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भाग 17

9 अगस्त 2022

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इस बीच देहात की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर एक और नाटक खेला जा रहा २ था। रमज़ान और उसके साथी ढोक इलाहीबख्श और मुरादपुर की ओर से लूटपाट का सामान उठाए हँसते-बतियाते लौट रहे थे जब उन्हें दूर एक टीले के पास, एक भागता सिख नज़र आ गया। यह नहीं मालूम कि वह इस गिरोह को देखकर भागा था या पहले से ही भागता आ रहा था, पर जब इन लोगों को वह नज़र आ गया तो सचमुच इन्हें एक खेल मिल गया। 'या अली!' रमज़ान ने ललकारा और सभी लोग-बीस-तीस लोग रहे होंगे उसके पीछे भाग खड़े हुए। ज़मीन हमवार नहीं थी, जगह-जगह टीले, नीची खाइयाँ और टीलों के बीच तरह-तरह के खोह बने थे। सरदार ने मुँह तो गाँव की ओर ही कर रखा था लेकिन बैलगाड़ियों का रास्ता छोड़कर खेतों-कस्सियों के रास्ते से जाने की कोशिश कर रहा था। उसका ख्याल था कि इस तरह वह देहातियों की नज़र से बच जाएगा।

एक बार नज़र आने के बाद वह आँखों से ओझल हो गया।

"छिप गया है सिखड़ा!" रमज़ान ने कहा और क़दम तेज़ कर दिए। अभी पच्चीसेक गज की दूरी रही होगी जब सरदार की एक और झलक मिली। सरदार टीलों-खाइयों के रास्ते अभी बढ़ता ही जा रहा था। पर जब वे लोग ऐन उस जगह पर पहुँचे जहाँ पर सरदार उन्हें नज़र आया था, तो वह गायब हो चुका था।

"किसी खोह में घुस गया है!" नूरदीन बोला, “निकालो माँ के...को।"

उस समय ये लोग टीले के ऊपर खड़े थे। कुछ देर पहले से ही इन मुजाहिदों ने ढेले और पत्थर उठा-उठाकर उस भागते सिख की दिशा में फेंकने शुरू कर दिए थे, लेकिन अब वे आसपास टीलों में बने खोहों के अन्दर चाँदमारी करने लगे कि जिस खोह में छिपा बैठा है, पत्थर खाकर अपने-आप बाहर आ जाएगा। अगर सरदार भागता रहता तो ज़रूर ही पत्थरों की इस बौछार में मारा जाता जैसे बरसाती चूहा मारा जाता है, पर वह भागने की बजाय एक टीले के अन्दर बनी अँधेरी खोह में दुबककर बैठ गया था। आसपास अनगिनत खोह थे और उनमें से किसमें वह छिपा बैठा है, इन लोगों के लिए ढूँढ़ना आसान नहीं था।

“ओ सिक्खा, बड़ी तरिक्खा, निकल बाहर!" नूरदीन ने ऊँची आवाज़ में कहा जिस पर सभी लोग ठहाका मारकर हँस दिए। नूरदीन रमज़ान के ही गाँव का रहनेवाला था, गधों पर मिट्टी और ईंटें लादकर लाता-ले जाता था और उसके दाँतों के ऊपर लाल-लाल मसूड़े थे, जब हँसता तो मसूड़े दूर तक नज़र आते थे।

कुछ लोग नीचे उतरे।

"इस खोह में होगा।" एक बोला।

"निकल बाहर तेरी माँ की..." दूसरे ने कहा और ढेला उठाकर ज़ोर से अन्दर फेंका। पर उसका कोई असर नहीं हुआ। खोह के अन्दर अँधेरा था, और खोह काफ़ी गहरी थी, कोई जवाब नहीं आया।

फिर बहुत-से लोगों ने एक साथ ढेले उठा-उठाकर फेंके, पर इनका भी कोई असर नहीं हुआ।

“अन्दर जाकर देखो ओए, इस तरह से पता नहीं चलेगा।" रमज़ान बोला।

“सँभलके जाओ रमज़ान उसके पास किरपान होगी।"

“उसकी माँ की..." रमज़ान ने हँसकर कहा, पर फिर भी एहतियात के लिए अपना चाकू खोल लिया। रमज़ान अन्दर घुसा तो पीछे-पीछे दो-तीन साथी और भी घुस गए।

“निकल ओए कराड़ा...!"

रमज़ान चिल्लाया। और कुछ लोग अन्दर की ओर बढ़ गए।

उन लोगों ने सारी खोह छान मारी मगर सरदार नहीं मिला। वह किसी दूसरी खोह में छिपा बैठा था।

तभी गिरोह का एक आदमी जो अभी भी टीले पर खड़ा था, चिल्ला उठा, "वह जा रहा है, उधर को गया है।" और उसने बाएँ हाथ को दो-तीन टीले छोड़कर पिछले एक टीले की ओर इशारा किया। सरदार के झिलमिलाते कपड़े उसे उस ओर नज़र आए थे।

सभी लोग उस ओर दौड़े। दो-तीन खोहों के अन्दर एक साथ ढेले पड़ने लगे। एक खोह में एक ढेला सीधा सरदार के घुटने पर लगा, वह चिल्लाया नहीं और पीछे दुबककर बैठ गया। फिर धड़ाधड़ ढेले पड़ने लगे। कोई ढेला खोह की दीवार के साथ जा लगता, कोई सीधा उसके घुटनों पर या कन्धे पर या माथे पर जा लगता। और सरदार सिसककर रह जाता। ढेले बराबर तीनों खोहों में पड़ते रहे। पर थोड़ी देर बाद एक खोह में से कराहने-बिलबिलाने की दबी-दबी आवाज़ आने लगी। अब हमलावरों को यकीन हो गया कि वह इसी खोह में दुबका बैठा है, और ढेलों की बौछार और तेज़ हो गई।

तभी एक बुद्धिमान को कोई विचार सूझा और वह चिल्लाकर बोला, “ओए, ठहरो ओए! मत मारो पत्थर!"

कुछ लोगों ने हाथ रोक लिए, इक्का-दुक्का पत्थर फिर भी पड़ता रहा।

फिर वह दानिशमन्द, खोह के मुँह के सामने आकर खड़ा हो गया और ऊँची आवाज़ में बोला, “ओ सरदार, दीन कबूल कर ले, हम तुम्हें छोड़ देंगे!"

अन्दर से कोई जवाब नहीं आया, केवल काँपती-सी कराहने की आवाज़ आती रही।

"बोल सरदार; इसलाम कबूल करेगा या नहीं? अगर मंजूर है तो अपने-आप बाहर आ जा, हम तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे। वरना ढेले मार-मारकर मार डालेंगे।"

अन्दर से फिर भी कोई जवाब नहीं आया। इक्के-दुक्के पत्थर अभी भी पड़ रहे थे ताकि सरदार जल्दी फैसला कर सके।

"निकल बाहर, खज़ीर के तुख्म, नहीं तो अन्दर से तेरी लाश निकलेगी।"

फिर भी चुप। अन्दर से आवाज़ नहीं आई। लोग फिर से ढेले उठाउठाकर अन्दर मारने लगे। फिर रमज़ान अली एक बड़ा-सा पत्थर उठा लाया और खोह के सामने जा खड़ा हुआ।

"अभी निकल आओ, नहीं तो इस पत्थर से भुरथा बना दूंगा।"

कुछ लोग हँस दिए। पत्थर बराबर पड़ रहे थे।

तभी खोह के अन्दर से हाथों और पैरों के बल चलता हुआ सरदार खोह के मुँह पर आ गया। उसकी पगड़ी खुलकर गले में लटक आई थी, कपड़े, मिट्टी से सने थे और जगह-जगह से फट गए थे और ढेलों के कारण उसका माथा और घुटने जगह-जगह से सूज रहे थे और ज़ख्मों में से खून रिस रहा था।

सरदार अभी भी जैसे चारों पायों पर बैठा था और उसकी आँखें इधर-उधर ताके जा रही थीं। दर्द के कारण उसका मुँह टेढ़ा हो रहा था।

"बोल, कलमा पढ़ेगा या नहीं?" रमज़ान ने कहा। वह अभी भी बड़ा-सा पत्थर हाथ में उठाए हुए था।

सरदार पहले तो भयाकुल-सा सामने की ओर फटी-फटी आँखों से देखता रहा, फिर ऊपर-नीचे सिर हिला दिया।

नूरदीन के पीछे खड़े एक आदमी ने सरदार को पहचान लिया। यह इकबालसिंह था, मीरपुर में बजाजी की दूकान करता था, इसका बाप हरनामसिंह ढोक इलाहीबख्श में चाय की दूकान करता था। शायद यह ढोक इलाहीबख्श की ओर ही भागा जा रहा था जब रास्ते में धर लिया गया। पहचानते ही वह आदमी नूरदीन के और पीछे हो गया ताकि इकलाबसिंह से उसकी नज़रें नहीं मिल पाएँ, बल्कि इसके बाद वह पीछे-पीछे ही रहा, न कुछ बोला, न पत्थर फेंका, पर साथ ही और लोगों को मना भी नहीं किया। यहाँ पर वह जानता था कि उसके मना करने का कोई असर नहीं होगा।

"मुँह से बोल मादर...! बोल, नहीं तो देख यह पत्थर अभी तेरी खोपड़ी पर पड़ेगा।"

"कलमा पढूँगा।" सिसकियों के बीच इकबालसिंह ने कहा।

तभी गगनभेदी आवाज़ उठी :

"अल्लाह-हो-अकबर!"

"नारा-ए-तकबीर! अल्लाह-हो-अकबर!" फिर सभी ने नारा लगाया।

रमज़ान ने पत्थर एक ओर को फेंक दिया। सभी ने अपने-अपने हाथ में से पत्थर फेंक दिए। रमज़ान ने हाथ आगे बढ़ाकर कहा, “उठ आ, अब तू हमारा भाई है।"

इकबालसिंह का जिस्म जगह-जगह से दर्द कर रहा था। वह अभी भी कराह रहा था। पीड़ा, घबराहट और त्राण के कारण उससे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था।

"आ जा, गले मिल ले।" रमज़ान ने कहा और उसे गले से लगा लिया।

रमज़ान के बाद बारी-बारी से सभी ने उसे गले लगाया। पहले सिर दाएँ कन्धे पर रखते, फिर वहाँ से उठाकर बाएँ कन्धे पर, फिर लौटाकर दाएँ कन्धे पर। बग़लगीर होने का यही मुसलमानी तरीका था। इकबालसिंह की टाँगें लड़खड़ा रही थीं और गला सूख रहा था, पर तीन-चार बार की मश्क से वह बग़लगीर होने का ढंग समझ गया।

इकबालसिंह को आशा नहीं थी कि इतनी जल्दी माहौल बदल जाएगा, कि उसके खून के प्यासे लोग उसे छाती से लगाने लगेंगे।

तब वे टीलों के झुरमुट से बाहर निकल आए, रमज़ान उसे थामे हुए था। फिर वे गेहूँ के लहलहाते खेतों के बीच से उसे आगे-आगे हाँकते हुए-से ले चले। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसे अपनी फतह की निशानी के तौर पर उसकी नुमाइश करते ले चलें, या एक हकीर कैदी की तरह जिसने भागने की कोशिश की और अन्त में पकड़ा गया था या एक धर्मभाई की भाँति ले चलें, जिसे उन्होंने गले लगाया था। इकबालसिंह से ठीक तरह चला नहीं जा रहा था। कुछ नहीं तो पाँच ढेले उसके बाएँ घुटने पर ही पड़े थे। माथे से भी खून रिस रहा था। एक जगह पर खेत की मेड़ पार करते समय जब वह लड़खड़ाया तो पीछे से नूरदीन ने मज़ाक में उसे धक्का दे दिया जिससे वह औंधे मुँह जा गिरा।

"देखो रमज़ानजी, मुझे अभी भी धक्के लगा रहे हैं।" उसने उठते हुए बिलबिलाकर कहा, उस बालक की तरह जिसे अच्छा व्यवहार करने की सौगन्ध खाने के बाद भी पीटा जा रहा हो।

“धक्का नहीं दो, ओए।" रमज़ान ने कहा और अपने साथियों की ओर देखकर मुस्करा दिया और आँख मारी।

“मत धक्का दो, ओए।" पीछे से किसी ने रमज़ान की नकल उतारते हुए कहा और एक छोटा-सा धक्का इकबालसिंह को फिर दे दिया।

घृणा और द्वेष इतनी जल्दी प्रेम और सद्भावना में नहीं बदल सकते, वे केवल भौंड़े हास्य और व्यंग्य में ही बदल सकते हैं। वे इकबालसिंह को पीट नहीं सकते थे तो कम से कम उसे अपने क्रूर व्यंग्य का लक्ष्य तो बना ही सकते थे।

"देखो रमज़ान भाई, किसी ने मुझे पीछे से ठोंगा मारा है।"

इकबालसिंह उस वक़्त आत्म-सम्मान के निम्नतम स्तर तक पहुँच चुका था, जब जीवन से चिपके रहनेवाला त्रस्त जीव केवल गिड़गिड़ा सकता है, रेंग सकता है, हँसने के लिए कहो तो हँस देगा, रोने के लिए कहो तो रो देगा।

तभी नूरदीन को मसखरी सूझी।

“ठहर ओए।" उसका हाथ पकड़कर रोकते हुए उसने कहा।

इकबालसिंह रुक गया और कातर आँखों से नूरदीन की तरफ़ देखने लगा।

"इसकी सलवार उतार दो। इसे नंगा गाँव में ले चलो। यह हमसे बहुत छिपता था।"

और उसने आगे बढ़कर इकबालसिंह की सलवार में हाथ डाला। कुछ लोग हँसने लगे।

"देखो रमज़ानजी..." इकबालसिंह ने रमज़ान की ओर देखकर शिकायत की।

“खबरदार ओए, किसी ने सलवार उतारी तो...” रमज़ान ने चिल्लाकर कहा।

"अभी इसने कलमा नहीं पढ़ा है। जब तक यह कलमा नहीं पढ़ता यह काफिर है, मुसलमान नहीं है। उतारो इसकी सलवार।"

रमज़ान को अपना पक्ष लेते देखकर इकबालसिंह का हौसला बढ़ गया। वह भी उचककर बोला, “नहीं उतारने दूंगा सलवार। कर लो जो मेरा करना है।"

इस पर कुछ लोग हँस दिए।

इसी तरह इकबालसिंह के साथ खिलवाड़ करते, उसे ज़लील करते हुए वे गाँव पहुँचे।

इमामदीन तेली के डेरे पर तबलीग की रस्म अदा की जाने लगी। गाँव का नाई भी पहुँच गया, मस्ज़िद का मुल्ला भी पहुँच गया। तेली के घर के आँगन में पूरी भीड़ जमा हो गई।

नाई की उँगलियाँ थक गईं, बाल काटे नहीं कटते थे, भीड़ के बीचोबीच ज़मीन पर बैठा इकबालसिंह फिर से उद्भ्रान्त हो उठा था। शुरू-शुरू में नाई कैंची से बाल काटता रहा, फिर घोड़े के गोबर और मूत से उसके बालों के गुच्छे अलग-अलग से बाँधकर बाल काटता रहा, अन्त में वह घोड़ों के बाल काटनेवाली बड़ी मशीन ले आया। मशीन चली तो इकबालसिंह की खोपड़ी पर लहरिये-से बनने लगे। फिर उस्तरे से उसकी चाँद साफ की गई। इसके बाद इकबालसिंह को गर्दन सीधी करने का मौका मिला। दाढ़ी को काटा नहीं गया। जब दाढ़ी कतरने का वक्त आया तो बहुत-सी आवाजें एक साथ सुनाई देने लगीं:

“दाढ़ी की काट मुसलमानी होनी चाहिए।"

"ख़त निकालकर दाढ़ी काटो, मूंछे पतली कर दो।"

इकबालसिंह का पिचका हुआ चेहरा उसकी डरी हुई त्रस्त आँखों के बावजूद सचमुच मुसलमानी नज़र आने लगा था।

तभी भीड़ में से अपना रास्ता बनाता हुआ नूरदीन अन्दर आया। जब इकबालसिंह के बाल काटे जाने लगे थे तो वह बीच में से निकल गया था और किसी को पता नहीं चला था। लेकिन अब वह लौट आया था और लोगों को धकेल-धकेलकर अन्दर घुस रहा था।

"हटो ओए आगे से, रास्ता दो।"

अन्दर आते ही वह सीधा इकबालसिंह के पास बैठ गया। बाएँ हाथ से इकबालसिंह का मुँह खोला और दाएँ हाथ में पकड़ा मांस का बड़ा-सा टुकड़ा, जिसमें से टप-टप खून की बूंदें चू रही थीं, इकबालसिंह के मुँह में डाल दिया। इकबालसिंह की आँखें बाहर आ गईं। उसका साँस रुक रहा था।

“खोल मुँह, तेरी माँ की...खोल मुँह।...अब चूस जा इसे मादर..."

और नूरदीन लोगों की तरफ़ देखता हुआ अपने लाल मसूड़े दिखाता खी-खी करके हँसने लगा।

तभी मुल्ला और गाँव के एक बुजुर्ग सामने आ गए। बुजुर्ग ने नूरदीन को वहाँ से डाँटकर उठा दिया, "हटो यहाँ से, तुम दीन कबूल करनेवाले अपने भाई को परेशान कर रहे हो।"

बुजुर्ग के अन्दर आ जाने से सारा दृश्य बदल गया। लोग पीछे हट गए। इकबालसिंह को सँभालकर उठाया गया। एक आदमी खाट उठा लाया और उसे खाट पर बैठाया गया। बाकी की रस्म बड़ी सावधानी से सर-अंजाम दी जाने लगी।

तसबीह, हाथ में लिये मुल्ला ने इकबालसिंह से कलमा पढ़वाया-

"ला इलाह इल्लिल्ला,

मुहम्मद रसूल अल्ला!"

तीन बार कलमा दोहराया गया। आसपास खड़े लोगों ने उँगलियों को आँखों से लगाया, फिर उन्हें चूम लिया। फिर एक-एक करके बीसियों आदमी उससे बग़लगीर हुए।

इसके बाद जुलूस की शक्ल में उसे कुएँ पर ले जाया गया, गुसल के बाद नए कपड़े पहनने को दिए गए।

जब नहाकर नए साफ़ कपड़े पहनकर निकला तो इकबालसिंह सचमुच इकबाल अहमद नज़र आने लगा। लोगों ने फिर नारे लगाए :

"नारा-ए-तकबीर! अल्लाह-हो-अकबर!"

जुलूस फिर इमामदीन तेली के घर की ओर रवाना हुआ। वातावरण में गहरी संजीदगी और धर्म-भावना काँप रही थी। दिन ढलते-ढलते इकबाल अहमद की सुन्नत हुई। उसके लिए इस दर्द को बर्दाश्त करना बहुत कठिन नहीं रह गया था। बुजुर्ग सारा वक़्त उसे सहारा दिए हुए थे, और सुन्नत के वक़्त बार-बार उसके कान में कह रहे थे, “तेरा निकाह कराएँगे। बड़ी खूबसूरत औरत तुम्हें देंगे, कालू तेली की बेवा तेरी उम्र की है-जवान, गठीली। उसे देखकर तेरी रूह खुश हो जाएगी। अब तू हमारा अपना है, अब तू शेख है, शेख इकबाल अहमद!"

शाम ढलते-ढलते इकबालसिंह के शरीर पर से सिखी की सब अलामतें दूर कर दी गई थीं और मुसलमानी की सभी अलामतें उतर आई थीं। पुरानी अलामतें हटाकर नई अलामतें लाने की देर थी कि इनसान बदल गया था, अब वह दुश्मन नहीं था, दोस्त था, काफिर नहीं था, मुसलमान था। मुसलमानों के सभी दरवाज़े उसके लिए खुल गए थे।

खाट पर पड़ा इकबाल अहमद रात-भर छटपटाता रहा।

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रचनाएँ
तमस
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'तमस' की कथा परिधि में अप्रैल १९४७ के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है। 'तमस' कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षों की कथा हो जाती है। आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी होने के बावजूद इसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उदघाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं।
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