे।

"निकलो बाहर काफिरो..."

रमज़ान ने अन्दर झाँककर देखा। हरनामसिंह और उसकी पत्नी अँधेरे में एक-दूसरे के साथ सटकर बैठे दरवाजे की ओर चुंधियाती आँखों से देखे जा रहे थे। दरवाज़ा खुलने पर हरनामसिंह उठ खड़ा हुआ और चुपचाप बाहर आ गया।

"मार डाल..." खोखली-सी आवाज़ में हरनामसिंह ने कहा।

"तेरी मैं..." रमज़ान बोला और बायाँ हाथ बढ़ाकर हरनामसिंह की गर्दन पकड़ ली। हरनामसिंह की गाढ़े की कमीज़ का ऊपरवाला बटन टूटकर गिर पड़ा। इस झटके में हरनामसिंह की पगड़ी ढीली हो गई। फिर, जिस तेज़ी से रमज़ान ने उसके गले को पकड़ा था, उसी तेज़ी से उसे छोड़ भी दिया। गर्दन पर उँगलियों के लाल-लाल निशान पड़ गए।

हरनामसिंह को उसने भी पहचान लिया था, उसकी दूकान पर दो-एक बार उसने चाय पी थी। उसकी दाढ़ी अब पहले से कहीं ज़्यादा सफ़ेद हो गई थी और शरीर दुबला हो गया था।

दो-तीन बार रमज़ान ने कुल्हाड़ी उठाने की कोशिश की, पर कुल्हाड़ी हाथ में रहते भी उसे उठा नहीं पाया। काफिर को मारना और बात है, अपने घर के अन्दर जान-पहचान के पनाहगजीन को मारना दूसरी बात। उसका खून करना पहाड़ की चोटी पार करने से भी ज़्यादा कठिन हो रहा था। मजहबी जनून और नफरत के इस माहौल में एक पतली-सी लकीर कहीं पर अभी भी खिंची थी जिसे पार करना बहुत ही मुश्किल था। उसे रमज़ान भी पार नहीं कर पा रहा था।

रमज़ान उसके सामने हाँफता खड़ा रह गया। फिर गालियाँ बकता हुआ बाहर चला आया।

लगभग आधी रात का समय रहा होगा जब ऊँची-लम्बी राजो आगे-आगे चली जा रही थी और हरनामसिंह और बन्तो उसके पीछे-पीछे थे। पेड़ों के झुरमुट तक राजो उनके साथ आई। चाँद पेड़ों के झुरमुट के ऊपर खिला था और आकाश उसकी चाँदनी में झिलमिला रहा था। फिर वही अलौकिक, रहस्यपूर्ण, स्वप्निल दृश्य, फिर वही चाँदनी और अँधेरा आपस में आँखमिचौनी खेलते हुए। पेड़ों के इस झुरमुट और उसके पार फैला हुआ असीम प्रसार फिर से रहस्यपूर्ण और भयावना नज़र आने लगा था। आगे जाती राज की काया बड़ी गम्भीर लग रही थी। राजो हाथ में दोनाली बन्दूक उठाए हुए थी।

वे फिर से नदी की ओर उतर रहे थे। बाईं ओर, दूर अ फाश लाल हो रहा था। हरनामसिंह ने धीरे से अपनी पत्नी का हाथ दबाकर कहा, "बाईं ओर देख, देखा?"

"देखा है, कोई गाँव जल रहा है।"

"...वाह गुरु...।" बन्तो बुदबुदाई।

चलते-चलते हरनामसिंह के पाँव फिर ठिठक गए। बहुत दूरी पर, दूसरी ओर भी क्षितिज लाल हो रहा था।

"वह गाँव कौन-सा है? वह भी जल रहा है।" बन्तो चुप रही।

हरनामसिंह ने घूमकर देखा। चाँदनी में गाँव के चपटे मिट्टी के घर खड़े थे। किसी-किसी घर में दीया टिमटिमा रहा था। घरों के बाहर भूसे के ऊँचे-ऊँचे ढेर, कहीं कोई बैलगाड़ी खड़ी थी।

पेड़ों के झुरमुट में पीर की सफेद कब्र उन्हें नज़र आई। उस पर दीया नहीं जल रहा था। आज के रोज़ उस पर दीया जलाना लोग भूल गए थे।

राजो झुरमुट के किनारे-किनारे चलती जा रही थी। फिर झुरमुट का छोर आ गया और वह ढलान आ गई जिसे चढ़कर उसी रोज़ प्रातः हरनामसिंह और उसकी पत्नी गाँव में दाखिल हुए थे। राजो रुक गई। राजो ने अपने हाथ में पकड़ी बन्दूक हरनामसिंह के हाथ में दे दी।

“जाओ हुण, रब्ब राखा। सीधे किनारे-किनारे चले जाओ। आगे जो तुम्हारी किस्मत।"

और उसकी आवाज़ आर्द्र हो उठी।

तुमने हम पर बड़ा अहसान किया है राजो बहन, हम इसे कभी नहीं भूल सकते।" बन्तो ने कहा।

"जे ज़िन्दगी रही ताँ तेरा एहसान...” हरनामसिंह की आवाज़ लड़खड़ा गई। "मैं के जाणा भैण, अपणा-अपणा नसीबा। चहवाँ पासे अग लगी है।"

(मैं क्या जानूँ बहन? मैं नहीं जानती मैं तुम्हारी जान बचा रही हूँ या तुम्हें मोत के मुँह में झोंक रही हूँ। चारों तरफ़ आग लगी है।)

यह कहते हुए राजो ने अपना हाथ अपने कुर्ते की जेब में डाला और सफेद कपड़े में लिपटी एक छोटी-सी पोटली निकाल लाई।

“यह लो, यह तुम्हारी चीज़ है।" "क्या है राजो बहन?"

“एह तुसॉडे सन्दूक विचों मिले हन। मैं कड्ढ लियायी हाँ। तुसॉडे ऊपर औखा वेला आया है, ज़ेवर कोल होये ताँ सहारा होवेगा।"

(ये तुम्हारे ट्रंक में से मिले हैं, तुम्हारे दो गहने हैं। मैं निकाल लाई हूँ। तुम्हारे आगे कठिन समय है, पास में दो गहने हुए तो सहारा होगा।)

"वाहगुरु तुम्हें सलामत रखे बहन, अच्छे करम किए थे जो तुमसे मिलना हुआ।" कहते हुए बन्तो रो पड़ी।

"जाओ, रब्ब राखा, देर हो रही है।" राजो ने कहा। वह उन्हें कुछ नहीं बता सकती थी कि किस दिशा में जाएँ, किस गाँव की ओर जाएँ, किस घर का दरवाज़ा खटखटाएँ, उसके लिए कुछ भी कह पाना असम्भव था।

दोनों पति-पत्नी ढलान उतरने लगे। राजो टीले पर खड़ी रही और उन्हें जाते हुए देखती रही। वही ऊबड़-खाबड़, बालू और गोल-गोल पत्थरों से अटा रास्ता था। ऊपर चाँद चमक रहा था जिससे सारा मैदान काले और सफ़ेद चित्रों में बँटा पड़ा था। कहीं अन्धकार का पुंज था तो कहीं पारे-सी चमकती चाँदनी थी।

थोड़ी दूर तक जाने के बाद उन्होंने घूमकर देखा, राजो अभी भी टीले पर खड़ी थी और अज्ञात की ओर बढ़ते उनके क़दमों को जैसे देख रही थी। फिर उनके देखते-देखते ही वह लौट पड़ी और गाँव की ओर जाने लगी। उसके चले जाने से चारों ओर फैली वीरानी इन दोनों के लिए और भी अधिक भयावह हो उठी।

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रचनाएँ
तमस
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'तमस' की कथा परिधि में अप्रैल १९४७ के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है। 'तमस' कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षों की कथा हो जाती है। आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी होने के बावजूद इसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उदघाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं।
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तमस भाग 1

9 अगस्त 2022
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आले में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर बाद ब

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भाग 2

9 अगस्त 2022
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प्रभातफेरी में भाग लेने के लिए आरंभ में दो गिने-चुने लोग ही पहुँचते थे। बाद मे गलियाँ और बाज़ार लाँघते हुए जिस किसी का घर रास्ते में पड़ता वह तोंद खुजलाता, जम्हाइयाँ लेता साथ में शामिल हो जाता था। ह

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भाग 3

9 अगस्त 2022
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गली में क़दम रखते ही नत्थू ने चैन की साँस ली। गली में अँधेरा था जबकि सड़कों पर अँधेरा छटने लगा था। नत्थू जल्दी से जल्दी गलियों का जाल लाँघकर अपने डेरे पर पहुँच जाना चाहता था। उस बदबू-भरी कोठरी में से

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भाग 4

9 अगस्त 2022
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टीले के ऊपर पहुँचकर दोनों ने अपने घोड़े रोक लिये। सामने दूर तक चौड़ी घाटी फैली थी जो पहाड़ों के दामन तक चली गई थी। लगता दूर क्षितिज पर सतरंगी धूल उड़ रही है। विशाल मैदान, कहीं-कहीं छोटी-छोटी पहाड़ियाँ

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भाग 5

9 अगस्त 2022
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अँधेरा छटने लगा था जब प्रभातफेरी की मंडली गलियाँ लाँघती हुई "इमामदीन के मुहल्ले में पहुँची। रास्ते में शेरखान के घर से झाड़, बेलचे, कड़ाहियाँ और सफाई का अन्य सामान लेकर वे आगे बढ़ने लगे थे। सुबह की रो

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भाग 6

9 अगस्त 2022
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साप्ताहिक सत्संग की समाप्ति से पहले पुण्यात्मा वानप्रस्थीजी सदा की भाँति मन्त्रपाठ करने लगे। इस मन्त्रपाठ को वह सत्संग रूपी यज्ञ की 'अन्तिम आहुति' कहा करते थे। गिने-चुने इन विशिष्ट मन्त्रों तथा श्लोको

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भाग 7

9 अगस्त 2022
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दफ्तर में मिलने के बजाय आप लोग घर पर मिलने आए। ज़रूर कोई बहुत ही ज़रूरी काम रहा होगा।" रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा। चपरासी ने चिक उठा दी। नागरिकों के शिष्टमंडल के सदस्य एक-एक करके कमरे के अन्दर दाखिल हुए

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भाग 8

9 अगस्त 2022
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शहर में सब काम जैसे बँटे हुए थे : कपड़े की ज़्यादातर दूकानें हिन्दुओं की थीं, जूतों की मुसलमानों की, मोटरों-लारियों का सब काम मुसलमानों के हाथों में था, अनाज का काम हिन्दुओं के हाथ में। छोटे-छोटे काम

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भाग 9

9 अगस्त 2022
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'ऐसा 'बेवाका' घर है, कोई चीज़ एक बार कहीं रख दो, फिर मिलती ही नहीं, ढूंढ-ढूँढ़ मरो उसे।" लाला लक्ष्मीनारायण अलमारी के सामने खड़े बड़बड़ा रहे थे। अलमारी के निचले खाने में कपड़ों के नीचे उन्होंने एक नन्

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भाग 10

9 अगस्त 2022
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दिन के उजाले में शहर अधमरा-सा पड़ा था, मानो उसे साँप सूंघ गया हो। मंडी अभी भी जल रही थी, म्युनिसिपैलिटी के फायर ब्रिगेड ने उसके साथ जूझना कब का छोड़ दिया था। उसमें से उठनेवाले धुएँ से आसमान में कालिमा

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भाग 11

9 अगस्त 2022
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देवदत्त नहा-धोकर, हाथ मलता हुआ अपने घर के सामने आ खड़ा हुआ। जब कभी वह हाथ मलता हो, या दाएँ हाथ से मुँह और नाक सहलाता हुआ फिर से दोनों हाथ मलने लगे तो समझ लो देवदत्त अपनी कार्य-सूची तैयार कर रहा है। दे

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भाग 12

9 अगस्त 2022
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एक आदमी छज्जे पर पहरा दे।" रणवीर ने घूमकर कहा। मुर्गी काटकर दीक्षा पाने से उसमें भरपूर आत्म-विश्वास पैदा हो गया था। वह दल का सबसे चतुर, सबसे चुस्त और सबसे ज़्यादा कार्यकुशल सदस्य था। उसकी आवाज़ में कड

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भाग 13

9 अगस्त 2022
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नत्थू परेशान था। अपनी कोठरी के बाहर बैठा वह चिलम पर चिलम फूँके जा रहा था। जितना अधिक वह मार-काट की अफवाहों को सुनता, उतना ही अधिक उसका दिल बैठ जाता। बार-बार अपने मन को समझाता, मैं अन्तर्जामी तो नहीं ह

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भाग 14

9 अगस्त 2022
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पहली बस खानपुर से चलकर सुबह आठ बजे गाँव पहुँचती थी। वह नहीं आई। उसके बाद हर घंटे दो घंटे के बाद शहर की ओर से भी और खानपुर की ओर से भी बसें आती थीं। आज दोपहर हो गई, एक भी बस नहीं आई। चाय की दुकान में क

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भाग 15

9 अगस्त 2022
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गुरुद्वारा खचाखच भरा था और संगत मस्ती में झूम रही थी! बस अनमोल समय था। रागी पूरी तन्मयता से आँखें बन्द किए गा रहे थे : “तुम बिन कौन मेरे गोसाईं..." संगत में सबके हाथ जुड़े हुए, आँखें बन्द और सिर वजद

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भाग 16

9 अगस्त 2022
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हरनामसिंह ने दूसरी बार साँकल खटखटाई तो अन्दर से किसी स्त्री की एआवाज़ आई : "घर पर नहीं हैं, मर्द बाहर गए हैं।" हरनामसिंह ठिठका खड़ा रहा। बन्तो की आँखें दाएँ-बाएँ देख रही थीं कि आसपास उन्हें किसी ने

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भाग 17

9 अगस्त 2022
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इस बीच देहात की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर एक और नाटक खेला जा रहा २ था। रमज़ान और उसके साथी ढोक इलाहीबख्श और मुरादपुर की ओर से लूटपाट का सामान उठाए हँसते-बतियाते लौट रहे थे जब उन्हें दूर एक टीले के पास, एक भ

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भाग 18

9 अगस्त 2022
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तुर्क आए थे पर वे अपने ही पड़ोसवाले गाँव से आए थे। तुर्कों के ज़ेहन में भी यही था कि वे अपने पुराने दुश्मन सिखों पर हमला बोल रहे हैं और सिखों के जेहन में भी वे दो सौ साल पहले के तुर्क थे जिनके साथ खाल

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भाग 19

9 अगस्त 2022
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शहर की सड़क पर निकलते ही पता चल जाता था कि माहौल बदल गया है। मुहल्ला कुतुबदीन की मस्जिद के सामने, सड़क के पार चार हथियारबन्द फौज़ी कुर्सियाँ डाले बैठे थे। सड़क पर चलते हुए हर चौक पर दो-तीन फौजी बन्दूक

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भाग 20

9 अगस्त 2022
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हमें आँकड़े चाहिए, केवल आँकड़े! आप समझते क्यों नहीं? आप लम्बी हाँकने लगते हैं, सारी रामकहानी सुनाने लगते हैं, मुझे रामकहानी नहीं चाहिए, मुझे केवल आँकड़े चाहिए। कितने मरे, कितने घायल हुए, कितना माली नु

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भाग 21

9 अगस्त 2022
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अमन कमेटी की मीटिंग के लिए लोग हॉल में इकट्ठे हो रहे थे। यही एक जगह चुनी गई थी जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी, क्योंकि कालिज न हिन्दुओं का था, न मुसलमानो का, कालिज ईसाइयों का था, प्रिंसिपल भी ह

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