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भाग 9

9 अगस्त 2022

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'ऐसा 'बेवाका' घर है, कोई चीज़ एक बार कहीं रख दो, फिर मिलती ही नहीं, ढूंढ-ढूँढ़ मरो उसे।" लाला लक्ष्मीनारायण अलमारी के सामने खड़े बड़बड़ा रहे थे। अलमारी के निचले खाने में कपड़ों के नीचे उन्होंने एक नन्ही-सी कुल्हाड़ी रख छोड़ी थी जो इस समय नहीं मिल रही थी। और उधर शहर में गड़बड़ शुरू हो गई थी। दो बार वह कोठरी में से बाहर घरवाली से पूछने जा चुके थे कि तुमने तो कुल्हाड़ी नहीं देखी, और दोनों ही बार पत्नी ने एक सवाल के दो जवाब दिए थे।

"देखो जी, दातून मैं नहीं करती जो मुझे कुल्हाड़ी से दातून के लिए कीकर काटनी हो, लकड़ियाँ मैं नहीं फाड़ती कि मुझे कुल्हाड़ी की ज़रूरत होगी, आप क्यों बार-बार मुझसे पूछते हैं?"

“अब पूछना भी गुनाह है, कुल्हाड़ी न मिले तो तुमसे न पूछूँ तो किससे पूछूँ?"

"देखो जी, क्यों परेशान होते हो, ऊपर भगवान् भी तो है, उसी के सहारे बैठे रहो। इस छोटी-सी कुल्हाड़ी से तुम किस-किसका बचाव करोगे?"

कुल्हाड़ी सचमुच छोटी-सी थी, पीले रंग के दस्ते पर लाल और हरे रंग के बेलबूटे बने हुए थे। लालाजी बच्चों को एक बार मेले पर ले गए थे और वहाँ से यह कुल्हाड़ी लेते आए थे। फिर कुछ दिन तक सुबह घूमते समय छड़ी की जगह इसे अपने साथ ले जाते रहे थे, और उन्होंने देखा कि इससे कीकर पर से दातून के लिए टहनी तोड़ी जा सकती है। चुनाँचे यह उसे अपने साथ रोज़ ले जाने लगे थे और घर में दातूनों का ढेर लगने लगा था। अपनी ज़रूरत तो उन्हें एक दातून की रहती थी पर टहनी तोड़ो और उसे तराशते हुए घर लौटो तो एक टहनी में से कितने ही दातून निकल आते थे। पत्नी बचे हुए दातूनों को कचरे की टोकरी में फेंकने जाती तो इन्हें बुरा लगता :

"ताज़ा दातून फेंकने जा रही हो? कुछ तो ध्यान किया करो।"

"देखो जी, ताज़ा हों या पुराने, ये किसी के मतलब के तो नहीं। अब इन्हें रख के क्या करोगे?"

"तुम खुद दातून किया करो।"

"मेरे दाँत हिलते हैं। तुम्हारे दातूनों की मेहरबानी से ही हिलने लगे हैं, पहले लोहे जैसे मज़बूत हुआ करते थे।" वह कहती और सीढ़ियों के पास रखी कचरे की बाल्टी की ओर जाने लगती।

"देख नेकबख्त, एक दिन और इन्हें पड़ा रहने दे। जब सूख जाएँगे तो मैं कुछ नहीं कहूँगा, पर हरे दातूनों को कौन फेंकता है?"

आज कुल्हाड़ी खो गई थी। कुल्हाड़ी के घर में रहते उन्हें सुरक्षा का भास रहता था। कुल्हाड़ी न रहने पर लगता, वह निहत्थे हो गए हैं। और घर में इसके अतिरिक्त कोई ऐसी चीज़ न थी जिसे हथियार का नाम दिया जा सके। कुछेक मसहरी के डंडे थे या फिर रसोई के चाकू। तेल के नाम पर केवल एक शीशी सरसों के तेल की थी और कोयला न के बराबर । वानप्रस्थीजी के प्रवचन के बावजूद लालाजी इन चीज़ों का कोई प्रबन्ध नहीं कर पाए थे। उन्हें मन-ही-मन विश्वास था कि सरकार फ़िसाद नहीं होने देगी। और अगर हो भी गया तो उसकी आँच बहुत जल्दी उन तक नहीं पहुंचेगी।

कुल्हाड़ी इस समय युवक संघ के 'शस्त्रागार' की शोभा बढ़ा रही थी। वह खिड़की के दासे पर रखी थी जहाँ रणवीर ने तीर कमानों के 'फल' एक के साथ एक सजाकर रखे थे।

"ऐसा 'बेवाका' घर है, अब मैं जाऊँ तो कहाँ जाऊँ?" वह फिर बड़बड़ाए।

“तूने कुल्हाड़ी देखी है, नानकू?" उन्होंने नौकर को बुलाकर पूछा। “यहीं पर थी पिताजी, पर मैंने नहीं देखी।"

"घर में थी तो अब पंख लगाकर उड़ गई? तू मुझे चराता है? तुझे भी नहीं मालूम, तो कहाँ गई कुल्हाड़ी?"

मैंने नहीं देखी, पिताजी।" नानकू दहलीज़ पर खड़ा था।

अन्तरंग सभा की मीटिंग में उसी रोज़ प्रातः जब शहर की स्थिति पर बहस हो रही थी तो उन्हें हिन्दू-जाति की सामूहिक रक्षा का ख्याल बार-बार आता रहा था। 'लड़कों को लाठी चलाना सिखाओ, इस काम में एक दिन की भी देरी नहीं करो। मैं इस काम के लिए पाँच सौ रुपए दूंगा।' लालाजी ने कहा था और देखते-ही-देखते उनकी प्रेरणा से अढ़ाई हज़ार रुपए इकट्ठे हो गए थे। पर उस समय उन्हें शत्रु से लोहा लेने, उसे नीचा दिखाने की धुन थी, अपने को वह सुरक्षित समझते थे। और वास्तव में वह थे भी सुरक्षित। पैसेवाले जाने-माने व्यक्ति थे, ऊँचे मकान में रहते थे, किसका हाथ उन पर उठ सकता था? आसपास मुसलमान लोग रहते थे लेकिन सभी छोटे तबके के थे। शहर के अनेक मुसलमान व्यापारियों के साथ लालाजी व्यापार करते थे। उनके साथ भी रखरखाव था। फिर डर किस बात का था। पर आग लग जाने पर शहर का माहौल बदल गया था, और सब कुछ जानते समझते हुए भी उनका दिल डूबने लगा था।

“सुनती हो? मुझे लगता है, होनहार कुल्हाड़ी को युवक समाज में दे आया है।"

"तुम जानो और तुम्हारा बेटा जाने। मुझे तो तुम लोग बेवकूफ समझते हो। मैं तुम्हारी बातों में पडूं ही क्यों?"

"तुम्हें कुछ कहकर गया है?"

"कौन?"

"कौन क्या? रणवीर और कौन?"

“मुझे कुछ नहीं कह गया। तुम्हारे ही उपदेश दिन-भर सुनता रहता है, अब मैं क्या जानूँ कहाँ गया है। इस परलो की रात में बेटा घर पर नहीं है।"

लालाजी हाथ झटककर फिर कोठरी की ओर घूम गए। पर अब कोठरी में जाने में क्या तुक थी। कुल्हाड़ी तो वहाँ पर थी नहीं। उन्होंने कोठरी के कोने में रखे मसहरी के डंडे उठाए और बाहर आ गए। एक डंडा उन्होंने नानक को दिया और उससे कहा कि हाथ में लेकर नीचे दरवाज़े के पास जाकर बैठ जाए। दूसरा डंडा उन्होंने उस जगह दीवार के साथ टिकाकर रख दिया जहाँ उनकी पत्नी जवान बेटी के साथ खाट पर बैठी थी। एक डंडा उन्होंने अपने हाथ में ले लिया। थोड़ी देर उसे हाथ में लिये खड़े रहे, फिर अटपटा-सा महसूस करने लगे और उसे भी दीवार के साथ खड़ा कर दिया। फिर सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर चले गए जहाँ पर घर का शौचालय बना हुआ था।

पिछली बार फ़िसाद भड़का था तो केवल मंडी में आग ही लगी थी, मार-काट नहीं हुई थी। अबकी बार हवा में ज़हर ज़्यादा था, लोग भड़के हुए थे। अन्तरंग सभा की मीटिंग तक तो लालाजी स्वयं भी भड़के हुए थे।

आग पहले से ज़्यादा फैल चुकी थी। उत्तर-पश्चिम की ओर आकाश लाल हो रहा था। इसी लाली में से कौंधती हुई आग की लपटें किसी महानाग की जीभ की तरह लपलपा रही थीं। आग इस वक़्त उत्तर की दिशा में धीरे-धीरे फैल रही थी, वैसे ही जैसे दसहरे पर लंका जलती है, और बराबर तेज़ हो रही थी। नीचे की ओर आग के बवंडर से घुमड़ते हुए नज़र आते गठरियों जैसे, फिर सहसा उनमें से नाचते हुए आग के शोले सीधे आसमान की तरफ लपकते। आकाश में लालिमा का पुट बढ़ने लगा था। किसी-किसी वक़्त लाल धूल का एक बादल-सा ऊपर को उठता और फिर छितरा जाता, लाल से धुएँ में बदलकर आकाश में बिखर जाता। तारे फीके पड़ चुके थे। क्षितिज के कुछ ऊपर तक का भाग गहरा लाल था पर उसके ऊपर लाली में पीलिमा घुलती जा रही थी। धुएँ का रंग भी जैसे सफ़ेद पड़ता जा रहा था। किसी-किसी वक़्त आग का कोई बवंडर सीधा ऊपर को उठता हुआ दूर तक आकाश में चला जाता, जैसे एक बादल में से दूसरा बादल निकल रहा हो, घुमड़-घुमड़कर आगे बढ़ता जा रहा हो।

शौचालय में से निकलकर लालाजी छत की मुँडेर के पीछे खड़े हो गए। दहकते आकाश की पृष्ठभूमि में मकानों की छतों पर खड़े लोगों की आकृतियाँ अधिक स्पष्ट नज़र आने लगी थीं। सभी आग की ओर देख रहे थे। दूर तक फैले शहर के घरों के मुँडेर, बरसातियों के चौकोर ढाँचे एक तसवीर की तरह उघड़ आए थे। लालाजी का गोदाम बड़ा बाज़ार की एक गली में था जो मंडी से थोड़ा हटकर उत्तर-दक्षिण की ओर पड़ता था। उन्हें यह देखकर सन्तोष हुआ कि वहाँ पर अभी अँधेरा है, आग उस ओर को नहीं फैल रही थी।

मुँडेर पर से लालाजी ने झाँककर नीचे देखा तो पड़ोसवालों की छत पर तीन आदमी खड़े थे। तीनों का मुँह आग की ओर था। फतहदीन और उसका भाई और उनका बूढ़ा बाप खड़े थे। फतहदीन की नज़र आसमान की लाली को देखती हुई पिछवाड़े की ओर मुड़ गई तो उसे लालाजी खड़े नज़र आए।

"कैसा कहर टूटा है बाबूजी उफ्फो! कैसी बुरी आग लगी है।" उसने कहा।

लालाजी ने कोई जवाब नहीं दिया। पर पर फतहदीन ने आश्वासन के लहजे में कहा, "बेखबर रहो बाबूजी, आपके घर की तरफ़ कोई आँख उठाकर भी नहीं देख सकता। पहले हम पर कोई हाथ उठाएगा, फिर आप पर उठने देंगे।"

"क्यों नहीं, क्यों नहीं, पड़ोसी तो इनसान के बाजू होते हैं, और फिर आप जैसे पड़ोसी!"

“आप बेफ़िक्र रहें, ये फ़सादी लोग फ़साद करते हैं, शरीफों को परेशान करते हैं। यहाँ सभी को एक ही शहर में रहना है, फिर लड़ाई-झगड़ा किस बात का? क्यों बाबूजी?"

"बेशक-बेशक!"

लालाजी को फतहदीन की बात पर विश्वास था भी और नहीं भी था। बीस बरस यहाँ रहते हो गए थे, इन लोगों से उन्हें कभी शिकायत नहीं हुई थी, पर आखिर थे तो मुसलमान । यों डरने की ऐसी कोई बात नहीं थी। अगर किसी ने मेरे घर को आग लगाई तो मेरा तो केवल एक घर जलेगा, मुसलमानों का सारा मुहल्ला जलेगा। फिर सुबह हयातबख्श ने, जो मुस्लिम लीग का प्रधान था, यकीन दिलाया था कि उसके रहते कोई उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। गोदाम के बारे में भी उन्हें विशेष चिन्ता नहीं थी। गोदाम के सारे माल का बीमा हो चुका था। फिर भी हालत बिगड़ते देर नहीं लगती और इन 'मुसल्लों' का एतवार नहीं किया जा सकता।

उन्हें चिन्ता थी तो केवल रणवीर की जो इस वक़्त घर नहीं था। जोशीला लड़का है, कहीं कोई भूल नहीं कर बैठे। यों तो मास्टर देवव्रत ने ही उसे गड़बड़ देखकर रोक लिया होगा। शाम के वक्त रणवीर का एक मित्र कह भी गया था कि सभी लड़के मास्टर जी के पास हैं। पर क्या मालूम उसने मंडी का रुख कर दिया हो?

तभी उनके कानों में घड़ियाल की आवाज़ आई। सुनकर उन्हें सन्तोष हुआ। अन्तरंग सभा की बैठक में उन्हीं ने सुझाव दिया था कि ख़तरे की घंटी को ठीक करवा लिया जाए और उसमें नई रस्सी डलवा ली जाए। उन्हें यह देखकर खुशी हुई कि उनके सुझाव को अमली जामा पहना दिया गया है। पर दूसरे ही क्षण आग के इन बवंडरों के बीच घड़ियाल का बजना उन्हें बेमानी और निरर्थक-सा लगा।

इधर ख़तरे की घंटी बज रही है, उधर मंडी जल रही है, हिन्दुओं का लाखों का नुकसान हो रहा है। हम हिन्दुओं को इसी चीज़ ने मारा है, और किसने मारा है...वह बड़बड़ाए।

वह पीठ पीछे दोनों हाथ बाँधे टहल रहे थे और बड़बड़ाते जा रहे थे। किसी-किसी वक़्त उनका दिल डूबने लगता। घर में जवान बेटी थी, अगर इस तरफ़ गड़बड़ हो गई तो मैं इन्हें कहाँ सँभालूँगा। और न जाने रणवीर कहाँ घूम रहा है।

"बड़ा 'बेवाका' लड़का है, किसी की नहीं सुनता। समाज-सेवा, समाज-सेवा, रट लगाए रहता है। जिसे अपने माँ-बाप की चिन्ता नहीं, वह समाज-सेवा क्या करेगा?"

कभी-कभी उन्हें लगता जैसे रणवीर ने अनाज मंडी का रुख कर लिया है जहाँ आग लगी है। और यह विचार मन में आते ही उनके सारे बदन में सिहरन-सी दौड़ जाती।

और लोगों के भी बेटे हैं, वे भी मंडली में जाते हैं, लाठी चलाना सीखते हैं, पर यह नहीं कि खतरे के वक़्त घर के बाहर घूम रहे हों। बड़ा वीर सैनिक बना फिरता है।...उन्हें अपने पर क्रोध आया। मीटिंग में और लोग चुप बने रहते हैं, जबकि मैं बोलता रहता हूँ। पाँच सौ रुपया भी मुझसे निकलवा लिया, और किसी ने सौ से ज़्यादा नहीं दिया। मुझ पर अगर ऐसी-वैसी कोई बात हुई तो कोई 'भड़वा' नज़दीक नहीं आएगा। यहाँ मुसलमानों के मुहल्ले में मेरी मदद करने कौन आएगा?"

मुँडेर के पास खड़े होकर लालाजी ने घर के अन्दर झाँककर देखा। नीचे घुप्प अँधेरा था। जंगले के पास बेटी चुपचाप खाट के पायताने माँ से सटकर बैठी थी

"हरि का नाम लो!" माँ कह रही थी, "हरि का नाम लो। गायत्री का जाप करो।"

और बेटी गोद में हाथ रखे गायत्री मन्त्र का पाठ करने लगी।

ऊपर से लालाजी ने धीमी आवाज़ में पूछा, "रणवीर आया है? क्यों रणवीर की माँ, रणवीर आ गया?"

"नहीं जी, अभी कहाँ आया है, कोई नहीं आया।"

"अच्छा धीरे बोल । तुझसे धीरे नहीं बोला जाता?"

लालाजी फिर छत पर टहलने लगे। बार-बार मन को हौसला देते : मेरे घर को आग लगाएँगे तो इनकी सारी गली जलेगी। पर आख़िर उनसे न रहा गया, बड़बड़ाते हुए सीढ़ियाँ उतर आए।

पर परिवार के सामने पहुंचे तो उनका रुख बदल गया।

"इस तरह गुमसुम होकर क्यों बैठी हो, रणवीर की माँ? घबराने की क्या बात है, हिम्मत से काम लो।"

माँ चुप रही। उसका दिल भी रणवीर के बारे में धक्-धक् कर रहा था, मन ही मन वह भी व्याकुल थी।

हमें हिम्मत से काम लेने को कह रहे हैं, स्वयं तीन बार शौच हो आए हैं।" माँ ने धीरे से बुदबुदाकर कहा।

लालाजी जंगले के पास से हटकर कमरे की ओर चले गए।

थोड़ी देर बाद माँ को खटका-सा हुआ।

"विद्या, जा देख तो, तेरे पिताजी क्या करने गए हैं।"

विद्या उन्हीं क़दमों उठकर पिता के कमरे की ओर गई। लालाजी अपनी अढ़ाई गज धोती उतारकर पाजामा पहन रहे थे। विद्या उन्हीं क़दमों माँ के पास लौट आई।

“वह तो कहीं बाहर जा रहे हैं।" विद्या ने घबराई हुई आवाज़ में कहा।

"हे भगवान्, इनका कुछ पता नहीं चलता।" और माँ खाट पर से उतरकर सीधी अपने पति के कमरे में जा पहुँची, “देखो जी, मेरा गड़ा मुर्दा देखोगे अगर घर के बाहर कदम रखोगे।"

"तो क्या करूँ?" उसकी भी सुध लूँ या घर पर बैठा रहूँ?"

“अपनी जवान बेटी को मेरे पास अकेली छोड़कर चले जाओगे। देखो तो कैसा कहर का वक़्त आया है।" माँ ने उत्तेजित आवाज़ में कहा।

“बेटा बाहर गया हो और मैं चूड़ियाँ पहनकर घर बैठा रहूँ? कुछ होश की बात कर।"

"बेटा तुम्हारा है तो मेरा भी है! इस वक्त उसे ढूँढ़ने जाओगे तो कहाँ जाओगे? स्कूल बन्द पड़ा होगा, मन्दिर में से लोग कब के जा चुके होंगे। उसे कहाँ खोजते फिरोगे? समझदार लड़का है, ज़रूर कहीं रुक गया होगा। शाम को उसका दोस्त भी बोल गया था कि सभी लड़के मास्टरजी के घर में हैं। मैं कितना कहती थी, कोई ज़रूरत नहीं बच्चे को आर्यवीर बनाने की। यह पढ़े-लिखे, खाए-पीए। मगर नहीं, तुमने मेरी एक नहीं सुनी। उसके कवायदें करवाते रहे, लाठी चलाना सिखवाते रहे। मुसलमानों का शहर है, सारी उम्र हमें इन्हीं के साथ रहना है। समन्दर में रहकर मगर से बैर कहाँ की अक्लमन्दी है? अब देख लो क्या हो रहा है?"

"बहुत उपदेश नहीं दिया कर। क्या बुरा किया है जो वह युवक समाज में जाने लगा है तो? देश और समाज का काम करना ही चाहिए।"

"करो फिर देश और समाज का काम और भुगतो। पर मैं तो इस वक़्त बाहर नहीं जाने दूंगी। कुछ भी कर लो, मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी।"

लालाजी ने बाहर जाने का इरादा स्थगित कर दिया। उन्हें इस बात की आशा नहीं थी कि आग इतनी ज़्यादा भड़क उठेगी। उन्हें मुसलमानों के खिलाफ गुस्सा तो अक्सर आया करता था, पर उन्हें इस बात का भी विश्वास था कि अंग्रेज़ उन्हें दबाकर रखेंगे।

“और लोग भी हैं, अफसरों के साथ, हमसायों के साथ, हिन्दू-मुसलमान सभी के साथ मेल-मिलाप बनाए रखते हैं। अपने समधियों को ही देखो, मुसलमानों का उनके घर ताँता लगा रहता है। तुमने न अफसरों के साथ बनाकर रखी, न हमसायों के साथ।"

वास्तव में यह बात जैसे उनकी पत्नी ने उन्हीं के मुँह से छीन ली हो। क्योंकि ऐन उस वक़्त वह भी इसी बात के बारे में सोच रहे थे। उनके समधी की गहरी दोस्ती शाहनवाज़ के साथ थी और शाहनवाज़ बड़ा असर-रसूखवाला मुसलमान था, उनकी मोटरें जगह-जगह चलती थीं, उसका पेट्रोल का ठेका था और लालाजी के समधी के साथ लुकमा तोड़ने जैसा रिश्ता था। सबसे अच्छा हो कि उसकी मदद से हम जैसे-तैसे यहाँ से कुछ दिन के लिए निकल जाएँ। आग भड़क उठी है तो जल्दी शान्त नहीं होगी और जाने क्या-क्या गुल खिलाए। बेटी को लेकर सदर बाज़ार में कुछ दिन के लिए चले जाएँ। पर यह कैसे सम्भव हो?

तभी दूर से नारों की गूंज सुनाई देने लगी। ‘अल्लाहो-अकबर!' का नारा उठा तो दूर कहीं से, मगर वह बार-बार मकानों की छतों पर से दोहराया जाने लगा। मकानों की छतों पर चढ़े हुए, आग का तमाशा देखनेवाले लोग भी उसे दोहराने लगे। एक शोर-सा मचने लगा। दूर शिवाले की ओर से हिन्दू-नारों की भी आवाज़ आती लेकिन बहुत कम और बहुत धीमी-सी। आसपास कहीं भी उसे दोहराया नहीं जा रहा था। इससे लालाजी और भी ज़्यादा त्रस्त हो उठे।

"सुनो, रणवीर की माँ, तुम नानकू को ऊपर बुलाओ।"

"क्यों, क्या बात है?"

"हर बात के साथ क्यों नहीं लगाया करो, तुम उसे बुलाओ, मैं उसके हाथ एक चिट्ठी लिखकर भेजना चाहता हूँ।"

पत्नी लालाजी के चेहरे की ओर देखती रह गई, “इस वक्त इसे भेजोगे? कहाँ भेजना चाहते हो?"

पत्नी का मन रणवीर की दिशा में दौड़ रहा था।

“यह रणवीर का पता लगाएगा? मास्टर ने आपको कहला जो भेजा है कि रणवीर उसके साथ है, अब क्यों परेशान होते हो? भगवान पर विश्वास रखो, और सुबह तक चुपचाप बैठे रहो।"

"नहीं, रणवीर के पीछे मैं इसे नहीं भेजना चाहता। मेरा एक दूसरा काम है...।"

"देखो जी, इस गरीब को कहाँ भेजोगे? बाहर कहर टूट रहा है। इसे कोई जानता नहीं, पहचानता नहीं।"

“तू हर बात में टाँग क्यों अड़ाती है? मैं नहीं चाहता कि विद्या को लेकर हम यहाँ पड़े रहें। कुछ भी हो सकता है। मैं समधी को ख़त लिख रहा हूँ कि अपने दोस्त शाहनवाज़ से कहकर हमें यहाँ से निकाल लें। जवान बेटी घर में है, मैं यहाँ नहीं रहना चाहता।"

“यह काम भी तो कल सवेरे ही हो सकता है ना, इस वक्त तो नहीं हो सकता। क्या समधी तुम्हारी चिट्ठी पाकर शाहनवाज़ के घर जाएगा? तुम भी कैसी बातें करते हो जी।"

पर लालाजी ने नहीं माना। “एक बात इनके दिमाग में बैठ जाए तो निकलती नहीं।" पत्नी बुदबुदाई, फिर ऊँची आवाज़ में बोली, “यह कहाँ तुम्हारी चिट्ठी पहुँचाएगा? यह कुछ नहीं जानता।"

"क्यों नहीं पहुँचाएगा? इसे रखा किसलिए है? गलियों के रास्ते दो मिनट में समधियों के घर पहुँच जाएगा। पास ही तो है।"

"तुम क्यों इतनी जिद पकड़ लेते हो जी? यहाँ से निकालोगे भी तो दिन को ही निकालोगे, इस वक्त किसी को लिखने से क्या लाभ? समधियों को भी परेशान करोगे।"

लालाजी क्षण-भर के लिए ठिठके खड़े रहे, फिर धीमी आवाज़ में बोले, “अगर हो सके तो आज रात ही निकल जाना चाहता हूँ।"

“ऐसी भी क्या बात है जी? तुम्हें हमसायों से डर लगता है, मुझे नहीं लगता। भगवान का नाम लो और चुपचाप बैठे रहो।" पत्नी ने कहा पर इसके बाद चुप हो गई।

कोई कारण रहा होगा जो यह इतने उतावले हो रहे हैं। नानकू के लिए जोखिम था पर जवान बेटी का ख्याल आते ही माँ की स्थिरता भी डोल गई। क्या मालूम इसी समय यहाँ से निकल जाने में भला हो! भगवान न करे अगर कुछ हो गया तो मैं इसे कहाँ छिपाती फिरूँगी?

"इसे कहो मसहरी का डंडा साथ लेता जाए।" लालाजी ने नानकू के प्रति सद्भावना व्यक्त करते हुए कहा।

चिट्ठी देकर लालाजी देर तक नानकू को समझाते रहे, “अगर देखो किसी गली में शोर है तो दूसरी गली में मुड़ जाना। हो सके तो मन्दिर में से चपरासी को साथ ले लेना। अब जाओ, देरी नहीं करो। जैसे भी हो, ख़त पहुँचाकर आना।"

पर उसके जाने से पहले पत्नी फिर एक बार बिफरकर बोली, “देखो जी, भगवान के सहारे आज रात पड़े रहो। कल जो होगा देखा जाएगा। यह भी किसी माँ का बेटा है, क्यों इसे जलती आग में धकेलते हो?"

"कुछ नहीं होगा, कुछ नहीं होगा, मैं जा सकता हूँ तो यह नहीं जा सकता? इसके हाथों पर मेहँदी लगी है?"

पर तभी पिछली गली में किसी के भागते क़दमों की आवाज़ आई। आवाज़ नज़दीक आ रही थी और क्षण-प्रतिक्षण ऊँची होती जा रही थी। उसी रात गली में चलते क़दमों की हर आवाज़ ऊँची होती गई थी और कानों के साथ-साथ सीधे दिल पर बजती थी।

लालाजी चलते-चलते रुक गए। उनकी टाँगों में जैसे पानी भर गया था। दिल की धड़कन तेज़ हो गई। क्या रणवीर कहीं से भागकर आ रहा है?

भागते क़दमों की आहट से कौन किसी को पहचान सकता है?

सहसा किसी दूसरे व्यक्ति के भागते क़दमों की भी आवाज़ आने लगी। लगा जैसे कोई आदमी गली का मोड़ काटकर गली के अन्दर आ गया है और भागते व्यक्ति के पीछ-पीछे भागने लगा है।

फिर सहसा अँधेरे को चीरती हुई आवाज़ आई :

"बचाओ...ब...चा...ओ!"

लालाजी का शरीर सिर से पाँव तक सिहर उठा। गली के पिछले हिस्से में अब एक नहीं, दो-तीन भागते व्यक्तियों के क़दमों की आवाज़ आ रही थी। ये आवाजें खाट पर बैठी माँ और उसकी बेटी ने भी सुनीं, पास-पड़ोस के घरों की छतों पर खड़े लोगों ने भी सुनीं, वे सारे वातावरण में जैसे गूंज रही थीं।

“ब...चा...ओ!"

फिर आवाज़ आई। चीखती-सी आवाज़ थी, किसी बदहवास डरे हुए आदमी की आवाज़। इस आवाज़ से भी अपने बेटे की आवाज़ को पहचान पाना नामुमकिन था। भयाकुल, भागते हुए लोग सभी एक जैसी ही आवाज़ से पुकारते हैं।

गली में किसी चीज़ के फेंकने की आवाज़ आई। कोई लाठी थी या पत्थर था? किसी ने शायद भागते आदमी के पीछे लाठी फेंकी थी। या शायद कुल्हाड़ी फेंकी थी जो नज़दीक ही दीवार के साथ टकराई थी और फिर गली के फर्श के साथ टकराकर पटपटाती-सी आगे चली गई थी।

“पकड़ो...मा...रो...ए...मा...रो...ए!"

फिर बचाव की पुकार करनेवाला व्यक्ति हाँफता हुआ पैर पटपटाता, गली लाँघ गया था और गली लाँघते ही उसके क़दमों की आवाज़ दूर हो गई थी, धीमी पड़ गई थी जबकि उसका पीछा करनेवाले क़दमों की आवाज़ ऊँची होती जा रही थी।

क्या लाठी उसे लगी नहीं थी? क्या रणवीर पर किसी ने लाठी फेंकी थी? क्या रणवीर बचकर आ गया है? क्या वह अभी दरवाज़ा खटखटाएगा?

पीछा करनेवाले कदम गली से बाहर चले गए थे। लालाजी का दिल धक्-धक् किए जा रहा था। उनके कान दरवाज़े पर लगे थे कि अभी कोई दरवाज़ा खटखटाएगा। पर किसी ने दरवाज़ा नहीं खटखटाया।

लालाजी के पैरों में गति आई। वह चलते हुए छज्जे पर गए ताकि सड़क पर से इन भागते लोगों को देखें। सड़क सुनसान पड़ी थी, सामने कच्चे घर की छत पर औरतें, मर्द और बच्चे खड़े थे, उन्होंने भी ये आवाजें सुनी होंगी। सभी निश्चेष्ट-से खड़े थे। तभी लगभग छज्जे के नीचे तीन आदमी सड़क पर से गली की ओर लौटते नज़र आए। तीनों ने मुश्कें बाँध रखी थीं, तीनों ज़ोर-ज़ोर से साँस ले रहे थे और तीनों के हाथ में लाठियाँ थीं।

“निकल गया सिखड़ा। जो भागता नहीं तो हम उसका पीछा भी नहीं करते।" उनमें से एक कह रहा था।

और उनके क़दम गली के अन्दर मुड़ गए और धीरे-धीरे दूर होने लगे।

लालाजी ने चैन की साँस ली और फिर से पीठ पीछे हाथ बाँधे कमरे में टहलने लगे। नानकू ने भी मसहरी का डंडा उठाया और सीढ़ियाँ उतरकर दरवाजे के पीछे जा बैठा।

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रचनाएँ
तमस
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'तमस' की कथा परिधि में अप्रैल १९४७ के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है। 'तमस' कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षों की कथा हो जाती है। आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी होने के बावजूद इसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उदघाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं।
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तमस भाग 1

9 अगस्त 2022
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आले में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर बाद ब

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भाग 2

9 अगस्त 2022
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प्रभातफेरी में भाग लेने के लिए आरंभ में दो गिने-चुने लोग ही पहुँचते थे। बाद मे गलियाँ और बाज़ार लाँघते हुए जिस किसी का घर रास्ते में पड़ता वह तोंद खुजलाता, जम्हाइयाँ लेता साथ में शामिल हो जाता था। ह

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भाग 3

9 अगस्त 2022
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गली में क़दम रखते ही नत्थू ने चैन की साँस ली। गली में अँधेरा था जबकि सड़कों पर अँधेरा छटने लगा था। नत्थू जल्दी से जल्दी गलियों का जाल लाँघकर अपने डेरे पर पहुँच जाना चाहता था। उस बदबू-भरी कोठरी में से

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भाग 4

9 अगस्त 2022
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टीले के ऊपर पहुँचकर दोनों ने अपने घोड़े रोक लिये। सामने दूर तक चौड़ी घाटी फैली थी जो पहाड़ों के दामन तक चली गई थी। लगता दूर क्षितिज पर सतरंगी धूल उड़ रही है। विशाल मैदान, कहीं-कहीं छोटी-छोटी पहाड़ियाँ

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भाग 5

9 अगस्त 2022
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अँधेरा छटने लगा था जब प्रभातफेरी की मंडली गलियाँ लाँघती हुई "इमामदीन के मुहल्ले में पहुँची। रास्ते में शेरखान के घर से झाड़, बेलचे, कड़ाहियाँ और सफाई का अन्य सामान लेकर वे आगे बढ़ने लगे थे। सुबह की रो

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भाग 6

9 अगस्त 2022
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साप्ताहिक सत्संग की समाप्ति से पहले पुण्यात्मा वानप्रस्थीजी सदा की भाँति मन्त्रपाठ करने लगे। इस मन्त्रपाठ को वह सत्संग रूपी यज्ञ की 'अन्तिम आहुति' कहा करते थे। गिने-चुने इन विशिष्ट मन्त्रों तथा श्लोको

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भाग 7

9 अगस्त 2022
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दफ्तर में मिलने के बजाय आप लोग घर पर मिलने आए। ज़रूर कोई बहुत ही ज़रूरी काम रहा होगा।" रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा। चपरासी ने चिक उठा दी। नागरिकों के शिष्टमंडल के सदस्य एक-एक करके कमरे के अन्दर दाखिल हुए

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भाग 8

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शहर में सब काम जैसे बँटे हुए थे : कपड़े की ज़्यादातर दूकानें हिन्दुओं की थीं, जूतों की मुसलमानों की, मोटरों-लारियों का सब काम मुसलमानों के हाथों में था, अनाज का काम हिन्दुओं के हाथ में। छोटे-छोटे काम

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भाग 9

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'ऐसा 'बेवाका' घर है, कोई चीज़ एक बार कहीं रख दो, फिर मिलती ही नहीं, ढूंढ-ढूँढ़ मरो उसे।" लाला लक्ष्मीनारायण अलमारी के सामने खड़े बड़बड़ा रहे थे। अलमारी के निचले खाने में कपड़ों के नीचे उन्होंने एक नन्

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भाग 10

9 अगस्त 2022
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दिन के उजाले में शहर अधमरा-सा पड़ा था, मानो उसे साँप सूंघ गया हो। मंडी अभी भी जल रही थी, म्युनिसिपैलिटी के फायर ब्रिगेड ने उसके साथ जूझना कब का छोड़ दिया था। उसमें से उठनेवाले धुएँ से आसमान में कालिमा

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भाग 11

9 अगस्त 2022
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देवदत्त नहा-धोकर, हाथ मलता हुआ अपने घर के सामने आ खड़ा हुआ। जब कभी वह हाथ मलता हो, या दाएँ हाथ से मुँह और नाक सहलाता हुआ फिर से दोनों हाथ मलने लगे तो समझ लो देवदत्त अपनी कार्य-सूची तैयार कर रहा है। दे

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भाग 12

9 अगस्त 2022
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एक आदमी छज्जे पर पहरा दे।" रणवीर ने घूमकर कहा। मुर्गी काटकर दीक्षा पाने से उसमें भरपूर आत्म-विश्वास पैदा हो गया था। वह दल का सबसे चतुर, सबसे चुस्त और सबसे ज़्यादा कार्यकुशल सदस्य था। उसकी आवाज़ में कड

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भाग 13

9 अगस्त 2022
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नत्थू परेशान था। अपनी कोठरी के बाहर बैठा वह चिलम पर चिलम फूँके जा रहा था। जितना अधिक वह मार-काट की अफवाहों को सुनता, उतना ही अधिक उसका दिल बैठ जाता। बार-बार अपने मन को समझाता, मैं अन्तर्जामी तो नहीं ह

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भाग 14

9 अगस्त 2022
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पहली बस खानपुर से चलकर सुबह आठ बजे गाँव पहुँचती थी। वह नहीं आई। उसके बाद हर घंटे दो घंटे के बाद शहर की ओर से भी और खानपुर की ओर से भी बसें आती थीं। आज दोपहर हो गई, एक भी बस नहीं आई। चाय की दुकान में क

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भाग 15

9 अगस्त 2022
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गुरुद्वारा खचाखच भरा था और संगत मस्ती में झूम रही थी! बस अनमोल समय था। रागी पूरी तन्मयता से आँखें बन्द किए गा रहे थे : “तुम बिन कौन मेरे गोसाईं..." संगत में सबके हाथ जुड़े हुए, आँखें बन्द और सिर वजद

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भाग 16

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हरनामसिंह ने दूसरी बार साँकल खटखटाई तो अन्दर से किसी स्त्री की एआवाज़ आई : "घर पर नहीं हैं, मर्द बाहर गए हैं।" हरनामसिंह ठिठका खड़ा रहा। बन्तो की आँखें दाएँ-बाएँ देख रही थीं कि आसपास उन्हें किसी ने

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भाग 17

9 अगस्त 2022
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इस बीच देहात की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर एक और नाटक खेला जा रहा २ था। रमज़ान और उसके साथी ढोक इलाहीबख्श और मुरादपुर की ओर से लूटपाट का सामान उठाए हँसते-बतियाते लौट रहे थे जब उन्हें दूर एक टीले के पास, एक भ

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भाग 18

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तुर्क आए थे पर वे अपने ही पड़ोसवाले गाँव से आए थे। तुर्कों के ज़ेहन में भी यही था कि वे अपने पुराने दुश्मन सिखों पर हमला बोल रहे हैं और सिखों के जेहन में भी वे दो सौ साल पहले के तुर्क थे जिनके साथ खाल

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भाग 19

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शहर की सड़क पर निकलते ही पता चल जाता था कि माहौल बदल गया है। मुहल्ला कुतुबदीन की मस्जिद के सामने, सड़क के पार चार हथियारबन्द फौज़ी कुर्सियाँ डाले बैठे थे। सड़क पर चलते हुए हर चौक पर दो-तीन फौजी बन्दूक

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भाग 20

9 अगस्त 2022
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हमें आँकड़े चाहिए, केवल आँकड़े! आप समझते क्यों नहीं? आप लम्बी हाँकने लगते हैं, सारी रामकहानी सुनाने लगते हैं, मुझे रामकहानी नहीं चाहिए, मुझे केवल आँकड़े चाहिए। कितने मरे, कितने घायल हुए, कितना माली नु

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भाग 21

9 अगस्त 2022
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अमन कमेटी की मीटिंग के लिए लोग हॉल में इकट्ठे हो रहे थे। यही एक जगह चुनी गई थी जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी, क्योंकि कालिज न हिन्दुओं का था, न मुसलमानो का, कालिज ईसाइयों का था, प्रिंसिपल भी ह

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