पहली बस खानपुर से चलकर सुबह आठ बजे गाँव पहुँचती थी। वह नहीं आई। उसके बाद हर घंटे दो घंटे के बाद शहर की ओर से भी और खानपुर की ओर से भी बसें आती थीं। आज दोपहर हो गई, एक भी बस नहीं आई। चाय की दुकान में केतली पर चढ़ाया गया पानी सुबह से खौलता रहा। दूकान के सामने दोनों बेंच खाली पड़े थे। पहले बेंचों पर भीड़ लगी रहती थी, गाँव का कोई आदमी नहीं था जो आता-जाता हरनामसिंह की दूकान पर न बैठता हो। बस-स्टॉप पर दो-तीन झबरेले कुत्ते घूम रहे थे। चारों ओर जैसे सकता छा गया था।
स्त्री की सूझ पैनी होती है। बन्तो ने कल शाम से ही कहना शुरू कर दिया था कि इस गाँव से निकल चलो, खानपुर चले चलो जहाँ हमारे और सगे-सम्बन्धी रहते हैं। इस सारे गाँव में अकेले ये दो जीव सिख परिवार के थे, बाकी सारा गाँव मुसलमानों का था। पर हरनामसिंह नहीं माना। चलती दूकान छोड़कर कैसे भाग जाए? झगड़े-फसाद तो होते रहते हैं पर काम-धन्धा तो बन्द नहीं किया जा सकता। फिर जाएँ तो कहाँ जाएँ? शहर में जाएँ जहाँ पहले से ही आग लग रही है? खानपुर में जाएँ तो वहाँ हमारा कौन खिलाने के लिए बैठा है? पीछे किसी ने दूकान लूट ली तो फिर खाएँगे कहाँ से? बेटे के पास जाएँ? बेटा बीस मील दूर मीरपुर गाँव में बैठा है। जैसे हम यहाँ अकेले हैं, वैसे ही वहाँ पर वह अकेला है। जहाँ बैठे हो, गुरु महाराज के आसरे वहीं बैठे रहो। उसके पास पहुंच भी गए तो वह हम बूढ़ों की जान बचाएगा या अपनी जान बचाएगा? अपनी जेब से भी खाएँगे तो कितने दिन और कोई दूसरा खिलाएगा तो कितने दिन? और चौकी पर बैठा हरनामसिंह गोद में रखे हाथ जोड़ देता है और कहता है :
"जिसके सिर उपरि तूं सुआमी सो दुख कैसा पावै!"
(हे मालिक! जिसके सिर पर तेरा हाथ है वह दुख क्योंकर पाएगा)
बन्तो सुनती और चुप हो जाती। फिर जब अन्दर ही अन्दर उसका दिल डूबने लगता तो कहती : चलो मेरी बहन के गाँव चले चलो, वह तो नज़दीक है, वहाँ गुरुद्वारे में पड़े रहेंगे, बहन के पास नहीं रहेंगे, वहाँ सिख संगत बड़ी है, अपने लोगों का आसरा होता है। पर हरनामसिंह! वह भी नहीं माना। उसे अन्दर ही अन्दर विश्वास था कि और लोगों के साथ भले ही बुरा-भला हो जाए, इसके साथ नहीं हो सकता।
“सुण भागे भारिए, असाँ कदे किसे दा बुरा नहीं चेतिया, बुरा नहीं कीता। इत्थो दे लोकी बी साडे नाल भरावाँ वाँग रहे हन। तेरियाँ अखाँ साहमणे करीमखान दस वारा कह गिया है : चुपचाप बैठे रहवो, तुहाडे वल कोई अँख चुक के वी नहीं बेखणगा। करीमखान तो बड़ा मोतबर इत्थे कोण है? इक्को इक इत्थे सिख घर है? के गिराँवालियाँ नूँ साडे ते हत्थ चुकदियाँ गैरत नहीं आएगी?"
(सुण भागे भारिए, हमने किसी का कुछ देना नहीं है, हमने किसी का कभी बुरा नहीं चेता है, कभी बुरा नहीं किया है। ये लोग भी हमारे साथ कभी बुरी तरह पेश नहीं आए हैं। तेरे सामने, कुछ नहीं तो दस बार करीमखान कह गया है : आराम से बैठे रहो, तुम्हारी तरफ़ कोई आँख उठाकर भी नहीं देखेगा। अब करीमखान से बड़ा मोतबर इस गाँव में और कौन होगा? सारे गाँव में एक ही तो सिख घर है। इन्हें गैरत नहीं आएगी कि हम निहत्थे बूढ़ों पर हाथ उठाएँगे?
बन्तो फिर चुप हो गई। तर्क का जवाब तो तर्क में दिया जा सकता है, पर विश्वास का जवाब तर्क के पास नहीं है। जहाँ बन्तो का दिल किसी-किसी वक़्त डूबने लगता था, वहाँ हरनामसिंह एक बार भी विचलित नहीं हुआ। उसका चेहरा बराबर खिला रहा। सारा वक्त वह गुरु महाराज का नाम लेता रहा और उसे देखकर बन्तो को भी त्राण मिलता था।
पर आज कोई बस नहीं आई थी, एक भी ग्राहक दूकान पर नहीं चढ़ा था, और सड़क सूनी पड़ गई थी। बल्कि दो-तीन बार इक्के-दुक्के आदमी जिन्हें उसने पहले कभी नहीं देखा था, गाँव की ओर जाते हुए उनके घर की ओर घूर घूरकर देखते रहे थे।
और जब दोपहर ढलने को आई तो ढक्की पर से उसे किसी के क़दमों की परिचित-सी आहट आई। करीमखान लाठी टेकता चला आ रहा था। हरनामसिंह का ढाढ़स बँधा। करीमखान कुछ बताएगा, कोई सुझाव देगा, कोई तरकीब करेगा। यहाँ ख़तरा हुआ तो हम करीमखान के डेरे पर चले जाएँगे।
करीमखान दूकान के सामने आया पर रुका नहीं, न ही हरनामसिंह की ओर मुँह किया, केवल चाल धीमी कर दी और खखारने के बहाने बुदबुदाया :
“हालत अच्छी नहीं हरनामसिंह, तू चला जा।" दो-एक क़दम जाकर फिर बोला, “गाँववाले तेरे वल अक्ख वी नहीं चुक्कणगे पर बाहरों लोकाँ दे आण दा डर है। उन्हाँ न रोकणा सॉडे बस दा नहीं।"
और फिर खाँसता हुआ, लाठी पटपटाता आगे बढ़ गया।
तभी पहली बार हरनामसिंह की विश्वास की टेक बुरी तरह से हिल गई। करीमखान रुका नहीं तो इसका मतलब है सचमुच ख़तरा है और जो करीमखान आया है तो जोखम ही उठाकर आया होगा। फिर भी हरनामसिंह इतना घबराया नहीं जितना उदास हो गया। वैराग्य का भाव उसके दिल में ज्यादा उठा, क्षोभ, क्रोध, भय आदि का कम।
पाँचेक मिनट के बाद करीमखान फिर लौटकर आया। फिर वैसे ही ढक्की चढ़ते, कमर पर हाथ रखे, हाँफते-झंखारते उसने क़दम धीमे किए और बुदबुदाया, “देर नहीं कर हरनामसिंह, हालत चंगी नहीं, बाहरों बलवाइयाँ दे आण दा डर है।"
और उसी तरह कमर पर हाथ रखे हाँफता हुआ ढक्की चढ़ने लगा।
हरनामसिंह कहाँ जाए? मीलों दूर तक रास्ते और मैदान और घाटियाँ फैली थीं। करीमखान ने तो कह दिया कि चले जाओ मगर कहाँ जाए? उन्हें कहाँ आश्रय मिल सकता था। साठ की उम्न और साथ में औरत जात, वह कितनी दूर तक भागकर जा सकता है? फिर भागकर जाएगा भी तो कहाँ जाएगा?
मन के अन्दर से फिर एक बार आवाज़ आई : कहीं नहीं जाओ, यहीं बने रहो, जब बलवाई आएँ तो दूकान भी हाजिर कर देना और जान भी हाजिर कर देना। यहाँ मर जाना अच्छा है, परदेशों की खाक छानने से। कौन आएगा हमला करने? बार-बार वह सोचता पर यक़ीन नहीं होता था कि गाँव का कोई आदमी उस पर हमला करने आएगा। या गाँववाले बाहरवाले को हमला करने देंगे।
हरनामसिंह उठकर पीछे कोठरी में आ गया, जहाँ बन्तो बैठी थी।
"करीमखान आकर कह गया है कि यहाँ से निकल जाओ। बाहर से बलवाई आ रहे हैं।"
क्षणभर में बन्तो के सारे शरीर में खून की जगह पानी भर गया। बैठी की बैठी रह गई। रात सिर पर आनेवाली थी और कहीं पर ठौर-ठिकाना नहीं था। और उधर अँधेरी कोठरी में खड़ा उसका पति अवसाद की मूर्ति लग रहा था।
पर अब न सोचने का वक़्त था न ज़्यादा देर ठहरने का वक़्त था, जितनी जल्दी हो सके, अँधेरा पड़ते ही यहाँ से निकल चलो।
"मैं तो अब भी कहता हूँ यहीं बैठे रहो। कहीं नहीं जाओ।" फिर उसने एक ओर दीवार के साथ टँगी अपनी दोनाली बन्दूक की ओर इशारा करके कहा, "मरने-मारने पर नौबत आ गई तो मैं पहले तुम्हें मार दूंगा, फिर अपने को मार डालूँगा।"
बन्तो चुप सुनती रही। क्या कहे, क्या मशवरा दे? सामने चारा ही क्या था?
हरनामसिंह दूकान के चबूतरे पर लौट गया, टाट के नीचे से कमाई के पैसे निकाले, फिर अन्दर आया, बक्से में से पूँजी के पैसे निकाले, फिर नोटों को अलग से छाँट लिया और रेज़गारी वहीं छोड़ दी। नोटों का पुलिन्दा अन्दर की बंडी की जेब में रख लिया। फिर कोठरी के अन्दर दीवार पर टँगी बन्दूक उतार ली और उसे कन्धे से लटका लिया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या माल ले जाए और क्या नहीं ले जाए। दूकान की रजिस्ट्री के कागज़ ले लूँ? पर उन्हें ढूँढ़ने-निकालने का वक्त नहीं था। बन्तो की भी यही हालत थी। अपना ज़ेवर उठा लूँ? खाने के लिए कुछ थोड़ा-बहुत बना लूँ। दो रोटियाँ सेंक लू? रास्ते में कहाँ कुछ खाने को मिलेगा? अपने कपड़े बदल लूँ? बाहर जाओ तो कपड़े उजले पहनकर जाना चाहिए। पर बन्तो की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था, क्या उठाए क्या छोड़ दे।
"गहनों की पोटली का क्या करूँ?" उसने पूछा, “इन्हें बदन पर पहन लूँ?"
“पहन ले," हरनामसिंह ने कहा, फिर तनिक सोचकर बोला, “तेरे गहने देखकर ही तुझे कोई मार डालेगा। उन्हें दूकान के पीछे गाड़ दे।"
बन्तो ने कमीज़ के नीचे ज़ेवर पहन लिया, कुछ रूमाल में लपेटकर ट्रंक के अन्दर छोड़ दिया, बाकी ज़ेवर पिछवाड़े ज़मीन में गाड़ आई जहाँ उन्होंने सब्जी की क्यारियाँ लगा रखी थीं। कोठरी में सन्दूक रखे थे, खेस, दरियाँ पूरे-के-पूरे बिस्तर थे जो बेटी के ब्याह के समय बनवाए थे, कितना कुछ था, और कुछ भी नहीं उठाया जा सकता था।
"दो रोटियाँ सेंक लूँ? जाने कहाँ-कहाँ भटकना होगा।"
"रोटियाँ सेंकने का कहाँ वक़्त रह गया है, भली लोग। पहले जाने का सोचा होता तो यह भी कर लेते।"
तभी कहीं दूर से ढोल बजने की आवाज़ आई। दोनों एक-दूसरे की ओर देखते रह गए।
"बलवाई आ गए हैं, खानपुर की तरफ़ से आए जान पड़ते हैं।" उधर ढोल बजने की आवाज़ आई, इधर गाँव के पार से नारे लगने शुरू हो गए।
“या अली!"
“अल्लाह-हो-अकबर।"
'ये अशरफ और लतीफ होंगे। वही गाँव के लीगी हैं। वही पाकिस्तान के नारे लगाते रहते हैं।' हरनामसिंह ने मन ही मन कहा।
वातावरण जैसे थर्रा उठा।
शाम पड़ चुकी थी लेकिन झुटपुटा अन्धकार में नहीं बदला था। बलवाइयों की आवाज़ बाएँ हाथ कस्सी के पार से आई जान पड़ती थी।
तभी हरनामसिंह की नज़र कोठरी की छत से लटकते मैना के पिंजरे पर पड़ी।
"बन्तो, पिंजरा कोठरी के पीछे ले जा और उसे खोलकर मैना को उड़ा दे।"
कुछ ही देर पहले बन्तो ने मैना के पिंजरे में रखी कटोरियों में पानी और दाना डाल दिया था। अब जब वह पिंजरे को उतारकर बाहर ले चली तो मैना ने रोज़ की रटी हुई गरदान बोल दी, “बन्तो, रब्ब राखा, सरबद्ध दा रब्ब राखा।"
सुनते ही बन्तो का गला भर आया और जवाब में बन्तो भी बुदबुदा दी, “हाँ मैना, रब्ब राखा, सरबद्ध दा रब्ब राखा।"
ये शब्द मैना ने हरनामसिंह से सीख लिए थे। अक्सर हरनामसिंह दूकान के पटरे पर बैठा होता और उसकी पत्नी पीछे कोठरी में बैठी होती और जब दूकान पर कोई ग्राहक नहीं होता तो हरनामसिंह अन्दर बैठा बन्तो के साथ गुरुवाणी और धर्म की बातें किया करता था, कभी उठते-बैठते वह कहा करता था, "रब्ब राखा, सरबद्ध दा रब्ब राखा!"
और मैना इन शब्दों को घर में दोहराने लगी थी।
मैना के मुँह से ये शब्द सुनकर बन्तो को बड़ी ताक़त मिली थी। उसमें साहस और स्थिरता आ गई। मानो नन्हा-सा पक्षी उसे सीख दे रहा था।
पिछवाड़े ज़मीन के छोटे-से टुकड़े में हरनामसिंह ने सब्जी रोप दी थी, एक आम का पेड़ उगा रखा था। आँगन के बीचोबीच पहुँचकर बन्तो ने पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया और धीमे से बोली, “जा मैना, तेरा रब्ब राखा, सरबद्ध रब्ब राखा!"
पर मैना ज्यों की त्यों पिंजरे में बैठी रही।
"उड़ जा, उड़ जा मैना, उड़ जा माँ सदके!"
और बन्तो का कहते-कहते गला भर आया और वह पिंजरे को वहीं ज़मीन पर छोड़कर लौट आई।
तभी फिर ढोल बजने की आवाज़ आई। अब भी आवाज़ ज़्यादा नज़दीक थी। गाँव में भी आवाज़ों की भिनभिनाहट बढ़ने लगी थी। लगता बहुत-से लोग इकट्ठे होकर कहीं से बढ़े आ रहे हैं। गाँव के अन्दर से नारे की आवाज़ बराबर किसी-किसी वक्त आ रही थी।
बन्तो और हरनामसिंह अपने तीन कपड़ों में, और थोड़ी-बहुत पूँजी और बन्दूक सँभाले दूकान को ताला लगाकर बाहर निकल आए। घर के बाहर क़दम रखते ही सारा प्रदेश पराया हो गया। कहाँ जाएँ? किधर को घूमें? बाएँ हाथ को गाँव फैला था, उसी ओर कस्सी थी और कस्सी के पार से बलवाइयों के ढोल सुनाई दे रहे थे। दाईं ओर पक्की सड़क खानपुर की ओर चली गई थी, उस ओर जाना ख़तरे से कम खाली नहीं था, और इस ओर किनारा ऊँचा था। अगर कहीं जाया जा सकता था तो उसी रास्ते छिपलुककर जाया जा सकता था। सड़क पर चलना ख़तरे से खाली नहीं था। नाले में पानी न के बराबर था, चौड़ा पाट सूखा और रेतीला था और कंकड़ों-पत्थरों से अटा था।
दोनों ने सड़क पार की, और थोड़ी दूरी तक आकर नाले की ओर उतरने लगे। तब तक बलवाई गाँव के निकट पहुँच चुके थे और इसी ओर बढ़े आ रहे थे। वातावरण उनके नारों और ढोल-मजीरे की आवाज़ से गूंज रहा था।
हरनामसिंह और उसकी पत्नी नाले की ओर उतर रहे थे जब ऊपर कहीं से क्षीण-सी आवाज़ आई :
“बन्तो तेरा रब्बा राखा...
सर्बद्ध दा रब्बा राखा।"
मैना उन्हीं के पीछे उड़कर चली आई थी और पेड़ पर बैठ गई थी।
तभी बलवाई उस टीले के ऊपर पहुँच गए जिसकी ढलान उतरने पर नीचे दाएँ हाथ हरनामसिंह की दुकान थी। बलवाई चिंग्घाड़ रहे थे, ऊँचे-ऊँचे नारे लगाते ढोल बजाते नीचे उतर रहे थे।
चाँद निकल आया था, और चारों ओर छिटकी चाँदनी में हर पेड़ और हर चट्टान के पीछे छिपे किसी अज्ञात शत्रु का भास होने लगा था। नदी सूखी पड़ी थी और चाँदनी में नदी का पाट सफ़ेद चादर-सा बिछा था। पति-पत्नी ऊँचे किनारे पर से उतर आए थे और अब उसी की ओट में धीरे-धीरे दाएँ हाथ आगे की ओर बढ़ने लगे थे। नदी का किनारा जहाँ वे चले जा रहे थे, छोटे-बड़े पत्थरों से अटा पड़ा था और दोनों हाँफने लगे थे। दोनों के कान बलवाइयों की ओर लगे थे।
शोर पहले तो नज़दीक आता गया, फिर थम गया। हरनामसिंह को लगा कि बलवाई उसकी दूकान के सामने रुक गए हैं और निश्चय नहीं कर पा रहे कि अब क्या करें। हरनामसिंह ने मन ही मन करीमखान को धन्यवाद कहा। वह वक्त पर न कह देता तो भागना भी असम्भव हो गया था। तभी किसी चीज़ पर ज़ोर-ज़ोर से प्रहार करने की आवाज़ आई। हरनामसिंह समझ गया कि बलवाई उसकी दूकान का दरवाजा तोड़ रहे हैं। आगे चल पाने के लिए दोनों के पैर काँप रहे थे। दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़ धीरे-धीरे आगे सरकने लगे।
“वाह गुरु का नाम लेकर चलती आओ।" हरनामसिंह पत्नी को अपने साथ खींचते हुए बोला।
तभी एक कुत्ते के भुंकने की आवाज़ आई। दोनों ने नज़र उठाकर ऊपर देखा। ऊँचे किनारे पर छिटकी चाँदनी में एक भयानक काले रंग का कुत्ता खड़ा उन पर भुंके जा रहा था। हरनामसिंह को काटो तो खून नहीं। अब क्या होगा? गुरु महाराज किस पाप की इतनी भयानक सज़ा दे रहे हैं? कुत्ते का भूँकना सुनकर तो वे भागते हुए इधर चले आएंगे, उन्हें पता चलते देर नहीं लगेगी कि हम किस रास्ते से भागकर आए हैं।
“तुम चलते जाओ जी, रुको नहीं,” बन्तो बोली।
कुत्ता बराबर भूँकता जा रहा था। झबरैला कुत्ता, जो अक्सर उसकी दूकान के सामने टहलता, जगह-जगह मुँह मारता नज़र आया करता था। कुछ दूर तक चलते रहने के बाद बन्तो ने मुड़कर देखा। कुत्ता अभी भी टीले पर खड़ा भूँके जा रहा था मगर आगे बढ़कर नहीं आया था, न तो टीले के ऊपर किनारे-किनारे से और न ही नीचे उतरा था।
वे आगे सरकते गए।
"जैसे-तैसे गाँव पीछे छूट जाए, आगे भगवान मालिक हैं।"
"कुत्ता रुक गया है, आगे नहीं आ रहा।"
" भूँक तो रहा है।"
एक चट्टान के पीछे दोनों छिपकर खड़े हो गए और दम साधे कुत्ते का भूँकना सुनते रहे। उधर दूकान का दरवाज़ा टूटकर गिर गया था और “या अली!" चिल्लाते हुए बलवाई उसमें घुस गए थे।
“लूट रहे हैं, हमारा घर-बाहर लूट रहे हैं।" ।
पर कुत्ते के भूँकने की ओर किसी का ध्यान नहीं गया था। दोनों पहले से अधिक आश्वस्त हो गए थे। ध्यान चला भी जाता तो भी शायद वे इनका पीछा न करते, इन्हें मारने से उन्हें क्या मिलता। दूकान में से तो कितना कुछ माल हाथ लगनेवाला था।
“अब किसकी दूकान और किसका घर! छोड़ आए तो हमारा कहाँ रह गया!" बन्तो ने कहा।
चाँदनी में झिलमिलाता नदी के पाट का प्रसार, कहीं-कहीं पर पेड़ों के झुरमुट, टीले के ऊपर खड़ा झबरैला कुत्ता जो बराबर भूँके जा रहा था, सब मिलकर एक सपना-सा लग रहा था। कितनी जल्दी सब कुछ बदल गया था। बीस साल तक एक जगह में रहने के बाद पलक मारते वे परदेसी और बेघर हो गए थे। हरनामसिंह का हाथ ठंडा और पसीने से तर था। पर वह बार-बार एक ही वाक्य दोहराए जा रहा था, “निकल आओ, अब जैसे भी हो निकल आओ।"
गाँव पीछे छूट चुका था। कुत्ता अभी भी किनारे पर खड़ा था, वह आगे नहीं आया था। कुछ देर बाद शायद अपने-आप लौट जाए। दूकान लूटी जा चुकी थी, बलवाइयों का शोर थम गया था, लूट के सामान से ही वे सन्तुष्ट हो गए जान पड़ते थे, या क्या अब वे उन्हें खोजने निकलेंगे? अब केवल कंकड़ों-पत्थरों पर चलते लड़खड़ाते कदमों की आवाज़ आ रही थी और चारों ओर निःस्तब्धता छाई थी।
थोड़ी दूर चलने के बाद बन्तो को लगा जैसे आकाश में रौशनी फैल गई है। उसने मुड़कर देखा तो नाले के ऊँचे किनारे के पीछे गाँव की ओर आसमान लाल होने लगा था। बन्तो देखती की देखती रह गई।
"देखो जी, क्या है?"
“क्या है बन्तो, दूकान जल रही है, और क्या है?" हरनामसिंह ने कहा। वह भी खड़ा उसी ओर देख रहा था। थोड़ी देर तक वे मन्त्रमुग्ध-से आग के शोलों को देखते रहे। अपने घर में से उठते हुए शोले ज़रूर ही किसी दूसरे के घर में से उठनेवाले शोलों से भिन्न होते होंगे वरना वे क्यों मूर्तिवत् खड़े के खड़े रह जाते और उन्हें ताकते रहते।
“सब खाक हो गया!" हरनामसिंह शिथिल-सी आवाज़ में बोला।
“आँखों के सामने सब खाकस्याह हो गया।"
“वाहगुरु को यही मंजूर था!” उसने ठंडी साँस भरी और वे फिर चलने लगे।
दीवारें मनुष्य को छिपाए रहती हैं, पर यहाँ कोई दीवार न थी, केवल टीले थे, कहीं-कहीं पर चट्टानें थीं जिनके पीछे मनुष्य छिप सकता था पर कितनी देर के लिए? कुछ ही घंटों में रात का अँधेरा छंट जाएगा और वे फिर 'से जैसे नंगे हो जाएंगे, सिर छिपाने को जगह नहीं मिलेगी।
बन्तो का मुँह सूख रहा था और हरनामसिंह की टाँगें बार-बार लड़खड़ा जाती थीं। पर इस समय केवल वे दो ही नहीं, अनगिनत लोग दर्जनों गाँवों में से इसी भाँति जान बचाते घूम रहे थे, अनेक लोगों के कानों में टूटते किवाड़ों की आवाजें पड़ रही थीं। पर उनके पास न सोचने के लिए वक्त था, न भविष्य के मनसूबे बाँधने के लिए। वक्त था जैसे-तैसे जान बचा पाने के लिए। उस वक्त तक चलते जाओ जब तक रात के साए तुम्हें अपनी ओट में लिये हुए हैं। शीघ्र ही दिन चढ़ आएगा और ज़िन्दगी के खतरे चारों ओर से भूखे भालुओं की तरह हमला कर देंगे।
कुछ ही देर में वे थककर चूर हो गए थे।
पर जब से उन्हें इस बात का भास होने लगा था कि वे बचकर निकल आए हैं तभी से दोनों पति-पत्नी की आँखों के सामने अपने बेटे-बेटी के चित्र घूमने लगे थे। इकबालसिंह इस समय कहाँ होगा, उस पर क्या बीत रही होगी, और जसबीर कहाँ होगी? जसबीर की उन्हें अधिक चिन्ता नहीं थी क्योंकि जसबीर बड़े कस्बे में थी जहाँ उनकी जाति के लोग अधिक संख्या में थे, सम्भव है सारी सिख-संगत गुरुद्वारे में इकट्ठी हो गई हो, सम्भव है उन्होंने अपने बचाव का कोई साधन ढूँढ निकाला हो, पर इकबालसिंह अकेला था और अपने गाँव में छोटी-सी बजाजी की दूकान करता था। क्या मालूम समय रहते निकल गया हो, क्या मालूम इस वक़्त हमारी ही तरह कहीं मारा-मारा घूम रहा हो। सभी विचार व्याकुल करनेवाले थे। हरनामसिंह ने आँखें बन्द करके और हाथ जोड़कर गुरु महाराज का नाम लिया और फिर उनकी वाणी के वही शब्द दोहरा दिए :
"जिसके सिर उपरि तूं सुआमी
सो दुखु कैसा पावे।"
जब पौ फटने का समय हुआ तो वे एक छोटे-से झरने के किनारे पत्थरों पर बैठे थे। हरनामसिंह इस इलाके से परिचित था। वे ढोक मुरीदपुर-एक छोटे-से गाँव के निकट पहुँच चुके थे। रात सारी चिन्ता, उधेड़बुन और पाँव घसीटने में लग गई थी। पर पौ फटने से पहले अनायास ही जैसे मन को शान्ति मिल गई थी। हवा में दूर से तैरती हुई लुकाटों के बौर की गन्ध आई। ढोक मुरीदपुर में लुकाटों के बाग थे और उनके बीच में से झरने बहते थे। चाँद का रंग पहले नारंगी-लाल पड़ गया, फिर उसमें चाँदी-सी घुलने लगी। स्वच्छ नीलिमा आकाश में फैलने लगी। आसपास पक्षी चहचहाने लगे।
“मुँह धो ले बन्तो, फिर जप जी महाराज का पाठ करके चलेंगे।"
प्रातः की सुहावनी घड़ी में हरनामसिंह का विश्वास फिर से जैसे लौट आया था।
“अब जाएँगे कहाँ?" बन्तो ने चिन्तित आवाज़ में पूछा, “दिन-भर मारे-मारे कहाँ फिरोगे? दो रोटियाँ सेंक ली होतीं तो कोई बात नहीं थी, दिन-भर बेशक यहीं किसी पत्थर की ओट में पड़े रहते।"
“इसी ढोक में चलकर किसी का दरवाज़ा खटखटाते हैं। उसके दिल में रहम हुआ तो आसरा दे देगा, न हुआ तो जो गुरु महाराज को मंजूर है।"
"तुम इस ढोक में जानते किसी को नहीं हो?"
हरनामसिंह मुस्करा दिया :
“जहाँ सबको जानता था, वहाँ किसी ने आसरा नहीं दिया, सामान लूट लिया और घर को आग लगा दी। यहाँ जाननेवालों से क्या उम्मीद हो सकती है? उन लोगों के साथ तो मैं खेल बड़ा हुआ था...।"
प्रातः का झुटपुटा साफ़ होने पर दोनों उठकर गाँव की ओर जाने लगे। पहले पेड़ों का एक झुरमुट आया। शहतूत और शीशम के पेड़ थे, झुरमुट के बाहर छोटा-सा कब्रिस्तान था, टूटी-फूटी कलें, छोटी-बड़ी, उन्हीं के एक ओर किसी पीर की भी क़ब्र जान पड़ती थी क्योंकि उस पर दीया टिमटिमा रहा था और हरी झंडियाँ लटक रही थीं। फिर खेत आए, गेहूँ पक गया था, कटाई के दिन नज़दीक थे, फिर सपाट छतोंवाले मिट्टी के कोठे सामने आ गए जिनके बाहर गाय-भैंसें बँधी थीं, कहीं-कहीं पर मुर्गियाँ अभी से अपने चूजों के साथ चुग्गे की तलाश में घूमने लगी थीं।
“बन्तो, अगर वे लोग मारने पर उतारू हुए तो मैं पहले तुझे ख़त्म कर दूंगा, फिर अपने को ख़त्म कर लूँगा। जीते-जी मैं तुझे दूसरों के हाथ में पड़ने नहीं दूंगा।"
तभी वे, गाँव के बाहर ही, पहले घर के सामने रुक गए। दरवाज़ा बन्द था। बदरंग-सा मोटी लकड़ी का दरवाज़ा। न जाने किसका घर था, कौन लोग दरवाज़े के पीछे रहते थे। दरवाज़ा खुलेगा तो किस्मत जाने क्या गुल खिलाएगी! हरनामसिंह ने हाथ ऊपर उठाया, क्षण-भर के लिए उसका हाथ ठिठका रहा, फिर उसने दस्तक दी।