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भाग 10

9 अगस्त 2022

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दिन के उजाले में शहर अधमरा-सा पड़ा था, मानो उसे साँप सूंघ गया हो। मंडी अभी भी जल रही थी, म्युनिसिपैलिटी के फायर ब्रिगेड ने उसके साथ जूझना कब का छोड़ दिया था। उसमें से उठनेवाले धुएँ से आसमान में कालिमा पुत रही थी, जबकि रात के वक़्त आसमान लाल हो रहा था। सत्रह दूकानें जलकर राख हो चुकी थीं।

दूकानें बन्द थीं। दूध-दही की दूकानें कहीं-कहीं खुली थीं और उनके निकट दो-दो, चार-चार आदमी खड़े रात की घटनाओं के बारे में कयास लगा रहे थे। मार-काट के बारे में अफवाहें ज़्यादा थीं, गवालमंडीवाले कहते रत्ता में दंगा हुआ है, रत्तावाले कहते कमेटी मुहल्ले में दंगा हुआ है।

नया मुहल्ला के चौक में एक घोड़ा मरा हुआ पाया गया था। शहर के बाहर गाँव को जानेवाली सड़क पर एक अधेड़ उम्र के आदमी की लाश मिली थी। कालिज रोड पर जूतों की एक दूकान और साथ में बैठनेवाले दर्जी की दूकान लूट ली गई थी। एक और लाश शहर के सिरे पर एक कब्रिस्तान में मिली थी। लाश किसी अधेड़ उम्र के हिन्दू की थी और उसकी जेब में से कुछ रेजगारी और दहेज के कपड़ों की एक फेहरिस्त मिली थी।

मुहल्लों के बीच लीकें खिंच गई थीं, हिन्दुओं के मुहल्ले में मुसलमान को जाने की अब हिम्मत नहीं थी, और मुसलमानों के मुहल्ले में हिन्दू-सिख अब नहीं आ-जा सकते थे। आँखों में संशय और भय उतर आए थे। गलियों के सिरों पर, और सड़कों के नाकों पर जगह-जगह कुछ लोग हाथों में लाठियाँ और भाले लिये और मुश्कें बाँधे, छिपे बैठे थे। जहाँ कहीं हिन्दू और मुसलमान पड़ोसी एक-दूसरे के पास खड़े थे, बार-बार एक ही वाक्य दो रा रहे थे : 'बहुत बुरा हुआ, बहुत बुरा हुआ है।' इससे आगे वार्तालाप बढ़ ही नहीं पाता था। वातावरण में जड़ता-सी आ गई थी। सभी लोग मन ही मन जानते थे कि यह कांड यहीं पर ख़त्म होनेवाला नहीं है, लेकिन आगे क्या होगा किसी को मालूम नहीं था।

घरों के दरवाज़े बन्द थे, शहर का कारोबार, स्कूल, कालिज, दफ्तर सभी ठप्प हो गए थे। सड़क पर चलते आदमी को सारा वक्त इस बात का भास बना रहता कि खिड़कियों के पीछे, मकानों की अँधेरी ड्योढ़ियों, दरारों, छिद्रों में से उस पर आँखें लगी हैं, उसका पीछा किए जा रही हैं। लोग अपने-अपने मुहल्लों में बन्द हो गए थे, केवल उड़ती अफवाहों के बल पर एक-दूसरे से सम्पर्क रखे हुए थे, खाते-पीते घरों के लोग अपने-अपने बचाव में उलझ गए थे। सार्वजनिक काम ठप्प हो गए थे। कांग्रेस की प्रभातफेरी और तामीरी काम और सभी काम एक दिन में ख़त्म हो गए थे। फिर भी सुबह-सवेरे, हस्बे-मामूल जरनैल जैसे-तैसे सड़कें लाँघता कांग्रेस के दफ्तर के सामने पहुँच गया था। वहाँ पर ताला चढ़ा देखकर वह पौ फटने तक साथियों का इन्तज़ार करता रहा, और जब वे नहीं आए तो नाली के ऊपर बने चबूतरे पर खड़ा होकर उसने छोटी-सी तकरीर की और वहाँ से रवाना हो गया।

“साहिबान, चूँकि आज सभी बुजदिल चूहों की तरह घरों में घुसे बैठे हैं, मुझे अफसोस से कहना पड़ता है, कि आज प्रभातफेरी नहीं होगी, मैं आप सबसे माफ़ी चाहता हूँ और दरख्वास्त करता हूँ कि आप सब शहर में अमन बनाए रहें। यह सब शरारत अंग्रेज़ की है जो भाई-भाई को आपस में लड़ाता है। जय हिन्द!" और वह चबूतरे पर से उतरकर लेफ्ट-राइट करता अँधेरे में खो गया था।

उधर रणवीर रात को घर नहीं लौटा था, लेकिन जैसे-तैसे मास्टर देवव्रत ने उसके कुशल-क्षेम की खबर लाला लक्ष्मीनारायण को भिजवा दी थी। दूसरे, लालाजी अभी सोच ही रहे थे कि क्या करें, कहाँ जाएँ, कि शाहनवाज़ स्वयं पहुँच गया था। ऊँचा लम्बा रोबीला शाहनवाज़, वह अपनी गहरे नीले रंग की ब्यूक गाड़ी लेकर आया था। शाहनवाज़ के साथ लालाजी की जान-पहचान तो थी, पर बेतकल्लुफी नहीं थी। देखते ही देखते लालाली, उनकी पत्नी और बेटी उसी मोटर में बैठकर मुहल्ले में से निकल गए थे। नानकू अकेला मकान की हिफाजत के लिए पीछे छोड़ दिया गया था।

“मुस्तैदी से चौकीदारी करना, सोए नहीं रहना, नानकू, सारा घर तुम पर छोड़कर जा रहे हैं।"

और मोटर रवाना हो गई थी। नीली ब्यूक गाड़ी सुनसान सड़कों पर बल खाती चली जा रही थी। जगह-जगह रास्ते पर खड़े लोगों की नज़र उन पर जाती थी, सभी देखते थे कि अगली सीट पर ड्राइवर की जगह तुर्रेदार पगड़ी पहने शाहनवाज़ बैठा था, दोस्तों का दोस्त, चिट्टा दमकता चेहरा और उसकी बग़ल में लाला लक्ष्मीनारायण बैठे हैं, और पीछे जनानी सवारियाँ बैठी हैं। यों निकलकर जाना बड़ी हिम्मत की बात थी, और जब कहीं सड़क पर लोगों की गाँठ नज़र आती, लालाजी दूसरी ओर देखने लगते थे, जबकि पिछली सीट पर बैठी लालाजी की पत्नी शाहनवाज़ को असीसें दे रही थी-ऐसे लोगों के दिल में भगवान बसता है जो मुसीबत में लोगों का हाथ पकड़ते हैं।

और अब ब्यूक गाड़ी, लालाजी और उनके परिवार को सदर बाज़ार में उनके किसी सम्बन्धी के घर छोड़ देने के बाद फिर से शहर की सड़कों पर बढ़ती चली जा रही थी। अब शाहनवाज़ सीधे अपने जिगरी दोस्त रघुनाथ के डेरे पर जा रहा था। पर शाहनवाज़ को अपने बचाव की कोई चिन्ता नहीं थी, उसकी ब्यूक मोटर सभी जगह जाती थी।

जामा मस्ज़िद के सामने से होती हुई ब्यूक गाड़ी माई सत्तो के तालाब की ओर जा रही थी। सड़क के दोनों ओर के मकान छोटे-छोटे थे। छोटी-छोटी दूकानें, जिनके आगे लाठियों के सहारे सायबान खड़े किए गए थे, खंडहर-सी लग रही थीं। यह मुसलमानी इलाक़ा था। अधटूटा पुल पार करने के बाद मोटर सैयदों के मुहल्ले की ओर बढ़ चली। दाएं-बाएँ के घर ऊँचे उठने लगे। छज्जोंवाले दो-मंज़िला, तीन-मंज़िला घर, नीचे आगे को बढ़े हुए चबूतरे, किवाड़ों-खिड़कियों के ऊपर रंगीन शोशे। यहाँ हिन्दू वकील और ठेकेदार रहते थे। एक-आध को छोड़कर सभी हिन्दू थे, शाहनवाज़ का अनेकों के साथ उठना-बैठना था, बेतकल्लुफी थी, दोस्ती-यारी थी। वह जानता था इस वक़्त झरोखों में लगी आँखें उसकी ओर देखे जा रही हैं, पर उसे इस बात का भी विश्वास था कि सभी आँखें उसे पहचानती हैं। फिर भी उसने मोटर की रफ़्तार थोड़ी तेज़ कर दी।

माई सत्तो के तालाब के पास पहुँचकर वह दाएँ हाथ को मुड़ गया। यह इलाक़ा मिला-जुला इलाका था, सभी तरह के लोग रहते थे। दूकानों की एक लम्बी कतार जूतियाँ बनानेवालों की थी, ये लोग होशियारपुर से आए थे, सभी सिख थे, सभी दूकानें बन्द थीं। आगे चलकर कुछ कच्चे घर थे, जिनकी दीवारों पर गोबर की थापियाँ लगी थीं, यह इलाका भी सुनसान पड़ा था। यह भंगियों की बस्ती थी। शाहनवाज़ की मोटर फिर धीमी हो गई। यहाँ संकट का साया इतना गहरा हुआ नहीं जान पड़ता था, बिजली के खम्भे के इर्द-गिर्द दो बच्चे, एक-दूसरे को पकड़ने की कोशिश करते हुए घूम रहे थे। उन्हीं के नज़दीक बच्चों की एक और टोली खेल रही थी। पास से गुज़रते हुए शाहनवाज़ ने ध्यान से उनकी ओर देखा। बच्चे घेरा बनाए खड़े थे और घेरे के अन्दर एक छोटी-सी लड़की कुर्ता ऊपर खींचकर ज़मीन पर लेटी थी और उसकी जाँघों पर एक नन्हा-सा लड़का बैठा था-उसने भी अपना कुर्ता ऊपर को चढ़ा रखा था। आस-पास खड़े सभी बच्चे हँसी से लोट-पोट हो रहे थे। “कमज़ात! इन्हें और कोई खेल नहीं सूझा!" शाहनवाज़ बुदबुदाया और हँसकर आगे बढ़ गया। इस इलाके में अभी तक तनाव नहीं आया था. यदि था तो नजर नहीं आता था।

शाहनवाज़ के चेहरे की ओर देखते हुए यह नहीं लगता था कि कभी उसके मन में भी ओछे या क्षुद्र विचार उठ सकते होंगे। रोबीला जवान, छाती तनी रहती, तुर्रा लहराता रहता, बूट चमचमाते रहते, सदा सरसराते धोबी के धुले कपड़े पहनता था। 'ईमान से, यह किसी लड़की की तरफ़ देखकर मुसकरा दे, तो वह मुसकराए बिना नहीं रह सकती!'-उसके बारे में कहा जाता था। पर यह वर्षों पहले की बात थी, अब वह धीर-गम्भीर दुनियादार आदमी था, पेट्रोल के दो पम्पों का मालिक, इसकी मोटरें-लारियाँ चलती थीं, पर फिर भी दोस्तपरवर, मिलनसार, हँसमुख और जज़्बाती, जैसा पहले हुआ करता था, अब भी था।

दोस्तपरवरी उसका ईमान थी। जब शहर में गड़बड़ शुरू हुई थी और वह रघुनाथ का सुख-समाचार लेने आया था तो उसने रघुनाथ के घर की बगल में बैठनेवाले नानबाई से कहा था, “देख फकीरे, दोनों कान खोलकर सुन ले। अगर मेरे यार के घर को किसी ने बुरी नज़र से देखा तो मैं तुझे पकडूंगा। कोई इस घर के नज़दीक नहीं आए।"

मोटर अब बड़ी सड़क पर आ गई थी। इलाका खुल गया था, सड़कें चौड़ी थीं और आसपास के घर सड़कों से काफी दूरी पर थे। इलाका मुसलमानी था और मोटर धीमी रफ़्तार से चली जा रही थी। भाभड़खाने की ओर जानेवाली सड़क के सिरे पर मौलादाद खड़ा था। पीछे एक दूकान के चबूतरे पर पाँच-सात आदमी मुश्कें बाँधे और लाठियाँ और भाले हाथ में लिये बैठे थे। मौलादाद आज भी अपनी निराली पोशाक में था, खाकी रंग की बिरजिस, गले में हरे रंग का रेशमी रूमाल। शाहनवाज़ की मोटर को आता देखकर आगे बढ़ आया था। “क्या ख़बर है?" शाहनवाज़ ने मोटर खड़ी करते हुए पूछा।

"क्या ख़बर है खानजी, उधर पिछले मुहल्ले में काफिरों ने एक गरीब मुसलमान को मार डाला है।" कहते हुए मौलादाद के होंठों पर गुस्से से झाग आ गया।

मौलादाद की नज़र में गस्सा था, मानो वह कह रहा हो : 'तुम तो खान जी, काफिरों से बग़लगीर होते हो, उनके साथ उठते-बैठते हो जबकि मुसलमान मर रहे हैं।' पर वह कुछ भी बोला नहीं। मौलादाद जानता था कि उसकी पहुँच उस जगह तक नहीं जा सकती जिस जगह तक शाहनवाज़ की पहुँच जा सकती है। शाहनवाज़ का उठना-बैठना डिप्टी कमिश्नर तक से था, शहर के रईसों तक था, जबकि मौलादाद कमेटी के आस-पास ही बरसों से चक्कर काट रहा था।

“पाँच काफिर हमने भी काटे हैं। इनकी माँ की..."

शाहनवाज़ ने सुना-अनसुना कर दिया और मोटर चला दी।

वह थोड़ी दूर ही आगे गया था जब दाईं ओर एक गली में से सहसा बहुत-से लोग नमूदार हुए। चुपचाप चलते हुए लोग सड़क पार करने लगे थे। जनाज़ा था। आगे-आगे हयातबख्श चला जा रहा था। सिर पर कुल्ला, सफ़ेद कमीज़ और सलवार। लोगों के पैरों की हल्की-हल्की आहट हवा को जैसे थपकियाँ देती जा रही थी। शाहनवाज़ समझ गया था कि वह उसी मुसलमान की मय्यत होगी। जनाज़े के पीछे दो छोटे-छोटे लड़के भी जा रहे थे जो ज़रूर उसके बेटे रहे होंगे।

थोड़ी देर बाद सड़क साफ़ हो गई थी, शाहनवाज़ ने गाड़ी फिर चला दी।

फाटक लाँघकर शाहनवाज़ ने मोटर पेड़ के नीचे खड़ी कर दी और चाबी झुलाता बँगले की ओर बढ़ने लगा। पर्दे के पीछे खिड़की के पास रघुनाथ की पत्नी ने उसे सबसे पहले देखा, और उसे पहचानते ही उसे हार्दिक खुशी हुई।

"ओ कराड़, खोल दरवाज़ा।" बाहर से आवाज़ आई। रघुनाथ की पत्नी लपककर बाथरूम की ओर गई।

"शाहनवाज़ तुमसे मिलने आया है।" उसने दरवाज़े के बाहर पति को सम्बोधन करते हुए कहा, "मैं उसे बिठलाती हूँ, तुम आओ।"

दरवाज़ा खुलने से पहले ही शाहनवाज़ फिर से बोलने लगा था, "ओह याबू, बँगले में रहने लगा है तो दरवाज़ा ही नहीं खोलता।" फिर भाभी को सामने खड़ा देखकर अचकचा गया, “भाभी सलाम! किधर है मेरा यार?" उसने कहा और बैठनेवाले कमरे में दाखिल हो गया।

रघुनाथ की पत्नी ने बताया कि रघुनाथ बाथरूम में था और वह शाहनवाज़ के निकट कुर्सी पर बैठ गई।

“यहाँ कैसा है भाभी?" कोई तकलीफ तो नहीं? अच्छा किया वहाँ से निकल आए।"

"अच्छा है, पर अपना घर तो अपना ही होता है। अब न जाने कभी उसमें जाना होगा या नहीं!" कहते-कहते उसकी आँखें भर आईं।

शाहनवाज़ भी भावुक हो उठा। “रो नहीं भाभी, अगर मैं ज़िन्दा रहा तो तुम लोग ज़रूर फिर अपने घर में जाओगे। तू बेफ़िक्र रह।"

रघुनाथ की पत्नी शाहनवाज़ से पर्दा नहीं करती थी। उसके दोस्तों में से यही एक मुसलमान दोस्त था जिसके सामने वह बेझिझक आ जाती थी। रघुनाथ को इस बात का गर्व हुआ करता था कि उसका सबसे नज़दीकी दोस्त एक मुसलमान है।

“फातिमा को नहीं लाए? जब आते हो अकेले चले आते हो?"

"शहर में गड़बड़ है भाभी, तुम क्या समझती हो, मैं सैर को निकला हूँ?"

"तुम आ सकते हो तो वह नहीं आ सकती? मोटर में वह भी बैठ सकती थी।"

तभी रघुनाथ आ गया।

"ओ याबू, तुझे यहाँ भी टट्टियाँ लगी हैं। उधर से भाग के आया है काफिर और यहाँ भी टट्टियाँ करने लगा है।"

और दोनों बगलगीर हो गए। शाहनवाज़ का दिल फिर भावोद्रेक में डूब-डूब गया। "इस मेरे यार पर तो मेरी जान भी कुर्बान है, इसे कोई हाथ लगाकर तो देखे, उसकी चमड़ी उधेड़ दूं?'

भाभी बाहर जाने को हुई तो शाहनवाज़ ने उसे रोक दिया, “कहाँ जा रही हो भाभी, मैं खाना-वाना नहीं खाऊँगा।"

"क्यों? खाना क्यों नहीं खाओगे?"

“यह तो बोलता ही रहेगा जानकी, तुम खाना तैयार करो।" रघुनाथ बोला।

"जा जा, भिंडी खिलाएगा, मैं भिंडी नहीं खाता, भाभी मेरे लिए कुछ नहीं बनाना।"

पर जानकी जा चुकी थी, उसने पीछे से आवाज़ दी, “खुदाकसम भाभी, मैं कुछ नहीं खाऊँगा। मुझे जल्दी जाना है, मैं दो मिनट के लिए आया हूँ।"

“खाना नहीं खाओगे, चाय तो पियोगे?" भाभी कमरे की दहलीज़ पर लौट आई थी।

“यह तो मैं पहले से जानता था तुम खाना नहीं खिलाओगी, पर लाओ तुम चाय ही पिला दो।"

दोनों दोस्त बैठ गए। रघुनाथ ने गम्भीर आवाज़ में कहा, “बहुत गड़बड़ है, दिल को बड़ा दुख होता है, भाई-भाई का गला काट रहा है।"

पर सहसा इस वाक्य से दोनों के बीच एक तरह की दूरी-सी पैदा हो गई। उनके आपसी रिश्ते की बात और थी, हिन्दू-मुसलमान के रिश्ते की बात दूसरी थी, इस वाक्य से रघुनाथ ने मानो निजी रिश्ते के साथ जातियों के रिश्ते को जोड़ने की कोशिश की थी जिसके बारे में दोनों के अपने अलग-अलग विचार थे।

"सुना है गाँवों में भी फ़साद शुरू हो गए हैं।" रघुनाथ ने कहा। पर इस विषय पर अधिक वार्तालाप की गुंजाइश नहीं थी। दोनों अटपटा-सा महसूस करने लगे। यह विषय उनके हार्दिक वार्तालाप पर कोहरे की चादर-सा बिछ गया था।

“छोड़ याबू, तू अपनी बात कर।" शाहनवाज़ ने विषय बदलते हुए कहा, "जानता है कल मेरी किससे मुलाकात हो गई? भीम से।" शाहनवाज़ ने चहककर कहा।

"कौन-सा भीम?" रघुनाथ ने पूछा और फिर दोनों ठहाका मारकर हँस पड़े। भीम उनका लड़कपन का सहपाठी रहा था और किसी छोटे-से 'डेपुटी असिस्टेंट सिटी पोस्टमास्टर' का बेटा था और इसी नाम से अपना परिचय दिया करता था। इसी कारण सभी दोस्त उसका मज़ाक उड़ाया करते थे।

“यहीं रहता है काफिर, दो साल से, कभी मिला ही नहीं।" शाहनवाज़ ने कहा और शाहनवाज़ फिर ताली बजाकर हँस दिया। “मैंने दूर से ही उसे पहचान लिया, मैंने ज़ोर से कहा, 'डेपुटी असिस्टेंट सिटी पोस्टमास्टर साहिब!' कम्बख्त खड़ा हो गया। पर मिला बड़े प्यार से।"

भाभी चाय ले आई थी। मेज़ पर रखते हुए बोली, “मुझे आपसे एक काम है खानजी?"

भाभी के आ जाने से दोनों को इत्मीनान हुआ। फ़सादों के बारे में बात करते समय दोनों अटपटा महसूस करते थे, और मिल बैठें और इस भयानक स्थिति की चर्चा न करें, यह भी अटपटा लगता था। बचपन के मज़ाक और हँसी-मज़ाक भी इस परिप्रेक्ष्य में कुछ-कुछ खोखले लगने लगे थे।

"कहो न, भाभी।"

"अगर तकलीफ न हो तभी।"

"तुम कहो भी।"

"मेरे और मेरी जेठानी के जेवरों का एक डिब्बा घर में पड़ा है, वह निकलवाना है। जब आए थे तो थोड़ा-सा सामान लेकर चले आए, मैं कुछ भी साथ नहीं लाई।"

"इसमें क्या मुश्किल है भाभी, छोटा-सा तो काम है। कहाँ रखे हैं?"

“अधछत्तीवाली कोठरी में।"

शाहनवाज़ उनके घर के कोने-कोने से परिचित था। दोस्तों में यही एक दोस्त घर के अन्दर आ सकता था।

"उस पर तो ताला चढ़ा होगा? इतना बड़ा सिक्के का ताला।"

"मैं चाबियाँ देती हूँ। मैं जगह भी समझा दूंगी।"

"निकाल लाऊँगा। आज ही निकाल लाऊँगा।"

"मिलखी वहाँ पर होगा, वह ताला-वाला खोल देगा।"

"मिलखी वहीं पर है। मैं सुबह उस तरफ़ चक्कर लगा आया हूँ। उसे ख़बरदार करता रहता हूँ।"

"खाना-वाना कहाँ खाता है?"

"सारा घर उसके पास है। वहीं रसोईघर में खाना बना लेता होगा और क्या?" रघुनाथ बोला।

"रसद तो इतनी है कि छह महीने तक खाए तो ख़त्म नहीं होगी।" रघुनाथ की पत्नी ने कहा, फिर शाहनवाज़ की ओर देखकर बोली, "फिर लाऊँ चाभियाँ?"

शाहनवाज़ फिर भावुक हो उठा, उसे फिर गर्व का भास हुआ। हज़ारों के ज़ेवर की चाभियाँ भाभी मेरे हाथ में दे रही है, मुझे अपना समझती है तभी तो।

भाभी चाभियाँ खनकाती ले आई।

"और जो मैं तुम्हारा ज़ेवर हज्म कर जाऊँ तो, भाभी?"

"तुमसे ज़ेवर अच्छा है, खानजी? तुम उसे फेंक भी आओ तो मैं 'सी' नहीं करूँगी। मैं कहूँगी तुम्हारी बला से।"

और फिर गुच्छों में से चुन-चुनकर चाभियाँ दिखाने और समझाने लगी।

थोड़ी देर बाद शाहनवाज़ जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। दोनों दोस्त बाहर आए और चुपचाप चलते हुए मोटर तक आ गए।

"किस मुँह से तुम्हारा शुक्रिया अदा करूँ शाहनवाज़, तुमने मुझ पर बहुत बड़ा अहसान किया है।" रघुनाथ के दिल से अपने-आप ही जैसे कृतज्ञता के शब्द निकल आए थे।

“ओ चुप ओए, कराड़!" शाहनवाज़ ने कहा। "जा घर जाकर बैठ, टट्टी कर!" उसने कहा और मोटर का दरवाज़ा खोलकर अन्दर बैठ गया। रघुनाथ ठिठका खड़ा रहा।

"जा ना, जा, इधर मेरा मगज़ क्यों चाट रहा है?"

रघुनाथ फिर भी खड़ा रहा। उसने हाथ मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया, “जा न, अब जा न, मेरा हाथ गन्दा नहीं कर। जा किसी वाकिफ़ से बात कर। जा-जा, क्यों खड़ा मगज चाट रहा है? तेरे जैसे बहुत देखे हैं।"

और शाहनवाज़ ने मोटर चला दी।

दोपहर ढल चुकी थी जब ज़ेवरों का डिब्बा लेने शाहनवाज़, रघुनाथ के पुश्तैनी घर पर पहुंचा।

मिलखी ने दरवाज़ा देर से खोला, “कौन है जी?"

“खोलो दरवाज़ा, मैं हूँ शाहनवाज़।"

"कौन जी?"

"खोलो-खोलो, मैं शाहनवाज़ हूँ।"

“जी आया जी, अन्दर से ताला लगा है जी, अभी लाता हूँ जी चाभी, अँगीठी पर रखी है।"

सड़क के पार फीरोज़ खालवाले का गोदाम था। फीरोज़ अपने गोदाम के चबूतरे पर खड़ा खालों की दो गाँठों को ठिकाने लगा रहा था। शाहनवाज़ ने उस ओर देखा तो वह बुत की तरह खड़ा शाहनवाज़ की ओर देखे जा रहा था। शाहनवाज़ ने मुँह फेर लिया, पर उसे लगा जैसे अभी भी फीरोज़ उसकी ओर नफरत से देखे जा रहा था।

आज भी हिन्दुओं के घर का दरवाज़ा खटखटा रहे हो!' मानो वह मन ही मन कह रहा था।

एक ताँगा पास से गुज़रा । शाहनवाज़ ने घूमकर देखा। चौधरी मौलादाद अपनी अनोखी पोशाक पहने-बिरजिस और गले में हरे रंग का रेशमी रूमाल-खुले ताँगे में मुसलमानी इलाके की गश्त लगा रहा था। शाहनवाज़ को देखकर वह हँस दिया और हाथ ज़रूरत से ज़्यादा ऊँचा उठाकर 'सलाम अलैकम!' कहा।

शाहनवाज़ को झेंप हुई और नौकर पर गुस्सा आया कि वह क्यों दरवाज़ा खोलने में देरी लगा रहा है।

अन्दर ताला खुलने की आवाज़ आई, फिर मिलखी ने धीरे से दरवाजे का पल्ला थोड़ा-सा सरकाया और शाहनवाज़ को देखकर बत्तीसी निपोरने लगा। शाहनवाज़ ने पैर की ठोकर से दरवाज़ा खोल दिया और अन्दर चला गया।

"बन्द कर दो दरवाज़ा।"

“जी, खानजी।"

घर का अँधेरा बरामदा लाँघते हुए उसे स्निग्धता का भास हुआ। इस अँधेरे बरामदे में वह बहुत दिन बाद आया था। घर की सुपरिचित महक उसे अच्छी लगी। वर्षों पहले जब वह रघुनाथ के साथ बरामदा लाँधकर अन्दर आया करता था तो उसकी छोटी बेटी मुँह में उँगली दबाए देर तक उसकी ओर ताकती रहती थी, फिर दोनों बाँहें उठा देती थी कि मुझे गोद में उठा लो। हर बार वह आता तो वह भागती हुई बरामदे के सिरे पर आ जाती थी और दोनों बाँहें उठाकर हँसने लगती थी। इसी बरामदे को लाँघते समय घर की जवान औरतें दरवाज़े की ओर से अन्दर भाग जाया करती थीं, यह भी वर्षों पहले की बात थी जब रघुनाथ शुरू-शुरू में उसे अपने घर लाने लगा था। उन हँसती औरतों में से किसी की नज़र शाहनवाज़ पर पड़ जाती तो वह भागना छोड़कर रुक जाती।

“हाय आप हैं, मैंने सोचा, न जाने कौन है।"

शाहनवाज़ का दिल भर आया। इस घर में उसने रघुनाथ और उसके परिवार के साथ बड़ी अच्छी शामें बिताई थीं। यहाँ आते ही रघुनाथ के छोटे भाई की बहू उसके लिए अंडों का आमलेट बनाने चली जाती थी। घर के सभी लोग जानते थे कि शाहनवाज़ को आमलेट खाना पसन्द है। और धीरे-धीरे घर के सभी लोग आँगन में आकर बैठने लगते थे।

“खानजी, घर के सब लोग सुख से हैं न जी?" मिलखी ने हाथ जोड़कर पूछा।

तभी शाहनवाज़ का ध्यान मिलखी की ओर गया। मिलखी हाथ जोड़े घिधियाता-सा सामने खड़ा था। मिलखी की गॅदली आँखें और बातें करने का गिड़गिड़ाहट भरा ढंग और पिचका हुआ शरीर उसे कभी भी पसन्द नहीं आया था। इस वक्त भी मिलखी की आँखें गँदली थीं। कभी-कभी घर के सभी लोग मिलकर मिलखी से मज़ाक करते तो वह शरमाकर बाँहों से अपना मुँह ढक लेता, बिलकुल औरतों की तरह, तो सभी खिलखिलाकर हँसने लगते। तब वह शाहनवाज़ को बुरा नहीं लगता था, पर आम तौर पर वह उसे लसलसी छिपकली-सा लगा करता था। न जाने मिलखी कहाँ से आया था, न पंजाबी था, न गढ़वाली। अपने घिसे-पिटे छोटे-छोटे दाँतों के बीच से किसी खिचड़ी भाषा के शब्द पीस-पीसकर निकालता था।

आँगन के ऐन बीचोबीच तीन ईंटें रखकर मिलखी ने अपना चूल्हा बना रखा था। उसकी राख आँगन में जगह-जगह बिखरी थी, पर इससे भी ज़्यादा बीड़ियों के टुकड़े जगह-जगह पड़े थे।

“तू रसोईघर के अन्दर अपनी हाँडी क्यों नहीं पकाता?" शाहनवाज़ ने पूछा। मिलखी सिर टेढ़ा करके मुस्करा दिया।

"अकेला हूँ साहिबजी, यहीं पर अपनी दाल चढ़ा लेता हूँ।"

"रसद काफ़ी है न? किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं?"

"बहुत है खानजी, साथवाला नानबाई है न, वह भी रोज़ पूछ लेता है। आप ही उसे बोलकर गए थे।"

"कौन-सा नानबाई?"

“साहिब, जो नाले के पास बैठता है। वह मुझे बीड़ी के पैकेट भी फेंक देता है। बहुत भला आदमी है।" और मिलखी खी-खी करके हँस दिया।

आँगन के अन्दर से, ऐन रसोईघर की बगल में से सीढ़ियाँ ऊपर को चली गई थीं। शाहनवाज़ ने सीढ़ियों पर पैर रखते हुए आँगन में देखा। बड़े कमरे का दरवाज़ा जो आँगन में खुलता था, बन्द पड़ा था। कमरे के अन्दर क्या है, वह एक-एक चीज़ को जानता था, अँगीठी पर रघुनाथ की माँ का चित्र रखा है, कमरे में दो खाटें और एक ऊँचा पलँग बिछे हैं। बन्द दरवाज़े को देखते हुए उसे बड़ा सूना-सूना लगा। बन्द दरवाज़े के बाहर दहलीज़ के साथ मिलखी की चिलम उलटी पड़ी थी, पास में मैला-सा कपड़े का चिथड़ा पड़ा था।

"तू यहाँ बैठा क्या करता रहता है? फ़र्श भी नहीं बुहारता!"

“अब क्या बुहारना साहिबजी, अब तो वे चले गए!" मिलखी ने बत्तीसी निपोरते हुए कहा। शाहनवाज़ को लगता कि जब वे बातें करते हैं तो जैसे गुम्बद में से आवाज़ आती है और जब वे बोल चुकते हैं तो फिर चारों ओर सन्नाटा छा जाता है।

"असबाबवाली कोठरी बीचवाली छत पर है न?"

"जी, इधर सीढ़ियों के सामने, जहाँ बड़े ट्रंक रखे हैं।"

और मिलखी शाहनवाज़ के पीछे-पीछे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

चाभियों के गुच्छे में कुछ नहीं तो पन्द्रह चाभियाँ होंगी। कुछेक छोटी-छोटी पीतल की चाभियाँ थीं। भाभी ने पहले बड़े ताले की चाभी अलग करके दिखाई थी, फिर अलमारी के ताले की छोटी-सी पीतल की चाभी दिखाई थी : “यह चाभी है खानजी, भूलना नहीं।"

पर शाहनवाज़ को चाभी ढूँढ़ने में दिक्कत हो रही थी, "इस बड़े ताले की कौन-सी चाभी है, तुम्हें कुछ मालूम है?"

"हाँ साहिबजी, मैं बताऊँगा।"

और मिलखी चाभियों के गुच्छे पर झुककर यों ढूँढ़ने लगा जैसे कोई मुनीम बही पर झुककर आँकड़े पढ़ता है। ले-देकर मिलखी शाहनवाज़ की कोहनी से कुछ ऊपर तक आता था। शाहनवाज़ को पगड़ी के नीचे से मिलखी की चुटिया झाँकती नज़र आई, बाएँ कान के ऐन ऊपर कनखजूरे की तरह निकली हुई थी। शाहनवाज़ को झुरझुरी-सी हुई।

मिलखी ने ताला खोल दिया। कोठरी के अन्दर घुटन थी और अँधेरा था। मिलखी ने आगे बढ़कर कोठरी की एक खिड़की खोल दी जो घर के पिछवाड़े की ओर खुलती थी और जहाँ से एक मस्ज़िद का पूरा का पूरा आँगन नज़र आता था। खिड़की खुल जाने से कोठरी के अन्दर रखी सभी चीजें साफ़ नज़र आने लगीं।

कोठरी में घुटन थी, पर उससे अधिक औरतों के कपड़ों की महक थी। तीनों भाइयों की बीवियाँ, लगता था घर छोड़ने से पहले, जैसे-तैसे अपने कपड़े लपेटकर, कोठरी में ट्रंकों के ऊपर फेंक गई थीं। कोठरी सन्दूकों और ट्रंकों से ठसाठस भरी थी।

ट्रंकों के बीच से अपना रास्ता बनाते हुए वह उस अलमारी तक जा पहुँचा, जिसमें ज़ेवरों का डिब्बा रखा था।

तभी उसकी नज़र खुली खिड़की से मस्ज़िद के आँगन में पड़ी। वजू करने के ताल के पास बहुत-से आदमी बैठे थे। लगता था उनके बीच किसी आदमी की लाश रखी थी। उसकी आँखों के सामने उस जनाज़े का दृश्य भी घूम गया जब मोटर में वह रघुनाथ के घर की ओर जा रहा था। देर तक शाहनवाज़ खिड़की में से मस्ज़िद की ओर आँखें लगाए रहा।

डिब्बा निकालने में देर नहीं लगी। नीली मखमल से ढका डिब्बा, जो घर की किसी स्त्री का सिंगार-बक्स था, उसने बड़े एहतियात से निकाल लिया और अलमारी को ताला लगा दिया।

बाहर आने पर दोनों सीढ़ियाँ उतरने लगे। मिलखी के हाथ में चाभियों का गुच्छा था और वह आगे-आगे उतर रहा था। डिब्बे को दोनों हाथों में उठाए शाहनवाज़ पीछे-पीछे चला आ रहा था जब सहसा उसके अन्दर भभूका-सा उठा। न जाने ऐसा क्यों हुआ : मिलखी की चुटिया पर नज़र जाने के कारण, मस्ज़िद के आँगन के लोगों की भीड़ को देखकर, या इस कारण कि जो कुछ वह पिछले तीन दिन से देखता-सुनता आया था वह विष की तरह उसके अन्दर घुलता रहा था। शाहनवाज़ ने सहसा ही बढ़कर मिलखी की पीठ में ज़ोर से लात जमाई। मिलखी लुढ़कता हुआ गिरा और सीढ़ियों के मोड़ पर सीधा दीवार से जा टकराया। जब वह नीचे गिरा तो उसका माथा फूटा हुआ था और पीठ टूट चुकी थी, क्योंकि जहाँ गिरा वहाँ से वह उठ नहीं पाया। शाहनवाज़ उसके पास से निकलकर आया तो मिलखी का सिर नीचे की ओर लटक रहा था और टाँगें आखिरी दो सीढ़ियों से लटक रही थीं। शाहनवाज़ का गुस्सा, जिसका कारण वह स्वयं नहीं जानता था, बराबर बढ़ता जा रहा था। पास से गुज़रते हुए उसका मन हुआ पैर उठाकर उसके मुँह पर दे मारे, और कीड़े को कुचल दे, पर सीढ़ियों के मोड़ पर उसे अपना सन्तुलन खो देने का डर था।

नीचे आँगन में पहुँचकर उसने एक बार मिलखी की ओर देखा। मिलखी की आँखें खुली थीं और शाहनवाज़ के चेहरे पर ऐसे लगी थीं मानो बात उसकी समझ में भी न आ रही हो कि उसकी किस भूल से खफा होकर खानजी ने उसे मारा था। मिलखी के मुँह से गिरते समय घुटता-सा शब्द निकला था, पर अब मिलखी चुप था, या तो भय से ही दम तोड़ गया था, या बेहोश पड़ा था या फिर गर्दन की हड्डी टूट गई थी।

शाहनवाज़ ने उसे वहीं छोड़ा, ज़ेवरों का डिब्बा बग़ल में दबाकर वहाँ से निकल आया और बड़ा ताला जो पहले मिलखी ने घर के अन्दर लगा रखा था उसे घर के बाहर लगा दिया।

उसी रात भाभी के हाथों में ज़ेवरों का डिब्बा देते हुए शाहनवाज़ विचलित नहीं हुआ। डिब्बा हाथ में लेते समय भाभी की आखें डबडबा आईं। भाभी का रोम-रोम कृतज्ञता से भर उठा था। रघुनाथ अन्दर ही अन्दर उसके चरित्र, उसके ऊँचे विचारों की प्रशंसा कर रहा था जिनके कारण आज के ज़माने में जब चारों ओर आग की लपटें उठ रही थीं, एक मुसलमान दोस्त उसके प्रति इतना निष्ठावान था।

“पर एक बुरी ख़बर भी लाया हूँ भाभी।"

"क्यों, क्या चोरी हो गई है?"

"नहीं, मिलखी सीढ़ियों पर से बुरी तरह गिरा है और शायद उसकी कोई हड्डी टूट गई हो। पहले सोचा किसी डॉक्टर-वाक्टर को बुलाऊँ, पर आजकल डॉक्टर मिलते कहाँ हैं। कल उसका कोई इन्तज़ाम करूंगा।"

"बेचारा।"

"कहो तो उसे यहाँ डाल जाऊँ। वहाँ अकेला कहाँ पड़ा रहेगा? मैं अपना कोई आदमी रखवाली के लिए छोड़ आऊँगा।"

पर भाभी और रघुनाथ दोनों ही इस सुझाव पर हिचकिचाए। वे स्वयं नए इलाके में अभी अजनबी थे। उनसे एक मरीज की देखभाल कहाँ होगी। अगर शाहनवाज़ के लिए डॉक्टर ढूँढ़ना कठिन हो रहा है तो उनके लिए कहाँ सम्भव होगा।

"मैं इन्तज़ाम कर दूंगा।" शाहनवाज़ ने सिर हिलाकर कहा, "कोई न कोई इन्तज़ाम हो जाएगा, ऐसी मुश्किल भी क्या है।"

भाभी इस बात पर भी शाहनवाज़ की कृतज्ञ थी और उसके ऊँचे प्रशस्त ललाट, दमकते चेहरे को देख-देखकर उसे लग रहा था जैसे वह किसी पुण्यात्मा के दर्शन कर रही है।

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रचनाएँ
तमस
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'तमस' की कथा परिधि में अप्रैल १९४७ के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है। 'तमस' कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षों की कथा हो जाती है। आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी होने के बावजूद इसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उदघाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं।
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तमस भाग 1

9 अगस्त 2022
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आले में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर बाद ब

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भाग 2

9 अगस्त 2022
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प्रभातफेरी में भाग लेने के लिए आरंभ में दो गिने-चुने लोग ही पहुँचते थे। बाद मे गलियाँ और बाज़ार लाँघते हुए जिस किसी का घर रास्ते में पड़ता वह तोंद खुजलाता, जम्हाइयाँ लेता साथ में शामिल हो जाता था। ह

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भाग 3

9 अगस्त 2022
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गली में क़दम रखते ही नत्थू ने चैन की साँस ली। गली में अँधेरा था जबकि सड़कों पर अँधेरा छटने लगा था। नत्थू जल्दी से जल्दी गलियों का जाल लाँघकर अपने डेरे पर पहुँच जाना चाहता था। उस बदबू-भरी कोठरी में से

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भाग 4

9 अगस्त 2022
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टीले के ऊपर पहुँचकर दोनों ने अपने घोड़े रोक लिये। सामने दूर तक चौड़ी घाटी फैली थी जो पहाड़ों के दामन तक चली गई थी। लगता दूर क्षितिज पर सतरंगी धूल उड़ रही है। विशाल मैदान, कहीं-कहीं छोटी-छोटी पहाड़ियाँ

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भाग 5

9 अगस्त 2022
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अँधेरा छटने लगा था जब प्रभातफेरी की मंडली गलियाँ लाँघती हुई "इमामदीन के मुहल्ले में पहुँची। रास्ते में शेरखान के घर से झाड़, बेलचे, कड़ाहियाँ और सफाई का अन्य सामान लेकर वे आगे बढ़ने लगे थे। सुबह की रो

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भाग 6

9 अगस्त 2022
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साप्ताहिक सत्संग की समाप्ति से पहले पुण्यात्मा वानप्रस्थीजी सदा की भाँति मन्त्रपाठ करने लगे। इस मन्त्रपाठ को वह सत्संग रूपी यज्ञ की 'अन्तिम आहुति' कहा करते थे। गिने-चुने इन विशिष्ट मन्त्रों तथा श्लोको

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भाग 7

9 अगस्त 2022
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दफ्तर में मिलने के बजाय आप लोग घर पर मिलने आए। ज़रूर कोई बहुत ही ज़रूरी काम रहा होगा।" रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा। चपरासी ने चिक उठा दी। नागरिकों के शिष्टमंडल के सदस्य एक-एक करके कमरे के अन्दर दाखिल हुए

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भाग 8

9 अगस्त 2022
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शहर में सब काम जैसे बँटे हुए थे : कपड़े की ज़्यादातर दूकानें हिन्दुओं की थीं, जूतों की मुसलमानों की, मोटरों-लारियों का सब काम मुसलमानों के हाथों में था, अनाज का काम हिन्दुओं के हाथ में। छोटे-छोटे काम

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भाग 9

9 अगस्त 2022
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'ऐसा 'बेवाका' घर है, कोई चीज़ एक बार कहीं रख दो, फिर मिलती ही नहीं, ढूंढ-ढूँढ़ मरो उसे।" लाला लक्ष्मीनारायण अलमारी के सामने खड़े बड़बड़ा रहे थे। अलमारी के निचले खाने में कपड़ों के नीचे उन्होंने एक नन्

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भाग 10

9 अगस्त 2022
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दिन के उजाले में शहर अधमरा-सा पड़ा था, मानो उसे साँप सूंघ गया हो। मंडी अभी भी जल रही थी, म्युनिसिपैलिटी के फायर ब्रिगेड ने उसके साथ जूझना कब का छोड़ दिया था। उसमें से उठनेवाले धुएँ से आसमान में कालिमा

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भाग 11

9 अगस्त 2022
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देवदत्त नहा-धोकर, हाथ मलता हुआ अपने घर के सामने आ खड़ा हुआ। जब कभी वह हाथ मलता हो, या दाएँ हाथ से मुँह और नाक सहलाता हुआ फिर से दोनों हाथ मलने लगे तो समझ लो देवदत्त अपनी कार्य-सूची तैयार कर रहा है। दे

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भाग 12

9 अगस्त 2022
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एक आदमी छज्जे पर पहरा दे।" रणवीर ने घूमकर कहा। मुर्गी काटकर दीक्षा पाने से उसमें भरपूर आत्म-विश्वास पैदा हो गया था। वह दल का सबसे चतुर, सबसे चुस्त और सबसे ज़्यादा कार्यकुशल सदस्य था। उसकी आवाज़ में कड

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भाग 13

9 अगस्त 2022
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नत्थू परेशान था। अपनी कोठरी के बाहर बैठा वह चिलम पर चिलम फूँके जा रहा था। जितना अधिक वह मार-काट की अफवाहों को सुनता, उतना ही अधिक उसका दिल बैठ जाता। बार-बार अपने मन को समझाता, मैं अन्तर्जामी तो नहीं ह

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भाग 14

9 अगस्त 2022
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पहली बस खानपुर से चलकर सुबह आठ बजे गाँव पहुँचती थी। वह नहीं आई। उसके बाद हर घंटे दो घंटे के बाद शहर की ओर से भी और खानपुर की ओर से भी बसें आती थीं। आज दोपहर हो गई, एक भी बस नहीं आई। चाय की दुकान में क

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भाग 15

9 अगस्त 2022
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गुरुद्वारा खचाखच भरा था और संगत मस्ती में झूम रही थी! बस अनमोल समय था। रागी पूरी तन्मयता से आँखें बन्द किए गा रहे थे : “तुम बिन कौन मेरे गोसाईं..." संगत में सबके हाथ जुड़े हुए, आँखें बन्द और सिर वजद

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भाग 16

9 अगस्त 2022
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हरनामसिंह ने दूसरी बार साँकल खटखटाई तो अन्दर से किसी स्त्री की एआवाज़ आई : "घर पर नहीं हैं, मर्द बाहर गए हैं।" हरनामसिंह ठिठका खड़ा रहा। बन्तो की आँखें दाएँ-बाएँ देख रही थीं कि आसपास उन्हें किसी ने

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भाग 17

9 अगस्त 2022
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इस बीच देहात की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर एक और नाटक खेला जा रहा २ था। रमज़ान और उसके साथी ढोक इलाहीबख्श और मुरादपुर की ओर से लूटपाट का सामान उठाए हँसते-बतियाते लौट रहे थे जब उन्हें दूर एक टीले के पास, एक भ

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भाग 18

9 अगस्त 2022
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तुर्क आए थे पर वे अपने ही पड़ोसवाले गाँव से आए थे। तुर्कों के ज़ेहन में भी यही था कि वे अपने पुराने दुश्मन सिखों पर हमला बोल रहे हैं और सिखों के जेहन में भी वे दो सौ साल पहले के तुर्क थे जिनके साथ खाल

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भाग 19

9 अगस्त 2022
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शहर की सड़क पर निकलते ही पता चल जाता था कि माहौल बदल गया है। मुहल्ला कुतुबदीन की मस्जिद के सामने, सड़क के पार चार हथियारबन्द फौज़ी कुर्सियाँ डाले बैठे थे। सड़क पर चलते हुए हर चौक पर दो-तीन फौजी बन्दूक

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भाग 20

9 अगस्त 2022
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हमें आँकड़े चाहिए, केवल आँकड़े! आप समझते क्यों नहीं? आप लम्बी हाँकने लगते हैं, सारी रामकहानी सुनाने लगते हैं, मुझे रामकहानी नहीं चाहिए, मुझे केवल आँकड़े चाहिए। कितने मरे, कितने घायल हुए, कितना माली नु

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भाग 21

9 अगस्त 2022
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अमन कमेटी की मीटिंग के लिए लोग हॉल में इकट्ठे हो रहे थे। यही एक जगह चुनी गई थी जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी, क्योंकि कालिज न हिन्दुओं का था, न मुसलमानो का, कालिज ईसाइयों का था, प्रिंसिपल भी ह

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