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भाग 7

9 अगस्त 2022

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दफ्तर में मिलने के बजाय आप लोग घर पर मिलने आए। ज़रूर कोई बहुत ही ज़रूरी काम रहा होगा।" रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा।

चपरासी ने चिक उठा दी। नागरिकों के शिष्टमंडल के सदस्य एक-एक करके कमरे के अन्दर दाखिल हुए। रिचर्ड दरवाजे के पास ही खड़ा रहा और कमरे में रखी कुर्सियों की ओर इशारा करता रहा और तैरती नज़र से शिष्टमंडल के सदस्यों की ओर देखता रहा। फिर मेज़ के पीछे कुर्सी पर जा बैठा और बैठते ही पेंसिल हाथ में ले ली। चार आदमी पगड़ियोंवाले थे, एक सूमी टोपीवाला था, दो गांधी टोपी पहने थे। रिचर्ड ने शिष्टमंडल की बनावट से ही समझ लिया कि इनसे निबटता कठिन नहीं होगा।

“कहिए, मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ?"

सदस्यों को डिप्टी कमिश्नर की शिष्टता बहुत भली लगी। इससे पहले कमिश्नर तो सीधे मुँह बात भी नहीं करता था, उससे मिलना तक मुश्किल हुआ करता था।

अब तक रिचर्ड ने लगभग सभी सदस्यों का जायज़ा ले लिया था। पुलिस की रिपोर्टो से वह सियासी आदमियों के बारे में समझ गया था कि कौन-कौन होंगे। गांधी टोपीवाला वही ढीला-ढाला आदमी बख्शी होगा जो सोलह साल तक तेल काट चुका है। और वह नुक्कड़ में बैठा रूमी टोपीवाला हयात बख्श है, मुस्लिम लीग का कारकुन। साथ में मिशन कालिज का अमरीकी प्रिंसिपल हरबर्ट भी आया था। और ये लोग साथ में प्रोफेसर रघुनाथ को भी पकड़ लाए हैं, क्योंकि यह मेरा परिचित है। बाकी लोग विभिन्न संस्थाओं से आए होंगे।

रिचर्ड बख्शीजी को मुखातिब होकर बोला, “मुझे ख़बर मिली है कि शहर के अन्दर तनाव पाया जाता है।"

"हम इसी सिलसिले में आपसे मिलने आए हैं।" बख्शीजी बोले। बख्शीजी उत्तेजित थे, सुबह के सारे कार्यकलाप से वह खीझे हुए थे। अपनी पहलकदमी पर पहले लीग के प्रधान के घर गए थे, फिर वहाँ बेरुखी देखकर, उन्होंने डिप्टी कमिश्नर के पास ही शिष्टमंडल ले जाने का निश्चय किया था, और एक-एक सदस्य को घर से पकड़-पकड़कर इकट्ठा किया था और अपने साथ लाए थे। डिप्टी कमिश्नर के पास आने में किसी को एतराज़ नहीं था।

“सरकार की तरफ़ से फौरन ऐसी कार्रवाई की जानी चाहिए जिससे स्थिति काबू में आ जाए। वरना...वरना इस शहर पर चीलें मँडराएँगे!" उन्होंने वही वाक्य दोहरा दिया जो बार-बार उनके जेहन में घूम रहा था।

अन्य सदस्य चिन्तित थे पर बख्शीजी की तरह उत्तेजित नहीं थे।

तभी प्रोफेसर और रिचर्ड की नज़रें मिलीं। प्रोफेसर ही एक ऐसा हिन्दुस्तानी था जिसके साथ रिचर्ड का थोड़ा-बहुत उठना-बैठना था, दोनों को अंग्रेजी साहित्य और भारतीय इतिहास में रुचि थी और रिचर्ड को वह सदा ही एक सुशिक्षित व्यक्ति लगा करता था। आँखों-आँखों में ही दोनों मुस्करा दिए। मानो एक-दूसरे से कह रहे हों, 'ये लोग दुनियावी कामों में भी हमें घसीट लाए हैं, वरना हमारी दुनिया तो दूसरी है।'

रिचर्ड ने सिर हिलाया और पेंसिल से मेज़ को ठकोरा।

“सरकार तो बदनाम है। मैं अंग्रेज़ अफ़सर हूँ। ब्रिटिश सरकार पर आपको विश्वास नहीं है, उसकी बात को तो आप कहाँ सुनेंगे!" रिचर्ड ने व्यंग्य से कहा और पेंसिल ठकोरता रहा।

“मगर ताक़त तो ब्रिटिश सरकार के हाथों में है और आप ब्रिटिश सरकार के नुमाइन्दा हैं। शहर की रक्षा तो आप ही की जिम्मेदारी है।"

बख्शीजी बोले और बोलते हुए उनकी ठुड्डी काँप गई और उत्तेजनावश चेहरा पीला पड़ गया।

"ताक़त तो इस वक़्त पंडित नेजरू के हाथ में हैं।" रिचर्ड ने फिर मुस्कराकर धीमे से कहा। फिर बख्शीजी की ओर देखकर बोले, “आप लोग ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ तो भी दोष ब्रिटिश सरकार का, और जो आपस में लड़े तो भी दोष ब्रिटिश सरकार का।" उसके होंठों पर मुस्कान बराबर बनी रही। वह फिर जैसे सँभल गया और बोला, "लेकिन कहिए, हमें इस मसले को मिलजुलकर सुलझाना चाहिए।" और उसने हयातबख्श की ओर देखा।

“अगर पुलिस मोहतात रहे तो कुछ नहीं होगा," हयातबख्श बोला, “यों मज़िस्द के सामने जो कुछ पाया गया है, उसके पीछे हिन्दुओं की बहुत बड़ी शरारत है।"

“आप कैसे कह सकते हैं कि इसमें हिन्दुओं की शरारत है?" दानवीर लक्ष्मीनारायण ने उछलकर कहा, और बोलते-बोलते उनकी आवाज़ ऊँची होती गई।

रिचर्ड के लिए मामला अपने-आप सुलझता जा रहा था।

"एक-दूसरे को दोष देने से कोई लाभ न होगा।" रिचर्ड ने आश्वस्त भाव से कहा, “आप लोग, ज़ाहिर है, मामले को सुलझाने के लिए मेरे पास आए हैं।"

"बेशक," हयातबख्श बोला, “हम भी नहीं चाहते कि शहर में फसाद हो, मारकाट हो।"

लक्ष्मीनारायण को बड़ा अकेलापन महसूस हुआ। उन्हें अपने धर्म-बन्धुओं पर गुस्सा आया। वे भी साथ में होते तो इस वक्त उन्हें अकेले तो मुसलमानों के खिलाफ़ न बोलना पड़ता। डिप्टी कमिश्नर को दस बातें बताते कि कैसे जामा मस्ज़िद में असला इकट्ठा किया जा रहा है, कैसे एक गाय को काट डाला गया है। यहाँ बोलना तो नक्कू बननेवाली बात थी। शायद यही बेहतर था कि हिन्दू-सिखों का वफद अलग से डिप्टी कमिश्नर से मिलता, उनके सामने स्याह और सफ़ेद खोलकर रखता।

बख्शीजी ने रिचर्ड को सम्बोधन करते हुए कहा, “अगर शहर में पुलिस गश्त करने लगे, जगह-जगह फौज़ की चौकियाँ बिठा दी जाएँ तो दंगा-फसाद नहीं होगा, स्थिति काबू में आ जाएगी।" ।

रिचर्ड ने सिर हिलाया, फिर मुस्कराकर बोला, “मै डिप्टी कमिश्नर हूँ, फौज़ का इन्तज़ाम तो मेरे हाथ में नहीं है। यहाँ पर छावनी तो है, पर इसका यह मतलब नहीं कि फौज़ मेरे हुक्म से काम करती है।"

“छावनी भी ब्रिटिश सरकार की है और हुकूमत भी ब्रिटिश सरकार की है," बख्शीजी ने कहा, “अगर आप फौज़ बिठा देंगे तो मामला काबू में आ जाएगा।"

रिचर्ड से सिर हिला दिया, “फौज़ को मैं हुक्म नहीं दे सकता, यह तो आप भी जानते होंगे। डिप्टी कमिश्नर को ऐसा कोई अधिकार नहीं है।"

“आप फौज़ नहीं बैठा सकते तो शहर में कर्फ्यू लगा दें। इसी से स्थिति सँभल जाएगी। पुलिस की ही चौकियाँ बैठा दें?"

“इस छोटी-सी बात को लेकर कर्फ्यू लगा देने से क्या शहर में घबराहट और ज़्यादा नहीं फैलेगी? आप क्या सोचते हैं?"

रिचर्ड ने इस लहजे में ये शब्द कहे मानो उनसे मशविरा माँग रहा हो। पर साथ ही उसने रैक में से एक कागज़ उठाया और उस पर पेंसिल से कुछ लिख लिया। और फिर घड़ी की ओर देखा।

“सरकार अपनी ओर से जो कार्रवाई कर सकती है, ज़रूर करेगी," रिचर्ड ने आश्वासन के स्वर में कहा, "लेकिन आप लोग शहर के नेता हैं, लोग आपकी बात ध्यान से सुनेंगे। आपको चाहिए कि आप मिलकर लोगों से अपील करें कि अमन कायम रखें।"

दो-तीन सिर फौरन हिलने लगे। साहब ठीक कहते हैं।

रिचर्ड कहे जा रहा था, “मुस्लिम लीग और कांग्रेस, दोनों के लीडर यहाँ मौजूद हैं। आप सरदारजी को साथ ले लीजिए और सब मिलकर अमन कमेटी बनाइए और काम शुरू कर दीजिए। सरकार आपकी हर तरह से मदद करेगी..."

“वह तो हम करेंगे ही,” बख्शीजी फिर उत्तेजित स्वर में बोले, “मगर इस वक्त हालत नाजुक है। अगर मार-काट शुरू हो गई तो उसे सँभालना कठिन होगा। अगर एक हवाई जहाज़ ही शहर के ऊपर उड़ जाए तो लोगों को कान हो जाएँगे कि सरकार बाख़बर है। फ़साद को रोकने के लिए इतना भी काफ़ी होगा।"

रिचर्ड ने फिर से सिर हिला दिया, मुस्कराया और काग़ज़ पर पेंसिल से कुछ लिख लिया।

"हवाई जहाज़ों का महकमा भी मेरे अधीन नहीं है,” रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा।

"आपके अधीन सब-कुछ है, साहब, अगर आप कुछ करना चाहें तो।"

इतना चुप भी रहना ठीक नहीं है, रिचर्ड ने सोचा यह आदमी बढ़ता ही जा रहा है।

"वास्तव में आपका मेरे पास शिकायत लेकर आना ही गलत था। आपको तो पंडित नेहरू या डिफेंस मिनिस्टर सरदार बलदेवसिंह के पास जाना चाहिए था। सरकार की बागडोर तो उनके हाथ में है।" कहते ही रिचर्ड हँस दिया।

डिप्टी कमिश्नर का रुख देखकर बाकी लोग चुप हो गए। पर बख्शीजी फिर उत्तेजित होकर बोले, "हमें खबर मिली है कि अभी घंटा-भर पहले, आपके अंग्रेज़ पुलिस अफसर रॉबर्ट साहिब ने जबर्दस्ती एक मुसलमान परिवार को घर में से निकाला है। इससे उस सारे इलाके में तनाव बढ़ गया है, क्योंकि वह मुसलमान एक हिन्दू मालिक-मकान का किराएदार था। मैं सोचता हूँ शहर की हालत को देखते हुए इस तरह की कार्रवाई को स्थगित किया जा सकता था।"

रिचर्ड को इस घटना के बारे में मालूम था, बल्कि पुलिस अफसर ने कार्रवाई करने से पहले रिचर्ड से मशविरा भी किया था। और रिचर्ड ने यह कह दिया था कि कोर्ट के फैसले पर अमल करना रोज़मर्रा की सामान्य कार्रवाई है, उसे स्थगित करने में कोई तुक नहीं। लेकिन उसने शिष्टमंडल के सदस्यों पर ज़ाहिर नहीं होने दिया कि वह इस घटना के बारे में कुछ भी जानता है। पेंसिल से काग़ज़ पर कुछ लिखते रहने के बाद उसने कहा, “मैं दर्याफ्त करूँगा," और फिर घड़ी की ओर देखा।

इस पर हरबर्ट, जो बड़ी उम्र का अमरीकी पादरी और स्थानीय मिशन कालिज का प्रिंसिपल था, धीमी आवाज़ में बोला, "शहर की हिफाज़त का सवाल राजनीतिक सवाल नहीं है, यह राजनीतिक पार्टियों के ऊपर सवाल है, शहर के सभी लोगों का, नागरिकों का सवाल है। इसमें अपनी-अपनी पार्टियों को भूल जाना होगा। सरकार का भी रोल इसमें बहुत बड़ा है। हम सबको मिलकर शहर की स्थिति को सँभाल लेना चाहिए। हमें इसी वक़्त शहर का दौरा करना चाहिए। और लोगों को समझाना चाहिए, उनसे अपील करनी चाहिए कि वे आपस में नहीं लड़ें।"

रिचर्ड ने फौरन इस सुझाव का समर्थन करते हुए इसे और भी ज़्यादा ठोस शक्ल में पेश किया, "मेरा सुझाव है कि एक बस ले ली जाए और उस पर लाउडस्पीकर लगा दिया जाए। आप लोग उसमें बैठ जाएँ और शहर-भर में घूमकर लोगों तक अपनी आवाज़ पहुँचाएँ।"

रिचर्ड के मुँह से ये शब्द निकलने की देर थी कि बाहर बागीचे की ओर से तरह-तरह की घबराहट-भरी आवाजें सुनाई देने लगीं।

"पुल के पार एक हिन्दू को क़त्ल कर दिया गया है।" बाहर बैठे चपरासी से कोई आदमी कह रहा था, "सभी बाज़ार बन्द हो गए हैं।"

शिष्टमंडल के सदस्यों के कान खड़े हो गए। डिप्टी कमिश्नर का बँगला शहर से बहुत दूर था। अगर सचमुच फसाद छिड़ गया है तो उनके लिए अपने-अपने घर तक पहुँच पाना असम्भव हो जाएगा। तभी दूर बँगले के पार, किसी ताँगे के सरपट दौड़ने की आवाज़ आई। सड़क पर किसी के भागते क़दमों की भी आवाज़ आई।

“लगता है शहर में गड़बड़ शुरू हो गई है।" लक्ष्मीनारायण ने घबराकर कहा और उठ खड़ा हुआ।

“जो भी मुमकिन हुआ, किया जाएगा।" रिचर्ड ने कहा।

"गड़बड़ शुरू हो गई है तो बुरी बात है।"

एक-एक करके सभी सदस्य उठ खड़े हुए, और चिक उठाकर बाहर आने लगे। डिप्टी कमिश्नर भी दरवाजे तक उनके साथ आया।

"आपको भेजने का इन्तज़ाम हम करेंगे। पुलिस के कुछ सिपाही आपके साथ जाएँगे।" रिचर्ड ने कहा और मेज़ पर रखे टेलीफोन की ओर मुड़ा।

“आप हमारी चिन्ता न करें। ज़रूरी यह है कि शहर में गड़बड़ न हो।" बख्शीजी ने बाहर आते हुए कहा, "अभी भी वक़्त है, आप कर्फ्यू लगा दें।

साहब ने मुस्कराकर सिर हिला दिया।

बँगले में से निकलते ही शिष्टमंडल के सदस्यों के दिमाग में जैसे धूल उड़ने लगी। फाटक पार करते ही उन्होंने एक-दूसरे से बोलना बन्द कर दिया था। कुछ दूरी तक वे एक साथ चलते गए, फिर सहसा लक्ष्मीनारायण और सरदारजी सड़क पार करने लगे। लक्ष्मीनारायण ने सिर पर से पगड़ी उतारकर बगल में दबा ली और भागता हुआ-सा सड़क पार करने लगा।

बँगले के बाहर सड़क पर पहुँचने पर दाएँ हाथ ढलान पड़ती थी जो सीधी उस पुल तक चली गई थी जो शहर को छावनी से अलग करता था।

हरबर्ट अपनी साइकिल पर आया था। वयोवृद्ध आदमी अभी भी साइकिल चलाता था, वह धीरे-धीरे साइकिल चलाता हुआ ढलान उतर गया। एक बार उसके मन में आया कि पूछे कि अमन कमेटी की मीटिंग कब और कहाँ होगी, पर इन लोगों को घबराया देखकर चुप हो गया। अगर फ़साद फूट पड़ा है तो मीटिंग अब क्या होगी?

हयातबख्श भाग नहीं रहा था, केवल तेज़-तेज़ चल रहा था और बार-बार पीछे की ओर घूमकर देख रहा था। पीछे की ओर लगभग सभी घूम-घूमकर देख रहे थे।

'कोई बात नहीं, आराम से चलो, इलाका मुसलमानी है!' हयातबख्श ने मन ही मन कहा। सड़क के पार सरदारजी क़दम बढ़ाते हुए आगे निकल गए। उनके पीछे लगभग दस गज की दूरी पर लक्ष्मीनारायण चला आ रहा था। देह भारी होने के कारण उसके लिए तेज़ चलना कठिन हो रहा था और वह बार-बार रूमाल से अपनी गर्दन पोंछ रहा था। बख्शी और मेहता कुछ देर तक गेट के पास ठिठके खड़े रहे। फिर वे भी ढलान उतरने लगे।

“आओ टाँगा कर लें। पैदल पहुँचने में देर लगेगी।" मेहता ने कहा। बख्शी रुक गया। एक टाँगा पीछे से आ रहा था। मेहता ने घोड़े की टाप सुनी और सड़क के किनारे खड़ा हो गया और हाथ हिला-हिलाकर उसे रुक जाने को कहने लगा।

“कहाँ जाना है?" साँवले रंग के छोटी उम्र के गाड़ीवान ने घोड़े की रास खींचते हुए पूछा।

“अड्डे तक ले चलो।"

“दो रुपए होंगे।"

"किस बात के दो रुपए! मज़ाक़ है?" पुरानी आदत के मुताबिक बख्शी ने कहा। टाँगा चलने को हुआ।

“बैठो, बैठो, बख्शीजी, जो माँगता है दो। यह वक़्त सौदा करने का नहीं है, चलो बैठो।" और मेहताजी पिछली सीट पर बैठ गए। “जल्दी-से-जल्दी शहर पहुँचो।"

उन्हें टाँगे पर चढ़ते देखकर लक्ष्मीनारायण भी मुड़कर उन्हीं की तरफ़ जाने लगा। लेकिन टाँगा चल पड़ा था। लक्ष्मीनारायण सड़क के बीचोबीच खड़े उन्हें देखते रह गए।

"हिन्दू हिन्दू के साथ ऐसा ही व्यवहार करेगा। प्राचीन काल से यही कुछ होता आ रहा है, वाह रे हिन्दुओ!"

लक्ष्मीनारायण ने क्षोभ से मन-ही-मन कहा और छड़ी ठकोरता उन्हीं क़दमों पटरी की ओर वापस लौट गया।

इस बीच बाकी तीन व्यक्ति एक-दूसरे से अलग, एक-दूसरे से काफी फासले पर ढलान उतर रहे थे। लक्ष्मीनारायण से थोड़ा आगे हकीम अब्दुलगनी थे, जो कांग्रेस कमेटी के रुकन और पुराने कार्यकर्ता थे। उनके आगे सरदारजी थे और सबसे आगे हयातबखश । हयातबख्श ने कोट उतारकर कन्धों पर डाल लिया था।

टाँगे में बैठते ही बख्शीजी ने कहा, “कुछ लोगों को टाँगे में बिठा लो।"

“किसी को नहीं बिठाओ बख्शीजी, यही बाएँ हाथ की सड़क से निकल चलो। वे अपना इन्तज़ाम कर लेंगे।" मेहता बोला, फिर तर्क देने की कोशिश करने लगा, "किस-किसको बिठाओगे।"

बख्शीजी को लगा जैसे टाँगे में बैठकर वह कोई भूल कर बैठे हैं। उन्हें मेहता पर खीझ उठी, अपने पर खीझ उठी कि क्यों वह मेहता तथा अन्य लोगों की बातों में आ जाते हैं, यहाँ इकट्ठे आए थे, इकट्ठे ही जाना चाहिए था पर वह फिर भी बैठे रहे।

टाँगा जब हयातबख्श के पास से गुज़रा तो हयातबख्श हँसकर बोला, "भागते हो कराड़ो! पहले इश्तआल देते हो, बाद में भागते हो!"

बख्शीजी के साथ उसकी बेतकल्लुफी थी, इसी शहर में दोनों बड़े हुए थे, अलग-अलग राजनीति के बावजूद वे एक-दूसरे से हँसकर मिलते थे, दोनों का आपस में मज़ाक चलता था।

हयातबख्श ने घूमकर पीछे देखा, अपने पीछे सरदार बिशनसिंह को आता देखकर बोले, “बख्शीजी तो निकल गए! अमन करवाने चले थे! यह तो ख़सलत है इन लोगों की!"

पर सरदार बिशनसिंह चुप रहा। सिर नीचा किए चलता गया।

सबसे पीछे चलते हुए लक्ष्मीनारायण की ख्वाहिश हुई कि आगे बढ़कर जैसे-तैसे हयातबख्श के साथ हो लें। यह इलाक़ा मुसलमानी था और मुसलमान के साथ-साथ चलते हुए वह बेखतर इलाका पार कर जाएँगे। हयातबख्श को जानते भी सभी लोग हैं।

"ठहरो जी, ऐसी जल्दी भी क्या है।" उसने ऊँची आवाज़ में कहा।

उसकी आवाज़ सुनकर तीनों व्यक्ति अपनी-अपनी जगह पर रुक गए, पर लक्ष्मीनारायण छड़ी पटपटाते सीधे निकलते गए और अन्त में हयातबख्श तक जा पहुंचे।

"बहुत बुरी बात होगी अगर शहर में गड़बड़ हो गई," उसने कहा और हयातबख्श के साथ-साथ चलने लगा। हयातबख्श, लक्ष्मीनारायण का इरादा समझ गया था। और इसमें हयातबख्श का अपना हित भी था, क्योंकि पुल पार करने के बाद थोड़ी दूर आगे जाने पर हिन्दुओं का मुहल्ला शुरू हो जाता था और हयातबख्श का घर उससे भी आगे था। लक्ष्मीनारायण साथ में होगा तो हिन्दुओं का मुहल्ला वह पार करा देगा। यों हयातबख्श भी जानता था कि डर-ख़तरे वाली ऐसी कोई बात नहीं थी, सभी लोग शहर के जाने-माने बुजुर्ग थे, कोई उन पर आसानी से हाथ नहीं उठा सकता था।

टाँगे में बैठे बख्शीजी मन-ही-मन बड़े क्षुब्ध और विचलित हो उठे थे। जब भी किसी प्रकार के संकट की स्थिति होती तो वह बड़बड़ाते, साथियों के साथ खीझकर बोलते, उनका दिमाग काम करना बन्द कर देता था, भावनाओं के रेले के सामने सभी कुछ ढह जाता था।

"चीलें उड़ेंगी मेहताजी, शहर पर चीलें उड़ेंगी।" उन्होंने फिर से कहा और झाँक-झाँककर टाँगे के बाहर देखने लगे।

"अब तो जो होगा देखा जाएगा, पहले तो शहर पहुँचो।"

इस पर बख्शीजी तुनककर बोले, “शहर पहुँचकर क्या हो जाएगा। अब तो सिर पर आ गई।"

मेहता घबराया हुआ जरूर था, लेकिन बख्शी की तरह बौखलाया हुआ नहीं था।

"डिप्टी कमिश्नर ने बात तो सुनी, पहला डिप्टी कमिश्नर तो सीधे मुँह बात ही नहीं करता था।"

“यह क्या कर लेगा, खोती का सिर?" बख्शीजी खीझकर बोले, "इसने हमारी कौन-सी बात सुनी है?"

फिर बख्शी का दिमाग दूसरी ओर जाने लगा।

"किसी का एतबार नहीं किया जा सकता।" मेहता बोला।

"मुसलमान का नहीं तो हिन्दू का किया जा सकता है?" बख्शी ने फिर तुनककर कहा।

"देखो बख्शीजी, बात छोटी है मगर दानिशमन्द को उसी से पता चल जाता है। मुबारकअली जिला कांग्रेस-कमेटी का मेम्बर है। खादी का कुर्ता और खादी की सलवार पहनता है। पर सिर पर पेशावरी टोपी पहनता है, गांधी टोपी नहीं पहनता। मुजफ्फर को छोड़कर कोई भी कांग्रेसी मुसलमान गांधी टोपी नहीं पहनता।"

बख्शी ने जेब में से रूमाल निकालकर पसीना पोंछा और पगड़ी को बगल के नीचे से निकालकर गोद में रख लिया।

“हिन्दू सभा वालों ने मुहल्ला कमेटियाँ बनाई हैं, हमसे तो वह भी नहीं हो सकता। मुहल्ले-मुहल्ले में अमन-कमेटियाँ ही बना लेते।" मेहता ने गर्दन पोंछते हुए कहा :

"डूब मरो मेहताजी, चुल्लू भर पानी में डूब मरो,” बख्शीजी बिफरकर बोले।

"क्यों? डूब क्यों मरूँ? मैंने क्या किया है?"

"दो बेड़ियों में टाँग रखना अच्छा नहीं होता। तुम हमेशा यही करते रहे हो। एक टाँग कांग्रेस में, दूसरी हिन्दू सभा में। तुम समझते हो किसी को मालूम नहीं, सभी को मालूम है।"

"अगर फ़िसाद हो गया तो तुम मुझे बचाने आओगे? नाले के पार का सारा इलाक़ा मुसलमानी है और मेरा घर नाले के सिरे पर है। फिसाद हो गया तो उस वक़्त तुम मुझे बचाने आओगे? या बापूजी आकर बचाएँगे? उस वक़्त तो मुझे मुहल्लेवाले हिन्दुओं का ही आसरा है। छुरा मारनेवाला मुझसे यह तो नहीं पूछेगा कि तुम कांग्रेस में थे या हिन्दू सभा में थे।...अब चुप क्यों हो गए हो?"

"डूब मरो मेहताजी, डूब मरो। यही वक्त होता है जब आदमी के विश्वास परखे जाते हैं। तुमने बहुत माया इकट्ठी कर ली है। तुम्हारी अक्ल पर चरबी चढ़ती गई है। तुम्हारा घर मुसलमानों के मुहल्ले के पास है तो क्या मेरा हिन्दुओं के मुहल्ले में है?"

"तुम्हारा क्या है, तुम तो साधु-बैरागी हो, तुम्हारी न रन्न न कन्न। तुम्हें कोई मारकर क्या करेगा?" मेहता ने कहा, फिर वह भी उबल पड़ा, "कहा था लतीफ को कांग्रेस के दफ्तर में से निकालो। मैं लिखकर दे सकता हूँ कि वह खुफिया पुलिस का आदमी है और हम सबकी रिपोर्ट देता ;। डायरियाँ लिखता है। तुम्हें भी मालूम है और मुझे भी। फिर भी तुम आस्तीन का साँप पाल रहे हो। उधर मुबारकअली लीगियों के साथ साँठगाँठ कर रहा है। तुमसे भी पैसे लेता है, लीगवालों से भी लेता है। पक्की ईंटों का मकान उसने बनवा लिया, पर तुम लोग तो अच्छे हो, सब-कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देखते।"

"ले-देकर दो-तीन मुसलमान तो हमारे बीच में काम करते हैं, उन्हें भी निकाल दें? तुम्हारी अक्ल ठिकाने है या नहीं? एक लतीफ बुरा है तो सभी बुरे हो गए? हकीमजी भी बुरे हैं, जो तुमसे भी पहले का कांग्रेस में काम कर रहे हैं? अजीज अहमद बुरा है?..”

टाँगा ढलान उतर चुका था और पुल की ओर घूम गया था।

दाईं ओर इस्लामिया स्कूल बन्द पड़ा था। सड़क पर आमदरफ्त बहुत कम थी। इस्लामिया स्कूल की इमारत के बाहर चार-पाँच आदमी गाँठ बाँधे खड़े थे। किसी-किसी वक़्त कोई ताँगा या साइकल-सवार सड़क पर से गुज़र जाता था।

पीछे, अभी भी वे चारों लोग ढलान पर से उतर रहे थे। बिजली दफ्तर के सामने हयातबख्श को मौलादाद सड़क के किनारे खड़ा मिल गयादाढ़ीवाला मौलादाद जो बिजली कम्पनी में क्लर्क था और मुस्लिम लीग का कारकुन था।

"क्या कर आए हो?" उसने हयातबखश से पूछा, "डिप्टी कमिश्नर से मिलने गए थे न!"

“मिल आए हैं। वहाँ उसके पास बैठे ही थे कि बाहर शोर हुआ। सभी ने सोचा गड़बड़ हो गई और मीटिंग बरखास्त हो गई। सभी वहाँ से निकल आए। शहर की क्या ख़बर है?"

"तनाव है, तनाव बढ़ रहा है। रत्ते के पास सुनते हैं कोई गड़बड़ हुई है। इधर पीछे क्या हाल है?"

“पीछे ठीक है।"

इतने में हकीम अब्दुलग़नी और सरदार बिशनसिंह भी पहुँच गए। कुछ फासला अलग-अलग तय करने के बाद दोनों एकसाथ चलने लगे थे। हकीमजी कांग्रेसी मुसलमान थे, इसलिए बिशनसिंह को इनके साथ-साथ चलने में संकोच नहीं हुआ।

"फसाद होना भी नहीं चाहिए,” लक्ष्मीनारायण बोला, “बहुत बुरी बात है।"

मौलादाद ने बड़ी तीखी नज़र से लक्ष्मीनारायण की ओर देखा, “आप लोगों का बस चले तो आप तो फसाद करवाकर ही छोड़ोगे। हमीं लोग बरर्दाश्त किए जा रहे हैं।" फिर उसकी नज़र हकीमजी पर पड़ी और उन्हें देखते ही मौलादाद का पारा तेज़ हो गया, “यह हिन्दुओं का कुत्ता भी आपके साथ गया था? यह किसकी नुमाइन्दगी करने गया था?"

तीनों चुप हो गए। हकीमजी सुना-अनसुना करते हुए मुँह ऊँचा किए पुल की दिशा में देखने लगे। पर मौलादाद हकीमजी को देखते ही तिलमिला उठा था।

“मुसलमान का दुश्मन हिन्दू नहीं है, मुसलमान का दुश्मन वह मुसलमान है जो दुम हिलाता हिन्दुओं के पीछे-पीछे जाता है, उनके टुकड़ों पर पलता है...।"

"देखिए मौलादाद साहिब," हकीमजी ने बड़े ठहराव के साथ कहा, "आपका जो मन आए मुझे कहिए। पर सबसे अहम सवाल हिन्दुस्तान की आज़ादी का है, अंग्रेज़ से ताक़त छीनने का है, हिन्दू-मुसलमान का नहीं है।"

“चुप रह कुत्ते," मौलादाद ने चीखकर कहा। उसकी आँखें लाल हो रही थीं और होंठ काँप रहे थे।

“छोड़ो-छोड़ो, जाने दो, जाने दो, यह वक़्त झगड़ा करने का नहीं है।"

क्षण-भर के लिए लक्ष्मीनारायण की टाँगों में पानी भर गया। लेकिन हयातबख्श बुजुर्ग आदमी था, उसने स्थिति सँभाल ली, “जाइए-जाइए हकीमजी, मगर आपके सरपरस्त तो ताँगे पर बैठकर निकल गए हैं। आपको अकेला छोड़ गए हैं।"

हकीमजी धीरे-धीरे सरकने लगे थे। सरदारजी भी उनके साथ-साथ जाने लगे। लक्ष्मीनारायण ज्यों का त्यों खड़ा रहा।

"घर जा रहे हो?" मौलादाद ने हयातबख्श से पूछा। “लीग के दफ़्तर में नहीं चलोगे?"

“मैं बाद में पहुँच जाऊँगा, तुम चलो।"

मौलादाद समझ गया कि हयातबख्श ने क्यों लक्ष्मीनारायण को अपने साथ ले रखा है। बड़े आदर-भाव से दिल पर हाथ रखकर लक्ष्मीनारायण से बोला, “खातिर जमा रखिए लालाजी, हमारे रहते आपका कोई बाल भी बाँका नहीं करेगा।"

हयातबख्श और लक्ष्मीनारायण आगे बढ़ गए।

बारह बजे के करीब लीज़ा टहलती हुई बरामदे में खुलनेवाले दरवाज़े की ओर आ गई। पर्दे को थोड़ा हटाकर लीज़ा ने बाहर झाँककर देखा। बरामदे के बाहर चिलचिलाती धूप सारे बाग को ढके थी, लगता था जैसे काँच चमक रहा है। लगता, जैसे ज़मीन में से कोई चीज़ काँप-काँपकर निकल रही है, हवा में थरथरा रही है। अभी से धूप इतनी तेज़ हो गई थी। उसने पर्दा गिरा दिया।

अँगीठी के पास से गुज़रते हुए उसकी नज़र एक बुत पर पड़ी जो अँगीठी पर बीचोबीच रखा था। बढ़ी हुई तोंदवाला कोई हिन्दू देवता जिसके माथे पर लाल और सफ़ेद रेखाएँ खिंची थीं, बैठा हँस रहा था। उसे देखकर लीज़ा को मतली-सी आने लगी। उसे यह बुत बड़ा घिनौना लगा। रिचर्ड इसे कहाँ से उठा लाया है?

वह बड़े कमरे में आ गई। जगह-जगह रखी प्रतिमाओं और बुतों को देखकर उसे जड़ता का-सा भास हुआ, जैसे वहाँ पर प्रतिमाएँ नहीं, मृत बुद्धों के सिर रखे हों जिन्हें अकेले में देखकर कभी-कभी उसे झुरझुरी होने लगती थी। किताबों और मूर्तियों से भरे इस घर में उसे घुटन महसूस होने लगी थी। कमरे में घूमती तो उसे लगता जैसे बुद्ध के बुत कनखियों से उसकी ओर देख रहे हैं। रिचर्ड के चले जाने पर इन सभी चीज़ों में जड़ता आ जाती थी। शायद इसका कारण यही था कि वह अकेली रह जाती थी। दिन-भर उसे इन्हीं बुतों और किताबों के ढेरों के साथ बिताना पड़ता था। दिन-भर अकेले इन्हीं को देख-देखकर वह एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर काटती रही थी। वह बुद्ध की प्रतिमा के सामने जा खड़ी हुई। मनबहलाव के लिए उसने बिजली का बटन दबाया। सचमुच बुद्ध के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान खिल उठी थी। उसने बिजली बुझा दी, मुस्कान ओझल हो गई। उसने फिर से बटन दबाया, मुस्कान फिर से लौट आई। पर उसे लगा जैसे बुत कनखियों से उसकी ओर घूरे जा रहा है। उसने झट-से बिजली बुझा दी।

लीज़ा अपने कमरे में चली गई। अन्दर पहुँचते ही उसे हलकी-सी टुनटुन की आवाज़ सुनाई दी। ऐन पलँग के पीछे खिड़की के सामने काँसे की बनी छोटी-सी घंटी लटक रही थी। हर बार हवा का झोंका आने पर घंटी टुनटुनाने लगती, बहुत ही धीमी और मीठी-सी टुनटुनाहट की आवाज़ उसमें से सुनाई पड़ती थी, जैसे वह आवाज़ कहीं दूर से आ रही हो। सारा वक़्त कमरे में मधुर टुनटुनाती आवाज़ बनी रहती थी। घर में यह चीज़ नई थी, लीज़ा के लौटने से पहले ही रिचर्ड ने उसे कहीं से लाकर उसके कमरे में टाँग दिया था। लीज़ा को उपहार देने के लिए, उसे खुश करने के लिए रिचर्ड उसे लाया था।

तभी खटाक् का शब्द हुआ। लीज़ा ने घूमकर बाईं ओर देखा। उसे पहले तो कुछ नज़र नहीं आया, फिर उसकी नज़र ड्रेसिंग टेबल पर गई। एक छिपकली वहाँ औंधी पड़ी थी ओर ज़ोर-ज़ोर से हिल रही थी, जैसे तड़प रही हो। लीज़ा सिर से पाँव तक सिहर उठी। छिपकली दीवार पर से बिजली की बत्ती के पास से गिरी थी। शीघ्र ही छिपकली ने हिलना-डुलना छोड़ दिया। लीज़ा समझ गई कि वह मर गई है। गरमी बढ़ रही थी और आए दिन छिपकलियाँ मर रही थीं। अनगिनत कमरों के बावजूद बँगला पुराना था; अंग्रेज़ों की अमलदारी ने पंजाब में जब अपने पैर जमाए थे, तभी का था।

दो बरस पहले ऐसे ही एक बँगले से नौकरों के क्वार्टरों में से डेढ़ गज लम्बा साँप निकला था। वह कभी खाटों के नीचे घुस जाता, कभी लहराता हुआ बरामदे की दीवार के साथ-साथ रेंगने लगता। पर इस घटना के बाद उसके लिए बँगले में रह पाना असम्भव हो गया था। डर के मारे उसने कई दिन तक कपड़ों की अलमारी नहीं खोली थी कि अलमारी में कोई फनियर साँप नहीं बैठा हो, और इसी मनःस्थिति में वह विलायत लौट गई थी।

लीज़ा ने दरवाजे के पास कॉल-बेल का बटन दबाया और स्वयं कमरे से निकलकर बाहर आ गई।

जब लीज़ा भारत आई थी तो बहुत-सी योजनाएँ बनाकर कि वह भारत की दस्तकारी के नमूने इकट्ठे करेगी, खूब घूमेगी, तस्वीरें उतारेगी, शेर की पीठ पर बैठकर तस्वीर खिंचवाएगी, साड़ी पहनकर घूमा करेगी, और जाने क्या-क्या। यहाँ उसे मिली थी चिलचिलाती धूप, बड़े बँगले का कारावास, कभी न ख़त्म होनेवाला दिन और गौतम बुद्ध के बुत और छिपकलियाँ और साँप...। बँगले के बाहर के जीवन में भी वैसी ही एकरसता थी-क्लब, अंग्रेज़ अफसरों की पलियाँ, कमिश्नर की पत्नी कमिश्नर स्वयं इतनी अधिक कमिश्नरी नहीं करता था जितनी उसकी पत्नी करती थी-ब्रिगेडियर की पत्नी का सभी स्त्रियों के साथ छोटाई और बड़ाई के आधार पर मेल-मिलाप और बड़े अफसरों की पत्नियाँ अधिक थीं क्योंकि तब रिचर्ड छोटा अफसर था। शनीचर की रात क्लब में डांस होता, आए दिन पार्टियाँ होती, पर लम्बे दिन फिर भी काटे नहीं कटते थे। और तभी उसे बीयर पीने की लत पड़ गई थी, कमरों में आती-जाती वह ऊब उठती और बीयर का गिलास भर लेती। ऊब से बचने का और कोई उपाय नहीं था।

"तुम्हारी रगों में ज़रूर जर्मन खून दौड़ता होगा जो तुम्हें बीयर इतनी ज़्यादा पसन्द है।"

रिचर्ड मज़ाक में कहता, लेकिन लीज़ा की यह आदत बढ़ती गई थी। कभी-कभी लंच के समय रिचर्ड घर लौटता तो लीज़ा की आँखें चढ़ी होती और वह अस्त-व्यस्त सोफे पर पड़ी होती। चुम्बनों और आलिंगनों और हिचकियों के बीच वह बार-बार कस्में खाती कि अब ज़्यादा बीयर नहीं पियेगी लेकिन अगले दिन फिर वक़्त काटे नहीं कटता था।

अबकी बार वह अधिक स्वस्थ होकर आई थी। उसने सोचा था कि अबकी बार वह न केवल रिचर्ड की दिलचस्पियों में शामिल होगी बल्कि उसके प्रशासन के काम में भी रुचि लेगी, और सार्वजनिक कामों में भी भाग लेगी।

जानवरों की रक्षा के लिए बनाई जानेवाली संस्था क्या काम करेगी, उसने मन ही मन सोचा। मुझे उसमें क्या काम करना होगा?...लीज़ा के मन में ज़ोरों की ललक उठी कि खानसामा जब आए तो उसे बीयर लाने के लिए कहे। खानसामा नया था और उसकी इस कमज़ोरी के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। क्या वह स्वयं गली-गली, सड़क-सड़क घूमेगी, घोड़ों और आवारा कुत्तों को एक-एक करके मरवाती फिरेगी? यह कैसा काम होगा? या वह ज़िले की प्रथम महिला होने के नाते प्रधान बनी रहेगी और काम निचले लोग करेंगे? लीज़ा की मनःस्थिति विचित्र हो रही थी। एक ओर ऊब का भय और दूसरी ओर जिले की प्रथम महिला, जिलाधीश की पत्नी होने का गर्व, दर्जनों नौकर-चाकर, इतना बड़ा बँगला, जो एक ओर भाँय-भाँय करता था तो दूसरी ओर उसे प्रभुता का भास देता था।

"मेम साऽऽब!"

खानसामा सामने खड़ा था।

"हमारे कमरा में ड्रेसिंग टेबल पर छिपकली मरा है। उसे उठाओ। जाओ।" उसने दबदबे से कहा।

खानसामना ने सलाम किया, 'हुजूर!' कहा और वहाँ से चला गया।

लीज़ा चलती हुई फिर बरामदे की खिड़की के पास आ गई। पर्दा उठाने पर फिर उसे तपते काँच-जैसी चौंधियाती धूप से साक्षात् हुआ। पर साथ ही बरामदे में एक ओर लगी छोटी-सी मेज़ पर रिचर्ड के दफ्तर का बाबू बैठा नज़र आया जो चिट्ठियाँ छाँट रहा था काले रंग का छोटी उम्र का बाबू जिसके सफ़ेद दाँत बहुत चमकते थे और जो हर वाक्य के साथ रिचर्ड से 'यस सर! यस सर!' दो बार ज़रूर कहता और दाएं-बाएँ सिर हिलाता था। उसे देखकर लीज़ा मुस्करा दी। बाबू अंग्रेज़ी जानता था। और उसे अंग्रेज़ी में बातें करते सुनकर लीज़ा का बड़ा मनोरंजन हुआ था। लीज़ा खानेवाले कमरे के रास्ते बरामदे में आ गई।

“बाबू!" रिचर्ड की देखादेखी लीज़ा ने भी उसे बाबू ही कहकर पुकारा और दरवाजे के पास रखी कुर्सी पर बैठ गई।

बाबू अपनी फाइल सँभालता हुआ भागकर लीज़ा के सामने आ खड़ा हुआ, “यस सर! यस मैडम!" बाबू का चेहरा साँवला था और दाँत बेहद सफेद थे, और बाबू के शरीर का प्रत्येक अंग जैसे उसके धड़ के साथ पेचों से जोड़ा गया था क्योंकि उसका कोई न कोई अंग हर वक़्त झटका खाकर टेढ़ा हो जाता था। कभी दायाँ कन्धा झुक जाता, कभी बायाँ घुटना झुक जाता, पर मुँह हर वक़्त खुला रहता और सफेद दाँत सारा वक्त झिलमिलाते रहते।

"यू हिंडू, बाबू?"

“यस, मैडम," बाबू ने तनिक झेंपकर कहा।

लीज़ा अपनी सूझ पर खिल उठी।

“आई गेस्ड राइट!"

“यस, मैडम!"

लीज़ा उसकी ओर देखती रही। देखते ही देखते वह द्विविधा में पड़ गई। उसने किस आधार पर कहा था कि वह हिन्दू है। पोशाक में उसने पतलून-कोट-टाई पहन रखे थे। वह सोच में पड़ गई। कौन-से चिह्न होते हैं जिनसे एक हिन्दू को पहचाना जाता है! फिर वह उठ खड़ी हुई और अपना हाथ बढ़ाकर उसके सिर के बालों में कुछ ढूँढ़ती रही। बाबू झेंप गया। तीसेक साल का बाबू पिछले दस साल से दफ्तर में स्टेनो का काम कर रहा था। लीज़ा ही पहली डिप्टी कमिश्नर की पत्नी थी जो बेतकल्लुफी से उसके साथ बातें करने लगी थी। अन्य डिप्टी कमिश्नरों की पत्नियाँ बड़ी रुखाई और उपेक्षा से उससे पेश आया करती थीं।

बरामदे के सिरे पर किचन की ओर जानेवाले छोटे-से आँगन में खानसामा, बाग का माली और किचन का रसोइया खड़े थे और उन्हीं की ओर देखे जा रहे थे।

“नो, इट इजंट देयर!" लीज़ा बोली। बाबू को सिर से पैर तक झुरझुरी हुई। झेंप में उसके मुस्कुराते होंठ काँप रहे थे।

“यू आर नो हिंडू, यू टोल्ड ए लाई!"

“नो मैडम, आई एम ए हिन्दू, एक ब्राह्मण हिन्दू!"

“ओ नो, दैन वेयर इज युअर टफ्ट?"

बाबू डर रहा था। शहर में दंगे की आशंका थी और वह कठिनाई से बचता हुआ दफ्तर पहुंचा था। पर लीज़ा की बात सुनकर वह आश्वस्त-सा महसूस करने लगा। काले चेहरे में उसके सफ़ेद दाँतों की लड़ी चमक उठी।

“आई हैव नो टफ्ट मैडम!"

“दैन यू आर नो हिंडू!"

लीज़ा ने अपनी तर्जनी उसकी ओर हिलाते हुए हँसकर कहा, “यू टोल्ड ए लाई!"

“नो मैडम, आई एम ए हिन्दू।"

"टेक ऑफ युअर कोट, बाबू!" लीज़ा ने कहा।

"ओह, मैडम!" बाबू फिर झेंप गया।

"टेक ऑफ, टेक ऑफ हरी!"

बाबू ने मुस्कराते हुए कोट उतार दिया।

"वैरी गुड, नाउ अन्बटन युअर शर्ट?"

"वॉट मैडम?"

“डोंट से वॉट मैडम, से आई बैग युअर पार्डन मेडेम। ऑल राइट, अन्बटन युअर शर्ट!"

बाबू निःसहाय-सा लीज़ा के सामने खड़ा रहा, फिर नेकटाई के नीचे हाथ डालकर एक-एक करके तीन बटन खोल दिए।

"शो मी युअर थ्रेड।"

"वॉट, मैडम?”

"युअर थ्रेड,"

"वॉट मेडेम!"

"शो मी युअर हिन्दू थ्रेड!"

बाबू समझ गया। मेम साहिब यज्ञोपवीत के बारे में पूछ रही थीं। बाबू के यज्ञोपवीत नहीं था। दसवीं जमात पास करके कालिज में आने पर उसने चुटिया कटवा ली थी और बारहवीं जमात में प्रवेश करने पर उसने यज्ञोपवीत उतारकर फेंक दिया था।

"आई हैव नो ब्रैड मैडम।" उसने खिसियाई-सी मुस्कान के साथ कहा।

"नो थ्रेड, दैन यू आर नो हिंडू।"

“आई एम ए हिन्दू मैडम, आई स्वेयर बाई गॉड, आई एम ए हिन्दू।" वह फिर से डरने लगा था।

“नो, यू आर नो हिंडू, यू टोल्ड ए लाई! आई शैल टैल युअर बॉस अबौट इट।"

बाबू का चेहरा पीला पड़ गया। कमीज़ के बटन बन्द कर कोट पहनते हुए उसने घबराकर कहा, “आई टैल यू सिंसियर्ली मैडम आई एम ए हिन्दू, माई नेम इज रोशनलाल।"

"रोशनलाल! बट दि कुक्स नेम इज रोशनडीन, एंड ही इज ए मुसलमान।"

“यस मैडम," बाबू बोला, उसके लिए समझाना कठिन हो गया। "ही इज रोशनदीन मैडम, आई एम रोशनलाल। आई एम ए हिन्दू, ही इज मुस्लिम।"

"नो, रिचर्ड टोल्ड मी यू पीपल हैव डिफरेंट नेम्स।"

फिर बाबू की ओर तर्जनी उठाकर झूठे आक्रोश के स्वर में बोली, "नो बाबू, यू टोल्ड ए लाई! आई शैल टैल युअर बॉस।"

बाबू का गला सूख रहा था और दिल धड़कने लगा। शहर में गड़बड़ के कारण ही तो यह पूछताछ नहीं हो रही है! मेम साहिब चाहती क्या हैं?

सहसा लीज़ा ऊब उठी।

“गो बाबू! आई शैल टैल एवरीथिंग टु युअर बॉस!"

बाबू ने बरामदे के फर्श पर से अपनी फाइल उठाई और पीछे को मुड़ गया। अभी वह बरामदा लाँघकर जा ही रहा था जब लीज़ा ने फिर से आवाज़ लगाई, “बाबू!"

बाबू मुड़ा।

"कम हियर!"

नज़दीक आने पर लीज़ा ने गम्भीर मुद्रा बनाकर कहा, “वेयर इज युवर बॉस?"

“इन दी ऑफ़िस मैडम। ही इज वैरी बिजी, मैडम।"

"ऑल राइट, गो! यू ऐंड युअर बॉस! गो! गैट आउट ऑफ हियर!" उसने चिल्लाकर कहा।

“यस मैडम," और बाबू फिर काँपता हुआ मुड़ गया।

बाबू के चले जाने के बाद लीज़ा को जैसे मतली आने लगी। उसका हँसोड़ मूड फिर विरक्ति और वितृष्णा में बदलने लगा। बाबू को कन्धे झुकाए हुए जाता देखकर उसे लगने लगा जैसे कोई लसलसा-सा जीव जा रहा है। न जाने रिचर्ड कैसे इन लोगों के साथ दिन-भर काम कर सकता है। एक गहरी हूक-सी उसके मन में उठी, और वह उन्हीं कदमों बँगले के अन्दर जाने के लिए मुड़ गई।

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रचनाएँ
तमस
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'तमस' की कथा परिधि में अप्रैल १९४७ के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है। 'तमस' कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षों की कथा हो जाती है। आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी होने के बावजूद इसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उदघाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं।
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तमस भाग 1

9 अगस्त 2022
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आले में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर बाद ब

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भाग 2

9 अगस्त 2022
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प्रभातफेरी में भाग लेने के लिए आरंभ में दो गिने-चुने लोग ही पहुँचते थे। बाद मे गलियाँ और बाज़ार लाँघते हुए जिस किसी का घर रास्ते में पड़ता वह तोंद खुजलाता, जम्हाइयाँ लेता साथ में शामिल हो जाता था। ह

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भाग 3

9 अगस्त 2022
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गली में क़दम रखते ही नत्थू ने चैन की साँस ली। गली में अँधेरा था जबकि सड़कों पर अँधेरा छटने लगा था। नत्थू जल्दी से जल्दी गलियों का जाल लाँघकर अपने डेरे पर पहुँच जाना चाहता था। उस बदबू-भरी कोठरी में से

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भाग 4

9 अगस्त 2022
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टीले के ऊपर पहुँचकर दोनों ने अपने घोड़े रोक लिये। सामने दूर तक चौड़ी घाटी फैली थी जो पहाड़ों के दामन तक चली गई थी। लगता दूर क्षितिज पर सतरंगी धूल उड़ रही है। विशाल मैदान, कहीं-कहीं छोटी-छोटी पहाड़ियाँ

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भाग 5

9 अगस्त 2022
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अँधेरा छटने लगा था जब प्रभातफेरी की मंडली गलियाँ लाँघती हुई "इमामदीन के मुहल्ले में पहुँची। रास्ते में शेरखान के घर से झाड़, बेलचे, कड़ाहियाँ और सफाई का अन्य सामान लेकर वे आगे बढ़ने लगे थे। सुबह की रो

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भाग 6

9 अगस्त 2022
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साप्ताहिक सत्संग की समाप्ति से पहले पुण्यात्मा वानप्रस्थीजी सदा की भाँति मन्त्रपाठ करने लगे। इस मन्त्रपाठ को वह सत्संग रूपी यज्ञ की 'अन्तिम आहुति' कहा करते थे। गिने-चुने इन विशिष्ट मन्त्रों तथा श्लोको

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भाग 7

9 अगस्त 2022
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दफ्तर में मिलने के बजाय आप लोग घर पर मिलने आए। ज़रूर कोई बहुत ही ज़रूरी काम रहा होगा।" रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा। चपरासी ने चिक उठा दी। नागरिकों के शिष्टमंडल के सदस्य एक-एक करके कमरे के अन्दर दाखिल हुए

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भाग 8

9 अगस्त 2022
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शहर में सब काम जैसे बँटे हुए थे : कपड़े की ज़्यादातर दूकानें हिन्दुओं की थीं, जूतों की मुसलमानों की, मोटरों-लारियों का सब काम मुसलमानों के हाथों में था, अनाज का काम हिन्दुओं के हाथ में। छोटे-छोटे काम

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भाग 9

9 अगस्त 2022
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'ऐसा 'बेवाका' घर है, कोई चीज़ एक बार कहीं रख दो, फिर मिलती ही नहीं, ढूंढ-ढूँढ़ मरो उसे।" लाला लक्ष्मीनारायण अलमारी के सामने खड़े बड़बड़ा रहे थे। अलमारी के निचले खाने में कपड़ों के नीचे उन्होंने एक नन्

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भाग 10

9 अगस्त 2022
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दिन के उजाले में शहर अधमरा-सा पड़ा था, मानो उसे साँप सूंघ गया हो। मंडी अभी भी जल रही थी, म्युनिसिपैलिटी के फायर ब्रिगेड ने उसके साथ जूझना कब का छोड़ दिया था। उसमें से उठनेवाले धुएँ से आसमान में कालिमा

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भाग 11

9 अगस्त 2022
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देवदत्त नहा-धोकर, हाथ मलता हुआ अपने घर के सामने आ खड़ा हुआ। जब कभी वह हाथ मलता हो, या दाएँ हाथ से मुँह और नाक सहलाता हुआ फिर से दोनों हाथ मलने लगे तो समझ लो देवदत्त अपनी कार्य-सूची तैयार कर रहा है। दे

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भाग 12

9 अगस्त 2022
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एक आदमी छज्जे पर पहरा दे।" रणवीर ने घूमकर कहा। मुर्गी काटकर दीक्षा पाने से उसमें भरपूर आत्म-विश्वास पैदा हो गया था। वह दल का सबसे चतुर, सबसे चुस्त और सबसे ज़्यादा कार्यकुशल सदस्य था। उसकी आवाज़ में कड

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भाग 13

9 अगस्त 2022
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नत्थू परेशान था। अपनी कोठरी के बाहर बैठा वह चिलम पर चिलम फूँके जा रहा था। जितना अधिक वह मार-काट की अफवाहों को सुनता, उतना ही अधिक उसका दिल बैठ जाता। बार-बार अपने मन को समझाता, मैं अन्तर्जामी तो नहीं ह

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भाग 14

9 अगस्त 2022
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पहली बस खानपुर से चलकर सुबह आठ बजे गाँव पहुँचती थी। वह नहीं आई। उसके बाद हर घंटे दो घंटे के बाद शहर की ओर से भी और खानपुर की ओर से भी बसें आती थीं। आज दोपहर हो गई, एक भी बस नहीं आई। चाय की दुकान में क

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भाग 15

9 अगस्त 2022
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गुरुद्वारा खचाखच भरा था और संगत मस्ती में झूम रही थी! बस अनमोल समय था। रागी पूरी तन्मयता से आँखें बन्द किए गा रहे थे : “तुम बिन कौन मेरे गोसाईं..." संगत में सबके हाथ जुड़े हुए, आँखें बन्द और सिर वजद

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भाग 16

9 अगस्त 2022
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हरनामसिंह ने दूसरी बार साँकल खटखटाई तो अन्दर से किसी स्त्री की एआवाज़ आई : "घर पर नहीं हैं, मर्द बाहर गए हैं।" हरनामसिंह ठिठका खड़ा रहा। बन्तो की आँखें दाएँ-बाएँ देख रही थीं कि आसपास उन्हें किसी ने

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भाग 17

9 अगस्त 2022
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इस बीच देहात की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर एक और नाटक खेला जा रहा २ था। रमज़ान और उसके साथी ढोक इलाहीबख्श और मुरादपुर की ओर से लूटपाट का सामान उठाए हँसते-बतियाते लौट रहे थे जब उन्हें दूर एक टीले के पास, एक भ

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भाग 18

9 अगस्त 2022
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तुर्क आए थे पर वे अपने ही पड़ोसवाले गाँव से आए थे। तुर्कों के ज़ेहन में भी यही था कि वे अपने पुराने दुश्मन सिखों पर हमला बोल रहे हैं और सिखों के जेहन में भी वे दो सौ साल पहले के तुर्क थे जिनके साथ खाल

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भाग 19

9 अगस्त 2022
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शहर की सड़क पर निकलते ही पता चल जाता था कि माहौल बदल गया है। मुहल्ला कुतुबदीन की मस्जिद के सामने, सड़क के पार चार हथियारबन्द फौज़ी कुर्सियाँ डाले बैठे थे। सड़क पर चलते हुए हर चौक पर दो-तीन फौजी बन्दूक

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भाग 20

9 अगस्त 2022
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हमें आँकड़े चाहिए, केवल आँकड़े! आप समझते क्यों नहीं? आप लम्बी हाँकने लगते हैं, सारी रामकहानी सुनाने लगते हैं, मुझे रामकहानी नहीं चाहिए, मुझे केवल आँकड़े चाहिए। कितने मरे, कितने घायल हुए, कितना माली नु

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भाग 21

9 अगस्त 2022
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अमन कमेटी की मीटिंग के लिए लोग हॉल में इकट्ठे हो रहे थे। यही एक जगह चुनी गई थी जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी, क्योंकि कालिज न हिन्दुओं का था, न मुसलमानो का, कालिज ईसाइयों का था, प्रिंसिपल भी ह

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