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भाग 15

9 अगस्त 2022

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गुरुद्वारा खचाखच भरा था और संगत मस्ती में झूम रही थी! बस अनमोल समय था। रागी पूरी तन्मयता से आँखें बन्द किए गा रहे थे :

“तुम बिन कौन मेरे गोसाईं..."

संगत में सबके हाथ जुड़े हुए, आँखें बन्द और सिर वजद में हिलते हुए। कोई-कोई व्यक्ति हाथ पर ताल दिए जा रहा था। यह कुर्बानी की आवाज़ शताब्दियों के फासले लाँघकर फिर से गूंज रही थी। तीन सौ साल पहले भी ऐसा ही गीत दुश्मन से लोहा लेने से पहले गाया जाता था। आत्म-बलिदान की भावना से ओत-प्रोत वे सब-कुछ भूले हुए थे। इस विलक्षण क्षण में उनकी आत्मा अपने पुरखाओं की आत्मा से जा मिली थी, वे फिर से जैसे अतीत में जा पहुँचे थे। तुर्कों के साथ लोहा लेने का फिर से समय आ गया था। सिक्ख जाति पर फिर से संकट आया है, फिर से तुर्कों की ओर से ही आया है। उनकी चेतना फिर से शताब्दियों पहले के वायुमंडल में साँस लेने लगी थी। लश्कर किस ओर से आएगा, अभी तक मालूम नहीं था। बाहर से आएगा या गाँव के अन्दर से ही दुश्मन चिंघाड़ता हुआ निकलेगा, अभी तक स्पष्ट नहीं था। दुश्मन का कोई एतबार नहीं था पर संगत का प्रत्येक सिंह सिर हथेली पर रखे बैठा था।

गुरुद्वारे के अन्दर रोशनी पिछली दो खिड़कियों में से आ रही थी जिनके ऊपर लाल, हरे और पीले रंग के शीशे लगे थे। लकड़ी के चार खम्भों के बीच गुरुग्रन्थ साहब की चौकी थी और चौकी के इर्द-गिर्द पीतल का कटहरा बना था। चौकी को लाल रंग के रेशमी कपड़े से, जिस पर सुनहरे रंग की किनारी लगी थी, ढक दिया गया था, जिसका एक सिरा नीचे फर्श तक फैला था जहाँ सफ़ेद चादरें बिछी थीं। जगह-जगह, चौकी के सामने, फर्श पर सिक्के-दुवन्नियाँ, इकन्नियाँ-बिखरे पड़े थे; एक ओर आटे का ढेर लगा था।

प्रवेश करने पर गुरुद्वारे के बाईं ओर स्त्रियाँ बैठी थीं, सभी ने दुपट्टों में मुँह-सिर लपेट रखे थे, सभी के चेहरे दमक रहे थे, सबकी आँखों में कुरबानी का नूर चमक रहा था। किसी-किसी स्त्री की कमर से कटार लटक रही थी। प्रत्येक नर-नारी का रोम-रोम इस बात को महसूस कर रहा था कि सिख इतिहास की लम्बी श्रृंखला में वह भी एक कड़ी है जो इस संकट के समय अपने पुरखाओं ही की भाँति आत्म-बलिदान के लिए मैदान में उतर रहा है।

असला पिछले बरामदे में तथा ग्रन्थी की कोठरी में इकट्ठा किया जा रहा था। गाँव में सात गुरुसिंघों के पास दोनाली बन्दूकें थीं और पाँच बक्से कारतूसों के थे। जत्थेदार किशनसिंह सुरक्षा का प्रबन्ध कर रहा था। किशनसिंह पिछली जंग में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुका था और बर्मा की लड़ाई के दाँव-पेंच वह अपने कस्बे के मुसलमानों पर चलाना चाहता था। सुरक्षा की कमान संभालते ही वह घर जाकर अपनी खाकी कमीज़ पहन आया था जिस पर सरकार इंगलिशिया के तीन तमगे और अनगिनत रंगीन फीते लगे थे। कमीज़ मुचड़ी हुई थी पर इस वक्त लोहा करवाने का वक्त नहीं था। दो बन्दूकों का एक मोर्चा गली के बाएँ सिरे पर, एक मकान में बनाया गया था, और दो ही बन्दूकों का मोर्चा गली के दाएँ छोर पर। बाद में दाएँ हाथवाला मोर्चा नकारा साबित हुआ था, क्योंकि उसी घर में रहनेवाला सरदार हरीसिंह अपने हमसायों पर गोली चलाने से अन्त तक कतराता रहा था। बाकी तीन बन्दूकों का मोर्चा गुरुद्वारे की छत पर बना था। और किशनसिंह स्वयं सारा वक़्त छत पर कुर्सी बिछाकर बैठा रहा। बन्दूकों का इस्तेमाल बस इतने तक ही था, बाकी हथियार भाले, बर्छ, तलवारें, लाठियाँ आदि थीं। गुरुद्वारे की पिछली दीवार के साथ यह असला सजा दिया गया था। रंग-बिरंगी मखमली मियानों में बन्द तलवारें एक के साथ एक दीवार के साथ खड़ी थीं। खिड़की में से धूप की किरण सीधी उन पर पड़ रही थी जिससे वे अत्यन्त प्रभावशाली लग रही थीं। रोशनी की किरण भालों और बों की नोकों पर भी पड़ रही थी जिससे वे झिलमिला रहे थे। कुछेक ढालें भी थीं जो निहंग सिखों से मिल गई थीं। दो निहंग सिख छत पर पहरा दे रहे थे। दोनों के पस अपने बर्छ थे। दोनों ने अपना-अपना जामा पहन रखा था। नीला बाना, नीली पगड़ी और पगड़ी के ऊपर लोहे का चक्र और पीला कमरबन्द। दोनों छाती ताने, भाले हाथ में सँभाले, एक छत के एक सिरे पर, दूसरा दूसरे सिरे पर दूर-दूर तक नज़रें डाले खड़े थे। कौन जाने लश्कर किस ओर धूल उड़ाते चले आएँ।

“निहंगसिंहजी, भाला नीचा कर दो, धूप में उसकी नोक चमकती है, दुश्मन उसे दूर से देख सकता है।" एक बार किशनसिंह ने समझाते हुए कहा तो निहंगसिंह बिगड़ उठा।

“निहंगसिंह का बर्थो नीचा कभी नहीं हो सकता।" निहंगसिंह ने जवाब दिया और ज्यों का त्यों भाला उठाए क्षितिज पर आँखें गाड़े खड़ा रहा। निहंग सिखों की आँखों के सामने वही पुरानी लड़ाइयों के चित्र घूम रहे थे जब लश्कर कूच किया करते थे, तलवारें चमकती थीं, घोड़े हिनहिनाते थे, नगाड़े और शंख गूंजते थे। इसी की कल्पना करते हुए उनके दिल में सिक्खी जोश हिलोरें लेने लगा था।

दो निहंग नीचे गुरुद्वारे के प्रवेश-द्वार पर तैनात थे। दोनों के हाथ में बर्छ थे और दोनों बड़ी मुस्तैदी से खड़े थे। दोनों ने मूंछों को ताव दे रखा था, और नीले बाने पर पीला कमरबन्द बाँध रखा था। पुराने ज़माने में ख़ालसा पीला बाना पहनकर रणभूमि में उतरता था। इस वातावरण में हर किसी की कोशिश थी कि जहाँ तक हो सके अपनी पोशाक में भी उस अखंड परम्परा का कोई न कोई चिह्न आ सके जिनसे वे अपने अतीत के साथ और गहरे में जुड़ सकें।

बिशनसिंह मनिहारीवाले ने, जिसकी ड्यूटी खालसा लंगर में लगाई गई थी, पीले रंग का रेशमी रूमाल अपनी पगड़ी में खोंस रखा था। बसन्त पंचमी के मेले के बाद उसने पीले रंग का रूमाल अपने बेटे के सिर पर से उतारकर जेब में डाल लिया था। आज अचानक जेब में हाथ डालने पर उसे यह रूमाल मिल गया था और उसने अपनी पगड़ी में खोंस लिया था। संगत में किसी-किसी ने कमरबन्द भी बाँध रखा था, पर अधिकांश लोग सलवार-कमीज़ में ही थे, और तो और, सरदार किशनसिंह ने भी तमगोंवाली खाकी कमीज़ के नीचे पाजामा ही पहन रखा था। पर यह वक़्त पोशाक की ओर ध्यान का नहीं था। दिलों में बलिदान की भावना लहरें मार रही थी, और उस वक़्त पोशाक और वर्दी का ध्यान भी आता था तो उस गहरी भावना के ही कारण जो हर पहलू से परम्परा के साथ जुड़ जाना चाहती थी।

गुरुद्वारे का माहौल भरे-बादलों जैसा गम्भीर हो रहा था। कीर्तन में सभी के सिर झूम रहे थे, सभी की चेतना में वे सभी बातें थीं जो दूर अतीत में हुआ करती थीं, बलिदान की भावना, मुसलमान शत्रु, ढाल-तलवार, गुरु का प्रसाद, अखंड एकता-जो नहीं था तो उनकी चेतना में अंग्रेज़ नहीं था। कस्बे से पच्चासेक मील की दूरी पर अंग्रेज़ों की देशभर में सबसे बड़ी छावनी थी, उस छावनी की ओर उनका ध्यान नहीं जा रहा था। शहर और प्रान्त में बैठे अंग्रेज़ अधिकारियों की ओर भी नहीं, मानो देश में उनका कोई अस्तित्व ही न हो। अस्तित्व था तो तुर्क का, या खालसा का, उसके बढ़ते आ रहे लश्करों का, आत्म-बलिदान की बेला में उस महायज्ञ का जिसमें सभी अपने प्राणों की आहुति डालने के लिए तैयार थे।

गोलाबारी का डर सबसे अधिक गुरुद्वारे के पिछवाड़े की ओर से ही था जहाँ हरे छज्जेवाले शेखों के मकान में कस्बे के मुसलमान असला इकट्ठा कर रहे थे। शेखों के मकान में भी कुछ-कुछ वैसी ही भावना व्याप रही थी, यहाँ पर गाँव के सभी मुसलमान-किसान, तेली, नानबाई अब मुजाहिद बन गए थे, काफिरों के खिलाफ जिहाद की तैयारियाँ चल रही थीं, आँखों में यहाँ भी खून उतर आया था, और कुर्बानी का जज्बा दिलों में लहरें मार रहा था।

गुरुद्वारे के ऐन सामने गली के पार सिखों की ही दूकानों का सिलसिला था और दूकानों के पीछे तीखी ढलन थी जो सीधी छोटी-सी नदी तक चली गई थी और नदी के पार लुकाटों का लम्बा-चौड़ा बाग था। इसलिए सामने की ओर से तो कोई माई का लाल हमला नहीं कर सकता था, जो आता तो छत पर मोर्चा बाँधे किशनसिंह की बन्दूकें उसे भून डालतीं।

बाएँ हाथ गली के सिरे पर मुसलमानों के कुछ घर थे और उनके पीछे खालसा स्कूल खड़ा था, और फिर खेत शुरू हो जाते थे। दाएँ हाथ भी गली के सिरे पर से मुसलमानों का पूरा-का-पूरा मुहल्ला शुरू हो जाता था, पर मोर्चा यहाँ भी बाँध दिया गया था।

गुरुद्वारे के पिछवाड़े दो गलियाँ छोड़कर शेख गुलाम रसूल का ऊँचा दोमंजिला मकान था, और मुख़बरों की सूचना के मुताबिक मुसलमानों ने उसी को अपना किला बना रखा था। उसी में असला इकट्ठा करते जा रहे थे। छज्जे के पीछे सभी दरवाजे बन्द थे, और ऊपर हरी खिड़कियोंवाली बरसाती भी बन्द थी और कोई भी आदमी छज्जे पर खड़ा नज़र नहीं आ रहा था। पर इसी घर पर सबकी नज़रें थीं कि पहली गोली यहीं से दागी जाएगी।

यों देखा जाए तो यह गाँव बड़ा सुन्दर था, अमन-चैन के दिन कोई यहाँ आए तो इसकी खूबसूरती पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता था। लगता भगवान ने अपने हाथ से बनाया है। छोटी-सी नदी के ऊपर एक छोटी-सी पहाड़ी पर घोड़े की नाल की शक्ल में यह गाँव खड़ा था। नदी के नीले जल-प्रवाह के पार लुकाटों के घने बाग थे जहाँ अनेक झरने बहते थे, इन दिनों लुकाट पक रहे थे और तोतों के झुंड पेड़ों में बसे हुए थे। इन दिनों नदी का रंग भी आसमान के रंग की तरह गहरा नीला लग रहा था। जमीन की मिट्टी लाली मायल थी, गाँव के बाहर खेतों का प्रसार उस पहाड़ी तक चला गया जो इस प्रदेश की पीठ पर खड़ी थी। हर घड़ी पहाड़ी का रंग बदलता रहता था। कभी वह झीनी-सी नीली चादरे ओढ़ लेती, कभी उसका चेहरा तपे ताँबे जैसा दमकने लगता, कभी उसके कन्धों पर सुरमई घटाएँ खेलने लगतीं, कभी उस पर हरियावल बिछ जाती। इस पहाड़ी के भी दामन में झरने ही झरने थे, और घने बड़े इंजीर के पेड़ थे। इसी प्रकृति-स्थल की गोद में इस गाँव के सभी लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी रहते चले आए थे।

सहसा गुरुद्वारे के अन्दर बिजली की-सी लहर दौड़ गई। सभी की आँखें प्रवेश-द्वार की ओर उठ गईं जहाँ गाँव के मुखिया सरदार तेजासिंह पधार रहे थे। गुरुद्वारे के चबूतरे पर चढ़कर तेजासिंहजी घुटने टेककर बैठ गए और फिर आगे को झुककर उन्होंने गुरुद्वारे की दहलीज़ को आँखों से चूम लिया। चबूतरे पर रखे उनके दोनों हाथों की उँगलियाँ काँप-काँप उठीं।

देर तक तेजासिंहजी अपना माथा दहलीज़ पर नवाए रहे। यहाँ तक कि उनकी आँखों से टप-टप आँसू बहने लगे। तेजासिंहजी वजद में थे। उनका रोम-रोम पन्थ की रक्षा के लिए निछावर था।

फिर वह उठे और दोनों हाथ बाँधे, गर्दन झुकाए-उनकी सफ़ेद दाढ़ी उनकी छाती को ढके हुए थी-आकर गुरुग्रन्थ साहब की बेदी के सामने माथा नवाने के लिए झुक गए। यहाँ भी वह देर तक झुके रहे। उनका चेहरा लाल हो गया और टप-टप आँसू फर्श पर बिछी सफेद चादर पर बराबर गिरते रहे।

सारी संगत दम साधे देखे जा रही थी, सभी के कलेजे दिल को आ रहे थे। जब तेजासिंह उठे तो एक लहर-सी सारे हाल में दौड़ गई।

वे उठे और धीरे-धीरे चलते हुए खम्भे के पास आकर खड़े हो गए जहाँ पर एक पुरानी तलवार खम्भे के साथ रखी थी। उन्होंने काँपते हाथों से तलवार की मूठ को पकड़ा और हाल के बीचोबीच आकर खड़े हो गए। यह उनके नाना की तलवार थी जिनके पिता महाराजा रणजीतसिंह के दरबारी हुआ करते थे।

हाथ में तलवार उठाने की देर थी कि संगत में बलिदान-भावना का जैसे ज्वार उमड़ उठा। सिर झूम उठे। दरवाजे के पास खड़े युवा प्रीतमसिंह के मुँह से अनायास नारा फूट पड़ा :

"जो बोले सो निहाल!" सारी संगत ने एक जबान होकर उत्तर दिया :

“सत सिरी अका ऽऽऽ ल!"

नारे की गूंज से गुरुद्वारे की दीवारें हिल उठीं। यों नारा लगाने की मनाही थी क्योंकि संगत नहीं चाहती थी कि दुश्मन का पता चल पाए कि गाँव की सारी जनता सिख गुरुद्वारे में जमा है। लेकिन कुछ बातों पर इंसान का कोई बस नहीं चलता। इस तीव्र असह्य भावना को नारे के द्वारा ही व्यक्त किया जा सकता था।

बूढ़े हाथों ने तलवार की मूठ को पड़का, उसे उठाकर दोनों आँखों से चूमा तो सारी संगत ने सिसकारी भरी। प्रवेश-द्वार पर खड़े निहंग का सिर दाएँ-बाएँ झूलने लगा। सैकड़ों सिर हिलने लगे।

“आज फिर खालसा पन्थ को गुरु के सिंहों के खून की ज़रूरत है।" उन्होंने काँपती हुई भावोद्वेलित आवाज़ में कहना शुरू किया :

"हमारे इम्तहान का वक़्त आ गया है, हमारी आजमाइश का वक़्त आ गया है। महाराज का इस वक्त एक ही हुक्म है-कुरबानी! कुरबानी! कुरबानी!"

तेजासिंह के मस्तिष्क में सुनहरी धूल उड़ने लगी थी। यही मस्ती थी, यही वजद था। सभी भावनाएँ एक ही शब्द 'करबानी' पर आकर केन्द्रित हो गई थीं।

“अरदास पढ़ो, गुरु के सिंघो, अरदास पढ़ो।"

सारी संगत उठ खड़ी हुई। हाथ जुड़ गए, माथे झुक गए, सभी कंठ मुखरित हो उठे। गुरुद्वारा गुरुवाणी से गूंज उठा। देर तक अरदास पढ़ी जाती रही। अन्तिम शब्दों पर आवाज़ अपने-आप और ऊँची हो गई :

"राज करेगा खालसा, आकी रहे न को...”

आवाज़ की लहरें सारे गुरुद्वारे के वायुमंडल में लहरों की तरह उठ रही थीं।

अरदास खत्म होने की देर थी कि प्रवेश-द्वार पर खड़े निहंगसिंह ने हाथ ऊपर उठाया और तीखी ऊँची आवाज़ में, यहाँ तक कि उसके गले की नसें उभर आईं और आँखें बन्द हो गईं, फिर से नारा लगाया :

"जो बोले सो निहाल!"

जवाब में संगतों ने हाथ उठाकर छाती में गहरी साँस भरकर नारे का उत्तर दिया:

"सत सिरी अ का ऽऽऽल!"

नए बलबले उठने लगे। नारों की गूंज में एकता और बलिदान की भावना और भी अधिक उग्र हो उठती है।

तभी बाहर कुछ दूरी पर गगनभेदी आवाज़ सुनाई दी :

"नारा-ए-तकबीर!" और जवाब आया : "अल्ला -हो-अकबर!"

"नारा-ए-तकबीर!"

"अल्ला -हो-अकबर!"

प्रवेश-द्वार पर खड़े निहंगसिंहजी ने फिर हाथ की मुट्ठी भींची और उसे कन्धों के ऊपर उठाकर नारा मारने जा ही रहे थे कि तेजासिंहजी ने रोक दिया।

"बस, काफ़ी है। दुश्मन को पता चल गया है...।"

पर मुसलमानों के जवाबी नारे से संगतों को कुछ-कुछ वस्तुस्थिति का भी बोध हुआ।

"हम नहीं चाहते कि दुश्मन को हमारी ताक़त का पता चले। हम यह भी नहीं चाहते कि उन्हें पता चले कि सिख संगत गुरुद्वारे में इकट्ठी हो चुकी है। यह नीति की बात है।"

इस पर संगतों को स्थिति का ब्यौरा देते हुए बोले, "हमने कोशिश की है कि जिले के हाकिम-ए-आला डिप्टी कमिश्नर साहब बहादुर को इत्तला कर दी जाए कि मुसलमानों ने यहाँ कौन-सी हरकतें करना शुरू कर दी हैं। रिचर्ड साहब को मैं जानता हूँ। वह बड़े ही मुनसिफमिज़ाज और बड़ी सूझबूझवाले सज्जन हैं। हम इससे ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते कि हाकिम-ए-आला तक अपनी आवाज़ पहुँचाएँ। तरह-तरह की ख़बरें हमारे पास पहुँच रही हैं। हमें पता चला है कि रहीम तेली के घर में असला इकट्ठा किया जा रहा है, यह भी पता चला है कि गहरे नीले रंग की एक मोटर दोपहर के वक़्त शहर की तरफ से आई थी और कस्बे के बाहर फ़ज़लदीन स्कूल मास्टर के घर के सामने रुकी थी और उसमें से कुछ सामान फ़ज़लदीन को दिया गया था। इसके बाद मोटर सीधी आगे निकल गई। यह मोटर जगह-जगह जाती और रुकती रही है। यह भी पता चला है कि यहाँ के मुसलमानों ने मुरीदपुर के मुसलमानों को खबर भेजी है कि असला लेकर यहाँ पहुँचें, हमने पूरी कोशिश की है कि शेख गुलाम रसूल और गाँव के और मुसलमानों के साथ बात करें पर उनका कोई एतबार नहीं है...।"

“आपने कोई कोशिश नहीं की है। यह सरासर झूठ है।"

सहसा संगत के अन्दर से आवाज़ आई और गुरुद्वारे में सकता छा गया। यह कौन था बीच में बोलनेवाला? गुरुद्वारे में बैठे लोगों के तेवर चढ़ गए।

एक दुबला-पतला-सा युवक उठ खड़ा हुआ, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम लोगों को मुसलमानों के खिलाफ भड़काया जा रहा है, और मुसलमानों को हमारे खिलाफ भड़काया जा रहा है। हम झूठी अफवाहें सुन-सुनकर एक-दूसरे के खिलाफ़ तैश में आ रहे हैं। हमें अपनी तरफ से पूरी कोशिश करनी चाहिए कि गाँव के मुसलमानों के साथ मेल-जोल बनाए रखें और हत्तुलवसा कोशिश करें कि गाँव में फ़साद न हो।"

"बैठ जाओ! बैठ जाओ!"

"कौम के गद्दार! कौन है यह?"

"मैं नहीं बैलूंगा। भाइयो, मैं अभी भी कहूँगा कि हमें भी शेख गुलाम रसूल और गाँव के ही संजीदा मुसलमानों से मिलना चाहिए। अगर शेख गुलाम रसूल नहीं मानता तो न सही, गाँव में और बहुत-से संजीदा मुसलमान हैं जिनके साथ मिलकर हमें गाँव में अमन बनाए रखना चाहिए। अगर उन्हें मुरीदपुर से असला आ रहा है तो क्या हम लोग कहुटा से असला मँगवाने की कोशिश नहीं कर रहे? क़त्ल-ओ-गारत कोई नहीं चाहता। कस्बे के सिख और मुसलमान आपस में मिलें और गाँव में अमन बनाए रखें। मैं आज ही सुबह गुलाम रसूल और कुछ मुसलमानों से मिला हूँ।"

"तुम वहाँ क्या करने गए थे? क्या लगते हैं वे तुम्हारे?"

"तेरा बाप लगता है गुलाम रसूल?"

"मुझे बोलने दो। शरारत बाहर के गाँववाले करेंगे। हमें पूरी कोशिश करनी चाहिए कि इस गाँव में बाहर के लोग नहीं आएँ। इसका एक ही तरीका है कि यहाँ के अमनपसन्द सिख और मुसलमान मिलकर उन्हें रोकें। वे हमारे डर से असला इकट्ठा कर रहे हैं, और हम उनके डर से असला इकट्ठा कर रहे हैं..."

"मुसलमानों का कोई एतबार नहीं है। बैठ जाओ।"

"वे लोग कहते हैं कि सिखों का कोई एतबार नहीं है।"

"बैठ जाओ!" एक बड़ी उम्र का आदमी उठकर खड़ा हो गया और सोहनसिंह को सम्बोधन कर गुस्से से काँपते होंठों के साथ बोला, "तू कौन है बीच में बोलनेवाला? तेरे होंठों पर अभी तक तेरी माँ का दूध नहीं सूखा है, बड़ों की बातों में बोल रहा है।"

तीन-चार सरदार जगह-जगह पर उठ खड़े हुए थे, “तुम जानते हो, शहर में उन्होंने मंडी को जला दिया है...।"

“यह सब अंग्रजों की शरारत है।” सोहनसिंह की आवाज़ और ऊँची उठ गई थी, "हमारा लाभ इसी में है कि फ़साद न हो। सुनो भाइयो, शहर से आज कोई बस नहीं आई। रास्ते कटते जा रहे हैं। यह सारा इलाक़ा मुसलमानी है। अगर गाँव पर बाहर के लोगों ने हमला कर दिया तो तुम कहाँ तक उनका मुकाबला कर सकोगे? कुछ यह भी सोचो। कहूटा से तुम्हें कितनी मदद मिल जाएगी? तुम ऐंठ किस बात पर रहे हो?" थोड़ी देर के लिए गुरुद्वारे में चुप्पी छा गई।

तब तेजासिंहजी गुरुद्वारे के बीचोबीच आकर खड़े हो गए और अपनी काँपती आवाज़ में बोले, "मेरा दिल यह देखकर टुकड़े-टुकड़े हो जाता है कि हमारे ही बच्चे गुमराह होकर ऐसी बातें करते हैं। अपने ही पन्थ के खिलाफ़ आवाजें उठाते हैं। क्या हम फ़साद चाहते हैं? मैंने खुद शेख गुलाम रसूल से कहा है, उसने दिल पर हाथ रखकर कहा कि गाँव में कुछ नहीं होगा। और मेरे पीठ मोड़ने की देर थी कि खालसा स्कूल पर कुछ लोगों ने हमला किया, वहाँ का पंडित चपरासी मार डाला गया और मुसलमान उसकी बीवी को उठाकर ले गए। यह ख़बर मैंने अभी तक आपको नहीं बताई, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि आपको इश्तआल दिलाऊँ।" गम और गुस्से की लहर फिर गुरुद्वारे में दौड़ गई।

“आपको किसी ने गलत ख़बर दी है।" सोहनसिंह फिर बोल पड़ा। खालसा स्कूल पर हमला ज़रूर हुआ था, लेकिन गाँव के मुसलमानों ने हमला नहीं किया। ढोक इलाहीबख्श से कुछ गुंडे आए थे। पर मीरदाद, हमारा साथी जो शहर से आया है, वह वक़्त पर पहुँच गया, उसने और गाँव के दो और लड़कों ने बीचबचाव करके हालत को बिगड़ने से बचा लिया। चपरासी को केवल चोटें आई हैं, वह मरा नहीं है और उसकी बीवी को भी भगा करके कोई नहीं ले गया। वह भी स्कूल में मौजूद है।"

"यह मीरदाद कौन है?” एक सरदार बोला।

“मैंने इसे मीरदाद के साथ कहवाखाने में बैठे देखा है। न जाने आपस में ये क्या बातें करते रहते हैं। जब मुसले हमारी औरतों की असमत लूट रहे हैं, इधर हमारे ही लड़के मुसलों से गठ्ठ-जोड़ कर रहे हैं।" फिर उसी दुबले-पतले सरदार की ओर मुखातिब होकर बोला, “हमें क्या समझाते हो? मुसलों को जाकर समझाओ। क्या सिखों ने किसी को अभी तक मारा है, किसी का घर लूटा है? बड़ा आया हमें उपदेश देनेवाला।"

हवा फिर बदल गई थी। दरवाज़े पर खड़ा निहंगसिंह चलता हुआ, कदम बढ़ाता, दुबले-पतले सरदार के पास आया और सीधा एक धौल उसकी गर्दन पर जमा दिया।

"बस-बस, मत मारो, मत मारो!"

पास बैठे कुछ लोग उठ खड़े हुए और निहंगसिंह का हाथ रोक दिया।

ऐन उस वक़्त जब यह हंगामा गुरुद्वारे में चल रहा था, मुसलमानों के मुहल्ले में मीरदाद की जान साँसत में थी।

तीन कसाइयों की दूकानें साथ-साथ थीं, पर इस वक़्त बन्द थीं और कुछ लोग चबूतरों पर बैठे मीरदाद से उलझ रहे थे।

“ओ चुप ओए, अंग्रेज़ को किसने देखा है? शहर में कितने ही मुसलमान हलाक हुए हैं, उनकी लाशें भी अभी गलियों में पड़ी हैं। उन्हें अंग्रेज़ों ने मारा है ओए? मस्ज़िद के सामने खंजीर फेंका है, वह भी अंग्रेज़ फेंक गए हैं ओए?"

“ओ कुछ समझो," मीरदाद ने हाथ झटककर कहा, “अगर हिन्दूमुसलमान-सिख मिल जाते हैं, उनमें इत्तहाद हो जाता है, तो अंग्रेज़ की हालत कमज़ोर पड़ जाती है। अगर हम आपस में लड़ते रहते हैं तो हालत मज़बूत बनी रहती है।"

वही घिसा-पिटा तर्क था जिसे ये लोग रोज़ सुनते थे, पर अब पानी सिर से ऊपर जा चुका था, इस तर्क का कहीं असर नहीं होता था।

"जा-जा, सिर पर बादामरोगन की मालिश कर।" मोटे कसाई ने कहा, "हमारा अंग्रेज़ ने क्या बिगाड़ा है ओए? हिन्दू-मुसलमान की अदावत पुराने ज़माने से चली आ रही है। काफिर-काफिर है और जब तक दीन पर ईमान नहीं लाएगा वह दुश्मन है। काफिर को मारना सवाब है!"

“ओह सुन चाचा," मीरदाद बोला, "राज किसका है?"

"किसका है, अंग्रेज़ का है और किसका है।"

"फौज़ किसकी है?"

"अंग्रेज़ की है।" कसाई बोला।

"तो अगर वह लड़ाई रोकना चाहे तो रोक नहीं सकता?"

"रोक सकता है, पर वह हमारे मजहबी मामलों में नहीं पड़ता। अंग्रेज़ इनसाफ़पसन्द है।"

"मतलब, कि हम एक-दूसरे का सिर काटें और वह मजहबी मामला कहकर तमाशा देखता रहे, फिर वह हाकिम कैसा हुआ?"

इस पर मोटा कसाई बिफर उठा, “सुन ओए मीरदाद, लड़ाई हिन्दूमुसलमान की है, इसमें अंग्रेज़ का दखल नहीं है। तू इधर बक-बक नहीं कर। अगर बाप का बेटा है तो जा, इसी वक़्त जा गुरुद्वारे में, तू उनको समझा कि असला इकट्ठा नहीं करें। उन्हें जाकर मना ले। वे मान जाएँ, अपना असला-बारूद गुरुद्वारे में छोड़कर अपने-अपने घरों में चले जाएँ। हम भी लड़ाई नहीं चाहते। हम भी अपने-अपने घरों में जा बैठेंगे। बस, मर्द का बेटा है तो जा उनसे बात कर, इधर हमारा मगज़ नहीं खा।"

जब से फ़िसादों का तनाव शुरू हुआ था, मीरदाद, कस्बे में जगह-जगह, नानबाई की दूकान पर, गंडापिंह चायवाले की दूकान पर, शेख की बैठक में, कुएँ-झलार पर, जहाँ पाँच-चार आदमी बैठे होते यही चर्चा ले बैठता था। लोग उसकी बात को सुनते क्योंकि वह दो अक्षर पढ़ा हुआ था, लाहौर-बम्बईमद्रास तक घूम आया था, और अब अपने छोटे भाई अल्लाहदाद के पास शहर से आया था। मगर कस्बे में तनाव बढ़ने पर और बाहर से तरह-तरह की खबरें आने पर, वह उत्तरोत्तर अकेला होता गया था। उसकी बात में वज़न इसलिए भी नहीं था कि उसके पास अपनी जमीन नहीं थी, न ज़मीन न मकान। नानबाई की दुकान के बाहर खाट बिछाकर सोता था। शहर से इसलिए आया था कि यहाँ एक स्कूल खोलेगा। गाँव के लोग समझते थे कि स्कूल बन जाने से उसे कमाई का छोटा-मोटा साधन मिल जाएगा, जबकि यह विचार मीरदाद के मन में नहीं था। वह स्कूल के माध्यम से कस्बे के लोगों को मिल बैठने का स्थान जुटाना चाहता था ताकि हर कोई उसमें आ-जा सके, लोग बैठें, कोई उन्हें अखबार पढ़कर सुनाए, वे मसलों-मामलों की चर्चा करें जिससे उनकी सूझबूझ बढ़े। इस समय उसे देवदत्त ने कस्बे में जमे रहने और फ़िसाद को रोकने के लिए भेजा था। हरबंससिंह को भी इसी काम के लिए भेजा गया था। दोनों एक ही पार्टी के कार्यकर्ता थे, दोनों के सम्बन्धी इसी कस्बे में रहते थे, पर दोनों में से किसी की भी दाल नहीं गल रही थी।

तभी कसाइयों की इन दुकानों के पास ही एक छोटी-सी घटना घटी। दूकानों से हटकर, गली के अँधेरे हिस्से में, एक टाट के पर्दे के पीछे बैठा एक आदमी इनकी बातें सुन रहा था। वह गुरुद्वारे से भेजा गया मुखबिर था। आसपास मुसलमानों के घर थे, पर इस बीचवाले घर में जिसके टाट के पर्दे के पीछे गोपालसिंह बैठा था, बूढ़ी विधवा चन्ननदेई रहती थी। पिछले घर की दीवार फांदकर गोपालसिंह यहाँ आकर बैठ गया था ताकि मुसलमानों की योजनाओं का पता लगा सके। मीरदाद और कसाइयों के बीच बातें सुनते हुए एक बार उसने टाट का पर्दा उठाया और चुपचाप गली में सरककर साथवाले मकान के चबूतरे के पीछे छिपकर बैठ गया। यहाँ से वार्तालाप ज़्यादा साफ़ सुनाई देता था। घरों के दरवाजे बन्द थे और गली में अँधेरा था, और उसने सोचा था कि अगर कहीं से आहट सुनाई दी तो वह झट से उठकर टाट के पर्दे के पीछे छिप जाएगा। लेकिन इसका उसे मौका नहीं मिला। उसके कान वार्तालाप पर लगे थे जब सहसा उसके पीछे आहट हुई। उसने घूमकर देखा तो गली के झुटपुटे में बग़लवाले मकान में से एक आदमी चबूतरे की दो सीढ़िया उतरकर सीधा गोपालसिंह की ओर बढ़ा आ रहा था। सरदारजी को काटो तो खून नहीं। अँधेरे में वह दृश्य उसे बेहद भयानक लगा। वह आदमी चबूतरे पर से उतर आया था और अपने दोनों हाथ कमीज़ के नीचे किए हुए था, मानो अपना तमंचा या खंजर निकाल रहा हो। गोपालसिंह मुखबिर हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और उसके मुँह से चीख निकल गई। टाट के पर्दे की ओर तो वह क्या लपकता, वह सीधा सिर पर पाँव रखकर वहाँ से भागा। इस हड़बड़ी में वह उस आदमी से बुरी तरह टकरा गया जो कमीज़ के नीचे से तमंचा निकालने जा रहा था। वास्तव में टक्कर होने से पहले वह आदमी अपना आजारबन्द खोलकर नाली पर लगभग बैठ चुका था। गोपालसिंह मुखबिर की नज़र उसके पोपले मुँह, घुटे हुए सिर और लगभग अन्धी आँखों की ओर नहीं गई। टकराव में बूढ़ा नूरखान गली में गिर पड़ा और फिर उसके मुँह से भी चीख निकली, “मारी दित्ता, ओ मारी दित्ता।"

यह सब पलक मारते हो गया था। और बूढ़े नूरू की आवाज़ और भागते क़दमों की आवाज़ सुनकर कसाइयों की दूकानों पर से दो आदमी बर्ले उठाए एक साथ लपक पड़े थे। अशरफ कसाई तो सीधा भागते आदमी के पीछे भागा और ज़ोर से अपनी लाठी फेंकी। लाठी मुखबर को नहीं लगी, पर उसके करीब ही गिरने पर उसका साहस छूट गया और वह भी चिल्ला उठा, "बचाओ, बचाओ, मार डाला!"

तभी और लोग भी गली में आ गए। बूढ़ा नूरू अभी भी नाली के किनारे उकडूं पड़ा था और नाड़ा उसके हाथ में था और बिलबिलाती-सी आवाज़ में अभी भी बोले जा रहा था, “मारी दित्ता, ओ मिछी मारी दित्ता!"

गली में से अशरफ को आवाजें लगाई जाने लगीं, “लौट जाओ, आगे नहीं जाओ, वापस आ जाओ!"

उस वक़्त गली में खड़े लोगों में से मीरदाद आगे बढ़ा और बूढ़े नूरू को उठाने की कोशिश करने लगा। इस पर मोटा कसाई आगबबूला हो गया, "देख लिया ओ मीरदाद के बच्चे! नूरू को अंग्रेज़ ने मारा है? चला जा यहाँ से खुदा कसम, नहीं तो मुझसे बुरा कोई न होगा। इसी वक़्त चला जा, दूर हो जा हमारी आँखों से, हट जा," और मीरदाद को क़रीब-करीब धक्के देकर वहाँ से निकाल दिया, "न घर न घाट, न आगा न पीछा, अमन करवाने आया है। ओ तू है कौन? जिन्हें माँ नहीं पूछती हमारे पास चले आते हैं। मुफ्तखोर कहीं के!"

गली के सिरे पर मीरदाद ने मुड़कर फिर कुछ कहने की कोशिश की, पर कसाई बिफरा हुआ था, कड़ककर बोला, “जा-जा, निकल यहाँ से मरदूद कहीं का। एक झापड़ दूंगा मुँह पर, दाँत बाहर आ जाएँगे। जा, अपने बाप को लचकर दे।"

झुके कन्धे, दुबला-पतला मीरदाद वहाँ से जाने लगा। शुरू-शुरू में कुछ लोग जो उसकी बात सुनते थे और हाँ में हाँ मिलाते थे, वे भी अब कहीं देखने को नहीं मिल रहे थे। यही मोटा कसाई उससे पहले हँस-हँसकर बातें करता था। पर अब उसकी आँखों में भी खून उतर आया था।

गोपालसिंह मुखबिर भागता गया और चिल्लाता गया और गुरुद्वारे के नज़दीक पहुँचने तक चिल्लाता रहा। संगतों के बीच फिर उत्तेजना की लहर दौड़ गई। लोग लपक-लपककर बाहर आने लगे। कुछ देर के लिए सारा अनुशासन भंग हो गया। दोनों निहंगसिंह बाहर आ गए, छत पर खड़े निहंगसिंह सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आ गए। “क्या हुआ, क्या हुआ?" गुरुद्वारे के अन्दर अधिकांश लोग खड़े हो गए।

दस आदमियों ने अंग-अंग टोहकर देखा, गोपालसिंह को कहीं चोट नहीं आई थी। वह हाँफ रहा था और उसका गला सूख रहा था। बहुत कोशिश करने पर भी वह ठीक तरह से समझा नहीं पाया कि क्या हुआ है।

"वह सीधा मुझ पर वार करने आ रहा था...।"

"कौन था वह?" तेजासिंहजी ने पूछा।

"बाबा नूरा।"

गोपालसिंह के मुँह से निकल गया। भागने से क्षण-भर पहले उसने बाबा नूरे को पहचान लिया था।

“अन्धा बाबा नूरा?"

"मुझे क्या मालूम कौन था। उसी के घर में से निकलकर आया था..."

"फिर क्या हुआ?"

"फिर कसाई गली में से भी लोग आ गए, मैं भागा तो मुझ पर लाठियाँ फेंकते रहे।"

लोगों की भीड़ गली में जमा होने लगी थी। एक सरदारजी लोगों को हटाने लगे, “चिन्ता की कोई बात नहीं। सिंह खालसा सही-सलामत लौट आया है, दुश्मन के मोर्चे पर से लौट आया है। बाल-बाल बच गया है। अन्दर चलो, संगत अन्दर चलें।"

जब गोपालसिंह की साँस कुछ ठिकाने आई तो तेजासिंहजी ने उससे धीरे से पूछा, “क्या कुछ सुना? उनकी क्या स्कीम है?"

"वहाँ पर मीरदाद अपनी बकवास कर रहा था, कुछ सुनने ही नहीं देता था। मोटा कसाई उससे कह रहा था : जा, गुरुद्वारेवालों को समझा, हमें क्या समझाता है, वे अपने-अपने घरों को चले जाएँ तो हम भी अपने-अपने घरों को चले जाएँगे...। ऐसा ही कुछ कह रहा था।"

संगत गुरुद्वारे में लौट आई। पर गोपालसिंह की इस चिल्लाहट से जोश और अधिक फैलने लगा था। कीर्तन फिर से चलने लगा था, और छैने तबले और बाजे की आवाज़ और ऊँची होने लगी थी।

"देख लिया? देख लिया सरदार?" एक आदमी गुरुद्वारे के बीचोबीच खड़ा सोहनसिंह पर बरस रहा था, "बचकर निकल आया। मुसलों ने उसे मारने की तो पूरी कोशिश की थी। अब देख लिया? बड़ा आया हमें उपदेश देनेवाला..."

इस पर एक और सरदारजी ने उठकर कहा, “मेरा सुझाव है कि इस आदमी को नज़रबन्द कर दिया जाए। काल कोठरी में डाल दिया जाए। इस पर हमें विश्वास नहीं है। क्या मालूम यह उसकी मुखबरी करता हो।"

इस पर निहंगसिंह ने आगे बढ़कर सोहनसिंह को एक और धौल जमा दिया।

“बस-बस, मारो नहीं, मत मारो।"

"समझाना है तो जाकर अपने चाचों को उन शेखों को समझाओ जिनकी बगल में सारा वक्त बैठे रहते हो। जाओ यहाँ से।" और कीर्तन फिर से जारी हो गया।

साँझ उतरने लगी थी। गुरुग्रन्थ-साहिब की वेदी के दाएँ-बाएँ छत से लटकते दो फानूसनुमा लैम्प जला दिए गए। लैम्प के नीचे बैठे तेजासिंहजी की नीली पगड़ी के नीचे उनका सफ़ेद दुपट्टा और सफेद दाढ़ी रोशनी से चमक उठे। रोशनी स्त्रियों के दमकते चेहरों पर पड़ रही थी। भावनाओं से उद्वेलित चेहरे। उत्कंठा, भय, अथाह श्रद्धा और विश्वास सभी उनकी आँखों में छाये थे। कहीं-कहीं किसी युवती की चकित आँखें गुरुद्वारे का अनूठा दृश्य देखे जा रही थीं। इन्हीं युवतियों में जसबीर भी बैठी थी-हरनामसिंह चायवाले की बेटी-जो इसी गाँव में ब्याही थी और जिसने अपने पिता से अटूट धार्मिक प्रेरणा जन्मघुट्टी में प्राप्त की थी। जिस समय अरदस गाई जा रही थी उसी समय संगत में बैठे लोगों की आवाज़ से एक ही आवाज़ मेल नहीं खा रही थी, वह जसबीर की आवाज़ थी। पतली ऊँची तीखी आवाज़ पर वह निःसंकोच गाए जा रही थी। एक छोटी-सी किरपान काली पट्टी से बँधी सारा वक़्त उसकी कमर से झूलती रहती थी। संगत में सभी लोग इस आवाज़ को पहचानते थे और सभी उसे गुरु-बेटी कहकर बुलाते थे। जसबीर का खिला हुआ चौड़ा चेहरा सबसे अधिक दमक रहा था। अपने हाथ से जसबीर गुरुद्वारे की सीढ़ियाँ धोया करती, जो रेशमी कपड़ा गुरु-ग्रन्थ साहिब को ढकने के लिए रखा था उस पर जसबीर कौर ने ही बारीक कढ़ाई का काम किया था, उसके दिल में से ही तरह-तरह के 'उलेल' उठते रहते थे। अपने-आप ही उठकर संगतों को पंखा झलने लगती, ठंडा जल पिलाने लगती, संगतों के जूतों की रखवाली करने लगती और मौज आती तो अपने दुपट्टे के छोर से संगतों के जूतों को पोंछ-पोंछकर उनके सामने रखने लगती। उसका बस चलता तो संगतों के चरण छू-छूकर अपने हाथ से उन्हें जूता पहनाती। जब से संकट शुरू हुआ था उसकी आँखें तेजासिंहजी के मुखारविन्द पर लगी थीं मानो उस मुखड़े से उसे दैवी सन्देश की अपेक्षा हो, पल-पल छिन-छिन वह इस सन्देश को सुन पाने के लिए कान लगाए बैठी थी। कुछ-कुछ ऐसी ही भावना गुरुद्वारे में बैठे सभी नर-नारियों के दिलों में हिलोरें ले रही थी।

तभी छत पर तैनात निहंगसिंह को गाँव के पार दूर क्षितिज के पास धूल उड़ती नज़र आई। धूल का बवंडर था। उसने आँख लगाकर देखा, धूल का बवंडर आगे बढ़ता आ रहा था। उसने किशनसिंह से कहा, किशनसिंह ने उठकर झरोखे में से देखा, और देर तक देखता रहा। धूल का बवंडर ही था पर इस ओर सचमुच बढ़ता आ रहा था। उसे पहले तो अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ, पर उसे देखते ही देखते गहरी भिनभिनाती-सी आवाज़ उसके कानों में पड़ने लगी। उसका माथा ठनका। सभी को विश्वास था शरारत गाँव के अन्दर से होगी, कालू मलंग, अशरफ कसाई और नबी तेली जैसे लोग फसाद पर तुले हुए जान पड़ते थे, पर बलवाई सचमुच बाहर से आ रहे थे। वह अभी खड़ा सुन ही रहा था कि ढोल बजने की गहरी दबी आवाज़ उसके कानों में पड़ी। देखते ही देखते स्थिति ने गम्भीर और विकट रूप ग्रहण कर लिया था। उसने निश्चय किया कि नीचे जाकर तेजासिंहजी को आगाह कर दे, पर यहाँ मोर्चे पर खड़े होकर दुश्मन की चाल-ढाल को देखना भी ज़रूरी था, चुनाँचे सूचना देने का काम उसने निहंगसिंह के सुपुर्द कर दिया।

निहंग भागता हुआ सीढ़ियाँ उतरा और आखिरी सीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते चिल्लाकर बोला, “तुर्क आ गए! तुर्क आ गए!"

बिजली की-सी लहर गुरुद्वारे में दौड़ गई, और तभी दूर से ढोल बजने की आवाज़ साफ़ सुनाई देने लगी।

तेजासिंहजी कुछ देर के लिए सचमुच हैरान-से रह गए। उन्हें आशा नहीं थी कि सचमुच हमला हो जाएगा। उन्हें ख्याल था कि तेलियों के मुहल्ले या गाँव के सिरे पर इक्का-दुक्का वारदात हो जाएगी और अगर कस्बे के सिंह डटे रहे तो गाँव के मुसलमानों की हिम्मत नहीं होगी कि हाथ उठाएँ, सिख भारी संख्या में थे और मुसलमानों का कारोबार बहुत-कुछ सिखों के साथ था, सिख धनी भी थे और उनके पास बन्दूकें और असला भी था। पर यहाँ बात उलटी पड़ गई जान पड़ती थी।

ढोल बजने की आवाजें नज़दीक आने लगीं। ‘या अली!' का शोर भी नज़दीक से सुनाई दिया। तभी पिछवाड़े से ज़ोर का नारा बुलन्द हुआ :

“अल्लाह-हो-अकबर!"

क्षण-भर के लिए हॉल के अन्दर सकता-सा छा गया। फिर गुरुद्वारे के अन्दर उत्तेजना की लहर दौड़ गई।

“जो बोले...सो निहाल, सत सिरी अका ऽऽऽल!" का जवाबी नारा हवा में गूंज गया।

“गुरु का प्यारा कोई सिंह यहाँ से बाहर नहीं जाए! सब अपने-अपने मोर्चे पर पहुँच जाओ!"

जसबीर कौर का हाथ अपनी किरपान की मूठ पर पहुँच गया। सिहों ने लपक-लपककर दीवार के साथ रखी अपनी-अपनी तलवार उठा ली। सारी संगत उठकर खड़ी हो गई थी।

"तुर्क! तुर्क आ गए! तुर्क आ गए!" सबकी ज़बान पर था। "तुर्कों का लश्कर आ गया!"

"तुर्क आ गए!" जसबीर ने भावविह्वल आवाज़ में कहा और अपने सिर पर से चुन्नी उतारकर गले में डाल ली और पास खड़ी स्त्री को गले से लगा लिया।

"तुर्क आ गए!" उसने भावविह्वल होकर कहा।

स्त्रियों ने अपने दुपट्टे उतारकर गले में डाल लिये थे और 'तुर्क आ गए, तुर्क आ गए!' कहती हुई एक-दूसरी के गले मिल रही थीं। गुरु के सिंह भी एक-दूसरे के साथ बग़लगीर होकर यही शब्द दोहराने लगे थे।

"सब अपनी-अपनी जगह पहुँच जाओ!"

कुछेक सिंहों ने बाल खोल लिए थे और तलवारें मियानों में से निकाल ली थीं।

"तुर्क आ गए! तुर्क आ गए!" फिर एक साथ तीन कंठों से आवाज़ आई : “जो बोले सो...निहाल।" फिर से सारा गुरुद्वारा गूंज उठा : “सत सिरी अकाल!"

युद्ध समिति के सदस्य, सरदार मंगलसिंह सुनार, प्रीतमसिंह बजाज और भगतसिंह पंसारी तीनों सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर चले गए जहाँ तेजासिंह और किशनसिंह के साथ मिलकर युद्धनीति पर विचार करने की ज़रूरत थी।

ढोल-मजीरे बजाते तुर्क गाँव में पहुंच गए। शायद अपनी आमद की सूचना देने के लिए ही हवा में गोली चलाई थी। नारों से आकाश गूंजने लगा:

“या अली!" "अल्लाह-हो-अकबर!"

"सत सिरी अकाल!"

फिर किसी ने कहा कि तुर्क नदी की ओर से गाँव की ओर बढ़ रहे हैं। इसका मतलब था कि पीछे से वे ढलान चढ़कर सिखों के घरों की लूट-पाट करेंगे, आग लगाएँगे, क्योंकि घरों में इस वक़्त कुछ बूढ़े लोगों के सिवाय, जिन्हें धर्म-रक्षा की उत्तेजना में उनके बेटे वहाँ छोड़ गए थे, दूसरा कोई नहीं था और सामान पर हाथ साफ़ करना बड़ा आसान था।

शाम के साए अभी पूरी तरह उतर नहीं पाए थे और नदी का रंग डूबते सूरज की लाली के कारण लाल होने लगा था। बाएँ हाथ सिरे का मोर्चा उन घरों से दूर था जिनको इस समय तुर्कों से ख़तरा था।

तभी बलदेवसिंह को अपनी माँ की याद आई। उसे वह घर में अकेला छोड़ आया था और दिन-भर उसकी सुध नहीं ली। उधर अब माँ की जान पर आ बनी होगी। संगत में और भी कुछेक व्यक्ति ऐसे थे जिनका दिल धक्-धक् कर रहा था कि अब उनके बूढ़े माँ-बाप पर क्या बीतेगी।

बलदेवसिंह से न रहा गया। देखते ही देखते उसने केस खोल दिए, पाजामा उतार दिया, तलवार नंगी कर दी, और एक कच्छा और बनियान पहने नंगी तलवार सिर के ऊपर झुलाता हुआ अपने घर की ओर भाग खड़ा हुआ।

"खून का बदला खून से लेंगे!" वह चिल्लाया।

कुछ लोगों ने उसे लौट आने के लिए पुकारा, पर वह बढ़ता गया।

"खून का बदला खून से लेंगे!" चिल्लाता हुआ वह गली में भागने लगा।

हडियल, दुबला-पतला बलदेवसिंह, भागते समय उसकी पतली-सी टाँगें बकरी की टाँगों जैसी लग रही थीं। लोगों की समझ में नहीं आया कि वह बाएँ हाथ की गली की ओर क्यों भाग गया है। सामने ढलान उतरता तो समझा जा सकता था कि वह जोश में बलवाइयों से लोहा लेने जा रहा है, दाएँ हाथ जाता तो वह रास्ता कसाइयों की गली की ओर जाता था। बाईं ओर जाने में क्या तुक थी?

पर थोड़ी ही देर बाद वह गली में गुरुद्वारे की ओर लौट रहा था। वह अभी भी हाथ में तलवार को थामे हुए है, पर अब वह उसे झुला नहीं रहा है। तलवार की धार भी शाम के सायों में काली-सी नज़र आ रही है। नज़दीक आने पर लोगों ने देखा, तलवार लहूलुहान हो रही थी। उसके बनियान और कच्छा पर भी लहू के छींटे थे। अब वह चिल्ला नहीं रहा था, न ही भाग रहा था, बल्कि उसके चेहरे पर अजीब वहशत-सी छा गई थी।

कुछ लोग समझ गए थे कि वह किसी की हत्या करके लौटा है। वह गली के नुक्कड़ पर रहनेवाले, बूढ़े लुहार करीमबख्श के सीने में तलवार भोंककर आया था। यह सोचकर कि माँ तो अब बच नहीं सकती, माँ को तो तुर्कों ने मौत के घाट उतार ही दिया होगा, उसने खून का बदला खून से लेने की ठान ली थी और बूढ़ा करीमबख्श ही उसके आड़े आ सकता था।

गाँव पर साए उतर-उतर आए थे। नारों की गूंज और अधिक तेज़ होने लगी थी, बाईं ओर ढलान के ऊपर सचमुच किवाड़ तोड़ने और चिंघाड़ने की आवाजें आने लगी थीं। गुरुद्वारे में उत्तेजना पराकाष्ठा तक जा पहुंची थी।

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रचनाएँ
तमस
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'तमस' की कथा परिधि में अप्रैल १९४७ के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है। 'तमस' कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षों की कथा हो जाती है। आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी होने के बावजूद इसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उदघाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं।
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तमस भाग 1

9 अगस्त 2022
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आले में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर बाद ब

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भाग 2

9 अगस्त 2022
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प्रभातफेरी में भाग लेने के लिए आरंभ में दो गिने-चुने लोग ही पहुँचते थे। बाद मे गलियाँ और बाज़ार लाँघते हुए जिस किसी का घर रास्ते में पड़ता वह तोंद खुजलाता, जम्हाइयाँ लेता साथ में शामिल हो जाता था। ह

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भाग 3

9 अगस्त 2022
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गली में क़दम रखते ही नत्थू ने चैन की साँस ली। गली में अँधेरा था जबकि सड़कों पर अँधेरा छटने लगा था। नत्थू जल्दी से जल्दी गलियों का जाल लाँघकर अपने डेरे पर पहुँच जाना चाहता था। उस बदबू-भरी कोठरी में से

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भाग 4

9 अगस्त 2022
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टीले के ऊपर पहुँचकर दोनों ने अपने घोड़े रोक लिये। सामने दूर तक चौड़ी घाटी फैली थी जो पहाड़ों के दामन तक चली गई थी। लगता दूर क्षितिज पर सतरंगी धूल उड़ रही है। विशाल मैदान, कहीं-कहीं छोटी-छोटी पहाड़ियाँ

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भाग 5

9 अगस्त 2022
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अँधेरा छटने लगा था जब प्रभातफेरी की मंडली गलियाँ लाँघती हुई "इमामदीन के मुहल्ले में पहुँची। रास्ते में शेरखान के घर से झाड़, बेलचे, कड़ाहियाँ और सफाई का अन्य सामान लेकर वे आगे बढ़ने लगे थे। सुबह की रो

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भाग 6

9 अगस्त 2022
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साप्ताहिक सत्संग की समाप्ति से पहले पुण्यात्मा वानप्रस्थीजी सदा की भाँति मन्त्रपाठ करने लगे। इस मन्त्रपाठ को वह सत्संग रूपी यज्ञ की 'अन्तिम आहुति' कहा करते थे। गिने-चुने इन विशिष्ट मन्त्रों तथा श्लोको

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भाग 7

9 अगस्त 2022
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दफ्तर में मिलने के बजाय आप लोग घर पर मिलने आए। ज़रूर कोई बहुत ही ज़रूरी काम रहा होगा।" रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा। चपरासी ने चिक उठा दी। नागरिकों के शिष्टमंडल के सदस्य एक-एक करके कमरे के अन्दर दाखिल हुए

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भाग 8

9 अगस्त 2022
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शहर में सब काम जैसे बँटे हुए थे : कपड़े की ज़्यादातर दूकानें हिन्दुओं की थीं, जूतों की मुसलमानों की, मोटरों-लारियों का सब काम मुसलमानों के हाथों में था, अनाज का काम हिन्दुओं के हाथ में। छोटे-छोटे काम

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भाग 9

9 अगस्त 2022
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'ऐसा 'बेवाका' घर है, कोई चीज़ एक बार कहीं रख दो, फिर मिलती ही नहीं, ढूंढ-ढूँढ़ मरो उसे।" लाला लक्ष्मीनारायण अलमारी के सामने खड़े बड़बड़ा रहे थे। अलमारी के निचले खाने में कपड़ों के नीचे उन्होंने एक नन्

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भाग 10

9 अगस्त 2022
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दिन के उजाले में शहर अधमरा-सा पड़ा था, मानो उसे साँप सूंघ गया हो। मंडी अभी भी जल रही थी, म्युनिसिपैलिटी के फायर ब्रिगेड ने उसके साथ जूझना कब का छोड़ दिया था। उसमें से उठनेवाले धुएँ से आसमान में कालिमा

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भाग 11

9 अगस्त 2022
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देवदत्त नहा-धोकर, हाथ मलता हुआ अपने घर के सामने आ खड़ा हुआ। जब कभी वह हाथ मलता हो, या दाएँ हाथ से मुँह और नाक सहलाता हुआ फिर से दोनों हाथ मलने लगे तो समझ लो देवदत्त अपनी कार्य-सूची तैयार कर रहा है। दे

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भाग 12

9 अगस्त 2022
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एक आदमी छज्जे पर पहरा दे।" रणवीर ने घूमकर कहा। मुर्गी काटकर दीक्षा पाने से उसमें भरपूर आत्म-विश्वास पैदा हो गया था। वह दल का सबसे चतुर, सबसे चुस्त और सबसे ज़्यादा कार्यकुशल सदस्य था। उसकी आवाज़ में कड

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भाग 13

9 अगस्त 2022
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नत्थू परेशान था। अपनी कोठरी के बाहर बैठा वह चिलम पर चिलम फूँके जा रहा था। जितना अधिक वह मार-काट की अफवाहों को सुनता, उतना ही अधिक उसका दिल बैठ जाता। बार-बार अपने मन को समझाता, मैं अन्तर्जामी तो नहीं ह

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भाग 14

9 अगस्त 2022
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पहली बस खानपुर से चलकर सुबह आठ बजे गाँव पहुँचती थी। वह नहीं आई। उसके बाद हर घंटे दो घंटे के बाद शहर की ओर से भी और खानपुर की ओर से भी बसें आती थीं। आज दोपहर हो गई, एक भी बस नहीं आई। चाय की दुकान में क

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भाग 15

9 अगस्त 2022
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गुरुद्वारा खचाखच भरा था और संगत मस्ती में झूम रही थी! बस अनमोल समय था। रागी पूरी तन्मयता से आँखें बन्द किए गा रहे थे : “तुम बिन कौन मेरे गोसाईं..." संगत में सबके हाथ जुड़े हुए, आँखें बन्द और सिर वजद

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भाग 16

9 अगस्त 2022
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हरनामसिंह ने दूसरी बार साँकल खटखटाई तो अन्दर से किसी स्त्री की एआवाज़ आई : "घर पर नहीं हैं, मर्द बाहर गए हैं।" हरनामसिंह ठिठका खड़ा रहा। बन्तो की आँखें दाएँ-बाएँ देख रही थीं कि आसपास उन्हें किसी ने

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भाग 17

9 अगस्त 2022
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इस बीच देहात की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर एक और नाटक खेला जा रहा २ था। रमज़ान और उसके साथी ढोक इलाहीबख्श और मुरादपुर की ओर से लूटपाट का सामान उठाए हँसते-बतियाते लौट रहे थे जब उन्हें दूर एक टीले के पास, एक भ

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भाग 18

9 अगस्त 2022
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तुर्क आए थे पर वे अपने ही पड़ोसवाले गाँव से आए थे। तुर्कों के ज़ेहन में भी यही था कि वे अपने पुराने दुश्मन सिखों पर हमला बोल रहे हैं और सिखों के जेहन में भी वे दो सौ साल पहले के तुर्क थे जिनके साथ खाल

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भाग 19

9 अगस्त 2022
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शहर की सड़क पर निकलते ही पता चल जाता था कि माहौल बदल गया है। मुहल्ला कुतुबदीन की मस्जिद के सामने, सड़क के पार चार हथियारबन्द फौज़ी कुर्सियाँ डाले बैठे थे। सड़क पर चलते हुए हर चौक पर दो-तीन फौजी बन्दूक

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भाग 20

9 अगस्त 2022
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हमें आँकड़े चाहिए, केवल आँकड़े! आप समझते क्यों नहीं? आप लम्बी हाँकने लगते हैं, सारी रामकहानी सुनाने लगते हैं, मुझे रामकहानी नहीं चाहिए, मुझे केवल आँकड़े चाहिए। कितने मरे, कितने घायल हुए, कितना माली नु

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भाग 21

9 अगस्त 2022
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अमन कमेटी की मीटिंग के लिए लोग हॉल में इकट्ठे हो रहे थे। यही एक जगह चुनी गई थी जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी, क्योंकि कालिज न हिन्दुओं का था, न मुसलमानो का, कालिज ईसाइयों का था, प्रिंसिपल भी ह

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