shabd-logo

भाग 6

9 अगस्त 2022

18 बार देखा गया 18

साप्ताहिक सत्संग की समाप्ति से पहले पुण्यात्मा वानप्रस्थीजी सदा की भाँति मन्त्रपाठ करने लगे। इस मन्त्रपाठ को वह सत्संग रूपी यज्ञ की 'अन्तिम आहुति' कहा करते थे। गिने-चुने इन विशिष्ट मन्त्रों तथा श्लोकों में भारतीय संस्कृति का सार पाया जाता था और वर्षों के आग्रह के बाद वानप्रस्थीजी ने सभी सभासदों को ये मन्त्र कंठस्थ करवा दिए थे। वेदी पर बैठे ही बैठे, आँखें बन्द कर हाथ जोड़ और सिर नवाकर वानप्रस्थीजी मन्त्रोचारण करने लगे :

“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग भवेत।"

सारे सत्संग में अकेले वानप्रस्थीजी ही थे जो संस्कृत के ज्ञाता थे, उन्होंने सभी वेद-वेदांग पढ़ रखे थे। इसलिए जब वह पढ़ते तो कभी उच्चारण में भूल नहीं होती थी बल्कि लगता एक-एक शब्द पूरी समझ-बूझ के साथ दिल की गहराइयों में से निकल रहा है। उपनिषद् के श्लोक के बाद उन्होंने गीता के दो श्लोक पढ़े :

“आपूर्यमाणम् अचल प्रतिष्ठम्...

सभासद साथ-साथ गुनगुनाने लगे। कुछ लोग उच्चारण में पीछे छूट गए, इस कारण वानप्रस्थीजी के पढ़ चुकने के बाद भी सभा में से कुछ देर तक गुनगुनाती आवाजें आती रहीं।

अन्त में शान्तिपाठ हुआ और सारा हॉल पुरुष-स्त्रियों के कंठ से गूंजने लगा। क्योंक शान्ति पाठ का मन्त्र सभी को कंठस्थ था :

ॐ द्यौ शान्ति पृथ्वी, शान्तिरापः

शान्तिरौषधयः, शान्ति वनस्पतिः

सचमुच ऐसा जान पड़ने लगा जैसे शान्ति का लौकिक प्रभाव वायुमंडल में छाने लगा है, चारों ओर शान्ति व्यापने लगी है, और इन मुक्त कंठों से निकलनेवाली शान्ति की ध्वनि घर-घर तक पहुँच रही है। ‘अन्तिम आहुति' में सचमुच सभी को बड़ा आनन्द आता था। मन्त्रोचारण के बाद एक प्रार्थना का गीत गाया जाता और उसमें भी समस्त चर-अचर जगत के सुख की कामना की जाती। ताली बजा-बजाकर वानप्रस्थीजी गा रहे थे:

“सब पर दया करो भगवान

सब पर कृपा करो भगवान...”

पुण्यात्माजी के आग्रह पर सत्संग में परम्परागत आरती का गायन बहुत कम कर दिया गया था, क्योंकि उसमें 'मैं मूरख, खल कामी' जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया था जो वानप्रस्थीजी के विचारानुसार हीन भावना पैदा करते थे, उसी तरह किन्हीं खन्नाजी का लिखा हुआ वह गीत भी निकाल दिया गया था जिसमें हम सब ही पुत्त कपुत्त तेरे' की चर्चा की गई थी जो वानप्रस्थीजी को मंजूर नहीं था।

'अन्तिम आहुति' समाप्त हुई। इसके बाद सभा को विसर्जित हो जाना चाहिए था परन्तु सभासद बैठे रहे क्योंकि मन्त्रीजी को कोई ज़रूरी सूचना देनी थी। मन्त्रीजी उठे पर उठकर उन्होंने केवल इतना ही कहा कि सभा-विसर्जन के बाद अन्तरंग सभा के सदस्य कृपया बैठे रहें, एक ज़रूरी विषय पर विचार करना है। इस ज़रूरी विषय के बारे में भी सभासदों को खटका पहले से था, वानप्रस्थीजी के भाषण में भी बार-बार इस विषय का संकेत मिलता रहा था, यहाँ तक कि प्रवचन देते समय वानप्रस्थीजी स्वयं अत्यधिक विचलित और भावोद्वेलित हो उठे थे, उनका चेहरा तमतमाने लगा था और होंठ भडभड़ाने लगे थे, विशेष रूप से जब उन्होंने आवाज़ ऊँची उठाकर मर्मभेदी आवाज़ में ये पंक्तियाँ पढ़ी थीं:

“फैलाए घोर पाप यहाँ मुसलमीन ने

नेअमत फ़लक ने छीन ली, दौलत ज़मीन ने।"

इसलिए सभी लोग जानते थे कि अन्तरंग सभा किस विषय पर विचार करने जा रही है।

मन्त्री जी की सूचना के बाद लोग उठने लगे। सभा विसर्जित होने लगी। लोग मन्दिर के सात दरवाज़ों में से निकल-निकलकर बरामदे में अपना-अपना जूता खोजकर पहनने लगे। कुछ लोग मन्दिर में प्रवेश करते समय जान-बूझकर दाएँ पैर का जूता एक दरवाजे के सामने और बाएँ पैर का जूता तीसरे या चौथे दरवाजे के सामने छोड़ देते थे ताकि सत्संग के बाद जूतों का पुनः मिल जाना सुनिश्चित हो सके। इसलिए बरामदे में थोड़ी देर के लिए भीड़-सी बनी रही। यों भी सभा-विसर्जन के बाद दो-दो चार-चार आदमी बरामदे में खड़े बतियाते रहा करते थे, और आज तो शहर की स्थिति की चर्चा हर एक की ज़बान पर थी। वानप्रस्थीजी अपने मर्मस्पर्शी भाषण के बाद अभी भी वेदी पर ही बैठे थे। वह अभी भी उत्तेजित जान पड़ रहे थे और उनका चेहरा दमक रहा था।

तभी आँगन में से कुछ लोग मन्दिर के अन्दर आते दिखाई दिए। बरामदे में खड़े छिटपुट लोग उन्हें पहचान गए। वे शहर की अन्य हिन्दू धार्मिक संस्थाओं के गण्यमान अधिकारी थे। उनके पीछे पाँच-सात सिख सज्जन भी अन्दर आते दिखाई दिए। वे स्थानीय बड़े गुरुद्वारे में से आए थे। इन्हें भी अन्तरंग सभा की बैठक में भाग लेने के लिए न्योता दिया गया था।

अन्तरंग सभा की बैठक शुरू हुई। मन्त्रीजी ने जो दुबले-पतले किन्तु बड़े जोशीले सज्जन थे, नगर की बिगड़ती स्थिति का ब्यौरा दिया, कुछ उड़ती अफ़वाहों की भी चर्चा की, मस्ज़िद के सामने पाई गई सुअर की लाश का भी जिक्र किया। यह भी बताया कि जामा मस्ज़िद में लाठियाँ, भाले और तरह-तरह का असला बहुत दिनों से इकट्ठा किया जा रहा है। नगर की स्थिति का ब्यौरा देने के बाद मन्त्रीजी ने विषय पर गम्भीरता से विचार करने और अपने-अपने सुझाव पेश करने का अनुरोध किया।

“यहाँ पर बैठना उचित नहीं है।"

आवाज़ वानप्रस्थीजी की थी, जो वेदी पर बैठे अपना हाथ उठाकर बड़ी गम्भीरता से कह रहे थे, “इस विषय पर किसी दूसरी जगह बैठकर विचार करना चाहिए।"

और वानप्रस्थीजी वेदी पर से उतर आए, और मन्दिर के पिछवाड़े की ओर हो लिए। अन्तरंग सभा के सभी सदस्य भी उनके पीछे-पीछे जाने लगे। मन्दिर के पिछवाड़े से सीढ़ियाँ चढ़कर वानप्रस्थीजी सभी को एक छोटे से कमरे में ले गए जहाँ मन्दिर का साज-सामान रखा रहता था और कुछ एक कुर्सियाँ और बेंच रखे रहते थे। सभी लोगों के बैठ जाने पर पुण्यात्माजी धीर-गम्भीर आवाज़ में बोले, "सबसे पहले अपनी रक्षा का प्रबन्ध किया जाना चाहिए। सभी सदस्य अपने-अपने घर में एक-एक कनस्तर कड़वे तेल का रखें, एक-एक बोरी कच्चा या पक्का कोयला रखें। उबलता तेल शत्रु पर डाला जा सकता है, जलते अंगारे छत पर से फेंके जा सकते हैं..."

सदस्य ध्यान से सुनते रहे। बात दो-टूक थी लेकिन वानप्रस्थीजी के मुँह से सुनते हुए कुछ लोगों को तनिक झेंप हुई। अधिकांश सदस्य व्यापारी लोग थे और बड़ी उम्र के थे, कुछ नौकरीपेशा थे, दो-एक वकील थे। चिन्तित तो सभी थे लेकिन वानप्रस्थीजी की तरह उत्तेजित नहीं थे। उन्हें अभी तक पूरी तरह से विश्वास नहीं हो पाया था कि शहर की स्थिति यहाँ तक बिगड़ चुकी है कि घरों में तेल के कनस्तर रखने की नौबत आ गई है। वे अभी भी समझते थे कि छोटी-मोटी घटनाओं के बाद सरकार स्थिति पर काबू पा लेगी, शरारत को दबा देगी और फ़साद नहीं होने देगी।

इस पर एक सज्जन ने मन्त्रीजी से पूछा, “युवक समाज का काम ठंडा पड़ा हुआ है। देवव्रतजी को आपने और कामों में लगा रखा है। मैं समझता हूँ युवकों को लाठी सिखाने का काम फौरन शुरू कर देना चाहिए। दो सौ लाठियाँ आज ही मँगवाकर बाँट दी जाएँ।"

इस पर सभा के दानवीर प्रधानजी, जो शहर के जाने-माने व्यापारियों में से थे, सिर हिलाकर बोले, “यह रकम मैं दूंगा। आप आज ही दो सौ लाठियाँ मँगवाकर युवकों को बाँट दें।"

'वाह, वाह!' की आवाज़ सुनाई दी। उपस्थित सज्जनों ने प्रधानजी की उदारता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। बीच में से एक सदस्य की आवाज़ आई, यही तो हम हिन्दुओं में बहुत बड़ी कमज़ोरी है। हम प्यास लगने पर कुआँ खुदवाते हैं। आज जब हालत बिगड़ रही है और मुसलमान जामा मस्ज़िद में असला इकट्ठा कर रहे हैं, हम लाठियाँ ख़रीदने जा रहे हैं।" ।

इस पर मन्त्रीजी छूटते ही बोले, “इस विषय पर चर्चा की आवश्यकता नहीं है, युवक समाज पूरी तरह से सक्रिय है। और इस ओर पूरा-पूरा ध्यान दिया जा रहा है। स्वयं वानप्रस्थीजी तन-मन के साथ इस काम में रुचि ले रहे हैं। पठन-पाठन और हवनयज्ञ के अतिरिक्त वानप्रस्थीजी हिन्दू संगठन के पुण्य कार्य में बड़ी लगन के साथ काम कर रहे हैं। लेकिन प्रधानजी के सुझाव का मैं स्वागत करता हूँ, उनकी उदारता के ही बल पर हमारे अनेक काम सम्पन्न हो रहे हैं। हमें अपनी तैयारी में कोई कमी नहीं आने देनी चाहिए।"

तभी बाहर से आए सज्जनों में से एक वयोवृद्ध सज्जन, जो देर से अपनी छड़ी पर ठुड्डी रखे बैठे थे और जिन्होंने एक-एक करके अपनी दोनों टाँगें कुर्सी पर चढ़ा ली थीं, अपनी पतली तीखी आवाज़ में बोले, “भरावो, यह सब ठीक है, पर मैं कहूँगा, डिप्टी कमिश्नर के पास जाओ। डिप्टी कमिश्नर से मिलो। पानी भी न पियो और डिप्टी कमिश्नर से मिलो। यह बखेड़ा यहाँ ख़त्म होनेवाला नहीं है। उससे मिलो और उसे समझाओ कि हिन्दुओं के जान-माल को बहुत ख़तरा है।"

"डिप्टी कमिश्नर के पास जाना आवश्यक है, ज़रूर, लेकिन लालाजी, अपनी रक्षा तो अपने हाथों होगी।" वानप्रस्थीजी ने कहा।

“ओ महाराज, बच्चों को लाठी चलाना ज़रूर सिखाओ, नेजा और तलवार चलाना भी सिखाओ, सूरमा बन जाएँगे हमारे बेटे, पर सबसे पहले डिप्टी कमिश्नर से मिलो, उससे कहो कि शहर में फ़साद नहीं होने दे। डिप्टी कमिश्नर का बड़ा दबदबा है। वह चाहे तो चिड़ी नहीं फड़क सकती।"

"आज इतवार है, डिप्टी कमिश्नर नहीं मिलेगा।" मन्त्रीजी ने कहा।

"मैं कहता हूँ घर पर जाकर मिलो। यही वक़्त है। यहीं से कुछ लोग उठकर सीधे डिप्टी कमिश्नर से मिलने चले जाओ।"

इस पर एक सिख सज्जन ने सूचना देते हुए कहा, “मैंने सुना है एक वफ्द पहले से डिप्टी कमिश्नर से मिलने चला गया है।"

"कौन लोग हैं उसमें?"

“उसमें कुछ कांग्रेसी हैं, कुछ लीगी हैं और कुछ शहर के और लोग हैं।"

थोड़ी देर तक चुप्पी छाई रही।

"वह वफ्द क्या करेगा? हिन्दुओं-सिखों को अलग से जाकर मिलना चाहिए। उसे तो यह बताना है कि देखो मुसलमान क्या कर रहे हैं, अगर मुसलमान भी साथ होंगे तो तुम डिप्टी कमिश्नर को क्या कह सकते हो? यह सारा काम कांग्रेसियों ने बिगाड़ा हुआ है। उन्होंने ही मुसलों को सिर पर चढ़ा रखा है।"

“शरारत तो बहुत बढ़ रही है, इसमें तो शक नहीं।" एक सिख सज्जन बोले, “सुना है एक गाय भी काटी गई है। माई सत्तो की धर्मशाला के बाहर उसके अंग फेंके गए हैं। मैं नहीं जानता कहाँ तक यह ख़बर ठीक है, लेकिन सुनने में ज़रूर आया है।"

इस पर वानप्रस्थीजी का चेहरा तमतमाने लगा, और उनकी आँखों में खून उतर आया, पर वह कुछ बोले नहीं, चुपचाप अपनी उत्तेजना को दबाते हुए मौन बैठे रहे।

“गो-वध हुआ तो यहाँ खून की नदियाँ बह जाएँगी।” मन्त्रीजी उत्तेजित होकर बोले।

कुछ देर तक सभी चुप रहे। अगर यह बात सचमुच ठीक है तो इसके पीछे गहरी शरारत है। मुसलमान जो न करे कम है।

इस पर शहर के हिन्दू-सिखों को व्यापक रूप से संगठित करने, आत्मरक्षा की साक्षी योजना बनाने के लिए सुझावों पर विचार किया जाने लगा।

“मुहल्ला-कमेटियों की क्या स्थिति है?" एक सज्जन ने पूछा।

“यहाँ मुहल्ला-कमेटियाँ बनाना बड़ा मुश्किल काम है। सभी मुहल्लों में मुसलमान घुसे बैठे हैं। यह शहर ही इस बेढब्बे से बना है कि हर मुहल्ले में हिन्दू भी रहते हैं, और मुसलमान भी रहते हैं। मुहल्ला-कमेटियाँ क्या बनाओगे हर बात की खबर मुसलमानों को हो जाती है। 1926 के फ़सादों के बाद दो-तीन मुहल्ले ऐसे बने हैं जिनमें हिन्दुओं ने आँखें खोलकर मकान बनवाए हैं, जैसे नया मुहल्ला, राजपुरा, आदि, जो अलग से हिन्दुओं-सिखों के हैं, वरना सभी में मुसलमान घुसे हुए हैं।"

मुहल्ला-कमेटियों के बारे में देर तक गम्भीरता से विचार हुआ। एक उपसमिति भी बनाई गई जो फौरन इन मुहल्ला-कमेटियों के साथ सम्पर्क स्थापित करे। ऐसी योजना पर भी विचार किया जाने लगा कि ख़तरे के वक़्त यह सम्पर्क कैसे कायम रहे।

तभी एक वयोवृद्ध सज्जन ने सुझाव दिया, “शिवाले पर लगे घड़ियाल की जाँच भी करवा लीजिए।"

“क्यों? उसे क्या हुआ है?"

“यों ही, एहतियात के लिए। रात के वक़्त ही खतरे की घंटी बजानी पड़ जाए तो कम से कम वह काम तो करता हो। यह न हो कि रस्सी खींचो तो रस्सी ही टूट जाए। घड़ियाल ही न बजे।"

शहर के ऐन बीचोबीच एक टीले पर स्थित शहर का पुराना मन्दिर था। उसी को लोग शिवाला कहते थे। आसपास दूकानें थीं। वहीं पर मन्दिर के ऊपर यह घड़ियाल भी किसी ज़माने में लगाया गया था।

“अर्सा भी तो बहुत हो चुका है," वयोवृद्ध कह रहे थे, “1927 में लगवाया था, या शायद इससे भी पहले।"

इस पर एक सज्जन के मुँह से सहसा निकल गया, “न ही बजे तो अच्छा है, भगवान कभी न बजवाए!"

"इसी भाव ने हमें कायर बना दिया है।" वानप्रस्थीजी तुनककर बोले, "बात-बात पर खतरे से डरना। इसी कारण म्लेच्छ हमारी खिल्ली उड़ाते हैं, हमारे युवकों को ‘कराड़' और 'बनिया' कहकर पुकारते हैं।"

लोग फिर चुप हो गए। धारणाएँ ज़रूर सभी उपस्थित लोगों की एक जैसी थीं लेकिन वे वानप्रस्थीजी की भाँति उत्तेजित नहीं थे। वे भी मानते थे , कि मुसलमान शरारत करेंगे, लेकिन वे यह भी नहीं चाहते थे कि फ़साद फूल. पड़े क्योंकि इससे सचमुच हिन्दू-सिखों की जान और माल को ख़तरा था।

दूर तक उपायों और साधनों पर विचार होता रहा। रक्षा-सम्बन्धी उपायों पर भी और फ़साद को रोकने के उपायों पर भी। अनेक सुझाव पेश किए गए : मुहल्ला-कमेटियाँ बनाई जाएँ, वालंटियर कोर बनाई जाए जो शहर के सभी हिन्दुओं-सिखों के संगठनों के बीच सम्पर्क रखे, कड़वे तेल के अतिरिक्त रेत और पानी का इन्तज़ाम किया जाए। इस गम्भीर विचार-विमर्श के बीच बार-बार, किसी राग की स्थायी पंक्ति की भाँति वयोवृद्ध अपना सुझाव बार-बार दोहरा देते, “ओ भरावो, डिप्टी कमिश्नर से मिलो। पानी भी न पियो, डिप्टी कमिश्नर से मिलो। यहीं से उठकर कुछ लोग उसके पास चले जाओ। मैं भी साथ चलने के लिए तैयार हूँ।..."

अन्त में यही तय पाया कि मन्त्रीजी पीछे रुक जाएँ, तेल और कोयला और लाठियों से सम्बन्धित निर्णयों के बारे में घर-घर चपरासी भेजकर सदस्यों को सूचित करें, अन्य संगठनों से सम्पर्क स्थापित करें, चौकीदारों के लिए गोरखों का प्रबन्ध करें, शिवालेवाले घड़ियाल की मरम्मत के लिए सनातन धर्म सभा के मन्त्रीजी से बात करें, युवक सभा को चौकस करें, जबकि अन्तरंग-सभा की बैठक में भाग लेनेवाले अन्य सभी सज्जन उसी वक़्त ताँगों पर बैठकर डिप्टी कमिश्नर के बँगले की ओर रवाना हो जाएँ-वानप्रस्थीजी को छोड़कर, क्योंकि आध्यात्मिक उपदेश देनेवाले, और सफ़ेद बाना पहननेवाले वानप्रस्थी का यह काम नहीं है कि दुनियावी बखेड़ों में गृहस्थियों के पास घिसटते फिरें।

घर पर पहुँचे तो दानवीर प्रधानजी को पता चला कि बेटा घर पर नहीं है। उनका माथा ठनका कि कहीं अभी से उस आँधी की लपेट में तो नहीं आ गया है जो इस शहर में उठनेवाली है।

जिस समय वह घर की ओर लौट रहे थे, उसी समय रणवीर अखाड़ासंचालक मास्टर देवव्रत के पीछे-पीछे शहर की तंग गलियों में से एक गली के बाद दूसरी गली पार करता हुआ चला जा रहा था। मास्टर देवव्रत के बोझिल बूटों की टाप गलियों की दीवारों के साथ टकरा-टकराकर गूंज रही थी। और उनके पीछे-पीछे चलते हुए पन्द्रह साल के तरुण रणवीर के दिल में उमंगें लहरों की तरह उठ रही थीं और रोम-रोम पुलक रहा था। आज उसकी परीक्षा होगी और यदि वह परीक्षा में खरा उतरा तो उसे दीक्षा मिलेगी।

शहर की कोई गली सीधी नहीं थी। एक गली थोड़ी दूरी तक सीधी चलती, फिर कुछ गज की ही दूरी पर एक ओर टेढ़ी गली उसमें आ मिलती थी। दोनों ओर के इकहरे मकान उस पर झुके पड़ते थे, लगता, उन्हीं के बोझ से गली टेढ़ी हो गई है। कभी-कभी लगता अन्धी गली में पहुंच गए हैं, आगे चलकर गली बन्द मिलेगी। पर ऐन अन्त तक पहुँचने पर एक सँकरा-सा रास्ता बाईं या दाईं ओर को निकल गया होता। देवव्रत के पटपटाते बूट सभी गलियों को पहचानते थे।

रणवीर उम्र में छोटा था, इसी कारण उसकी आँखों में अभी भी कुतूहल और सरल विश्वास झलकते थे, उसमें वह संजीदगी नहीं थी जो विशिष्ट परीक्षण के लिए जरूरी है। पर संजीदगी न सही, उत्साह तो था, मास्टरजी के आदेश पर मर मिटने की क्षमता तो थी, दृढ़ संकल्प तो था।

रणवीर, जब इससे भी छोटा था तो मन्त्रमुग्ध-सा मास्टरजी के मुँह से वीरों की कहानियाँ सुना करता था जब राणा प्रताप की आधी बची हुई रोटी बिल्ली खा गई थी और उन्हें पहली बार अपनी निःसहाय स्थिति का बोध हुआ था। शहर के आस-पास के पहाड़ों को देखता तो उन पर उरो कभी चेतक घोड़ा दौड़ता नज़र आता, कभी किसी चट्टान पर घोड़े की पीठ पर बैठे शिवाजी नज़र आते, दूर तुर्कों के लश्करों की ओर देखते हुए, जब शिवाजी म्लेच्छ सरदार से बगलगीर हुए थे। मास्टरजी ने ही रस्सी में तरह-तरह की गाँठें लगाना सिखाया था, मकान की दीवार फांदकर ऊपर चढ़ना, अग्निबाण और मेघबाण के गुण बताए थे।

"हवा में छोड़ा हुआ अग्निबाण आगे बढ़ता है, उसकी नोक घर्षण के कारण चमकती है, उसमें से अंगारे फूटते हैं। महाभारत के युद्ध में ऐसा ही अग्निबाण छोड़ा गया था। हवा को काटता चला जा रहा था। फिर वह कौरवों के एक योद्धा की ढाल से जा लगा, ढाल में से अंगारे फूटने लगे। पर तीर फिर भी आगे बढ़ता गया। अग्निबाण की यही विशेषता है, वह गिरता नहीं। वह बाण घूमता है, समस्त रणभूमि में घूमता है, घूमता है और चारों ओर से आग की लपटें उठने लगती हैं। कहीं किसी योद्धा के मुकुट को छू लिया, वहाँ आग की लपट निकलने लगी; किसी रथ के छत्र से जा लगा, छत्र जलने लगा। चारों ओर घूमता हुआ बाण उस समय तक घूमता रहता है जब तक धू-धू करके चारों ओर आग नहीं जलने लगती है। फिर बाण लौट आता है, शत्रु की छावनी को जलाकर विजयी सैनिक की भाँति, उसमें से प्रकाश फूट रहा होता है, देखते ही आँखें चुंधिया जाती हैं, हवा को चीरता हुआ आता है, लगता है हवा को आग लगाता जा रहा है..."

मास्टरजी के ही मुँह से उसने सुना था कि वेद में सब लिखा है, विमान बनाने का ढंग, बम बनाने का ढंग। उन्हीं के मुँह से योगशक्ति की महिमा भी सुनी थी। "जिस मनुष्य में योगशक्ति है वह सब कुछ कर सकता है। हिमालय की तलहटी पर एक योगीराज योग साधना कर रहे थे। उन्हें सिद्धि प्राप्त थी। एक दिन जब वह समाधि में थे तो एक म्लेच्छ उनकी समाधि भंग करने के लिए वहाँ जा पहुँचा। म्लेच्छ तो गन्दे लोग होते हैं, म्लेच्छ नहाते नहीं, पाखाना करके हाथ नहीं धोते, एक-दूसरे का झूठा खा लेते हैं, समय पर शौच नहीं जाते, तो वह गन्दा म्लेच्छ योगीजी के सामने खड़ा उन्हें घूरता रहा। उसकी कलुषित छाया पड़ने की देर थी कि योगीजी ने अपने नेत्र खोले, आँखों में से ऐसी दैवी ज्योति निकली कि म्लेच्छ वहीं खड़ा-खड़ा भस्म हो गया।..."

रणवीर की आँखों के सामने बार-बार म्लेच्छ घूम जाते थे। पड़ोस में सड़क के किनारे बैठा मोची म्लेच्छ है, घर के सामने टाँगा हाँकनेवाला गाड़ीवान म्लेच्छ है, मेरी ही कक्षा में पढ़नेवाला हमीद म्लेच्छ है, गली में मंजीफा माँगनेवाला फकीर म्लेच्छ है। पड़ोस में रहनेवाला परिवार म्लेच्छों का है। वैसा ही कोई म्लेच्छ योगीराज की साधना भंग करने हिमालय पर जा पहुँचा होगा। आज अपने आठ साथियों में से अकेले रणवीर को दीक्षा के लिए चुना गया था। देवव्रतजी से सभी को डर लगता था। वह ख़ाकी निक्कर के नीचे काले रंग के डबल बूट पहनते थे, और कड़कड़ी आवाज़ में बोलते थे, और किसी को भी किसी समय धुन सकते थे। पर यह परीक्षण गुप्त था, केवल दीक्षित युवक ही इसके बारे में कुछ जानते थे, और वे कभी भी इसके रहस्य नहीं बतलाते थे।

गलियाँ उजड़ी हुई-सी लगती थीं। एक जगह रणवीर को लगा जैसे कुछ दूरी पर गली अन्धकार के घने पुंज में खो गई है। परन्तु पास पहुँचने पर पता चला कि किसी घर की दीवार टूटी हुई थी और खप्पे में से अँधेरा झाँक रहा था।

एक जगह देवव्रतजी के क़दम रुक गए। रणवीर का दिल अभी भी उत्साह और उमंग से बल्लियों उछल रहा था। हालाँकि इस निर्जन गली में पहुँचकर वह कुछ सहम-सा गया था। लम्बी दीवार में एक धूसर-सा दरवाज़ा था, जो भिड़ा हुआ था। मास्टरजी ने हाथ बढ़ाकर दरवाज़े को धकेलकर खोल दिया।

सामने एक चौड़ा-सा आँगन था जिसके पार एक कोठरी के दरवाज़े पर टाट का पर्दा लटक रहा था। आँगन में बाईं ओर ईंटों, पत्थरों का ढेर लगा था। रणवीर को यह जगह बड़ी बीहड़-सी लगी।

आँगन पार करके मास्टरजी ने कोठरी के दरवाजे को थपथपाया। अन्दर कोई बँखारा, फिर किसी के क़दमों की आहट सुनाई दी।

“मैं हूँ देवव्रत।"

दरवाज़ा खुला। सामने स्कूल का बूढ़ा गोरखा चौकीदार खड़ा था। दरवाज़ा खोलते ही उसने हाथ बाँध दिए।

कोठरी के अन्दर अँधेरा था। उसमें एक ओर खाट बिछी थी और उस पर मैली-सी दरी बिछी थी। दाईं ओर दीवार के सहारे एक लाठी रखी थी। पास ही एक चिलम उल्टी रखी थी। दीवार में झूटी से चौकीदार का खाकी रंग का लम्बा गरम कोट टँगा था और उसी के ऊपर, उसी झूटी के सहारे काले रंग की म्यान में बन्द किरच लटक रही थी।

इतने में बाईं ओर से मुर्गियों के कुड़कुड़ाने की आवाज़ आई। रणवीर ने गर्दन घुमाकर देखा। एक बड़ी-सी टोकरी में पाँच-छह सफेद रंग की मुर्गियाँ बन्द थीं।

रणवीर को बाजू से पकड़कर मास्टरजी पिछले आँगन में ले आए। यह आँगन छोटा था और दूसरी ओर साथवाले मकान की ऊँची दीवार खड़ी थी। गोरखा एक हाथ में एक मुर्गी उठाए दूसरे हाथ में छुरा लिये उनके पीछे-पीछे चला आया।

"इधर दीवार के पास बैठ जाओ रणवीर, और इस मुर्गी को काटो। दीक्षा से पहले तुहें अपनी मानसिक दृढ़ता का परिचय देना होगा।"

उन्होंने रणवीर को बाजू से पकड़ा और उसे आगे ले आए, “आर्य युवकों के लिए मनसा वाचा कर्मणा तीनों प्रकार की दृढ़ता की ज़रूरत है। छुरी हाथ में लो और उधर बैठ जाओ।"

रणवीर को लगा जैसे सहसा चारों ओर भयानक चुप्पी छा गई है, भयानक सन्नाटा। दाईं ओर टूटी ईंटों का ढेर था जिस पर जगह-जगह मुर्गियों के पंख बिखरे पड़े थे। ढेर के पास नीचे पत्थर की एक सिल थी जो मुर्गियों के खून से काली पड़ गई थी।

"इधर बैठ जाओ। मुर्गी का एक पैर अपने दाएँ पैर के नीचे दबा लो।"

रणवीर के हाथ में छुरा देते हुए उन्होंने मुर्गी के दोनों पंख पकड़कर एक-दूसरे में खोंस दिए। एक पंख के नीचे दूसरा पंख खोंसा, फिर ऊपरवाले पंख को मरोड़कर पहले पंख के नीचे दे दिया। मुर्गी ज़ोर से कुड़कुड़ाई। पर पंख बँध जाने से उसका फड़फड़ाना बन्द हो गया।

"लो पकड़ो।" मास्टरजी ने कहा और रणवीर के पास बैठ गए। “अब चलाओ छुरी।"

पर रणवीर के माथे पर पसीना आ गया और उसका चेहरा बुरी तरह से पीला पड़ गया था। मास्टरजी समझ गए कि उसे मतली आनेवाली है।

"रणवीर!" उन्होंने चिल्लाकर कहा और एक सीधा थप्पड़ उसके गाल पर दे मारा। रणवीर दोहरा होकर ज़मीन पर आ गिरा। उसका सिर बुरी तरह से चकरा रहा था। गोरखा अभी भी उसके पीछे खड़ा था। रणवीर को रुलाई आ रही थी और वह बुरी तरह से व्याकुल हो उठा था। लेकिन थप्पड़ खाने से उसकी मतली बहुत कुछ जाती रही थी।

"उठो, रणवीर।" मास्टरजी ने डपटकर कहा।

रणवीर उठा और बोझिल, त्रस्त आँखों से मास्टरजी की ओर देखने लगा।

"इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं है। लो, मैं तुम्हें दिखाता हूँ।"

और उन्होंने मुर्गी का पैर अपने दाएँ बूट के नीचे दबाया। मुर्गी की आँखें पहले से मुँदने लगी थीं। मास्टरजी ने उसका गला अपने बाएँ हाथ में लिया और छुरी को केवल एक ही बार उसके गले पर फेर दिया। खून की धार फूट पड़ी। कुछ बूंदें मास्टरजी के बाएँ हाथ पर भी पड़ीं। पर मास्टरजी ने मुर्गी को छोड़ा नहीं। मुर्गी का सिर तो अलग होकर उनके बूट के पास ही पड़ा था लेकिन मास्टरजी बाएँ हाथ से उसकी गर्दन की नली को नीचे की ओर दबाए रहे। सफ़ेद-सी नली बाहर आने के लिए उछल रही थी जिसे मास्टरजी अपने बाएँ हाथ के अंगूठे से दबाए हुए थे। मुर्गी का सारा शरीर काँप रहा था। मास्टरजी ज़ोर से नली को दबाए रहे और कुछ ही देर के बाद मुर्गी का बदन स्थिर हो गया, और खून से सने मुट्ठी-भर पंख रणवीर के सामने पड़े रह गए। मास्टरजी ने मुर्गी को एक ओर फेंक दिया और उठकर खड़े हो गए।

"अन्दर से एक और मुर्गी ले आओ।" उन्होंने गोरखा से कहा।

तभी उन्होंने देखा कि रणवीर ने वहीं बैठे-बैठे कै कर दी है और दोनों हाथों से अपना सिर पकड़े बैठा हाँफ रहा है। मास्टरजी का मन हुआ कि एक थप्पड़ रसीद कर दें, पर चुप खड़े रहे। थोड़ी देर तक चुपचाप खड़े रहने के बाद धीमी आवाज़ में बोले, “एक और अवसर तुम्हें दिया जाता है। जो युवक एक मुर्गी को नहीं मार सकता वह शत्रु को कैसे मार सकता है।"

थोड़ी देर तक हाँफते रहने के बाद रणवीर थोड़ा हल्का महसूस करने लगा। पेट में जो अकुलाहट पैदा हुई थी वह धीरे-धीरे शान्त होने लगी।

“पाँच मिनट तुम्हें और दिए जाते हैं। इस बीच भी अगर तुम इसे नहीं काट पाए तो तुम्हें दीक्षा नहीं दी जाएगी।"

और मास्टरजी घूमकर कोठरी के अन्दर चले गए।

पाँच मिनट बाद जब देवव्रतजी कोठरी में से निकलकर आए तो एक मुर्गी दीवार के पास छटपटा रही थी और खून के छींटे उड़ रहे थे। रणवीर अपना दायाँ हाथ घुटनों के बीच दबाए बैठा था, जिसे देखकर मास्टरजी समझ गए कि मुर्गी ने हाथ पर चोंच मारी है और रणवीर केवल उसे ज़ख्मी कर पाया है, उसकी गर्दन पूरी तरह से काट नहीं पाया। रणवीर बड़ी कठिनाई से मुर्गी को दबोच पाया था और जैसे-तैसे उसकी हिलती गर्दन पर ही छुरा चला दिया था। और फिर खून निकलता देखकर ही रणवीर ने उसे छोड़ दिया था।

मुर्गी बार-बार ज़मीन पर से उछल रही थी। एक-एक गज़ ऊँची उछलती और नीचे गिरने पर उसके पंख और भी बिखर-से जाते और गर्दन में से रिसते खून से ज़मीन पर एक और चित्ता पड़ जाता था। और मुर्गी फिर से उछलती। और खून के छींटे उड़ने लगते।

पर रणवीर परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया था!

"उठो रणवीर!" मास्टरजी ने कहा, और पास आने पर रणवीर की पीठ थपथपा दी। "शाबाश! तुममें दृढ़ता है, संकल्प-शक्ति है, भले ही हाथ में ताक़त अधिक नहीं है। तुम दीक्षा के अधिकारी हो।" कहते हुए मास्टरजी ज़मीन की ओर झुके और पत्थर की सिल पर पड़े खून से अपनी उँगली भिगोकर रणवीर के माथे पर खून का टीका लगा दिया।

रणवीर अभी भी बेसुध-सा खड़ा था, उसका सिर अभी भी चकरा रहा था, लेकिन अर्द्ध-चेतन में भी मास्टरजी का वाक्य सुनकर उसे सन्तोष हुआ।

अन्य सभी चीज़ों का प्रबन्ध कर लिया गया था। पर युवकों को तेल उबालने के लिए बड़ी कड़ाही नहीं मिल रही थी। खिड़की के दासे पर तीन चाकू, एक छुरा, एक छोटी-सी किरपान साथ-साथ जोड़कर रख दिए गए थे। कमरे के एक कोने में दस लाठियाँ रखी थीं जिनके सिर पर पीतल की मूठ और नीचे मेखें गाड़ दी गई थीं। दीवार के साथ, एक के साथ एक तीन तीर-कमान लटक रहे थे। बोधराज लेटकर बाण चला सकता था, शब्दबेधी बाण चला सकता था, शीशे में अक्स देखकर बाण चला सकता था, लटकती रस्सी को निशाना बना सकता था। बाणों के सिर पर लगाने के लिए वह धातु की तिकोन नोकें बनवा लाया था और अपने साथियों से उनकी सम्भावनाएँ बयान करता रहा था, “इसकी नोक पर संखिया रगड़ दें तो यह विषवाण बन जाएगा; इसके आगे मुश्क काफूर लगा दें तो अग्निबाण बन जाएगा, जहाँ चोट करेगा वहीं आग निकलेगी, नीला थोथा लगा दें तो बाण जहाँ लगेगा वहीं उसमें से ज़हरीली गैस निकलेगी।

धर्मदेव कहीं से खाली कारतूसों की पेटी उठा लाया था, उसे भी दीवार पर लटका दिया गया था, ताकि सभी ओर से शस्त्रास्त्रों का आभास मिलता रहे। रणवीर ने कमरे के अन्दर ही दरवाजे के ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में 'शस्त्रागार' शब्द लिख दिया था।

पर वानप्रस्थीजी ने तेल के विषय में जो आदेश भेजा था उसे अभी तक कार्यान्वित नहीं किया जा सका था। युवक संघ के सदस्यों में से किसी के भी घर में इतनी बड़ी कड़ाही नहीं थी जिसमें पूरा एक कनस्तर तेल उबाला जा सके। यों तेल का कनस्तर मुहय्या कर लिया गया था जो एक ओर दीवार के साथ रखा था। इसके लिए सभी युवकों ने चार-चार आने जमा किए थे और बाकी कुछ पैसे बाद में अदा करने का वचन देकर कनस्तर पंसारी की दूकान से उठा लाए थे। तेल की कड़ाही मन्दिर में भी नहीं थी जहाँ आए दिन सहभोज हुआ करते थे।

तभी संगठन के नायक, बोधराज को एक विचार सूझा, कड़ाही हलवाई की दूकान पर से लाई जा सकती है।

“पर उसकी दूकान पर ताला चढ़ा है।"

"हलवाई रहता कहाँ पर है?"

"नए मुहल्ले में रहता है।"

"किसी ने उसका घर देखा है?"

बोधराज ने स्वयं देखा था लेकिन वह नायक की हैसियत से इस समय यह छोटा काम अपने ऊपर नहीं लेना चाहता था।

तभी रणवीर ने आगे बढ़कर कहा, “दूकान का ताला तोड़ दो।"

युवकों के बदन में झुरझुरी हुई, परन्तु सुझाव समय के अनुरूप था।

नायक कुछ देर तक छत की ओर ताक़ता खड़ा रहा। गुट का संचालन बड़ी जिम्मेदारी का काम है, ताला तोड़ते हुए युवक पकड़ा नहीं जाना चाहिए। किसी की नज़र उस पर नहीं पड़नी चाहिए। नायक कमसरीट के नाबू मस्तराम का बेटा था और स्थानीय कालिज में फ़र्स्ट इअर में पढ़ता था। मंडली में यही एक युवक था जो दो जेबोंवाली फौज़ी कमीज़ पहनता था।

“हाँ, ताला तोड़ दो। मगर यह काम छिपकर करना होगा। कौन ताला तोड़ने जाएगा?"

"मैं जाऊँगा।" रणवीर ने आगे बढ़कर कहा। नायक ने रणवीर को सिर से पाँव तक देखा, और सिर हिला दिया।

"तुम्हारा क़द छोटा है, ताला ऊपर को लगा होगा तो तुम्हारा हाथ भी नहीं पहुँचेगा।"

"नहीं, ताला नीचे लगा है, मैंने देखा है। मैंने कई बार देखा है।"

रणवीर बहुत बढ़-बढ़कर बात करता था, नायक को अखरता था। पर लड़का चुस्त भी था, बहुत तेज़ दौड़ता था, हर काम फुर्ती से करता था। इसमें अनुशासन की कमी थी।

नायक मन ही मन जानता था कि रणवीर जैसे भी होगा कड़ाही ले आएगा, लेकिन वह लापरवाही बरत सकता है, कहीं कोई भूल भी कर सकता है, जिससे मंडली के लिए खतरा पैदा हो सकता है।

“तुम और धर्मदेव दोनों जाओ।" नायक ने अपना निर्णय दिया, "लेकिन ध्यान रहे किसी को पता न चल पाए कि तुम ताला तोड़कर कड़ाही लाए हो। और उस वक़्त जाओ जब सड़क खाली हो और दोनों एक साथ नहीं जाओ, अलग-अलग जाओ।"

चौराहा पार करने पर ही नाले के पार बाईं ओर हलवाई की दूकान थी। दूकान के पीछे ही रणवीर को कुछ हिलता नज़र आया, उसे हलवाई की सफ़ेद पगड़ी नज़र आई। तो इसका मतलब है हलवाई आ गया है और दूकान खोलने जा रहा है। पर हलवाई वहीं पर दूकान के पीछे डोल रहा था। क्या बात है, हलवाई वहाँ पर खड़ा क्या कर रहा है? क्या यह हलवाई ही है या कोई और आदमी? कोई म्लेच्छ उसकी दूकान लूटने तो नहीं चला आया? रणवीर ने ध्यान से देखा। हलवाई ही था, अपनी दूकान का पिछला दरवाज़ा खोल रहा था।

सड़क ख़ाली थी। इस समय सड़क यों भी खाली रहती थी, कोई इक्का-दुक्का खोमचेवाला आ जाए तो आ जाए, या कभी इक्का-दुक्का ताँगा। इस सड़क पर केवल शाम के वक्त की रौनक होती थी।

दोनों युवक, बारी-बारी से सड़क पार कर गए।

"तुम उसे बातों में लगा लेना, मैं अन्दर से कड़ाही उठा लाऊँगा," रणवीर ने कहा।

"इसकी ज़रूरत ही नहीं होगी। वह हमारा हिन्दू भाई है, अपने आप दे देगा।"

“मैं उससे कड़ाही माँगूंगा, तु नहीं माँगना।"

"चल-बे-चल, बौने, तू अपने को समझता क्या है?"

पीछे की ओर से दोनों युवक दूकान की ओर बढ़े। दूकान का दरवाज़ा खुला था पर हलवाई बाहर नहीं खड़ा था। वह ज़रूर अन्दर चला गया होगा।

सड़क के किनारे रहते हुए भी दूकान के अन्दर अँधेरा था। तेल और घी और मैल से चीकट तख्तों पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। दूकान के अन्दर से समोसों की बू आ रही थी। रणवीर ने अन्दर से झाँककर देखा।

"क्या है?" अन्दर से आवाज़ आई। “आज दूकान बन्द है।"

दोनों युवक अन्दर दाखिल हो गए। एक ओर को खड़ा हलवाई मैदे का टीन बोरी में उँडेल रहा था। दरवाज़े के बाहर सहसा किसी का चेहरा देखकर ठिठक गया था।

“आओ-आओ।" हलवाई ने मुस्कराकर कहा। “आज कुछ भी नहीं बनाया। मैंने सोचा थोड़ी रसद निकालकर घर लेता जाऊँ। शहर की हवा अच्छी नहीं है। बेटा तुम्हें भी घर बैठना चाहिए। बाहर नहीं घूमना चाहिए।"

"उठा लो वह कड़ाही।" रणवीर ने धर्मदेव को हुक्म दिया।

धर्मदेव पिछली दीवार के साथ लगी कड़ाहियों की ओर बढ़ा।

“जाति की रक्षा के लिए कड़ाही ले जाई जा रही है। संकट समाप्त होने पर लौटा दी जाएगी।" बात हलवाई की समझ में नहीं आई।

“क्या बात है? कौन हो तुम? किसलिए कड़ाही की ज़रूरत पड़ गई है? क्या कोई शादी-ब्याह है?"

पर दोनों में से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया।

“बीचवाली कड़ाही उठा लो। वह सामने रखी है।" रणवीर ने फिर कहा।

"ठहरो-ठहरो, बताओ तो बात क्या है? किधर ले जा रहे हो कड़ाही?"

"बाद में पता चल जाएगा। उठाओ जी कड़ाही।"

“वाह, ऐसे भी कोई करता है। न पूछा न माँगा, अपने-आप कड़ाही उठा ली। पहले बताओ बात क्या है, कौन हो तुम?"

तभी रणवीर ने अपने कुर्ते की जेब में हाथ डाला, और फिर चिल्लाकर बोला, “तुम नहीं दोगे कड़ाही?" और वह उछला।

पेश्तर इसके कि हलवाई कुछ कहे उसके दाएँ गाल पर खून की धार बह रही थी। एक बार उछलने के बाद रणवीर का हाथ फिर कुर्ते की जेब में चला गया था। हलवाई दोनों हाथों से चेहरा ढाँपे पैरों के बल ‘हाय-हाय' करता बैठ गया। खून की बूंदें बराबर उसके गाल पर गिर-गिरकर फर्श पर पड़ रही थीं।

"इस बात का किसी को पता न चले वरना क़त्ल कर दिए जाओगे।"

धर्मदेव कड़ाही उठाए नाला पार कर गया था। रणवीर थोड़ा ठिठककर उससे थोड़ी दूरी पर आने लगा था। रणवीर सोच रहा था मारना मुश्किल नहीं है। इसे मैं आसानी से क़त्ल कर सकता था। हाथ उठाया और बस! हाँ, लड़ना मुश्किल होता है। वह भी जब अगला आदमी मुकाबला करने के लिए खड़ा हो जाए। पर छुरा घोंपकर मार डालना आसान काम है, इसमें कोई मुश्किल नहीं।

घर की ड्योढ़ी में पहुँचकर धर्मदेव रुक गया।

"तुमने उसे मारा क्यों?" रणवीर के पहुँचने पर धर्मदेव ने पूछा।

“उसने हुज्जतबाज़ी क्यों की?"

पर धर्मदेव का गला सूख रहा था और ज़बान हकला रही थी, “अगर किसी ने देख लिया होता तो? अगर हलवाई चिल्लाना शुरू कर देता तो?" धर्मदेव ने थूक निगल पाने की व्यर्थ चेष्टा करते हुए कहा।

"हम किसी से डरते नहीं हैं। कर ले जो करना चाहता है। तुम भी कर लो जो करना चाहतो हो।"

रणीवर ने दबंग आवाज़ में कहा और सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

21
रचनाएँ
तमस
0.0
'तमस' की कथा परिधि में अप्रैल १९४७ के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है। 'तमस' कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षों की कथा हो जाती है। आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी होने के बावजूद इसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उदघाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं।
1

तमस भाग 1

9 अगस्त 2022
2
0
0

आले में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर बाद ब

2

भाग 2

9 अगस्त 2022
0
0
0

प्रभातफेरी में भाग लेने के लिए आरंभ में दो गिने-चुने लोग ही पहुँचते थे। बाद मे गलियाँ और बाज़ार लाँघते हुए जिस किसी का घर रास्ते में पड़ता वह तोंद खुजलाता, जम्हाइयाँ लेता साथ में शामिल हो जाता था। ह

3

भाग 3

9 अगस्त 2022
0
0
0

गली में क़दम रखते ही नत्थू ने चैन की साँस ली। गली में अँधेरा था जबकि सड़कों पर अँधेरा छटने लगा था। नत्थू जल्दी से जल्दी गलियों का जाल लाँघकर अपने डेरे पर पहुँच जाना चाहता था। उस बदबू-भरी कोठरी में से

4

भाग 4

9 अगस्त 2022
0
0
0

टीले के ऊपर पहुँचकर दोनों ने अपने घोड़े रोक लिये। सामने दूर तक चौड़ी घाटी फैली थी जो पहाड़ों के दामन तक चली गई थी। लगता दूर क्षितिज पर सतरंगी धूल उड़ रही है। विशाल मैदान, कहीं-कहीं छोटी-छोटी पहाड़ियाँ

5

भाग 5

9 अगस्त 2022
0
0
0

अँधेरा छटने लगा था जब प्रभातफेरी की मंडली गलियाँ लाँघती हुई "इमामदीन के मुहल्ले में पहुँची। रास्ते में शेरखान के घर से झाड़, बेलचे, कड़ाहियाँ और सफाई का अन्य सामान लेकर वे आगे बढ़ने लगे थे। सुबह की रो

6

भाग 6

9 अगस्त 2022
0
0
0

साप्ताहिक सत्संग की समाप्ति से पहले पुण्यात्मा वानप्रस्थीजी सदा की भाँति मन्त्रपाठ करने लगे। इस मन्त्रपाठ को वह सत्संग रूपी यज्ञ की 'अन्तिम आहुति' कहा करते थे। गिने-चुने इन विशिष्ट मन्त्रों तथा श्लोको

7

भाग 7

9 अगस्त 2022
0
0
0

दफ्तर में मिलने के बजाय आप लोग घर पर मिलने आए। ज़रूर कोई बहुत ही ज़रूरी काम रहा होगा।" रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा। चपरासी ने चिक उठा दी। नागरिकों के शिष्टमंडल के सदस्य एक-एक करके कमरे के अन्दर दाखिल हुए

8

भाग 8

9 अगस्त 2022
0
0
0

शहर में सब काम जैसे बँटे हुए थे : कपड़े की ज़्यादातर दूकानें हिन्दुओं की थीं, जूतों की मुसलमानों की, मोटरों-लारियों का सब काम मुसलमानों के हाथों में था, अनाज का काम हिन्दुओं के हाथ में। छोटे-छोटे काम

9

भाग 9

9 अगस्त 2022
0
0
0

'ऐसा 'बेवाका' घर है, कोई चीज़ एक बार कहीं रख दो, फिर मिलती ही नहीं, ढूंढ-ढूँढ़ मरो उसे।" लाला लक्ष्मीनारायण अलमारी के सामने खड़े बड़बड़ा रहे थे। अलमारी के निचले खाने में कपड़ों के नीचे उन्होंने एक नन्

10

भाग 10

9 अगस्त 2022
0
0
0

दिन के उजाले में शहर अधमरा-सा पड़ा था, मानो उसे साँप सूंघ गया हो। मंडी अभी भी जल रही थी, म्युनिसिपैलिटी के फायर ब्रिगेड ने उसके साथ जूझना कब का छोड़ दिया था। उसमें से उठनेवाले धुएँ से आसमान में कालिमा

11

भाग 11

9 अगस्त 2022
0
0
0

देवदत्त नहा-धोकर, हाथ मलता हुआ अपने घर के सामने आ खड़ा हुआ। जब कभी वह हाथ मलता हो, या दाएँ हाथ से मुँह और नाक सहलाता हुआ फिर से दोनों हाथ मलने लगे तो समझ लो देवदत्त अपनी कार्य-सूची तैयार कर रहा है। दे

12

भाग 12

9 अगस्त 2022
0
0
0

एक आदमी छज्जे पर पहरा दे।" रणवीर ने घूमकर कहा। मुर्गी काटकर दीक्षा पाने से उसमें भरपूर आत्म-विश्वास पैदा हो गया था। वह दल का सबसे चतुर, सबसे चुस्त और सबसे ज़्यादा कार्यकुशल सदस्य था। उसकी आवाज़ में कड

13

भाग 13

9 अगस्त 2022
0
0
0

नत्थू परेशान था। अपनी कोठरी के बाहर बैठा वह चिलम पर चिलम फूँके जा रहा था। जितना अधिक वह मार-काट की अफवाहों को सुनता, उतना ही अधिक उसका दिल बैठ जाता। बार-बार अपने मन को समझाता, मैं अन्तर्जामी तो नहीं ह

14

भाग 14

9 अगस्त 2022
0
0
0

पहली बस खानपुर से चलकर सुबह आठ बजे गाँव पहुँचती थी। वह नहीं आई। उसके बाद हर घंटे दो घंटे के बाद शहर की ओर से भी और खानपुर की ओर से भी बसें आती थीं। आज दोपहर हो गई, एक भी बस नहीं आई। चाय की दुकान में क

15

भाग 15

9 अगस्त 2022
0
0
0

गुरुद्वारा खचाखच भरा था और संगत मस्ती में झूम रही थी! बस अनमोल समय था। रागी पूरी तन्मयता से आँखें बन्द किए गा रहे थे : “तुम बिन कौन मेरे गोसाईं..." संगत में सबके हाथ जुड़े हुए, आँखें बन्द और सिर वजद

16

भाग 16

9 अगस्त 2022
0
0
0

हरनामसिंह ने दूसरी बार साँकल खटखटाई तो अन्दर से किसी स्त्री की एआवाज़ आई : "घर पर नहीं हैं, मर्द बाहर गए हैं।" हरनामसिंह ठिठका खड़ा रहा। बन्तो की आँखें दाएँ-बाएँ देख रही थीं कि आसपास उन्हें किसी ने

17

भाग 17

9 अगस्त 2022
0
0
0

इस बीच देहात की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर एक और नाटक खेला जा रहा २ था। रमज़ान और उसके साथी ढोक इलाहीबख्श और मुरादपुर की ओर से लूटपाट का सामान उठाए हँसते-बतियाते लौट रहे थे जब उन्हें दूर एक टीले के पास, एक भ

18

भाग 18

9 अगस्त 2022
0
0
0

तुर्क आए थे पर वे अपने ही पड़ोसवाले गाँव से आए थे। तुर्कों के ज़ेहन में भी यही था कि वे अपने पुराने दुश्मन सिखों पर हमला बोल रहे हैं और सिखों के जेहन में भी वे दो सौ साल पहले के तुर्क थे जिनके साथ खाल

19

भाग 19

9 अगस्त 2022
0
0
0

शहर की सड़क पर निकलते ही पता चल जाता था कि माहौल बदल गया है। मुहल्ला कुतुबदीन की मस्जिद के सामने, सड़क के पार चार हथियारबन्द फौज़ी कुर्सियाँ डाले बैठे थे। सड़क पर चलते हुए हर चौक पर दो-तीन फौजी बन्दूक

20

भाग 20

9 अगस्त 2022
0
0
0

हमें आँकड़े चाहिए, केवल आँकड़े! आप समझते क्यों नहीं? आप लम्बी हाँकने लगते हैं, सारी रामकहानी सुनाने लगते हैं, मुझे रामकहानी नहीं चाहिए, मुझे केवल आँकड़े चाहिए। कितने मरे, कितने घायल हुए, कितना माली नु

21

भाग 21

9 अगस्त 2022
0
0
0

अमन कमेटी की मीटिंग के लिए लोग हॉल में इकट्ठे हो रहे थे। यही एक जगह चुनी गई थी जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी, क्योंकि कालिज न हिन्दुओं का था, न मुसलमानो का, कालिज ईसाइयों का था, प्रिंसिपल भी ह

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए