नत्थू परेशान था। अपनी कोठरी के बाहर बैठा वह चिलम पर चिलम फूँके जा रहा था। जितना अधिक वह मार-काट की अफवाहों को सुनता, उतना ही अधिक उसका दिल बैठ जाता। बार-बार अपने मन को समझाता, मैं अन्तर्जामी तो नहीं हूँ, मुझे क्या मालूम किस काम के लिए मुझसे सुअर मरवाया जा रहा है। कुछ देर के लिए उसका मन ठिकाने भी आ जाता, लेकिन फिर जब किसी घटना की बात सुनता तो फिर बेचैन होने लगता। यह सब मेरे किए का फल है। सभी चमार सुबह से एक-दूसरे की कोठरियों के बाहर बीड़ियाँ फूंकते बतिया रहे थे। नत्थू बार-बार उनके बीच जा खड़ा होता। वह स्वयं भी बतियाने की कोशिश करता, लेकिन बार-बार उसका हलक सूखने लगता और टाँगें काँपने लगतीं और वह अपनी कोठरी में लौट आता। क्या मैं अपनी पत्नी से सारी बात कह दूँ? वह समझदार औरत है, मेरी बात समझ जाएगी, मेरा दिल हल्का होगा। कभी उसका मन चाहता शराब का पौवा कहीं से मिल जाता तो कुछ देर के लिए बेसुध पड़ा रहता। पर इस वक़्त शराब कहाँ मिलनेवाली थी? औरत को बताना भी जोखिम मोल लेना था। बातों-बातों में उसने किसी से कह दिया तो? फिर क्या होगा? मुझे कोई छोड़ेगा नहीं। क्या मालूम पुलिस ही मुझे पकड़कर ले जाए? फिर क्या होगा? मेरी बात कौन मानेगा कि मुरादअली के कहने पर मैंने ऐसा काम किया है? मुरादअली मुसलमान है, क्या वह मस्ज़िद के सामने सुअर फिंकवाने का काम करेगा?...नत्थू बेचैन हो उठता तो उसका दिमाग त्राण पाने के लिए दूसरी दिशा, में सोचने लगता। वह सुअर ज़रूर कोई दूसरा रहा होगा। यह वह सुअर था ही नहीं जिसे मस्ज़िद के सामने फेंका गया था। मैंने इसे देखा ही नहीं। यह काला सुअर था तो दूसरा भी तो काले रंग का सुअर हो सकता है। क्या दो सुअर काले रंग के नहीं हो सकते? यह मेरा भ्रम है, मैं ख्वाहमख्वाह इस तरह सोचे जा रहा हूँ। यह सचमुच कोई दूसरा सुअर था। ऐसा सोचने के बाद वह अपनी पत्नी के साथ हँसने-बतियाने लगता। खुद उठकर किसी पड़ोसी की कोठरी में जा बैठता और मंडी की आग की चर्चा करने लगता। लेकिन यह मनःस्थिति भी ज़्यादा देर तक नहीं बनी रहती। रात के व्यापार को याद करके ही उसके रोंगटे खड़े हो जाते। सुनसान इलाक़ा, बदबू और सीलन-भरी कोठरी, चुराया हुआ सुअर और अँधेरे के पर्दे में आता हुआ कालू का छकड़ा। सारी की सारी घटना ही दुःस्वप्न की तरह उसकी आँखों के आगे घूम जाती। कभी यों भी सलोतरी साहब सुअर कटवाएँगे? 'पिगरी के सुअर उधर घूमते रहते हैं, किसी एक को पकड़ लेना...रात को छकड़ा आएगा, उसमें डाल देना...जब तक मैं न आऊँ, मेरी राह देखना।' कभी यों भी काम हुए हैं? क्या यह भी कोई ढंग है काम करने का? उसका मन हुआ सीधा उठकर कालू भंगी के पास जाए और उससे पूछे कि वह सुअर को कहाँ ले गया था। मुरादअली के पास सीधा जाए और उससे कहे...पर मुरादअली क्या कहेगा? अगर उसके दिल में चोर है तो वह धक्के देकर घर से निकाल देगा, बल्कि उल्टा मुझ पर इलज़ाम लगाएगा, वही उल्टे मुझे पकड़वा भी सकता है...
उसने फिर चिलम उठा ली। भाड़ में जाए मुरादअली और उसका सुअर! जो हो गया सो हो गया। मैंने जान-बूझकर कुछ नहीं किया है। मैंने तो जो कुछ किया अनजाने में किया, ये लोग जो आग लगा रहे हैं, और राह जाते लोगों को मार रहे हैं, ये तो आँखें खोलकर सब काम कर रहे हैं, ये क्यों बुरा करम कर रहे हैं? मेरे एक सुअर को मार देने से क्या होता है? एक सुअर को मार देने में रखा ही क्या है? मैं मुजरिम हूँ तो क्या ये लोग मुजरिम नहीं? वे लोग जिन्होंने मंडी में आग लगाई है? मैंने जान-बूझकर कुछ नहीं किया। हो गया जो होना था। मुझे इससे कुछ लेना-देना नहीं है...
नत्थू को अपने बाप की याद आई। भगवान से डरनेवाला आदमी था वह। सदा यही सीख दिया करता था : "बेटा, हाथ साफ रखना, जिसका हाथ साफ है वह कोई बुरा काम नहीं करता...इज़्ज़त की रोटी खाना...।" नत्थू को याद करके रुलाई आ गई। उसकी छाती पर फिर से बोझ बढ़ने लगा, असह्य होने लगा।
मैदान के पार कोई आदमी चलता-चलता रुक गया था और मुड़कर चमारों के डेरे की ओर देखे जा रहा था। उसे देखकर नत्थू का दिल धक्-धक् करने लगा। उसे लगा जैसे वह उसी को ढूँढ़ने आया है, जैसे उसे पता चल गया था कि उसी ने सुअर मारा है।
नत्थू की औरत धोती के पल्लू से हाथ पोंछती हुई बाहर निकली। उसे देखकर उसके मन में फिर अकुलाहट हुई। नत्थू का मन हुआ उसे सारी बात कह डाले। कोई तो हो जिसे वह अपने दिल की बात कह सके।
नत्थू की आँखें फिर मैदान के पार खड़े आदमी की ओर घूम गईं।
"तू क्या देख रहा है?" उसकी पत्नी ने पूछा, फिर मैदान के पास उस आदमी की ओर देखकर बोली, “कौन है वह? क्या तू उसे जानता है?"
"नहीं तो, मैं क्या जानूँ कौन है। मैं नहीं जानता।" नत्थू ने कहा और फटी-फटी आँखों से अपनी पत्नी की ओर देखने लगा।
"तू यहाँ क्यों खड़ी है, जा, अपना काम देख।" नत्थू ने रुखाई से कहा।
उसकी पत्नी उन्हीं क़दमों कोठरी के अन्दर लौट गई।
नत्थू ने कनखियों से फिर सड़क की ओर देखा। वह आदमी जा रहा था। मैदान के छोर पर उसने सिगरेट सुलगा ली थी और अब सिगरेट के कश छोड़ता हुआ आगे बढ़ रहा था।
'मेरा भरम था,' नत्थू ने मन ही मन कहा, 'काम के दिन इधर बीसियों आदमी आते हैं, जिन्हें हम लोगों से काम रहता है।'
उसका मन आश्वस्त हो गया, नाहक ही औरत से खीझकर बोला। "सुन तो," उसने पत्नी को पुकारकर कहा, “थोड़ी चाय बना दे।"
उसकी स्त्री दहलीज़ पर लौट आई। उसके शरीर में अथवा उसके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ था कि नत्थू उसे अपने समीप पाकर अधिक सुरक्षित महसूस करता था। वह घर में बनी रहती तो लगता घर में स्थिरता है, वह आँखों से ओझल हो जाती तो नत्थू को लगता जैसे सारी मुष्टि डोलने लगी है। मन-ही-मन वह आज भी चाहता था कि उसकी स्त्री उसके पास बनी रहे। वह कभी परेशान और उत्तेजित नहीं होती थी, घबराती नहीं थी, उसका दिल कभी भी धक्-धक् नहीं करता था, कोई बात उसके कलेजे को चाटती नहीं थी। इसलिए कि यह गदराए शरीर की है, मेरी तरह सूखी-पिचकी नहीं है, जो सारा वक्त दिल का गम खाता रहता हूँ। उसके अलसाए शरीर में नत्थू को स्निग्धता का भास मिलता था, उसकी चाल-ढाल में, प्रत्येक गति में स्थिरता थी, सन्तुलन था।
वह दहलीज़ पर आकर खड़ी हो गई थी, एक हाथ उठाकर चौखट पर रखे थी और धीरे-धीरे मुस्कराए जा रही थी।
"पहले तो कभी तुम इस वक्त चाय नहीं माँगते थे। आज छुट्टी मना रहे हो, इसलिए?''
इस पर वह तुनक उठा, “छुट्टी मना रहा हूँ? यह तुझे छुट्टी नज़र आ रही है? तू नहीं बना सकती तो मैं खुद बना लूँगा। लम्बी बात क्यों करती है!"
और नत्थू उठकर कोठरी के अन्दर चला गया।
"अभी बना देती हूँ; चाय बनाने में कौन-सी देर लगती है। तू बिगड़ता क्यों है?"
"नहीं तू हट जा, मैं अपने-आप बना लूँगा।" नत्थू ने गस्से से कहा।
“मेरे रहते तू चूल्हा जलाएगा, मैं मर न जाऊँ?" वह बोली और आगे बढ़कर उसकी बाँह पकड़कर उसे उठाने लगी, “उठ जा, तुझे मेरे सिर की कसम।"
नत्थू उठ खड़ा हुआ, गहरी टीस-सी उसके मन में उठी। क्षणभर के लिए वह ठिठका-सा खड़ा रहा, फिर आगे बढ़कर वह अपनी पत्नी से लिपट गया।
“आज तुझे क्या हो गया है?" उसकी स्त्री ने कहा और हँस दी। पर पति के आलिंगनों में उसे उसके दिल की छपपटाहट का भास मिलने लगा। कोई बात है जो इसके दिल में काँटे की तरह चुभी है, जिससे यह कल रात से अजीब-सा व्यवहार कर रहा है।
"कल रात से तुम कैसे बहके-बहके से हर बात कर रहे हो!" उसने कहा, “ऐसा नहीं करो जी, मुझे डर लगता है।"
“हमें क्यों डर लगेगा, हमने तो किसी का घर नहीं जलाया है!" नत्थू ने अटपटा-सा उत्तर दिया।
उसकी पीठ पर पत्नी का हाथ रुक गया, पर वह नत्थू को अपनी बाँहों में लिये रही।
नत्थू की उत्तेजना और क्षोभ, दोनों ही, उत्तरोत्तर बढ़ते जा रहे थे, वह पागलों की तरह वैसे ही व्यवहार करने लगा जैसे कल रात करने लगा था।
उसकी आँखों के सामने सहसा सुअर की लाश घूम गई। फर्श के बीचोबीच, चारों टाँगें ऊपर को उठी हुईं, और नीचे खून का ताल-सा। और वह सिहर उठा। पत्नी की बाँहों में नत्थू का शरीर जैसे ठंडा पड़ने लगा। उसके कन्धों पर पसीने की परत आ गई और उसकी पत्नी को लगा जैसे उसका मन भटककर फिर दूर कहीं चला गया है। खड़े-खड़े नत्थू के मुँह से सिसकीसी निकल गई और वह अपनी पत्नी से अलग हो गया।
“हाय नहीं, आज नहीं, मेरा मन नहीं करता। देखो तो बाहर क्या हो रहा है? लोगों के घर जल रहे हैं।"
नत्थू बेचैन-सा खड़ा हो गया और देर तक ठिठका खड़ा रहा।
“क्या है?" उसकी पत्नी घबराकर बोली, “तुम इतने गुमसुम क्यों हो गए हो? सच-सच बताओ, तुम्हें मेरे सिर की कसम।"
पर नत्थू चुपचाप हटकर खाट पर जा बैठा।
“क्या हुआ है?"
"कुछ नहीं।"
"कुछ तो हुआ है। तू मुझसे छिपा रहा है।"
"कुछ नहीं।" उसने फिर से कहा।
पत्नी नत्थू के पास आ गई, और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, "तू बोलता क्यों नहीं?"
"कुछ कहने को हो तो बोलूँ।" उसने धीरे से कहा।
"चाय बना दूँ? ठहर, मैं चाय बना देती हूँ।" ।
"मुझे चाय नहीं चाहिए।"
“अभी तो खुद बनाने को कह रहा था, अभी चाय नहीं चाहिए।"
“नहीं, मुझे नहीं चाहिए।"
"अच्छा फिर चल, खाट पर चल।" उसकी पत्नी ने हँसकर कहा।
"नहीं, खाट पर भी नहीं चलूँगा।"
"नाराज़ हो गया? तू मेरे साथ बात-बात पर नाराज़ होने लगा है।" पत्नी ने उलाहने के स्वर में कहा।
नत्थू चुप रहा। वह सचमुच बिसूरते बच्चे की तरह व्यवहार कर रहा था।
“तू कल रात कहाँ गया था? तूने मुझे कुछ भी नहीं बताया।" नत्थू की पत्नी ने कहा और उसके साथ फर्श पर बैठ गई।
नत्थू ने ठिठककर पत्नी की ओर देखा। इसे ज़रूर पता चल गया है। सभी को देर-सवेर पता चल जाएगा। नत्थू को लगा जैसे उसकी टाँगें काँपने लगी हैं।
"बताएगा नहीं तो मैं यहीं सिर पीट लूँगी। तू कभी भी मुझसे दिल की बात नहीं छिपाता था, आज क्यों छिपाने लगा है?"
नत्थू की आँखें देर तक पत्नी के चेहरे पर टिकी रहीं। अगर इसे शक हो गया है तो न जाने क्या सोच रही होगी, मेरे बारे में क्या सोचने लगी होगी। पर पत्नी की विश्वासभरी और याचनाभरी आँखें अभी उसकी ओर देखे जा रही थीं। फिर सहसा वह अपने-आप ही बोलने लगा, “तुझे मालूम है मंडी में आग क्यों लगी है?"
“मालूम है, मसीत के सामने किसी ने सुअर मारकर फेंका था। इस पर मुसलमानों ने मंडी को आग लगा दी।"
"वह सुअर मैंने मारा था।"
नत्थू की पत्नी को काटो तो खून नहीं।
"तूने? तूने यह बुरा काम क्यों किया?"
और उसके चेहरे पर से सारा खून उतर गया और वह नत्थू की ओर फटी आँखों से देखती रह गई।
नत्थू ने धीरे-धीरे सारा किस्सा कह सुनाया।
"सुअर को फेंकने भी तू गया था?" पत्नी ने पूछा।
"नहीं, कालू उसे छकड़े पर लादकर ले गया था।"
"कालू तो मुसलमान है, वह कैसे ले गया?"
"कालू मुसलमान नहीं है, वह ईसाई है, गिरजे में जाता है।"
उसकी पत्नी देर तक उसके चेहरे की ओर देखती रही, 'तूने बहुत बुरा काम किया है, पर इसमें तेरा क्या दोष? तुझसे लोगों ने धोखे से काम करवाया है। तूने धोखे में आकर यह काम किया है। वह मानो अपने से बात करती हुई बुदबुदाई। पर नत्थू की बात सुनकर वह सिर से पाँव तक काँप गई थी। उसकी पत्नी को लगा जैसे किसी भयानक ग्रह की छाया उनके घर पर पड़ गई है, जो उपवास करने से भी नहीं टलेगी, प्रायश्चित करने से भी नहीं टलेगी।
पर फिर भी उसके मन पर बराबर बोझ बना रहा।
नत्थू के दिल में से गहरी हूक-सी उठी। पत्नी ने आँख उठाकर नत्थू की ओर देखा। उसे विचलित देखकर उसकी पत्नी के दिल में फिर ममता का सोता फूट पड़ा। वह उठकर नत्थू के पास जा बैठी और उसका हाथ पकड़कर बोली, "तभी तो मैं कहूँ यह इतना परेशान क्यों है। मुझे क्या मालूम, तूने मुझे बताया क्यों नहीं? अपना दुख मन के अन्दर नहीं रखते।"
“मुझे मालूम होता तो मैं यह काम क्यों करता?" नत्थू बुदबुदाया, "मुझसे तो कहा सलोतरी साहब ने सुअर माँगा है।" फिर नत्थू अपनी उधेड़बुन में और भी गहरा डूबते हुए बोला, “कल रात मुरादअली को मैंने देखा था, पर वह मेरे साथ बोला ही नहीं। मैं उसके पीछे-पीछे भागता था और वह आगे-ही-आगे बढ़ता गया। उसने मेरे साथ बात तक नहीं की..." नत्थू की आवाज़ अनिश्चय में खो-सी गई, मानो उसके मन में सन्देह उठने लगा हो कि क्या सचमुच उसने मुरादअली को देखा भी था या नहीं।
"कितने पैसे मिले थे सुअर मारने के?"
“पाँच रुपए। वह मुझे पेशगी ही दे गया था।"
“पाँच रुपए? इतने ज़्यादा? तूने क्या किया उन रुपयों का?"
"कुछ नहीं किया। चार रुपए बच रहे हैं, उधर ताकी पर रखे हैं।"
“मुझे बताया क्यों नही?"
"मैंने सोचा तेरे लिए धोतियों का जोड़ा लाऊँगा...।"
"मैं इन पैसों से धोतियाँ लूँगी? मैं इन पैसों को आग नहीं लगाऊँगी?" नत्थू की पत्नी ने आवेश में कहा, “तुमसे ऐसा कुकर्म करवाया।" पर फिर वह सँभल गई। मुस्कराने की निष्फल चेष्टा करते हुए बोली, “यह तो तेरी कमाई के पैसे हैं, मैं क्यों नहीं लूंगी। इनसे जो कहेगा लूंगी।"
वह उठ खड़ी हुई और ताक के पास गई, एड़ियाँ उठाकर ताक के ऊपर रखी रकम को देखा, फिर पति की ओर लौट आई। नत्थू की गर्दन और भी ज्यादा झुक गई थी और वह फिर किसी गहरी अँधेरी खोह में जा पहुँचा था।
“तूने वह आदमी देखा था जो मैदान के पार खड़ा था?" नत्थू ने सिर ऊपर उठाकर पूछा।
"हाँ तो, मगर इससे क्या है?"
"मैं सोचता हूँ वह बागड़ी था, जिसका सुअर मैंने अन्दर खींच लिया था। उसे ज़रूर पता चल गया होगा।"
"तुम्हें क्या हो गया। पता चल गया है तो आकर तुमसे ले ले। तुम कैसी बहकी-बहकी बातें करने लगे हो जी?" नत्थू की पत्नी ने ऊँची आवाज़ में कहा। फिर सिर फटककर बोली, "देखो जी, हम लोग चमड़े का काम करते हैं। जानवरों की खाल खींचना, उन्हें मारना हमारा काम है। तूने सुअर को मारा। अब वह उसे मस्ज़िद के सामने फेंके या हाट-बाज़ार में बेचे इससे हमें क्या? और तुम्हें क्या मालूम वही सुअर था या नहीं था जिसे मसीत के सामने फेंका था? तेरा इसमें क्या है?" फिर वह बड़ी लापरवाही के अन्दाज़ में बोली, "मैं तो इन पैसों से धोतियाँ लूँगी, ज़रूर लूँगी। तेरी कमाई के पैसे हैं। मेहनत की मजूरी है।" और वह फिर ताकी की ओर लौट गई और हँसते-चहकते हुए ताक पर से पैसे उठा लिये। पर फिर उसी क्षण उन्हें वहीं पर रख दिया।
"हाँ मुझे क्या! तू ठीक ही तो कहती है, मुझे क्या! भाड़ में जाए मुरादअली और उसका सुअर! मैं कल भी यही कहता था..."
नत्थू ने कहा और आश्वस्त-सा महसूस करने लगा।
"अब पूरे पन्द्रह रुपए मेरे पास हो गए...अब तू भी अपने लिए कुछ ले लेना।"
"मुझे कुछ नहीं चाहिए।" नत्थू भावोद्वेलित होकर बोला, "जब तू मेरे पास होती है तो मुझे लगता है मेरे पास सबकुछ है।"
नत्थू की पत्नी झट से कोठरी के कोने में रखे चूल्हे के पास जा बैठी और चाय बनाने लगी।
"जिसका दिल साफ़ होता है उसे भगवान कुछ नहीं कहते।" नत्थू की पत्नी बोली, “हमारा दिल साफ़ है। हमें किसी का डर क्यों होने लगा?" फिर वहीं बैठी-बैठी बोली, “मुझे तो बताया, अब डेरे में और किसी से नहीं कहना।"
"नहीं, मैं क्यों कहूँगा! तू भी किसी से नहीं कहना।"
नत्थू की पत्नी गिलासों में चाय डाल रही थी जब मैदान पार भागते क़दमों की आवाज़ आई। नत्थू की पत्नी का हाथ ठिठक गया। उसने आँख उठाकर नत्थू की ओर देखा पर बोली कुछ नहीं, उलटे मुस्करा दी।
थोड़ी देर बाद बाड़े में किसी चमार की आवाज़ आई। एक चमार दूसरे से पूछ रहा था, “क्या हुआ है चाचा?"
"दंगा हो गया है, रस्ते में।"
“कहाँ?"
"रस्ते में। हिन्दू-मुसलमान का दंगा हो गया है। कहते हैं दो आदमी मारे गए हैं।"
“यह आदमी कौन था जो भागा जा रहा था?"
"नहीं मालूम कौन था।...कोई बाहर का आदमी रहा होगा।"
कोठरी के अन्दर और बाहर फिर से चुप्पी छा गई। चमार अपनी कोठरी के अन्दर चला गया था या पिछवाड़े चला गया था।
नत्थू के हाथ में चाय का गिलास देते हुए उसकी पत्नी ने कहा, "तुम भी जाओ, डेरेवालों से मिल लो। चलो, मैं भी चलती हूँ। यहाँ बैठे-बैठे क्या करेंगे!"
नत्थू की पत्नी उठी और अनायास ही झाड़ लेकर कोठरी बुहारने लगी। एक-एक कोना, एक-एक चीज़ उठाकर नीचे से झाडू लगाने लगी। उसे स्वयं मालूम नहीं था कि वह ऐसा क्यों कर रही है। जैसे झाड़ से वह किसी छाया को कोठरी में से बुहारकर बाहर कर देना चाहती हो। देर तक वह कोठरी को बुहारती रही, फिर उसने कोठरी के फर्श को धोया, खूब पानी डाल-डालकर फ़र्श धोती रही। पर अन्त में जब थककर खाट पर बैठी तो उसे लगा जैसे बन्द दरवाज़े की दरारों में से बड़ी छाया फिर कोठरी में लौट आई है, कोठरी अँधेरी पड़ गई है, और छाया कोठरी के अन्दर चारों ओर मुस्कराने लगी है।