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भाग 8

9 अगस्त 2022

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शहर में सब काम जैसे बँटे हुए थे : कपड़े की ज़्यादातर दूकानें हिन्दुओं की थीं, जूतों की मुसलमानों की, मोटरों-लारियों का सब काम मुसलमानों के हाथों में था, अनाज का काम हिन्दुओं के हाथ में। छोटे-छोटे काम हिन्दू भी करते थे और मुसलमान भी।

शिवाले का बाज़ार किसी दुल्हन के चेहरे की तरह खिला हुआ था। वहाँ रोज़ जैसी ही रौनक थी, कोई नहीं कह सकता था कि कहीं कोई तनाव पाया जाता है। सुनारों की दुकानों पर अनेक बुर्केवाली गाँवों की औरतें चाँदी के ज़ेवर खरीदने-बनवाने के लिए जगह-जगह बैठी थीं। हकीम लाभराम की दूकान के सामने दवाइयाँ कूटनेवाले दो कश्मीरी मुसलमान नाक-मुँह लपेटे दौरी में दवाइयाँ कूट रहे थे। कुबड़े हलवाई की दुकान पर लगभग रोज़ जैसी ही भीड़ थी। खोमचेवाला सन्तराम आज भी ठीक एक बजे अपनी हथगाड़ी धीरे-धीरे चलाता हुआ, सराफों का बाज़ार लाँधकर शिवाले के बाज़ार में आ गया था और रोज़ के ही मुताबिक दर्जी खुदाबख्श और उसके दो भाइयों के लिए आधी-आधी छटाँक हलवे के तीन पत्ते बनाकर भेज रहा था।

वातावरण में स्थिरता थी। सुबह की घटना से पैदा होनेवाला तनाव कुछ दब गया था, कुछ बिखर गया था। सड़कों पर चहल-पहल थी। खुदाबख्श की दूकान के सामने, गली के सिरे पर कमेटी का कारिन्दा सीढ़ी लगाकर, दीवार में लगे लैम्प की चिमनी साफ़ कर रहा था और लैम्प में तेल डाल रहा था। नगर का कार्य-कलाप फिर से जैसे किसी संगीत की लय पर चलने लगा हो। जब इब्राहीम इत्रफरोश कन्धों और पीठ पर से तरह-तरह की बोतलें लटकाए एक गली से दूसरी गली इत्र-फुलेल की आवाज़ लगाता अपनी स्थिर चाल से गुज़रता जाता तो लगता नगर की इस धुन पर उसके पाँव उठ रहे हैं, इसी धुन पर औरतें अपने घड़े लेकर गली के नल पर जातीं, इसी धुन की लय पर सड़कों पर ताँगे चलते, इसी धुन पर बच्चे स्कूल जाते, लगता, शहर का सारा व्यापार किसी मीठी सहज धुन पर चल रहा है। लगता इसकी एक कड़ी टूटेगी तो साज़ के सारे तार टूट जाएँगे। या यों कहो कि शहर की सभी क्रियाएँ मिलकर किसी सतत संगीत का निर्माण करतीं जो शहर के दिल की धड़कन के साथ-साथ बजता था। शहर में लोग जवान होते हैं तो इसी लय पर, बूढ़े होते हैं तो इसी लय पर, इसी पर पीढ़ियाँ अपना जीवन व्यतीत करती हुई चली जाती हैं। आप इसे संगीत कह लीजिए या नाजुक-सा सन्तुलन जिसमें व्यक्तियों के आपसी रिश्ते, जन-समूहों के आपसी रिश्ते एक विशेष धारा पर स्थिर हो चुके होते हैं...।

यह तो नहीं कहा जा सकता कि शहर के जीवन में लहरें नहीं उठती थीं; कांग्रेस के आन्दोलन चलते तो जबर्दस्त लहरें उठती थीं, हर साल गुरुपर्व के अवसर पर सिखों का जुलूस निकलता तो शहर में तनाव आ जाता; जामा मस्ज़िद के सामने से जुलूस बाजा बजाता हुआ निकलेगा या नहीं, उस पर पथराव होगा या नहीं। मुसलमानों के ताज़िए निकलते, और छातियाँ पीटते 'या हुसैन!' बोलते, पसीने से तर मुसलमानों की मंडलियाँ निकलतीं तब भी शहर में तनाव आ जाता पर इसके बाद तनाव ढीला भी पड़ जाता और जन-साधारण के जीवन की गति फिर से इसी लय पर चलने लगती, फिर से वातावरण में स्निग्धता आ जाती, फिर से लोग हँस-खेलकर दिन बिताने लगते।

दर्जी खुदाबख्श की दूकान पर सरदार हाकिम सिंह की पत्नी उलाहना दे रही थी, “बे बख्शिया, तूं कपड़े की देसें-भरसें या फेरे ही पवाँदा रहसे?"

(कभी हमारे कपड़े भी सीकर देगा या रोज़ तेरी दूकान के चक्कर ही मारती रहूँ?)

खुदाबख्श मुस्करा दिया। शहर की सभी हिन्दवाणियाँ, सरदारनियाँ, विशेषकर खाते-पीते घरों की औरतें उसे 'बख्शा' ही कहकर पुकारती थीं। बख्शे की दूकान पर शादी के लिए सिले जानेवाले कपड़ों का ढेर लगा रहता था।

“जद्द मैं कहँदा रिहा बीबी भेजो कपड़े भेजो कपड़े, तुसाँ कुझ न कीता, सारियाँ सरदारियाँ लँघा दित्तियाँ। हुण वकत ताँ लगदै। सोलह हत्थ ताँ नहीं मेरे।"

(जब मैं कहता था, बीबी लाओ कपड़े, लाओ कपड़े, आपने कोई परवाह न की। सारा जाड़ा बीत गया। अब वक़्त तो लगेगा ही, मेरे सोलह हाथ तो नहीं हैं।)

"क्यों जाड़ा कैसे बीत गया?"

"क्यों भला, शिवराम के बेटे के ब्याह के पन्द्रह दिन बाद आपने बेटी की सगाई की थी या नहीं? तब कौन-सा महीना चल रहा था?"

हाकिम सिंह की पत्नी हँसने लगी।

“हाँ भाई तू सब जानता है। अब बोल, बेटी का सूट कब देगा?"

“कारज कब है?"

“वाह जी, बेटी की सगाई का दिन इसे याद है, ब्याह का दिन नहीं जानता।"

"पच्चीस को है ना? आज कौन-सी तारीख है? पाँच तारीख । दे दूंगा।"

"दे दूँगा नहीं, बता कब देगा? ब्याह-कारज वाले दिन तू चक्कर लगवाएगा, मैं तुझे जानती नहीं हूँ जैसे। विद्या के ब्याह पर भी तूने ऐसे ही किया था, उधर बरात आनेवाली थी, इधर जरी के सूट के लिए मैं बार-बार आदमी भेज रही थी। ठीक-ठीक बता कब देगा?"

वह अभी बात कर ही रही थी जब उसके पीछे से किसी ने बख्शे की झोली में कपड़े का एक पुलिन्दा फेंका, हरे रंग का रेशमी कपड़ा, साथ में तिल्ले का बॉर्डर। “बख्शया, कपड़े को माप लेना, और ज़रूरत हो तो बुद्धसिंह की दूकान पर से मेरा नाम लेकर ले लेना।"

एक महिला थी। बख्शे ने कपड़े के एक कोने पर लब लगाकर उसे भिगो लिया। फिर कान के पीछे खोंसी पेंसिल निकालकर कपड़े को आँक लिया और बगलवाली अलमारी में डाल दिया। अलमारी ब्याह-शादी के लिए सिलनेवाले कपड़ों से भरी थी।

“दे दूंगा, दे दूंगा, मैं खुद घर पर पहुँचा आऊँगा।"

“तू बातें बहुत करता है। अबकी वक्त पर कपड़े नहीं दिए तो मैं तेरी दूकान पर कभी पैर नहीं रसूंगी।"

और हाकिमसिंह की पत्नी दूकान पर से चली गई।

औरत चली गई तो खुदाबख्श की नज़र शिवाले की दीवार पर पड़ी। कोई आदमी उस पर चढ़ा हुआ था। खुदाबख्श ने ध्यान से देखा। गोरखा चौकीदार था, पर यह वहाँ क्या कर रहा है? दीवार के पीछे शहर का पुराना मन्दिर था जिसका कलश दूर-दूर से चमकता नज़र आता था। उसी मन्दिर की दीवार के ऊपर एक घड़ियाल लगा था। गोरखा चौकीदार उसी घड़ियाल को साफ़ कर रहा था।

"देखो तो वह क्या है?" खुदाबख्श ने अपने एक कारिन्दे से कहा, जो उसके पास ही बैठा मशीन पर कपड़ा सी रहा था।

“घड़ियाल दुरुस्त किया जा रहा है।” कारिन्दे ने कहा।

“या अल्लाह!” खुदाबख्श के मुँह से निकला।

"शहर में फ़साद का डर है..." फिर दोनों चुप हो गए।

सन् छब्बीस के फ़िसाद के बाद यह घड़ियाल लगवाया गया था। तब से अब तक उसकी चमक बहुत कुछ जाती रही थी। धूप और बारिश के कारण उसके आस-पास की दीवार पर से भी पलस्तर उखड़ गया था। पहले फ़िसादों के समय खुदाबख्श बीस-बाईस बरस का युवक था, जब उसे दंड पेलने और कसरत करने का शौक था। उन्हीं दिनों वह अपने बाप की दर्जी की दूकान पर बैठा था। उन्हीं दिनों घड़ियाल यहाँ लगाया गया था। अब खुदाबख्श अधेड़ उम्र का हो चला था, और शहर में विरले ही कोई ऐसा ब्याह होता होगा जिसके कपड़े सिलने के लिए इसके पास न आते हों। दीवार पर चढ़ा हुआ गोरखा रामबलि भी वही पुराना चौकीदार था, जिसके हाथों घड़ियाल लगाया गया था। पिछले फ़िसादों के बाद अपनी मुस्तैदी, सेवा-भाव और ईमानदारी के कारण अपने काम पर बना रहा था। दसियों बरस के अर्से में उसका शरीर गदरा गया था, चेहरे पर लकीरें पड़ गई थीं, कनपटियों पर के बाल सफ़ेद पड़ गए थे, पर शिवाला की चौकीदारी अभी भी वह पहले की ही मुस्तैदी से करता था।

घड़ियाल की हल्की-सी टुन-टुन सुनाई दी। खुदाबख्श की नज़र फिर दीवार पर गई। गोरखा घड़ियाल के साथ नई रस्सी बाँध रहा था। घड़ियाल इसी कारण हिल गया था और टुन-टुन की आवाज़ आई थी। गोरखे ने गरारियों में तेल लगा दिया था, और घड़ियाल चमचमा रहा था।

"इस घड़ियाल की आवाज़ सुनकर रूह काँप जाती है।" खुदाबख्श ने कहा, “पहले फ़साद में जब बजा था तो मंडी में आग लगी थी और शोले आधे आसमान को ढके हुए थे।"

दीवार पर गोरखा अभी भी घड़ियाल साफ़ किए जा रहा था मानो कोई त्योहार या पर्व आनेवाला हो। और घड़ियाल इस तरह चमकने लगा था जैसे पीतल का माँजा हुआ बर्तन चमकता है। साथ में नई मोटी रस्सी झूलने लगी थी।

खुदाबख्श की नज़र घड़ियाल पर से हटकर साथवाली सुनार की दूकान पर गई जहाँ अधेड़ उम्र का एक आदमी और उसकी पत्नी-जो किसी गाँव से आए जान पड़ते थे-अपनी बेटी से काँटों की जोड़ी लेने का आग्रह कर रहे थे।

“तुझे पसन्द है तो ले क्यों नहीं लेती। जल्दी कर, हमें और भी बहुत-सा सामान खरीदना है, गाँव भी लौटना है।"

बेटी की आँखें चमक रही थीं। वह बार-बार काँटों को कान के पास ले जाती और शरमाकर अपनी माँ को दिखाने लगती।

"कैसे लगते हैं, माँ?"

लजाती-सकुचाती युवती निश्चय नहीं कर पा रही थी कि काँटों की जोड़ी उसे फबती है या नहीं, वह उन्हें ख़रीदे या नहीं खरीदे।

खुदाबख्श की नज़र फिर एक बार मन्दिर की दीवार की ओर उठी तो बूढ़ा चौकीदार दीवार पर से उतर रहा था और चमचमाते घड़ियाल से लगी रस्सी दीवार के ऊपर झूल रही थी। खुदाबख्श के मुँह से फिर एक बार 'या अल्लाह!' निकला और उसने मुँह फेर लिया।

उधर फ़ज़लदीन नानबाई की दुकान पर मजलिस जमी थी। ढलती दोपहर के वक़्त काम मन्दा पड़ जाने पर आसपास के यार-दोस्त बतियाने आ जाते और हुक्के के दौर में दीन-दुनिया की बातें चलतीं।

बातों का सिलसिला शुरू तो उसी घटना से हुआ जो आज शहर में चर्चा का विषय बनी हुई थी, मगर बातों में से बात निकलती गई और उस नुक्ते पर जा पहुंची जहाँ बूढ़ा करीमखान कहने लगा कि हाकिमों के मन की थाह पाना आम आदमी के बस का नहीं होता, हाकिम दूर की सोचता है, उसके हर फेअल के पीछे दूरअन्देशी पाई जाती है, जो कुछ वह देखता है उसे आम इनसान नहीं देख पाता।

"मूसा ने एक दिन खिज़र से कहा," करीमखान कह रहा था, "कि तुम मुझे अपना शागिर्द बना लो। सुन, जिलानी सुन, बड़ा सबक आमोज़ किस्सा है।

“मूसा छोटा था और मूसा खुद पैगम्बर बनना चाहता था। अभी वह पैगम्बर बना नहीं था। मगर चाहता बहुत था। खिज़र तो पहले ही पैगम्बर था। समझे? और उम्र में भी बड़ा था, सब लोग उसकी बड़ी इज़्ज़त करते थे।" करीमखान कहे जा रहा था। उसकी छोटी-छोटी आँखें सारा वक़्त मुसकराती रहतीं और जब हँसता तो अपने जानूँ पर चपत मारता, जिस पर आस-पास बैठे सभी लोग मुसकराने लगते।

"तो एक दिन मूसा ने खिज़र से कहा कि तुम मुझे अपना शागिर्द बना लो। खिज़र ने कहा अच्छी बात है, बना लेंगे, मगर एक शर्त पर।" “वह क्या?" मूसा ने पूछा। “शर्त यह कि तुम बोलोगे नहीं, मैं कुछ भी करूँ, तुम अपना मुँह बन्द रखोगे।" मूसा ने कहा मंजूर है तो खिज़र ने उसे अपना शागिर्द बना लिया।

“अब खिज़र उसे सिखाना चाहता था। क्या सिखाना चाहता था? कि देखता तो खुदावन्द ताला है, हम इनसान तो कुछ भी नहीं देख सकते, हम तो अपने दिमाग घिसा-घिसाकर सबब और बायस खोजते रहते हैं, मगर हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगता क्योंकि देखता तो खुदावन्द करीम है। तो खिज़र ने कहा कि तुम बोलोगे नहीं, मैं कुछ भी करूँ, कुछ भी बोलूँ, तुम अपना मुँह बन्द रखोगे।"

हुक्का करीमखान ने आगे सरका दिया था, अब उस पर जिलानी फूंकें मार रहा था। ढलती दोपहर में भिश्ती दूकान के सामने छिड़काव कर गया था और मिट्टी की सोंधी-सोंधी गन्ध हवा में फैली थी। सड़क पर आमदरफ्त कम हो गई थी। कुछ लोग जामा मस्जिद में दिन की नमाज़ पढ़ने जाते एक-एक करके सामने से गुज़रते नज़र आते।

"तो क्या हुआ दूसरे रोज़ खिज़र एक गाँव से दूसरे गाँव की तरफ़ जाने लगा। मूसा भी पीछे-पीछे। बाद में मूसा बहुत बड़ा पैगम्बर बना, पर उस वक़्त वह खिज़र का चेला था। सुन जिलानी, कान खोल के सुन, बड़ा सबक आमोज़ किस्सा है।...तो दोनों चल पड़े। अब रास्ते में नदी पड़ती थी, और किनारे पर एक किश्ती बँधी थी जिसमें लोग नदी पार करते थे। अब क्या हुआ कि दोनों नीचे उतरे और किश्ती में बैठ गए और पत्तन वाला उन्हें पार ले जाने लगा। तो थोड़ी देर में मूसा ने क्या देखा कि खिज़र किश्ती के तले में छेद कर रहा है। किश्ती बिलकुल नई थी जैसे आज ही बनकर आई हो और खिज़र उसके पेंदे में छेद किए जा रहा है। एक छेद कर चुकने के बाद उसने एक और छेद कर दिया, फिर एक और। मूसा चिल्लाया, “वल्लाह, आप क्या कर रहे हैं, किश्ती डूब जाएगी! हम दोनों डूब जाएँगे...।"

खिज़र ने उँगली अपने होंठों पर रखकर उसे चुप रहने का इशारा किया। पर मूसा परेशान हो उठा था क्योंकि नाव में पानी भरने लगा था और वह डर रहा था कि नाव अब डूबी कि अब डूबी। पर वह चुप हो गया, खिज़र को जबान जो दे चुका था। थोड़ी देर बाद खिज़र ने एक-एक करके छेद बन्द कर दिए लेकिन तब तक नाव का तला बहुत कुछ ख़राब हो चुका था।... अब दोनों पार हुए...पार हुए तो...अल्लाह रहम करे...दोनों जा रहे थे जब एक जगह एक छोटा-सा लड़का ज़मीन पर बैठा खेल रहा था। बच्चे के पास से गुज़रे तो खिज़र ने आव देखा न ताव, बच्चे को उठाकर उसकी गर्दन मरोड़ दी।"

“यह क्या? यह क्या?" मूसा चिल्लाया, “मासूम बच्चे को मार डाला!" पर खिज़र चुप। खिज़र ने फिर उँगली होंठों पर रख दी और मूसा को चुप रहने का हुक्म किया।

“अलहमदुलिल्लाह! बोलूँ नहीं? आपने बेगुनाह बच्चे की गर्दन मरोड़ दी। न जान न पहचान, इस गाँव में आपने पहले कभी कदम नहीं रखा। इस मासूम से भला आपकी क्या अदावत थी?" मूसा बहुत परेशान हुआ। अन्दर से तो वह भी पैगम्बर ही था न, अभी उसे पैगम्बरी मिली नहीं थी। करीमखान ने सिर हिलाकर कहा, “अब खुदा रहम करे, दोनों आगे जाने लगे। गाँव पार किया। अब जो गाँव की हदबन्दी पर पहुँचे तो वहाँ पर टूटी-फूटी दीवार थी। मूसा तो एक छलाँग में उसे पार कर गया, मगर पीछे मुड़कर देखा खिज़र दीवार के पास खड़े हैं और आस-पास गिरी टूटी ईंटों को उठा-उठावर दीवार पर रख रहे हैं, दीवार की चुनाई कर रहे हैं। मूसा लौट आया, 'बुजुर्गवारम! उस बच्चे को तो आपने मौत के घाट उतार दिया जिसने ज़िन्दगी के दो दिन भी नहीं देखे और इस दीवार को जो वर्षों से टूटी पड़ी है, फिर से खड़ा कर रहे हैं। यह क्या माजरा है? आपकी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं।"

खिज़र ने फिर उँगली उठाकर उसे चुप रहने का इशारा किया। मूसा फिर चुप हो गया।

वे फिर आगे बढ़े। चलते गए, चलते गए। एक बाग में पहुँचे जहाँ चश्मा बह रहा था और ऊपर छायादार पेड़ था। दोनों ने मुँह-हाथ धोया और पेड़ के नीचे बैठ गए। अब खिज़र बोला।

"सुन बरखुरदार, वह जहाँ मैंने किश्ती में छेद किया था, और तू बिगड़ने लगा था, दरअसल उस गाँव का हाकिम बड़ा ज़ालिम है, वह अपनी ऐश-ओ-इशरत के लिए गरीब लोगों की किश्तियाँ छीन लेता है। मैंने सोचा उस नाव में छेद कर दूं तो हाकिम के आदमी इसे उठाएँगे नहीं, उसे वहीं छोड़ जाएंगे और पत्तनवाले का रोज़गार बना रहेगा।" मूसा चुपचाप सुनता रहा। “पर आपने उस बेगुनाह बच्चे को क्यों मारा?" "सुनो, सुनो, अभी बताता हूँ। वह बच्चा हराम का बच्चा था, हलाल का बच्चा नहीं था। जिस आदमी की वह औलाद है वह बड़ा ज़ालिम है, ज़ालिम और नापाक। मैंने उस बच्चे को इसलिए क़त्ल कर दिया कि वह भी बड़ा होकर ज़ालिम बनता और बेगुनाह लोगों पर जुल्म ढाता। अब कहो, मैंने अच्छा किया या बुरा किया?"

मूसा सोच में पड़ गया, उसका सिर झुक गया। “मगर आपने उस टूटी-फूटी दीवार की मरम्मत क्यों की? इससे किसी को क्या फायदा?"

“वह भी सुनो,” खिज़र बोला, “यह जिस टूटी-फूटी दीवार की मैंने मरम्मत की है, उसके नीचे खजाना गड़ा है। बहुत बड़ा खजाना। मगर गाँववालों को इसकी कुछ भी ख़बर नहीं है। और गाँववाले बहुत गरीब हैं, और बहुत ज़रूरतमन्द हैं। मैं उनकी मदद करना चाहता हूँ। मैंने दीवार को पक्का कर दिया है। जब वे लोग अपने हल चलाते हुए यहाँ तक पहुँचेंगे तो यह दीवार उनके रास्ते में रुकावट साबित होगी और वे एक दिन उसे तोड़ देंगे, और एक-एक ईंट उठाकर खेतों के बाहर फेकेंगे, और उन्हें नीचे से गड़ा हुआ खजाना मिल जाएगा और वे मालामाल हो जाएँगे। इनके तन पर कपड़ा होगा और घर में रोटी होगी। अब बता मैंने क्या बुरा किया?..."

करीमखान ने किस्सा कह चुकने के बाद सिर हिलाते हुए एक-एक साथी की ओर देखा, फिर बोला, “तो कहने का मतलब कि जो बात हाकिम देख सकता है वह आम लोग, तुम और हम नहीं देख सकते। अंग्रेज़ हाकिम की आँख चारों तरफ़ देखती है वरना क्या यह मुमकिन है कि मुट्ठी-भर फिरंगी सात समन्दर पार से आकर इतने बड़े मुल्क पर हुकूमत करें? अंग्रेज़ बहुत दानिशमन्द हैं, दूरअन्देश हैं..."

"बेशक! बेशक!" आसपास बैठे लोगों ने सिर हिलाए।

इसी दूकान में एक ओर नत्थी भी बैठा था। कहवे की प्याली सामने रखे, हाथ में लम्बा-सा रस का टुकड़ा उठाए, वह डुबो-डुबोकर खा रहा था और ध्यान से करीमखान की बातें सुन रहा था। जब से उस सुअर के दड़बे में से निकला था, वह कभी शहर के एक हिस्से में तो कभी दूसरे हिस्से में चक्कर काट रहा था। जहाँ बैठता लोग सुअर की चर्चा करते सुनाई देते। राह जाते लोगों की बातें सुनते हुए उसके कान खड़े हो जाते। किसी-किसी वक़्त उसे लगता जैसे लोग किसी दूसरे ही सुअर की बात कर रहे हैं, वह उस सुअर की बात नहीं कर रहे जिसे उसने ज़िबह किया था, पर फिर किसी-किसी वक़्त लोगों की बातें सुनते हुए उसका दिल बैठ जाता। यहाँ, इस नानबाई की दूकान पर भी बात अगर झगड़ा-फसाद नहीं हो तो यह बड़ी मामूली-सी घटना बनकर रह जाएगी। सरकार की आँख सब कुछ देखती है तो कोई अनहोनी बात नहीं होगी।

नत्थू ने फिर एक बार अपनी जेब छूकर देखी। नोट चरमराया। उसे तसल्ली हुई। भला हो मुरादअली का जो पहले ही सारी की सारी रकम दे गया वरना अगर अठन्नी हाथ पर रखकर बाकी रकम बाद में देने को कह जाता तो नत्थू चमार उसका कर ही क्या सकता था। मुरादअली ज़बान का पक्का निकला तो नत्थू को भी अपनी ज़बान का पक्का होना चाहिए था। पर वह उस दड़बे में से भाग आया था, जबकि उसने मुरादअली से कसम खाकर कहा था कि वह वहाँ पर उसका इन्तज़ार करेगा। उस कोठरी में उसका दम घुटने लगा था। पर शहर में पहुँचने की देर थी कि उसका खून ठंडा पड़ गया था, जगह-जगह सुअर की चर्चा हो रही थी।

वह अन्दर ही अन्दर बड़ा परेशान था। तरह-तरह के विचार उसके मन में घूम रहे थे; जितनी अधिक घबराहट बढ़ती जाती उतना ही अधिक उसके विचारों में बिखराव आता जाता। बात करे तो किससे, और पूछे तो क्या? उसके साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ था। मुरादअली ने सलोतरी का नाम लेकर सुअर मरवा लिया था और मस्ज़िद के सामने फिंकवा दिया था। पर क्या मालूम यह कोई दूसरा सुअर रहा हो? उसने मस्ज़िदवाले सुअर को देखा, तो वह नहीं था। उसका मन बार-बार बेचैन हो उठता। अगर यह वही सुअर है तो क्या होगा? अगर लोगों को पता चल जाए कि उसी ने सुअर मारा था तो क्या होगा? इसी बेचैनी में कभी उसका मन करता भागकर घर चला जाए और अन्दर से साँकल चढ़ाकर पड़ रहे, कभी उसका मन करता गलियों में घूमता-भटकता रहे, कभी कुछ, कभी कुछ। मैं घर नहीं जाऊँगा, रात होते ही मोतिया रंडी के पास जाऊँगा। वह एक रुपया माँगेगी तो मैं पाँच रुपए दूंगा। रात-भर उसके पास रहूँगा।

पर सड़कों की खाक दिन-भर छानते रहने के बाद उसे अपनी पत्नी की याद सताने लगी। इस वक़्त अपने घर में होता तो अपने साथी चमारों के साथ बैठकर चिलम पीता, दो बातें करता। नहीं, मैं अपने डेरे पर जाऊँगा, नहाऊँगा, कुर्ता बदलूँगा, घरवाली को पास में बैठाकर उससे बातें करूँगा। जाते ही उसे बाँहों में भर लूँगा, मुरादअली का नाम लेने की ज़रूरत नहीं, उसे कुछ भी बताने की ज़रूरत नहीं, इस सारे घिनौने किस्से को सुनाने की ज़रूरत नहीं। उसकी छाती पर सिर रखूगा तो चैन मिलेगा। मोतिया के पास जाऊँगा तो कड़वा बोलेगी, बुरा-भला कहेगी। घरवाली चुप रहनेवाली औरत है, ढाढ़स बँधानेवाली, सुख पहुँचानेवाली। नत्थू ने मन ही मन कहा, दो रुपए मोतिया को देने की बजाय घरवाली के लिए कुछ ले जाऊँगा। वह खुश हो जाएगी, कहेगी तुम क्यों लाए, मेरे पास सबकुछ है। वह कभी कुछ नहीं माँगती। उसे लगा जैसे दूर बैठे हुए भी वह उसे अपनी बाँहों में लिये हुए है, और उसके मन का सारा क्षोभ दूर होता जा रहा है। दुख से छुटकारा पाने के लिए आदमी सबसे पहले औरत की तरफ ही मुड़ता है। औरत को बाँहों में लेने पर उसके सभी क्लेश मिट जाएँगे, उसे इस बात का विश्वास बना रहता है। वह बड़े सब्रवाली औरत है। उसकी छातियों में प्यार भरा है।

कहवाखाना धुएँ से अटा पड़ा था। दूकान के बाहर दो बेंच रखे थे जिन पर बोझा उठानेवाले मज़दूर बैठे टीन की प्लेटों में खाना खा रहे थे, दाल की तश्तरी सामने रखे, बेंच के आर-पार टाँगें लटकाए, नान तोड़ रहे थे। सड़क पर भिश्ती फिर से छिड़काव कर रहा था।

तभी देर से ढोल बजने की-सी आवाज़ आई। बाहर बैठे मजदूरों ने पीछे मुड़कर सड़क की ओर देखा। ढोल बजने की ही आवाज़ थी और बराबर नज़दीक आती जा रही थी। कहवाखाने के अन्दर लोग चुप हो गए।

“क्या है?" किसी ने पूछा।

"मुनादी है।" किसी ने जवाब दिया, “इधर ही आ रही है।"

इतने में एक ताँगा जिस पर कांग्रेस का झंडा लहरा रहा था और ताँगे के अन्दर बैठा कोई आदमी ढोल पीट रहा था, लगभग नानबाई की दूकान के सामने ही आकर रुक गया। अगली सीट पर से एक आदमी उठकर खड़ा हो गया। तभी ढोल पीटना बन्द हो गया और वह आदमी उठकर मुनादी करने लगा:

“वतन का फ़िक्र कर ज़्यादा मुसीबत आनेवाली है।

तेरी बरबादियों के तज़करे हैं आसमानों में॥

साहिबान,

आज शाम के छः बजे गंजमंडी में जिला कांग्रेस कमेटी की तरफ से एक आम पब्लिक जलसा होगा जिसमें हिन्दुस्तान की आज़ादी की जद्दोजहद में अंग्रेज़ी सरकार की फूट की नीति का पर्दाफाश किया जाएगा और सारे शहर के अवाम से अपील की जाएगी कि वे अमन को बरकरार रखें। भारी तादाद में शामिल होकर जलसे की रौनक बढ़ाएँ।"

ताँगे की पिछली सीट पर जरनैल ढोल थामे बैठा था। मुनादी करानेवाला शंकर था जो मुनादी ख़त्म कर चुकने पर फिर से अपनी सीट पर बैठ गया था। ढोल फिर से बजने लगा और लहराते झंडे के साथ ताँगा वहाँ से रवाना हो गया।

ताँगा जब दूर निकल गया तो एक मज़दूर दूसरे से बोला, "गंजमंडी तों इक बाबू नी पण्ड चुक्की आ रिहा सी जे बाबू हकण लगा, 'आज़ादी आवण वाली है।' मैं हस्स के कहा, 'आवे आज़ादी बाबूजी सानू के, असाँ हुण की पण्ड चक्कणी ऐं, पिच्छोवी पण्ड चक्काँगे।" कहकर मज़दूर ठहाका मारकर हँस पड़ा। और उसके लाल-लाल मसूड़े चमक उठे।

"असाँ हुण वी पण्ड चक्कणी ते पिच्छों वी पण्ड चक्कणी!" और वह फिर हँसने लगा।

(बाबू ने कहा आज़ादी आनेवाली है। मैंने कहा, आए आज़ादी, पर हमें क्या? हम पहले भी बोझा ढोते हैं, आज़ादी के बाद भी बोझा ढोएँगे।)

तभी कहवाखाने के अन्दर बैठा दाढ़ीवाला एक अधेड़ उम्र का आदमी बोला, “वह आदमी पकड़ा गया है या नहीं जिसने मस्ज़िद की तौहीन की थी? खंजीर का बच्चा! उसके हाथ-पाँव में कीड़े पड़ें।"

"बहुत बुरा हुआ है।" कोई बुदबुदाया। नत्थू ने सुना और सिर से पाँव तक सिहर उठा।

फिर कोई और आदमी बोला, “सुना है कोई गाय भी मारी गई है। गन्दे नाले के पास कोई मारकर फेंक गया है।"

“यह भी बहुत बुरा हुआ है।"

इस पर छोटी-छोटी आँखोंवाला हँसमुख बुजुर्ग करीमखान फिर से बाअज़ करने लगा, “कुरान शरीफ में फर्माया है कि इनसान की खेतियाँ मेरे हुक्म से खड़ी हैं, इनसान के सब इरादे मेरे हुक्म पर खड़े हैं। मेरा हुक्म नहीं होगा तो लहलहाती खेतियाँ झुलस जाएँगी, मेरे हुक्म पर बाढ़ आएगी, शहरों के शहर तबाह हो जाएँगे," और बूढ़े ने कहा, "सभी कुछ मालिक के हाथ में है, इनसान के हाथ में कुछ भी नहीं। सब काम पाक परवरदिगार के हुक्म से होते हैं। उसका जो हुक्म होगा, वही होगा।"

आस-पास बैठे लोगों ने सिर हिलाए। हुक्के का दौर बराबर चलता रहा। बाहर एक मज़दूर ऊँची हेक लगाकर गाने लगा :

“ओये उड़ी-उड़ी कियाँ तक्कणै

माहड़े सुत्थणे नी चूड़ियाँ।"

(क्यों तुम झुक-झुककर मेरी सलवार के चुन्नटों को घूरे जा रहो हो?)

यह वही मज़दूर था जो कुछ देर पहले खी-खी करके बाबू के साथ हुए अपने वार्तालाप को दोहराता रहा था। उसके हँसोड़ बेपरवाह स्वभाव को देखकर नत्थू को रश्क हुआ।

तभी सड़क पर फिर हरकत हुई। चलते-चलते लोग खड़े हो जाने लगे और सबकी नज़रें दाईं ओर घूम गईं, जिस ओर जामा मस्ज़िद थी।

"पीर साहिब तशरीफ लाए हैं! गोलड़ा शरीफ के पीर आए हैं।"

सड़कों पर खड़े किसी आदमी ने नानबाई से कहा, और दिल पर हाथ रखे पीर साहिब की राह देखने लगा।

नानबाई भी उठकर खड़ा हो गया। तभी कहवाखाने के अन्दर बैठे सभी लोग बाहर आ गए और सड़क पर जैसे पलकें बिछाए पीर साहिब की आमद का इन्तज़ार करने लगे।

एक कद्दावर, दाढ़ीवाला व्यक्ति नमूदार हुआ। लम्बा काला कुर्ता, गले में बड़े-बड़े मणकोंवाले तीन-चार हार, पगड़ी के पीछे गर्दन पर गिरते हुए लम्बे बाल, हाथ में तसबीह। चौड़े गोरे चेहरे से नूर बरस रहा था। दाएँ-बाएँ और पीछे बहुत से मुरीद चले आ रहे थे।

नानबाई बढ़कर आगे आ गया और सिर झुका, जानू पर हाथ रखकर सड़क के बीचोबीच खड़ा हो गया। पीर साहिब ने अपना बायाँ हाथ आगे बढ़ाया, नानबाई ने उसे झुककर आँखों से चूमा, फिर अपना दायाँ हाथ दिल पर रखे पहले की तरह आगे की ओर दोनों हाथ बाँधे झुका-झुका खड़ा हो गया। पीर साहिब ने हाथ तनिक ऊपर उठाया, और बिना कुछ बोलें आगे बढ़ गए। बारी-बारी से सड़क पर खड़े लगभग सभी आदमी उनके पास गए। सभी ने अपनी आँखों से पीर साहिब के हाथ चूमे, सभी को पीर साहिब ने दुआ दी।

"बहुत पहुँचे हुए पीर हैं," नानबाई ने अपनी जगह पर लौटते हुए कहा,

"वल्लाह, चेहरे पर कितना जलाल है, पेशानी से नूर बरसता है।"

और लोग भी लौट आए थे, कुछ लोग वहीं से अपने-अपने घरों की ओर चले गए। कहवाखाने में अब पीर साहिब की चर्चा चल पड़ी।

"बहुत पहुँचे हुए हैं, दिल की बात बूझ लेते हैं।" नानबाई कहे जा रहा था। फिर वह तख्ते पर बैठा अन्दर की ओर मुँह करके बोला, "मैं एक बार ज़ियारत करने गोलड़ा शरीफ गया। पीर साहिब के हुजूर में पहुँचा तो मुझे देखकर कहने लगे : 'कुछ दाने उठा ले, देखता क्या है?' सामने गेहूँ के दानों का ढेर लगा था। मैंने यों ही झुककर मुट्ठी में कुछ दाने उठा लिये। इस पर पीर साहिब ने फर्माया, 'बस! सिर्फ एक सौ सत्तर दाने! ज़्यादा उठा लेता!'

“मैं हक्का-बक्का वहीं बैठकर दाने गिनने लगा। पूरे एक सौ सत्तर दाने थे।"

इस पर करीमखान बोला, “इनके हाथ में बड़ी शफ़ा है। मेरा पोता है, अब तो रोठा हो गया, जब छोटा-सा बच्चा था तो उसे कनपेड़े हो गए। दोनों गाल सूज गए। किसी ने कहा गोलड़ा शरीफ के पास ले जाओ। पीर साहिब ने इशारा किया, 'बच्चे को मेरे सामने लिटा दो,' मैंने लिटा दिया। फिर उन्होंने पास रखा बड़ा-सा छुरा उठाया और उसे एक-एक बार बच्चे के दोनों गालों को छुवा दिया। फिर हाथ के पंजे पर अपने मुँह से अपनी लब ली और बच्चे के दोनों गालों पर लगा दी। बस इतना ही। मैं पीर साहिब की क़दमबोसी करके बच्चे को उठाकर घर ले आया। घर पहुँचते-पहुँचते सूजन उतर चुकी थी और बुखार जा चुका था।"

“पीरों-दस्तगीरों के हाथ में शफा होती है। उधर मसियाड़ी के पास बाबा रोडा बैठता है, उसके हाथ में भी बड़ी शफा है।"

“पीर साहिब काफिरों को हाथ नहीं लगाते; काफिरों से नफरत करते हैं। पहले पीर साहिब के पास हर कोई जा सकता था। अगर कोई काफिर इलाज के लिए आए तो छड़ी की नोक उसकी नब्ज पर रखते थे, छड़ी का दूसरा सिरा कान पर लगाते थे और नब्ज सुन लेते थे, पर अब वह किसी काफिर को नज़दीक नहीं आने देते।"

"अक्सर गर्मी के मौसम में शहर नहीं आते। अबकी बार ही आए हैं।"

“पीरों के लिए गर्मी-सर्दी क्या?"

"मुमकिन है इन तक खबर पहुँची हो। वह जो मस्ज़िद को नापाक किया गया है।"

“इन्हें हर बात की ख़बर रहती है। इन्हें कोई बताने थोड़े ही गया होगा। इन्हें अपने-आप पता चल जाता है। अपने-आप इल्म हो गया होगा और पहुँच गए होंगे।"

"इनकी नज़र चाहिए। पीर-फकीर की बद्दुआ लग जाए तो शहरों के शहर तबाह हो जाते हैं।"

'बजा है।"

"वाअज़ करेंगे क्या?"

"क्या मालूम । जुम्मा तक रहे तो ज़रूर करेंगे।"

"जो आए हैं तो जुम्मा तक तो रुकेंगे ही। वाअज़ तो करेंगे ही, जो आए हैं तो शहर को पाक करके ही जाएँगे।"

नत्थू वहाँ से निकला तो दोपहर अलसा रही थी, उसका दिल फिर हल्का-हल्का महसूस करने लगा। एक प्रकार की धुकधुकी जो सुबह से उसे परेशान करती रही थी, एक अज्ञात-सी आशंका जो उसके दिल को कुरेदती रही थी, अब बहुत कुछ दूर हो गई थी। शहर-भर में रौनक थी, चहल-पहल थी, लोग सुअर फेंकनेवाले की बात करते मगर उसे 'सिरफिरा' पागल कहकर दो-एक गालियाँ देते और फिर इस घटना को भूल भी जाते थे। फिर वह ही क्यों इतनी-सी बात को अपनी छाती का बोझ बनाता फिरे? उसने यह भी देख लिया था कि उसके बारे में किसी को कानों-कान ख़बर तक नहीं हो पाई। सभी लोग इस घटना को किसी जनूनी का पागलपन या किसी 'कराड़' की शरारत कह रहे थे। मुरादअली ही केवल इस बारे में जानता है, तो क्या मुसलमान होकर वह किसी से कहेगा कि उसने यह बुरा काम करवाया है?

नत्थू को आस-पास की चीजें भली लगीं। एक छोटी-सी दूकान के सामने कोई गाँव का आदमी अपनी पत्नी से नये जूतों का जोड़ा लेने का आग्रह कर रहा था, “ले लो न जी, मैं जो कह रहा हूँ। तुम्हारे पास एक भी जोड़ा नहीं है। वह जूती फट चुकी है।"

और पास बैठी, सिर से पैर तक बुर्के से ढकी उसकी पत्नी अपनी मधुर आवाज़ में इंकार किए जा रही थी, “मुझे इसकी ज़रूरत नहीं। मेरा काम चल रहा है। तुम्हारे पास अच्छा जूता नहीं है, तुम ले लो एक अच्छा-सा जोड़ा। तुम्हें ज़्यादा चलना पड़ता है।" नत्थू आगे बढ़ गया। उसे सुख का भास हुआ। वह सड़क पार करके दाएँ हाथ आ गया और धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। नानबाइयों की दूकानों की एक और कतार आ गई थी। बड़े-बड़े देग और देगों में से उठती मांस-मसालों की गन्ध और नानों के ढेर-के-ढेर। दूकानें खचाखच भरी थीं। ज़्यादा लोग मज़दूर, बोझा ढोनेवाले, या आस-पास के गाँवों में से आनेवाले परिवार थे। दिन-भर के काम के बाद अथवा खरीद-फरोख्त के बाद भोजन पर टूट रहे थे। यह बाज़ार शहर के एक सिरे पर था। खाना खा चुकने के बाद किसान लोग अपनी-अपनी बैलगाड़ियों पर बैठकर शहर के बाहर उन लम्बी राहों पर निकल जाएँगे जो उन्हें अपने-अपने गाँवों को ले जाती हैं।

नानबाइयों की दूकानों के पीछे उसे जामा मस्ज़िद की ऊँची भव्य इमारत नज़र आई। ढलती दोपहर में मस्ज़िद और भी ज़्यादा धुली-धुली और सफ़ेद लग रही थी। वही रोज़ का-सा दृश्य था। सीढ़ियों पर भिखमंगे, लेटने-सुस्ताने वाले गज़दूर, आने-जाने वाले लोगों का ताँता। सहसा उसने देखा, बड़े मेहराबदार दरवाज़े में से सैकड़ों लोग एक साथ निकल आए हैं। जोक-दर-जोक लोगों का हुजूम अन्दर से निकल रहा है, वे फाटक पार करके आते, सीढ़ियों के सिरे पर अपना-अपना जूता पहनते या हाथ में लिये सीढ़ियाँ उतरने लगते। नत्थू देखता रह गया। केवल ईद के दिन इतने ज़्यादा लोग मस्ज़िद में से निकलते नज़र आया करते थे। तो क्या आज कोई वाअज़ था? उसे सहसा ख्याल आया, क्या गोलड़ा शरीफ के पीर तो वाअज़ देने नहीं आए थे? क्या वाअज़ देने के बाद ही तो वह नहीं लौट रहे थे? उसका दिल फिर धक् से रह गया। उसे लगा जैसे मस्ज़िद में इकट्ठा होनेवाले ये सैकड़ों लोग उसी के कुकर्म की चर्चा करने के लिए इकट्ठा हुए थे। गोलड़ा के पीर भी इसी की खबर पाकर शहर में आए होंगे।

नत्थू जामा मस्ज़िद को सामने से लाँघ गया। जिस जगह जामा मस्ज़िद की दीवार ख़त्म होती थी वहाँ बगल में एक गन्दा नाला बहता था। शहर-भर का गन्दा पानी इसी नाले में इकट्ठा होकर शहर के बाहर जाता था। नत्थू नाले के डंडहरे को पकड़कर खड़ा हो गया।

उसकी नज़र नीचे की ओर गई तो उसने देखा, डंडहरे के थोड़ा नीचे नाले के किनारे एक चबूतरा-सा था और उस पर नंग-धडंग एक आदमी लेटा हुआ था। स्याह रंग का काला आदमी। दाढ़ी और सिर पर सूखे खिचड़ी बाल, उलझे हुए, गले में तावीज़। नाले की ही दीवार के साथ अपना टीन का डिब्बा एक कील के साथ लटकाकर लेट रहा था। चबूतरा तंग-सा था, सोए-सोए करवट बदलने पर भी वह सीधा नीचे नाली में गिर सकता था। यह भी शायद कोई पहुँचा हुआ पीर-फकीर होगा, नत्थू ने मन ही मन कहा और उसकी ओर देखता रहा।

सहसा फकीर उठ बैठा और आँखें फाड़-फाड़कर नत्थू की ओर देखने लगा। और देखते ही देखते दाएं-बाएँ ज़ोर-ज़ोर से सिर हिलाने लगा, वैसे ही जैसे जनूनी लोग सिर हिलाते हैं।

नत्थू ने मुँह फेर लिया और बाज़ार की ओर देखने लगा। थोड़ी देर बाद जब उसने फिर मुड़कर देखा तो उसने सिर हिलाना छोड़ दिया था और फटी-फटी आँखों से नत्थू की ओर देखते हुए अपनी तर्जनी से उसे अपनी ओर बुला रहा था। नत्थू सहम-सा गया, वह डर गया कि यह फकीर कहीं उस पर कोई जादू-टोना न कर दे या उसे बटुआ न दे दे। उसने जेब में हाथ डाला और एक इकन्नी निकालकर फकीर के सामने फेंक दी और वहाँ से चलने को हुआ। उसके देखते ही देखते फकीर ने इकन्नी उठा ली और नाले में फेंक दी और फिर उसकी ओर घूरते हुए तर्जनी हिला-हिलाकर उसे अपनी ओर बुलाने लगा। नत्थू डर गया, और काँपकर वहाँ से हट गया।

बड़ा बाज़ार में बड़ी चहल-पहल थी। नत्थू को शहर का यह इलाका सबसे ज़्यादा आकर्षक लगता था। सोड़ा-वाटर की दोनों दूकानों पर रंगारंग की असंख्य बोतलें चमक रही थीं। नीचे, उजले कपड़े पहने दूकानदार पालथी मारे नींबू पानी के गिलास भर-भरकर ग्राहकों को दे रहे थे। सड़क की पटरी पर फूलों के गजरे बेचनेवाले अभी से आ पहुँचे थे। सोड़ा-वाटर की दूकानों की बगल में ही सीख-कबाबवाले बैठते थे। और नज़दीक ही ठेका-शराबवालों की दूकान थी। वहीं पर ही कसाई गली सड़क में खुलती थी जहाँ रंडियाँ बैठती थीं। नत्थू सड़क के किनारे ठिठका खड़ा रहा।

दूकानों के सामने सड़क पर बहुत से ताँगे खड़े थे-चमचमाते साज़, घोड़ों के सिर पर नाचती कलंगियाँ, मेले का-सा समाँ। किसी-किसी वक्त कोई ताँगा सड़क के ऐन बीचोबीच आकर रुक जाता। घोड़े का कसमसाता शरीर साज़ तुड़ाने के लिए जैसे अंगड़ाइयाँ ले रहा होता। और ताँगे में कोई तुर्रेवाला रईस अपने दो-एक साथियों के साथ बैठा होता।

नत्थू चमार आश्वस्त होकर इधर-उधर घूमने लगा। उसे लगा जैसे सभी लोग मस्त हैं और अपने लिए खुशियाँ बटोर रहे हैं। नत्थू चमार देर तक वहाँ टहलता रहा, फिर जब शाम हो गई और बाज़ार में रौनक और भी ज़्यादा बढ़ गई तो वह लपककर सीख-कबाबवाले की दूकान पर जा पहुँचा। वहाँ से उसने अठन्नी के कबाब लिये और सीधा देसी शराब के ठेके पर जाकर बेंच पर बैठ गया। और खुशी-खुशी बैठकर खाने लगा और घुट-घुट करके शराब पीने लगा।

शाम के साए उतर आए और बड़ा बाज़ार की बत्तियाँ जल उठीं। छिड़काव से फिर एक बार सोंधी-सोंधी मिट्टी की खुशबू आने लगी और फूलों के गजरों की खुशबू से मिलकर नत्थू के दिमाग पर अजीब मस्ती-सी छाने लगी। नत्थू को मालूम नहीं था कि कब उसने फूलों का गजरा ख़रीदकर गले में डाल लिया था। उसे यह भी मालूम नहीं था कि कब यह देसी शराब की दूकान पर से उठकर राजाबाज़ार का खुला इलाक़ा लाँधकर रंडियोंवाली गली में जा पहुंचा था।

तभी सहसा उसे सामने की ओर से मुरादअली आता नज़र आया। घुटनों तक लम्बा कोट, हाथ में पतली छड़ी, ठिगना, गठे शरीरवाला, काली-काली मूंछोंवाला मुरादअली। क्या वह सचमुच मुरादअली था? या नत्थू ख्वाब देख रहा था? उसकी आँखों के सामने मुरादअली एक प्रेत की भाँति मँडराता-सा नज़र आया जो गली-गली, कूचा-कूचा घूमता फिरता था, छड़ी झुलाता हुआ। क्या सचमुच मुरादअली नाम का कोई व्यक्ति भी है जो इस शहर में रहता-बसता है या कोई प्रतिछाया ही एक गली से दूसरी गली घूमती रहती है और लोगों ने उसका नाम मुरादअली रख छोड़ा है। नहीं, मुरादअली ही था, मंडी की ओर से गली के रास्ते चला आ रहा था। नत्थू शराब की हिलोर में नहीं होता तो किसी घर के चबूतरे की आड़ में छिप जाता। पर नत्थू के हौसले बढ़े हुए थे। वह सीधा गली के बीचोबीच आ गया। उसने ज़्यादा नहीं पी रखी थी। चमड़ा रँगनेवाले चमार के लिए दो कुल्हड़ शराब तो पानी के बराबर होती है। दिन-भर अकेला घूमते रहने के बाद अब जाकर उसे कोई परिचित मिला था। और सहसा नत्थू को गर्व का भास हुआ। हम जिस काम को हाथ में लेते हैं, पूरा करके छोड़ते हैं।

"सलाम, हुजूर!"

नत्थू ने आगे बढ़कर हँसते हुए कहा और तनकर खड़ा हो गया।

मुरादअली क्षण-भर के लिए ठिठका। उसकी पैनी आँखों ने नत्थू को देखा और सारी स्थिति उसकी समझ में आ गई। बिना कुछ कहे अथवा नत्थू के अभिवादन का बिना उत्तर दिए वह आगे बढ़ गया।

"सलाम, हुजूर। मैं नत्थू हूँ, आपने मुझे पहचाना नहीं?" नत्थू कहकर हँस दिया।

मुरादअली इस बीच आगे जा चुका था।

नत्थू हत्बुद्धि-सा गली के बीचोबीच खड़ा रहा, फिर वहीं से चिल्लाकर बोला, "हुजूर, मुरादअली साहब!"

पर मुरादअली नहीं रुका।

सहसा नत्थू के मन में एक विचार उठा : मुझे कम से कम मुरादअली को बता तो देना चाहिए कि मैंने उनका काम कर दिया है। वह इस मुगालते में तो न रहें कि मैं यहाँ घूम रहा हूँ और उनका काम पूरा नहीं किया है।

नत्थू लड़खड़ाता हुआ मुरादअली के पीछे हो लिया। आगे और ज़्यादा अँधेरा था मगर दूर मुरादअली की काया उसे बराबर नज़र आ रही थी। वह गिरता-पड़ता बढ़ता गया। जैसे-तैसे वह भागने लगा था। हुजूर को बताना तो बहुत ज़रूरी है कि काम पूरा हो गया है।

उसे लगा जैसे वह मुरादअली के नज़दीक पहुंच रहा है। वास्तव में गली सूनी होती जा रही थी और उसे लगा जैसे मुराद अली ने अपनी चाल धीमी कर दी है।

“हुजूर, मैं कहना भूल गया। वह काम हो गया था। वक्त पर भेज दिया था। हत्थगाड़ीवाले आ गए थे...”

तभी नत्थू ने देखा कि मुरादअली रुक गया है और अपनी छड़ी उठाए उसकी ओर देख रहा है।

अभी मुरादअली उसकी ओर बढ़कर आएगा। मगर उसने छड़ी को ऊँचा क्यों उठा रखा है? और वह कुछ भी बोलता क्यों नहीं? अँधेरी गली के एक सिरे पर दोनों खड़े एक-दूसरे को घूरे जा रहे थे।

नत्थू ने फिर एक बार कहा, “आपका काम हो गया था, हुजूर। ठिकाने लगा दिया था हमने।"

उसके कहने की देर थी कि उसे लगा मुरादअली फिर घूमकर आगे-आगे जाने लगा है, क़दम बढ़ाए आगे बढ़ता जाता है, गली के सिरे पर ढलान आ गई है और वह ढलान पर चढ़ता जा रहा है।

नत्थू ने नज़र उठाई। मुरादअली फिर दूर जा चुका था, गली में से निकलकर शिवाले की ओर जानेवाली ऊँची ढलान पर चढ़ता जा रहा था। पीठ पीछे नत्थू को फिर लगा जैसे कोई प्रेत बढ़ता जा रहा है, दूर होता जा रहा है लेकिन आँखों से ओझल नहीं हो रहा है।

दरवाज़ा खोलने पर नत्थू को दहलीज़ पर खड़े देखकर नत्थू की पत्नी की जैसे जान में जान आई और उसकी आँखों में आँसू छलक आए। “तुम ऐसे नहीं किया करो जी," वह रोती हुई खाट पर जा बैठी, “मेरा दिल डूब-डूब रहा था। मैं सोचूँ तुम गए तो कहाँ गए। यह भी कोई तरीका है! परेशान कर दिया।"

साड़ी के पल्लू से आँख पोंछकर वह उसकी ओर देखती रही और सहसा मुस्करा दी : “यह क्या स्वाँग बनाकर आए हो? कान में फूलों का गज़रा लटका रखा था। किसके पास गए थे?"

मगर नत्थू चुप रहा, और चुपचाप खाट पर जा बैठा।

"शराब पी है तो हँसते-गाते क्यों नहीं हो। पहले जब पीते थे तो हँसते हुए घर लौटते थे।"

नत्थू की पत्नी भगवान से धीरज का वरदान लेकर आई थी। नत्थू क्रोध में आकर कभी बकझक भी करता तो आगे से बोलती नहीं थी। इतना-भर कहती, “कह लो, कह लो, मन हल्का कर लो!" या फिर एक ओर को सिमटकर खड़ी हो जाती और होंठों पर उँगली रखकर कहती, "बस, बस, और कुछ मत कहो। बाद में तुम्हें ही पछतावा होगा।" अब किसी के मांस में तो कोई काँटा चुभोए, मिट्टी के लोंदे में कोई क्या काँटा चुभोए? उसके शीतल स्वभाव के कारण नत्थू चमार भी चुप रहने लगा था। पड़ोस की कोठरियों में कुछ नहीं तो बीस चमार और उनके परिवार रहते थे और सभी घरों से उसका मेल-मिलाप था, सभी का सुख-दुख बाँटती थी। अपने थोड़े में ही सन्तुष्ट रहनेवाली और भगवान से डरनेवाली स्त्री थी। कुछ लोगों में स्वभाव से ही ऐसी सूझ होती है कि वे अपनी स्थिति को भली भाँति समझ लेते हैं और ज़िन्दगी से कुछ भी ऐसा नहीं माँगते जिसके मिलने की सम्भावना न हो। इसीलिए उनका मन सदा खिला-खिला रहता है।

नत्थू अभी भी चुपचाप बैठा था।

“तुम बोलते क्यों नहीं? तुम इतनी देर बाहर रहे, मैं मछली की तरह तड़पती रही हूँ।"

नत्थू ने आँख उठाकर अपनी पत्नी की ओर देखा। एक बाढ़-सी उसके दिल में उठी। सहसा उसने सिर झटक दिया : भाड़ में जाए मुरादअली और उसका सुअर! उसने मन ही मन कहा। हम तो घर लौट आए हैं!

"बाड़ेवाले मेरे बारे में पूछते थे?"

"हाँ पूछते थे, एकाध बार पूछा था।"

"तुमने क्या कहा?"

"मैंने कहा काम पर गए हैं। आते ही होंगे।"

"क्या बार-बार पूछते थे?"

"नहीं जी, लोग काम पर जाते नहीं हैं? शाम को साथवाली ने पूछा तो मैंने कहा घोड़े की खाल उतारने गए हैं।"

एक हल्की-सी मुस्कराहट नत्थू के होंठों पर दौड़ गई।

“मगर तुम कहाँ गए थे?"

"फिर बताऊँगा।

नत्थू की पत्नी उसके मुँह की ओर देखती रही। पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ था कि नत्थू उससे कोई बात छिपा जाए। मगर चुप रहना बेहतर था, चुप रहूँगी तो कुछ दिन बाद अपने-आप बता देगा।

"नहीं पूछूँगी, तुम नहीं चाहते तो नहीं पूछूँगी।...खाना खाओगे? मैं अभी मिनटों में गरम-गरम रोटियाँ सेक देती हूँ। चाय के साथ रोटी खा लो।"

और वह खाट पर से उतर आई। पर किसी भावावेश में नत्थू ने उसे रोक लिया और अपनी ओर खींचकर अपने पास बैठाए रखा।

"नहीं, तुम इधर ही बैठो।" पत्नी उसके साथ सटकर बैठी रही।

"तुमने खाना खाया?" नत्थू ने भावावेश में उसके बाल सहलाते हुए पूछा।

"हाँ खाया।"

पत्नी को नत्थू का व्यवहार अनोखा-सा लगा।

"झूठ बोलती हो। सच बता, खाना खाया?"

पत्नी ने आँख उठाकर हँसते हुए कहा, "हमने बनाया था, पर हमसे खाया नहीं गया।"

"सुबह को खाया था या नहीं?"

"खाया था।"

"फिर झूठ! सच-सच बता, खाया था?"

उसने फिर पति की ओर देखा और हँस दी, "नहीं खाया था। मैं तुम्हारी बाट देख रही थी, खाती कैसे?"

“और जो आज रात भी मैं नहीं आता, तो?"

“आते क्यों नहीं, मुझे मालूम था तुम आओगे।"

कोई धूमिल अस्पष्ट-सी अकुलाहट थी जो नत्थू के दिल को अभी भी मथ रही थी। इस धुकधुकी के कारण वह सड़कों पर चक्कर लगाता रहा था, इसी कारण उसने शराब पी थी। पत्नी के साथ बैठने पर भी अन्दर ही अन्दर कोई शंका उसका कलेजा चाट रही थी। सहसा नत्थू को खटका-सा हुआ और उसे लगा जैसे मुरादअली दरवाज़े के बाहर खड़ा है और उसकी छड़ी की नोक दरवाज़े पर रखी है। उसका दिल धक् से रह गया। फिर उसने मन ही मन अपने को आश्वासन देते हुए कहा, "मुरादअली ने मुझे पहचाना नहीं होगा वरना बात तो करता। चुपचाप चला गया। उसने जरूर यही समझा होगा कि कोई पियक्कड़ है, जो नशे में धुत्त, उसे परेशान करने आया है। आखिर पाँच रुपए का नोट वह मेरे हाथ में देकर गया था।"

"मैं जानती थी तुम्हें कोई क्लेश है। तुम खुश नहीं हो। इसीलिए मैं घबरा रही थी।"

नत्थू ने घूमकर पत्नी को देखा। वह एकटक उसकी ओर देखे जा रही थी।

“लोग कहते थे शहर में गड़बड़ का डर है। किसी ने सुअर मारकर किसी मसीत के आगे फेंक दिया था। इससे भी मैं घबरा रही थी। मैं कहूँ, कोई गड़बड़ हो गई तो मैं तुम्हें कहाँ ढूँढ़ने जाऊँगी।"

नत्थू ठिठककर पत्नी के चेहरे की ओर देखने लगा।

“कौन-सा सुअर? कैसा सुअर?"

“सुअर कैसे होते हैं," उसकी पत्नी हँस दी। उसे भला लग रहा था कि नत्थू लौट आया है, वह चाहती थी कि दोनों बैठे रहें और इसी तरह बतियाते रहें।

“काला था या सफ़ेद?" नत्थू ने पूछा। उसके कान पत्नी के उत्तर की ओर लगे हुए थे।

“इससे क्या फर्क पड़ता है?"

“तुमने देखा था?"

“मैं सुअर देखने जाऊँगी क्या? मुझे क्या पड़ी है?"

"बाड़े में किसने देखा है?"

"तुम भी कैसी बातें करते हो जी। बाड़े के लोग सुअर देखने जाएँगे? सुनी-सुनाई बात लोगों ने कह दी।"

रात गहराने लगी थी। आसपास की कोठरियों में से आवाजें आना लगभग बन्द हो चुका था।

"बाहर सोओगे या अन्दर?" पत्नी ने कनखियों से पति की ओर देखते हुए पूछा।

"क्यों?"

“तुम्हारा क्या भरोसा? बाहर सो रहे हों तो उठाकर अन्दर ले आते हो। हमने सोचा पहले ही पूछ लें। जो तुम्हारी नीयत ख़राब हो तो पहले ही अन्दर पड़े रहें। अन्दर उमस बहुत है।" और वह बैठी-बैठी अपने बाल खोलने लगी।

"तुमने कुछ नहीं बताया, खाना खाओगे या नहीं? चाय बना दूँ? इतने गुमसुम क्यों बैठे हो? कल तुम नहीं थे, घर काटने को दौड़ता था।"

पत्नी को लापरवाही से बाल खोलते देख वेदना-भरी उन्माद की लहर नत्थू के तन-बदन में उठी और उसने पागलों की तरह अपनी पत्नी को बाँहों में भर लिया और उसके गाल, उसके होंठ, उसके बाल, उसकी आँख बार-बार चूमने लगा, यह भावावेग उत्तरोत्तर बढ़ता गया और उसका रोम अपनी पत्नी के गदराए और उसकी उत्तेजित साँसों में खोने लगा।

"मैं तीन बार रोई हूँ आज के दिन। बरामदे में खड़ी घंटों तुम्हारी राह देखती थी, फिर अन्दर आकर रो देती थी। मुझे लगता था जैसे अब तुम लौटकर नहीं आओगे।"

पत्नी के आलिंगनों में नत्थू खोता जा रहा था, दीन-दुनिया को भूलता जा रहा था, उसके भूखे बेचैन होंठ तृप्ति के लिए भटकते हुए कभी पत्नी के होंठों से जा लगते, कभी उसके स्तनों को जा पकड़ते। हाँफता हुआ वह पत्नी के अंग-अंग में त्राण और सुख और विस्मृति की खोज में जैसे भटक रहा था।

तभी मैदान के पार कुत्ते ज़ोरों से मूंकने लगे। और दूर कहीं से दबा-दबा-सा शोर कानों में पड़ने लगा। नत्थू को किसी बात का होश नहीं था। पर कुछ ही देर में नत्थू की पत्नी की नज़र छत के नीचे दीवार पर पड़ गई। रोशनदान के सामने की दीवार पर हल्की-सी रोशनी थिरक रही थी, लगा जैसे कोई लाल-सी छाया नाचने लगी है। उसे लगा जैसे दीवार पर पड़नेवाली रोशनी काँप रही है। दूर से दबा-दबा शोर सुनाई देने लगा।

"यह क्या है जी?" दीवार की ओर देखते हुए पत्नी बोली, “वह देखो तो दीवार पर। यह कैसी रोशनी है? लगता है जैसे आग की लपट हो। कहीं आग लगी है क्या? सुनो तो, यह शोर कैसा है?"

नत्थू ने सिर उठाकर देखा तो एक हल्की कराह-सी उसके मुँह में से निकली। कुत्ते और भी ज़्यादा ज़ोर से भूँकने लगे थे, और दूर का शोर बढ़ने लगा था। उसकी अस्फुट-सी गूंज वातावरण में फैल रही थी बढ़ते आते लश्करों की आवाज़ की तरह। दीवार के ऊपरी हिस्से में लौ और भी ज़्यादा अस्थिर, और भी ज़्यादा गहरी हो उठी थी, मानो आग के हिलते साए हों।

"कहीं आग लगी है!" उसने भर्राई-सी आवाज़ में कहा, और उठ बैठा।

तभी भिनभिनाते शोर के ऊपर तैरती-सी किसी घड़ियाल के बजने की आवाज़ आई : दोनों के लिए नई-सी आवाज़ थी। यों हर रोज़ ही शेखों के बाग में लगी घड़ी की आवाज़ आया करती थी। चौके से निबटने के बाद जब नत्थू की पत्नी आती और दोनों सोने की तैयारी कर रहे होते और घंटा बजता तो पत्नी अक्सर दस गिना करती थी। कभी-कभी ग्यारह भी सुनने को मिलते, पर यह शेखों की घड़ी की आवाज़ थी, किसी घड़ियाल के बजने की आवाज़ जिसे नत्थू ने भी पहले कभी नहीं सुना था। घड़ियाल बराबर बज रहा था और बढ़ते शोर में उसकी टुनटुनाती आवाज़ कभी साफ़ सुनाई देती, कभी थोड़ी देर के लिए डूब जाती थी, फिर आवाज़ के ऊपर तैरती हुई-सी उसके कानों तक पहुँच जाती।

दूर का शोर बढ़ता जा रहा था। बाड़े के अन्दर से, कोठरियों में से आवाजें आने लगी थीं। लोग जाग-जागकर कोठरियों के बाहर आ रहे थे।

"मंडी में आग लगी है!" कोई आदमी ज़ोर से चिल्लाया। तभी सहसा कहीं दूर से आवाजें आईं। आवाज़ बहुत ऊँची थी, बहुत साफ़ थी :

"अल्लाहो-अकबर!"

नत्थू का शरीर सिर से पाँव तक झनझना उठा। वह आँखें फाड़े छत की ओर देखे जा रहा था। लगता था जैसे उसे लकवा मार गया हो।

"चलो बाहर चलें," उसकी पत्नी ने सहमी-सी आवाज़ में कहा, "बाड़ेवालों से पूछे, मुझे यहाँ डर लगता है।"

मगर नत्थू उसे पकड़े रहा, और जड़-सा खाट पर बैठा रहा।

थोड़ी देर बाद बढ़ते शोर में एक और आवाज़ बहुत से कंठों में से एक साथ फूटकर आई:

"हर-हर-हर महादेव!"

अन्तिम शब्द बहुत लम्बा करके बोला गया था।

इस बढ़ते शोर और बराबर बजते हुए घड़ियाल के बीच बार-बार ये ऊँची आवाजें सुनाई देने लगी थीं। लगता जैसे कोई बहुत बड़ा पर्व मनाया जाने लगा है।

आखिर नत्थू की पत्नी से न रहा गया। वह नत्थू से बाजू छुड़ाकर उठी और दरवाज़ा खोलकर बाहर चली गई। नत्थू अभी भी फटी-फटी आँखों से छत की ओर देखे जा रहा था।

यही शोर, एक अस्फुट-सी स्वर-लहरी बनकर, शहर के बाहर, दूर रिचर्ड के बँगले की दीवारों के साथ भी टकराने लगा था। इस गहराती गूंज में कुछ देर बाद घड़ियाल की टुन-टुन भी तैरती हुई आने लगी। रिचर्ड उस समय गहरी नींद में सो रहा था लेकिन लीज़ा उसे सुनकर जाग गई थी। आवाज़ को सुनकर पहले तो लीज़ा को लगा जैसे उसी के कमरे में लगी घंटी धीमे-धीमे टुनटुनाने लगी है, जैसे दिन के वक़्त हवा का झोंका आने पर टुनटुनाती थी। पर जब उसकी नींद पूरी तरह से टूटी तो उसे लगा जैसे वह आवाज़ भिन्न है। किसी-किसी वक़्त यह आवाज़ बिलकुल हवा में खो जाती, लगता जैसे हवा उड़ाकर ले गई है, फिर सहसा बज उठती, अन्धकार की बीहड़ दूरियों में से तैरती हुई-सी आ जाती है। लीज़ा की आँखों में नींद भरी थी। उसे किसी-किसी वक्त लगता जैसे तूफान में, सागर की लहरों से जूझते अपना रास्ता खोजते किसी जहाज़ की घंटी बज रही हो।

उसने कोहनियों के बल उठकर रिचर्ड की ओर देखा। रिचर्ड हल्के-हल्के खरटि भर रहा था। रिचर्ड के चरित्र की ही खूबी कहिए कि तकिए पर सिर रखते ही सो जाता था। निर्लिप्त, निर्विकार पलँग पर लेटते ही वह गहरी नींद में खो जाता था।

लीज़ा के लिए कमरे का अँधेरा बोझिल हो रहा था। गेट पर पहरेदार के बूट चलते, सड़के को पीटते सुनाई दे रहे थे।

"यह क्या आवाज़ है, रिचर्ड?" और लीज़ा उसके पास सट गई।

"ऐं, क्या है?" रिचर्ड जाग गया।

“यह क्या आवाज़ है?"

"कुछ नहीं, सो जाओ।" और रिचर्ड ने करवट बदल ली।

पर लीज़ा ने अपनी बाँह उसके गले में डाल दी। “कहीं कोई घड़ियाल-सा बज रहा है रिचर्ड।" लीज़ा ने कहा, "जैसे किसी गिरजे की घंटी हो।"

रिचर्ड जाग गया। उसने ध्यान से सुना और कोहनियों के बल उठ बैठा।

“गिरजे की घंटी की आवाज़ ज़्यादा गहरी होती है। यह मन्दिर की घंटी जैसी आवाज़ है, हिन्दुओं के मन्दिर की घंटी जैसी!"

“यह इस वक़्त क्यों बज रही है रिचर्ड, क्या हिन्दुओं का कोई बड़ा दिन है? इस घड़ियाल को सुनते हुए लगता है जैसे समुद्र में तूफान उठा हो और कोई जहाज़ ख़तरे की घंटी बजा रहा हो।" रिचर्ड चुप रहा।

शहर की ओर से आनेवाला भिनभिनाता-सा शोर उत्तरोत्तर बढ़ रहा था। कभी-कभी कोई आवाज़ इस भिनभिनाते शोर में से ऊपर उठ जाती, जैसे कोई किसी को बुला रहा हो फिर उसी शोर के सागर में डूब जाती। तभी अन्धकार की लहरों पर तैरती हुई एक और आवाज़ आई :

“अल्लाह-हो-अकबर!"

रिचर्ड का सारा शरीर एक बार तन गया, फिर थोड़ी देर में ही ढीला भी पड़ गया।

"क्या आवाज़ है? यह क्या आवाज़ है? इसका क्या मतलब है?"

"इसका मतलब है, गॉड इज ग्रेट!"

"यह आवाज़ इस वक़्त क्यों उठाई जा रही है? ज़रूर कोई धार्मिक पर्व होगा।"

रिचर्ड मन ही मन हँस दिया।

"यह धार्मिक पर्व नहीं है लीज़ा, दरअसल शहर में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फ़साद हो गया है।"

"तुम्हारे रहते फ़साद हो गया है रिचर्ड?"

रिचर्ड को लगा जैसे सब कुछ जानते-बूझते हुए लीज़ा यह अटपटा सवाल कर रही है।

"हम इनके धार्मिक झगड़ों में दखल नहीं देते। लीज़ा, तुम जानती तो हो।"

क्षण-भर के लिए लीज़ा को लगा जैसे वह किसी भयानक जंगल से चारों ओर से घिरी है, और दूर से आनेवाली आवाजें जैसे जंगल की ही आवाजें हैं, सियारों, गीदड़ों और तरह-तरह के जन्तुओं की आवाजें।

"तुमने इसे बन्द क्यों नहीं करवा दिया रिचर्ड? यहाँ मुझे डर लगता है।"

रिचर्ड चुप रहा। कोहनियों के बल बैठा रहा। उसका मस्तिष्क फिर से बड़ी तेज़ी से सोचने लगा था कि इस स्थिति में मुझे क्या करना होगा, सरकार की नीति को किस भाँति कार्यान्वित करना होगा।

लीज़ा ने अपनी बाँहें उसके गले में डाल दी थीं। “ये लोग लड़ेंगे तो तुम्हारी जान को भी तो ख़तरा है, रिचर्ड!" लीज़ा ने कहा और उसका दिल रिचर्ड के प्रति सहानुभूति से भर उठा। दुबला-पतला रिचर्ड, बर्बर लोगों के बीच अकेला घूम रहा है। ऐसे लोगों पर शासन क्या कोई आसान काम है?

बीच-बीच में, अन्धकार की गुफाओं में से निकलती हुई घड़ियाल की टुन-टुन की आवाज़ सुनाई दे जाती।

"ये लोग आपस में लड़ें, क्या यह अच्छी बात है?"

रिचर्ड हँस दिया।

"क्या यह अच्छी बात होगी कि ये लोग मिलकर मेरे खिलाफ लड़ें, मेरा खून करें?" रिचर्ड ने कहा और करवट बदलकर एक हाथ से लीज़ा के बाल सहलाने लगा। "कैसा रहे अगर इस वक्त ये आवाजें मेरे घर के बाहर उठ रही हों, और ये लोग मेरा खून बहाने के लिए संगीने उठाए बाहर खड़े हों?"

लीज़ा सिर से पाँव तक काँप उठी। वह रिचर्ड के और पास आ गई और अँधेरे में उसके चेहरे की ओर देखती रह गई। उसे लगा जैसे मानवीय मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं होता, वास्तव में महत्त्व केवल शासकीय मूल्यों का होता है। इतने में रिचर्ड फिर उठकर बैठ गया, “शहर में गड़बड़ है लीज़ा, तुम सो जाओ। मुझे मालूम करना होगा।"

तभी टेलीफोन की घंटी बज उठी।

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रचनाएँ
तमस
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'तमस' की कथा परिधि में अप्रैल १९४७ के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है। 'तमस' कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षों की कथा हो जाती है। आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी होने के बावजूद इसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उदघाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं।
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तमस भाग 1

9 अगस्त 2022
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आले में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर बाद ब

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भाग 2

9 अगस्त 2022
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प्रभातफेरी में भाग लेने के लिए आरंभ में दो गिने-चुने लोग ही पहुँचते थे। बाद मे गलियाँ और बाज़ार लाँघते हुए जिस किसी का घर रास्ते में पड़ता वह तोंद खुजलाता, जम्हाइयाँ लेता साथ में शामिल हो जाता था। ह

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भाग 3

9 अगस्त 2022
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गली में क़दम रखते ही नत्थू ने चैन की साँस ली। गली में अँधेरा था जबकि सड़कों पर अँधेरा छटने लगा था। नत्थू जल्दी से जल्दी गलियों का जाल लाँघकर अपने डेरे पर पहुँच जाना चाहता था। उस बदबू-भरी कोठरी में से

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भाग 4

9 अगस्त 2022
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टीले के ऊपर पहुँचकर दोनों ने अपने घोड़े रोक लिये। सामने दूर तक चौड़ी घाटी फैली थी जो पहाड़ों के दामन तक चली गई थी। लगता दूर क्षितिज पर सतरंगी धूल उड़ रही है। विशाल मैदान, कहीं-कहीं छोटी-छोटी पहाड़ियाँ

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भाग 5

9 अगस्त 2022
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अँधेरा छटने लगा था जब प्रभातफेरी की मंडली गलियाँ लाँघती हुई "इमामदीन के मुहल्ले में पहुँची। रास्ते में शेरखान के घर से झाड़, बेलचे, कड़ाहियाँ और सफाई का अन्य सामान लेकर वे आगे बढ़ने लगे थे। सुबह की रो

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भाग 6

9 अगस्त 2022
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साप्ताहिक सत्संग की समाप्ति से पहले पुण्यात्मा वानप्रस्थीजी सदा की भाँति मन्त्रपाठ करने लगे। इस मन्त्रपाठ को वह सत्संग रूपी यज्ञ की 'अन्तिम आहुति' कहा करते थे। गिने-चुने इन विशिष्ट मन्त्रों तथा श्लोको

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भाग 7

9 अगस्त 2022
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दफ्तर में मिलने के बजाय आप लोग घर पर मिलने आए। ज़रूर कोई बहुत ही ज़रूरी काम रहा होगा।" रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा। चपरासी ने चिक उठा दी। नागरिकों के शिष्टमंडल के सदस्य एक-एक करके कमरे के अन्दर दाखिल हुए

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भाग 8

9 अगस्त 2022
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शहर में सब काम जैसे बँटे हुए थे : कपड़े की ज़्यादातर दूकानें हिन्दुओं की थीं, जूतों की मुसलमानों की, मोटरों-लारियों का सब काम मुसलमानों के हाथों में था, अनाज का काम हिन्दुओं के हाथ में। छोटे-छोटे काम

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भाग 9

9 अगस्त 2022
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'ऐसा 'बेवाका' घर है, कोई चीज़ एक बार कहीं रख दो, फिर मिलती ही नहीं, ढूंढ-ढूँढ़ मरो उसे।" लाला लक्ष्मीनारायण अलमारी के सामने खड़े बड़बड़ा रहे थे। अलमारी के निचले खाने में कपड़ों के नीचे उन्होंने एक नन्

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भाग 10

9 अगस्त 2022
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दिन के उजाले में शहर अधमरा-सा पड़ा था, मानो उसे साँप सूंघ गया हो। मंडी अभी भी जल रही थी, म्युनिसिपैलिटी के फायर ब्रिगेड ने उसके साथ जूझना कब का छोड़ दिया था। उसमें से उठनेवाले धुएँ से आसमान में कालिमा

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भाग 11

9 अगस्त 2022
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देवदत्त नहा-धोकर, हाथ मलता हुआ अपने घर के सामने आ खड़ा हुआ। जब कभी वह हाथ मलता हो, या दाएँ हाथ से मुँह और नाक सहलाता हुआ फिर से दोनों हाथ मलने लगे तो समझ लो देवदत्त अपनी कार्य-सूची तैयार कर रहा है। दे

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भाग 12

9 अगस्त 2022
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एक आदमी छज्जे पर पहरा दे।" रणवीर ने घूमकर कहा। मुर्गी काटकर दीक्षा पाने से उसमें भरपूर आत्म-विश्वास पैदा हो गया था। वह दल का सबसे चतुर, सबसे चुस्त और सबसे ज़्यादा कार्यकुशल सदस्य था। उसकी आवाज़ में कड

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भाग 13

9 अगस्त 2022
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नत्थू परेशान था। अपनी कोठरी के बाहर बैठा वह चिलम पर चिलम फूँके जा रहा था। जितना अधिक वह मार-काट की अफवाहों को सुनता, उतना ही अधिक उसका दिल बैठ जाता। बार-बार अपने मन को समझाता, मैं अन्तर्जामी तो नहीं ह

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भाग 14

9 अगस्त 2022
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पहली बस खानपुर से चलकर सुबह आठ बजे गाँव पहुँचती थी। वह नहीं आई। उसके बाद हर घंटे दो घंटे के बाद शहर की ओर से भी और खानपुर की ओर से भी बसें आती थीं। आज दोपहर हो गई, एक भी बस नहीं आई। चाय की दुकान में क

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भाग 15

9 अगस्त 2022
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गुरुद्वारा खचाखच भरा था और संगत मस्ती में झूम रही थी! बस अनमोल समय था। रागी पूरी तन्मयता से आँखें बन्द किए गा रहे थे : “तुम बिन कौन मेरे गोसाईं..." संगत में सबके हाथ जुड़े हुए, आँखें बन्द और सिर वजद

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भाग 16

9 अगस्त 2022
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हरनामसिंह ने दूसरी बार साँकल खटखटाई तो अन्दर से किसी स्त्री की एआवाज़ आई : "घर पर नहीं हैं, मर्द बाहर गए हैं।" हरनामसिंह ठिठका खड़ा रहा। बन्तो की आँखें दाएँ-बाएँ देख रही थीं कि आसपास उन्हें किसी ने

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भाग 17

9 अगस्त 2022
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इस बीच देहात की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर एक और नाटक खेला जा रहा २ था। रमज़ान और उसके साथी ढोक इलाहीबख्श और मुरादपुर की ओर से लूटपाट का सामान उठाए हँसते-बतियाते लौट रहे थे जब उन्हें दूर एक टीले के पास, एक भ

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भाग 18

9 अगस्त 2022
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तुर्क आए थे पर वे अपने ही पड़ोसवाले गाँव से आए थे। तुर्कों के ज़ेहन में भी यही था कि वे अपने पुराने दुश्मन सिखों पर हमला बोल रहे हैं और सिखों के जेहन में भी वे दो सौ साल पहले के तुर्क थे जिनके साथ खाल

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भाग 19

9 अगस्त 2022
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शहर की सड़क पर निकलते ही पता चल जाता था कि माहौल बदल गया है। मुहल्ला कुतुबदीन की मस्जिद के सामने, सड़क के पार चार हथियारबन्द फौज़ी कुर्सियाँ डाले बैठे थे। सड़क पर चलते हुए हर चौक पर दो-तीन फौजी बन्दूक

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भाग 20

9 अगस्त 2022
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हमें आँकड़े चाहिए, केवल आँकड़े! आप समझते क्यों नहीं? आप लम्बी हाँकने लगते हैं, सारी रामकहानी सुनाने लगते हैं, मुझे रामकहानी नहीं चाहिए, मुझे केवल आँकड़े चाहिए। कितने मरे, कितने घायल हुए, कितना माली नु

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भाग 21

9 अगस्त 2022
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अमन कमेटी की मीटिंग के लिए लोग हॉल में इकट्ठे हो रहे थे। यही एक जगह चुनी गई थी जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी, क्योंकि कालिज न हिन्दुओं का था, न मुसलमानो का, कालिज ईसाइयों का था, प्रिंसिपल भी ह

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