एक आदमी छज्जे पर पहरा दे।" रणवीर ने घूमकर कहा। मुर्गी काटकर दीक्षा पाने से उसमें भरपूर आत्म-विश्वास पैदा हो गया था। वह दल का सबसे चतुर, सबसे चुस्त और सबसे ज़्यादा कार्यकुशल सदस्य था। उसकी आवाज़ में कड़क आ गई थी।
लाठियाँ, कुल्हाड़ी, छुरे, तीर-कमान और गुलेलें-इन हथियारों के बावजूद 'शस्त्रागार' खाली-खाली लग रहा था। कमरे के बाहर, सीढ़ियों से थोड़ा हटकर चूल्हे पर तेल का कड़ाहा रखा था, पर लकड़ियाँ कम पड़ जाने के कारण तेल को उबालने का विचार कल ही छोड़ दिया गया था।
"जो आज्ञा, सरदार!" शम्भू ने कहा और छज्जे पर चला गया।
चारों योद्धाओं के दिल कसमसा रहे थे। रणभूमि में उतरने का और अपने जौहर दिखाने का समय आ गया था। छज्जे के पीछे खड़े वे वैसा ही महसूस कर रहे थे जैसा चट्टानों की आड़ में खड़े राजपूत नीचे हल्दी घाटी में आनेवाले म्लेच्छों का इन्तज़ार करते हुए महसूस करते रहे होंगे। म्लेच्छों पर टूट पड़ने का वक्त आ गया था।
रणवीर क़द का छोटा था इसलिए वह मन-ही-मन शिवाजी की भूमिका में अपने को देखा करता था। छाती पर दोनों बाँहें बाँधे, तिरछी आँखों से वह सड़क और सड़क के आस-पास के इलाके का जायजा लिया करता था। किसी-किसी वक़्त उसके मन में ललक उठती कि कमर में तलवार लटकती हो, चौड़ा कमरबन्द हो, अँगरखा हो, और सिर पर पीले रंग की पगड़ी हो, और उस पर शिरस्त्राण हो। ढीला-सा पाजामा पहनकर इतने बड़े संग्राम में भाग लेना बड़ा अटपटा लगता था। पाजामा और सीधी-सादी कमीज़ और नीचे फटी हुई चप्पल वीर सैनिक का बाना नहीं था। पर जो अधिकार-भाव उसकी वेशभूषा में नहीं था, उसे रणवीर ने कड़ककर हुक्म देनेवाली अपनी आवाज़ से पूरा कर लिया था। फौज़ के कमांडरों की तरह हुक्म देता था और दल के सभी सदस्यों को कड़े अनुशासन में रखता था। पीछे-पीछे हाथ बाँधे, तनिक झुककर, गहरी चिन्ता में खोया हुआ वह 'शस्त्रागार' में ऊपर-नीचे टहलता, वैसे-ही-जैसे औरंगजेब के साथ लोहा लेने से पहले शिवाजी टहलते रहे होंगे।
“सरदार!"
रणवीर ने घूमकर देखा। मनोहर खड़ा था जो कुछ देर पहले एक-एक गुलेल के पास एक-एक ढेरी कंकड़ों की लगा रहा था।
"लकड़ियाँ कम पड़ गई हैं। तेल नहीं उबल सकता।"
"क्या कोयला भी नहीं है?"
"नहीं, सरदार।"
रणवीर कमरे में पीठ पीछे हाथ बाँधे कुछ देर तक टहलता रहा। रणनीति यही कहती है कि निर्णय अविलम्ब किया जाना चाहिए। स्थिति को पहचान लेना, उसकी तह तक जा पहुँचना और तत्परता से निर्णय कर लेना नेता के लिए अनिवार्य है।
"अपने घर से उठा लाओ। जो भी मिले, लकड़ी या कोयला, और जितना भी मिले, उठा लाओ। इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिए।"
मनोहर ठिठका खड़ा रहा।
"क्या है?"
"अगर माँ नहीं लाने दे, तो?"
इस पर सरदार शस्त्रागार' के बीचोबीच खड़ा मनोहर के चेहरे की ओर देखने लगा, फिर कड़ककर बोला, “मेरे मुँह की ओर क्या देख रहे हो? जहाँ से जो हो, लकड़ी लाओ!"
“जो आज्ञा, सरदार।" मनोहर ने कहा और पीछे हट गया।
"मगर अभी रुक जाओ। इस वक़्त जाने की ज़रूरत नहीं है।" और तभी तेल उबालने का विचार स्थगित कर दिया गया था।
'शस्त्रागार' एक दोमंज़िले घर की ऊपरवाली मंज़िल में बनाया गया था जो खाली पड़ी थी। निचली मंज़िल में शम्भू के बूढ़े दादा-दादी रहते थे। ऊपरवाली मंज़िल का छज्जा सड़क पर खुलता था, और सड़क के किनारे पीपल का सुन्दर पेड़ था जिससे छज्जा बहुत-कुछ ढका रहता था। पर घर के अन्दर जाने का रास्ता एक गली में से था जो पीपल के पेड़ के सामने ही अन्दर चली गई थी। यह गली टेढ़ी-मेढ़ी थी, अँधेरी और सँकरी थी। सड़क पर से जानेवाला व्यक्ति गली में खो-सा जाता था। रणवीर को इसकी स्थिति समझाते हुए शम्भू ने इसे 'चक्रव्यूह' के प्रवेश की संज्ञा दी थी और दल की सरगर्मियों के लिए इसे सबसे ज़्यादा उपयुक्त बताया था। गली थोड़ी दूर जाकर बाएँ हाथ को मुड़ गई थी। मोड़ पर किसी पीर का टूटा हुआ मज़ार था और मज़ार के सामने एक बूढ़ा मुसलमान रहता था जिसकी दो बीवियाँ थीं। आगे चले जाओ तो पानी का नल आता था जो दोपहर के वक़्त बन्द रहता था। चार बजे दोपहर तक नल पर कोई जीव नज़र नहीं आता था। नल के आगे सभी मकान हिन्दुओं के थे, केवल गली के अन्त में दो-तीन कच्चे मकान थे जिनमें मुसलमान रहते थे। एक में महमूद धोबी रहता था, दूसरे में रहमान हमामवाला। इसके अतिरिक्त जगह-जगह से दाएँ-बाएँ अन्य गलियाँ निकल गई थीं। अगर म्लेच्छ पर हमला इस गली में किया जाएगा तो वह पानी के नल और गली के छोर के बीच के हिस्से में ही किया जा सकता है। ख़तरा हो तो किसी-न-किसी हिन्दू के घर की ड्योढ़ी में घुसा जा सकता है।
"तुम गली में रहनेवाले म्लेच्छों को जानते हो?"
रणवीर ने शम्भू से पूछा था।
“हाँ सरदार, मैं इन्हें जानता हूँ। महमूद धोबी हमारे घर के कपड़े धोता है, और पीर की क़ब्र के सामने जो मियाँजी रहते हैं वे मेरे दादाजी के साथ बहुत उठते-बैठते हैं।"
“तुम इस गली में काम नहीं करोगे।" रणवीर ने निर्णायक स्वर में कहा। शम्भू हतोत्साह हो गया।
आज ये लोग अपने पहले शिकार पर धावा बोलनेवाले थे। चारों वीर उत्तेजित थे। अभी तक केवल तैयारी चलती रही थी, आज रणभूमि में जौहर दिखाने का समय आ गया था। “आज रण में जाके धूम मचा दे बेटा!" धर्मदेव के कानों में वीररस भरे इस गीत की पंक्ति देर से गूंज रही थी। मनोहर तनिक चिन्तित था। वह अपनी माँ से कुछ भी कहे बिना चला आया था, और अब दिन के दो बजा चाहते थे और मनोहर को डर था कि चौका समेटने के बाद उसकी माँ उसे ढूँढ़ने निकल पड़ेगी और कौन जाने ढूँढ़ती-ढूँढ़ती इधर ही आ निकले?
रणवीर ने अन्य तीनों योद्धाओं को 'शस्त्रागार' में इकट्ठा किया और रणनीति पर विचार करते हुए बोला, “शत्रु पर उबलता तेल डालने का समय अभी नहीं आया है। उबलता तेल उस समय डाला जाता है जब शत्रु अपने दुर्ग पर हमला कर दे और आप हथियारों से उसका मुकाबला न कर सकते हों।" फिर उसने तनिक सोचकर कहा, “यहाँ केवल छुरा चलेगा, कमानीदार छुरा।"
फिर उसने इन्द्र को सम्बोधित करके कहा, “एक बार फिर पैंतरा करके दिखाओ। उठाओ छुरा दासे पर से।"
इन्द्र फुरती से छुरा उठा लाया। कमरे के बीचोबीच दोनों टाँगें फैलाए वह क्षण-भर के लिए खड़ा रहा। छुरे की मूठ उसके दाएँ हाथ में थी और उसका फल पीछे की ओर था। फिर बायाँ कदम उठाकर वह उछला, और हवा में अर्द्धवृत्त काटकर फिर दोनों टाँगें फैलाए रणवीर की पीठ की ओर मुँह किए फर्श पर उतरा। इसी बीच उसने रणवीर की कमर को निशाना बनाते हुए उलटे हाथ से छुरे के वार का संकेत किया था।
रणवीर ने सिर हिलाया, “शत्रु की छाती अथवा पीठ को कभी भी निशाना नहीं बनाओ। वार हमेशा कमर में करो या पेट में। और घुमावदार छुरा घोंपने के बाद उसे अन्दर ही अन्दर थोड़ा मोड़ दो, इससे अंतड़ियाँ बाहर आ जाएँगी। अगर तुम भीड़ में शत्रु पर वार करते हो तो छुरा बाहर खींचने की कोशिश नहीं करो, उसे वहीं रहने दो और भीड़ में खो जाओ।"
रणवीर वही कुछ बोले जा रहा था जो उसने मास्टर देवव्रत के मुँह से सुना था।
थोड़ी देर बाद दल दो हिस्सों में बँट गया था। पहले हमला इन्द्र के हाथों किया जाएगा। इसलिए इन्द्र, शम्भू और सरदार शस्त्रागार को छोड़कर नीचे ड्योढ़ी में आ गए, जबकि मनोहर ऊपर बना रहा। फैसला किया गया कि सड़क की ओर छज्जे पर खड़ा सैनिक नज़र रखेगा और गली में आनेजानेवाले लोगों पर रणवीर और इन्द्र और शम्भू। और रणवीर के हुक्म से इन्द्र ड्योढ़ी में से निकलकर शत्रु पर हमला करेगा। गली में घूमनेवाले दरवाजे को थोड़ा-सा खोल देने पर सड़क का कुछ हिस्सा और गली का शुरू का हिस्सा नज़र आते थे। पीपल के तने के पार सड़क का हिस्सा था जो दोपहर की धूप में चमक रहा था।
गली के सामने एक ताँगा रुका। रणवीर ने दरवाज़े को लगभग पूरा मूंद दिया और एक पतली-सी दरार में से बाहर की ओर देखने लगा।
“कौन है?" इन्द्र ने फुसफुसाकर पूछा।
रणवीर चुप रहा। अन्य दो सैनिकों ने भी आगे बढ़कर दरार पर आँख लगाई।
"जलालखान है। नवाबज़ादा जलालखान।" शम्भू बोला, "यह सड़क के किनारे सामनेवाले मकान में रहता है। हमारे मुहल्ले का बहुत बड़ा रईस है। डिप्टी कमिश्नर से मिलने जाता है।" शम्भू एक साँस में कह गया।
दरार में से क्षण-भर के लिए उसका सफ़ेद तुर्रा, चढ़ी हुई मूंछे और लाल दमकता चेहरा नज़र आए। पर जैसे वह सामने आया वैसे ही ओझल भी हो गया। गली में से गुज़रते हुए उसकी सरसराती सलवार और चरमराते जूते सुनाई दिए। कुछ निर्णय कर सकने के पहले ही वह अपने घर के अन्दर जा चुका था। तीनों वीर-सैनिक ठगे-से खड़े रह गए। वह यों भी क़द में बहुत ऊँचा-लम्बा था। उसे सामने से जाता देखकर तीनों सहम-से गए थे। और सोचने का मौका ही नहीं मिला था।
मास्टरजी ने कहा था कि अपने शत्रु की ओर ध्यान से कभी नहीं देखो, इससे निश्चय डगमगाने लगता है। किसी भी जीव की ओर ध्यान से देखो तो उसके प्रति दिल में सहानुभूति पैदा होने लगती है। ऐसा कभी नहीं होने देना चाहिए।
पीछे गली में कोई दरवाज़ा खुला और फिर खड़ाक् से बन्द हो गया। तीनों के कान खड़े हो गए। रणवीर ने दरवाजे के पर्दे को इस तरह से खोला कि पर्दो के बीच की दरार गली की ओर खुल गई।
"कौन है?" इन्द्र ने फुसफुसाकर पूछा।
“म्लेच्छ है।" रणवीर बोला।
दोनों मित्र ऊपर-नीचे दरार से आँख लगाकर खड़े हो गए। एक दाढ़ीवाला बड़ी उम्र का आदमी गली में से चलता हुआ सड़क की ओर आ रहा था।
“मियाँजी हैं।" शम्भू पहचानते हुए बोला, “पीर की कब्र के सामनेवाले घर में रहते हैं। इस वक्त मस्ज़िद में नमाज़ पढ़ने जा रहे हैं। रोज़ इस वक़्त नमाज़ पढ़ने जाते हैं।"
“चुप रहो।"
मियाँ गली का थोड़ा-सा हिस्सा लाँघकर पीपल के पेड़ के पास आया और वहाँ से बाएँ हाथ घूम गया। वह काले रंग की वास्कट पहने था और नीचे सलवार और ढीली-सी चप्पल। उसके दाएँ हाथ में छोटी-सी तसबीह लटक रही थी। बूढ़ा होने के करण उसकी पीठ झुकी थी और वह धीरे-धीरे चलता जा रहा था।
“जाऊँ?" इन्द्र ने झट से सरदार से पूछा।
"नहीं, अब वह सड़क पर पहुँच चुका है।"
"तो क्या हुआ?"
"नहीं। सड़क पर हमला करने की मनाही है।"
शम्भू को इन्द्र की आवाज़ में उतावलापन लगा, जबकि स्वयं शम्भू का मन शिथिल-सा पड़ रहा था। इन्द्र के पूछने पर शम्भू को एक अजीब धक्का-सा लगा था। सरदार की मनाही पर उसे मन ही मन राहत-सी मिली।
कुछ देर तक वे फिर दरवाज़े के पीछे खड़े रहे। वक्त बीतता जा रहा था। चार बजे नल खुल जाएगा और गली की औरतें घड़े उठाए नल पर पहुँच जाएँगी। दोपहर बीतते ही इक्का-दुक्का और लोग भी बाहर निकलने लगेंगे।
इस बीच एक-एक करके दो आदमी गली में दाखिल हुए। एक के हाथ में साइकल थी और आँखों पर चश्मा था।
"यह बाबू चूनीलाल है। यह एक दफ्तर में काम करता है। इसके पास कुत्ता है।"
और दूसरा एक सिख सरदार गली में आया, जो कन्धे पर गठरी उठाए हुए था।
दोनों बारी-बारी से आए और अपने पटपटाते जूतों के साथ गली लाँघ गए।
तभी उन्हें फिर किसी के क़दमों की आहट मिली। इन्द्र ने दरार में से झाँककर देखा और रणवीर की कोहनी को छू दिया।
"कौन है?" इन्द्र कुछ नहीं बोला और बाहर देखता रहा।
पटपटाते हुए जूतों की आवाज़ आई। रणवीर झट से दरार में से झाँकने लगा। शम्भू भी दरार के साथ चिपक गया था।
"कौन है?"
"कोई खोमचेवाला है।" इन्द्र ने फुसफुसाकर कहा।
"नहीं, इत्र-फुलेल बेचता है। दूर कहीं रहता है, इस वक्त रोज़ इधर से गुज़रता है। म्लेच्छ है।"
एक भारी-भरकम आदमी, मेहँदी से रँगी मूछों और कूची दाढ़ीवाला अपने अगल-बग़ल बहुत-से थैले लटकाए पीपल के पेड़ के नीचे से होकर गली के अन्दर आ गया था। बोझ के कारण उसके माथे पर पसीने की बूंदें छलक आई थीं। उसके दाएँ कान में रुई के फाहे थे और ऊपर दो-तीन सलाइयाँ पगड़ी में खोंस रखी थीं।
रणवीर को लगा जैसे उसकी पीठ-पीछे कोई हरकत हुई हो। उसने घूमकर देखा। इन्द्र का हाथ अपनी जेब में रखे घुमावदार छुरे पर चला गया था।
क्षण बीत रहे थे और निर्णय का वक्त आ गया था। यह आदमी म्लेच्छ था, अजनबी था, थैलों से लदा था, न भाग सकता था, न अपने को बचा सकता था, और थका हुआ था। सभी गुण मौजूद थे। कुछ सवालों का जवाब मस्तिष्क नहीं देता, अन्तःप्रेरणा देती है। क्षण बीत रहे थे और फेरीवाला गली में आगे बढ़ता जा रहा था। रणवीर ने आँख का इशारा किया और इन्द्र लपककर बाहर हो गया। उसके बाहर निकलने पर क्षण-भर के लिए बाहर की रोशनी का चुंधियाता पुंज जैसे अन्दर घुस आया। पर रणवीर ने फिर से दरवाज़ा बन्द कर दिया।
कोई आहट या आवाज़ नहीं थी। रणवीर और शम्भू दम साधे दरवाज़े के पीछे खड़े थे। रणवीर अत्यधिक उत्तेजित हो उठा। उससे न रहा गया। उसने धीरे से दरवाज़ा खोला और सिर बाहर निकालकर देखा। गली में कुछ दूरी पर इत्रफरोश झूलता हुआ चला जा रहा था। थैलों के बोझ के कारण उसकी पीठ झुकी हुई थी। और इन्द्र, बौना छोटा-सा इन्द्र, उससे कुछ दूर उसके पीछे-पीछे चलता जा रहा था। इन्द्र का हाथ कुरते के जेब में था और वह उचक-उचककर चल रहा था।
रणवीर के लिए दरवाज़े में से सिर निकालकर गली में झाँकना उतना ही असम्भव था जितना दरवाज़ा बन्द करके उसके पीछे खड़े रहना। उसका सभी बातों पर नियन्त्रण था, परन्तु अपने बाल-सुलभ कुतूहल पर कोई नियन्त्रण नहीं था। तभी उसे शम्भू ने पीछे खींच लिया। शम्भू डरा हुआ था और उसकी टाँगों में जैसे पानी भर गया था। आखिरी झलक में रणवीर केवल इतना ही देख पाया था कि इन्द्र उस भारी-भरकम म्लेच्छ के साथ-साथ जा रहा था और दोनों गली का मोड़ काट रहे हैं।
शम्भू ने साँकल चढ़ा दी और दोनों अँधेरे में एक-दूसरे को देखते खड़े रह गए। दोनों बुरी तरह हाँफ रहे थे। शम्भू के लिए खड़े हो पाना असम्भव हो रहा था जबकि रणवीर बाहर जाने के लिए अधीर था।
गली का मोड़ मुड़ने पर सहसा इत्रफरोश की नज़र बालक पर पड़ गई। अपने पटपटाते जूतों के कारण शायद वह उसके पाँवों की आहट नहीं सुन पाया था।
इत्रफरोश मुस्करा दिया।
"किधर जा रहे हो बेटे इस वक्त?" उसने कहा और मुस्कराते हुए अपना हाथ बढ़ाकर इन्द्र के सिर पर रख दिया।
इन्द्र ठिठक गया और एकटक उसके चेहरे की ओर देखने लगा। उसका हाथ अपनी जेब में था। इन्द्र के अवचेतन में यह बात उठी कि इस आदमी के गाल फूले हुए हैं और मास्टरजी ने एक बार कहा था कि फूले हुए गालोंवाले लोग बुजदिल होते हैं और उनका मेदा ख़राब होता है और वे भाग नहीं सकते, जल्दी हाँफने लगते हैं। और यह आदमी सचमुच हाँफ रहा था।
इन्द्र अपने शिकार पर झपटने के लिए पैर तौल रहा था। उसकी आँखें अभी भी म्लेच्छ के चेहरे पर गड़ी थीं।
इत्रफरोश को लड़का मासूम-सा लगा, छोटी उम्र का, कोमल-सा जो शायद आश्रय खोजता हुआ उसके पीछे-पीछे चला आया था। शायद डरा हुआ था, शहर में आज सभी लोग डरे हुए थे।
“कहाँ रहते हो? चलो मेरे साथ आते जाओ। आज के दिन बाहर अकेले नहीं घूमना चाहिए।"
लेकिन इन्द्र टस से मस नहीं हो रहा था। अभी भी वह इत्रफरोश के चेहरे की ओर घूरे जा रहा था।
"तेली मुहल्ले तक मैं तुम्हें पहुँचा दूंगा।" आगे कहीं जाना हुआ तो तुम्हें किसी के सुपुर्द कर दूंगा। आज शहर में गड़बड़ है।"
और बिना बालक के उत्तर की प्रतीक्षा किए वह घूमकर आगे बढ़ने लगा।
क्षण-भर के लिए इन्द्र वहीं ठिठक खड़ा रहा, फिर साथ हो लिया।
आसपास के घरों में चुप्पी छाई थी। उनकी ड्योढ़ियों में इतना अधिक अँधेरा था कि आँखें फाड़-फाड़कर भी देखो तो भी कुछ नज़र नहीं आता था।
“मुझे भी आज फेरी पर नहीं निकलता चाहिए था,” उसने इन्द्र से कहा, “आज भी कोई दिन है फेरी करने का? सारे शहर में सूखा पड़ा है। पर मैंने सोचा घर पर बैठकर क्या करूँगा, दो-चार आने की जुगाड़ हो जाए तो क्या बुरा है, दूकानदार घर पर बैठा रहे तो खाएगा कहाँ से?" और इत्रफरोश हँस दिया।
पानी का नल नज़दीक आ रहा था। नल में पानी नहीं था और उसके नीचे पत्थर की सिल जो घिस-घिसकर गहरी हो गई थी, सूखी पड़ी थी। और उसके आसपास दो-तीन बरें उड़ रहे थे। कुछ ही दिन पहले तक इन्द्र बर्रे पकड़ा करता था।
'इत्र के चार फाहे भी कोई हमसे ले ले तो हमारी चवन्नी खरी हो जाती है।' इत्रवाले ने जैसे अपने-आपसे बात करते हुए कहा। वक़्त काटने के लिए वह बतियाना चाहता था या शायद शहर की सूनी गलियाँ लाँघने के बाद वह खुद डरा हुआ था।
“हमें एक-एक गली का मालूम है कि वहाँ कौन इत्र ख़रीदता है। जिस मर्द की दो बीवियाँ हों, वह ज़रूर इत्र लेता है, वह वसमा भी लेगा और सुरमा भी लेगा। वह मर्द भी इत्र ख़रीदता है जो उम्र में बड़ा हो और जिसकी जवान बीवी हो। अच्छा, और बताऊँ!" वह बच्चे का मन बहलाने के लिए बोले जा रहा था।
इत्रफरोश की बातों के ही कारण इन्द्र सँभल गया था और पैर मज़बूती से चल रहे थे और कमानीदार चाकू की मूठ को भी उसने मज़बूती से पकड़ रखा था। उसके मन में एकाग्रता आने लगी थी, उसकी आँखें इत्रफरोश की कमर पर टिकने लगी थीं। वही एकाग्र दृष्टि जिससे अर्जुन ने पेड़ पर बैठे पक्षी की आँख को फोड़ा था। इत्रफरोश के बाएँ कन्धे से झूलता थैला बार-बार घड़ी के पेंडुलम की तरह उसकी कमर के आगे हिल रहा था। उसका गाढ़े का कुरता बोतलों के थैले के नीचे कुछ-कुछ उभरा हुआ था।
नल पार करते ही इन्द्र की सारी चेतना जैसे उसके दाएँ हाथ में आ गई। नल के आगे का फासला एक-एक बालिश्त जैसे उसके मस्तिष्क में गिना जाने लगा था। बोतलों का थैला झूल रहा था, कमर बार-बार सामने आ रही थी और इत्रफरोश के पटपटाते जूते उसके साथ-साथ बज रहे थे।
"बाज़ार में फाहे ज़्यादा बिकते हैं, घरों में इत्र और तेल ज़्यादा बिकता है," इत्रफरोश कह रहा था। सहसा इन्द्र लपका और उसने पैंतरा मारा। इत्रफरोश को लगा जैसे उसके बाएँ हाथ कोई चीज़ ज़ोर से हिली है। उसे भास हुआ जैसे कोई चीज़ चमकी भी है। पर वह खड़ा होकर घूमकर देखे कि क्या बात है तब तक उसे थैले के नीचे तीखी चुभन का-सा भास हुआ। इन्द्र का निशाना ठीक बैठा था। वार करने के बाद सरदार के आदेशानुसार उसने चाकू को थोड़ा मोड़ दिया था और अंतड़ियों के जाल में फँसा भी दिया था।
इत्रफरोश अभी पूरी तरह से मुड़ नहीं पाया था कि उसने देखा, लड़का पीछे की ओर भागा जा रहा है। उसे फिर भी समझ में नहीं आया कि क्या हुआ है। उसकी इच्छा हुई कि लड़के को आवाज़ देकर बुला ले, लेकिन तभी उसे अपने पैरों पर बहता खून नज़र आया और कमर में कुछ कराहता, कुछ डूबता-सा महसूस हुआ। मीठा-सा दर्द उठा, फिर तेज़ नश्तर-सा दर्द और वह डर के मारे बदहवास हो गया।
"ओ लोको, मार डाला! मुझे मार डाला! ओ लोको!..."
इत्रफरोश इतना घबरा गया था कि उसके मुँह से बोल नहीं फूट रहा था। वह कमर में लगे ज़ख्म से इतना नहीं मर रहा था जितना त्रास और भय से और भोले बालक द्वारा किए गए हमले से। उसके लिए अपने थैलों का बोझ उठा पाना असम्भव हो रहा था और उनके बोझ के नीचे ही वह मुँह के बल धड़ाम से गिरा।
इन्द्र के भागते पाँव उसे दो क्षण पहले साफ़ नज़र आ रहे थे, पर अब गली में उस लड़के का नाम-निशान नहीं था।
"ओ लोको...!" वह फुसफुसाया।
एक शिथिल-सी चीख उसके होंठों से निकली और उसकी आँखें गली के ऊपर फैले गहरे नीले आसमान के छोटे-से टुकड़े पर लग गईं। वहाँ दो-तीन चीलें उड़ रही थीं। चीलें अब दो की जगह चार हो गई थीं और आकाश की नीलिमा धीरे-धीरे हिलने और धूमिल पड़ने लगी थी।