तुर्क आए थे पर वे अपने ही पड़ोसवाले गाँव से आए थे। तुर्कों के ज़ेहन में भी यही था कि वे अपने पुराने दुश्मन सिखों पर हमला बोल रहे हैं और सिखों के जेहन में भी वे दो सौ साल पहले के तुर्क थे जिनके साथ खालसा लोहा लिया करता था। यह लड़ाई ऐतिहासिक लड़ाइयों की श्रृंखला में एक कड़ी ही थी। लड़नेवालों के पाँव बीसवीं सदी में थे, सिर मध्ययुग में।
घमासान युद्ध हुआ। दो दिन और दो रात तक चलता रहा। फिर असला चुक गया और लड़ना नामुमकिन हो गया। अब गुरुग्रन्थ साहब की चौकी के पीछे, सफ़ेद चादरों से ढकी सात लाशें पड़ी थीं। पाँच लाशों के सिर अपनी-अपनी गोद में रखे पाँच औरतें बैठी थीं। बहुत आग्रह करने पर कुछ देर के लिए वे उठ जातीं, पर तेजासिंह के पीठ मोड़ने की देर होती कि वे फिर आ बैठती थीं। दो लाशों का वली वारिस कोई नहीं था। इनमें से एक लाश निहंगसिंह की थी जो उस समय भी, जब गोलियों की बौछार पड़ने लगी थी, मूंछों को ताव देता हुआ, छत पर खड़ा रहा था। दूसरी लाश सोहनसिंह की थी जो शहर से फ़साद रोकने के लिए आया था। यह आदमी गली के सिरे पर मारा गया था जहाँ वह लड़ाई के दूसरे दिन युद्ध रोकने का एक सुझाव पेश करने शेख गुलाम रसूल से मिलने जा रहा था। उसकी लाश वहीं पड़ी रहती पर कुछ मुसलमान, गहरी रात गए उसे गुरुद्वारे के नज़दीक फेंक गए, सिखों को यह बताने के लिए कि यह है जवाब उस प्रस्ताव का जो तुमने सोहनसिंह के हाथ भेजा था। उसकी लाश एक ओर को पड़ी थी और उसे किसी ने गोद में नहीं ले रखा था। यों भी सोहनसिंह के मरने के कुछ देर पहले सोहनसिंह और मीरदाद दोनों ही की स्थिति अमन करनेवालों की जगह मात्र हरकारों की रह गई थी।
इनके अलावा बहुत-सी लाशें कस्बे के अन्दर जगह-जगह बिखरी पड़ी थीं। उन्हें ठिकाने लगाने का अभी सवाल ही नहीं उठता था। खालसा स्कूल के चपरासी की लाश स्कूल के आँगन में पड़ी थी। बलवे के दिन, जब गुरुद्वारे में संगतें जमा होने लगी थीं, चपरासी को हिदायत की गई थी कि वह स्कूल में ही डटा रहे। चपरासी की पत्नी ज़िन्दा थी, लेकिन उसे नम्बरदार ने घर पर रख लिया था, इसलिए सही-सलामत थी। माई भागाँ की लाश उसके घर के अन्दर ही आँगन में पड़ी थी। माई भागाँ ने मरकर भी अपने ज़ेवर बचा लिये थे, क्योंकि वे दीवार में गड़े थे और हमलावरों को उनके बारे में कुछ भी पता नहीं चल पाया। माई भागाँ का घर आग की नज़र होने से भी बच गया था क्योंकि जुड़वाँ घर रहीमे तेली का था। माई भागाँ की एक झापड़ पड़ने से ही जान निकल गई थी। बूढ़ा सौदागरसिंह भी मरा पड़ा था, उसे भी लोग गुरुद्वारे में पहुँचाना भूल गए थे।
कुछ लाशें कस्बे के बाहर भी जगह-जगह पड़ी थीं। एक लाश कुएँ के पास औंधी पड़ी थी। यह आदमी मुगालते में मारा गया था। यह कस्बे का भिश्ती अल्लाहरखाँ था जो फ़िसाद के बावजूद अपनी मश्क लेकर चाँदनी रात में कुएँ पर चला आया था। शेख के घर में पानी का तोड़ा हो गया था और बच्चे पानी माँग रहे थे और तभी भिश्ती मश्क उठाकर पानी लेने आ गया था और शेख के घर की छत पर से ही सीधा अचूक निशाना उसकी पीठ पर लगा था। एक लाश किसी सरदार की थी जो शहर से आनेवाली सड़क पर पड़ी थी। फतहदीन नानबाई, जिसकी दूकान गुरुद्वारे को जानेवाली गली के बाएँ सिरे पर पड़ती थी, स्वयं तो बच गया था लेकिन उसकी दूकान पर काम करनेवाले दोनों छोटे-छोटे लड़के मारे गए थे। फ़िसादों के बावजूद ये बच्चे भाग-भागकर दूकान में से बाहर आ जाते थे। कभी एक-दूसरे के पीछे भागने लगते, कभी गली में खेलने लगते थे। इसके अलावा खालसा स्कूल में से आग के शोले अभी भी निकल रहे थे। बाईं गली के सिरे पर नदी के ऐन ऊपरवाले हिस्से में सिक्खों के सभी मकान आग की नज़र कर दिए गए थे। दूसरी ओर कसाइयों की तीनों दूकानें, और तेली मुहल्ले के तीन-चार मुसलमानों के घर अभी भी जल रहे थे।
अब गुरुद्वारे में असला लगभग चुक गया था। छत पर बैठा किशनसिंह हर मिनट-दो मिनट बाद एकाध गोली चला देता ताकि दुश्मन को मालूम रहे कि मोर्चा कायम है, वरना अन्दर हालत पतली हो चुकी थी। सारे गुरुद्वारे में एक प्रकार की थकान छाने लगी थी। आँखें एक-दूसरे को देखतीं, पर मुँह से बोल नहीं फूटते थे। “बारूद ख़त्म हो रहा है," न जाने किसके मुँह से निकला था, पर जिस-जिसके कान में पड़ा वहीं निश्चेष्ट ताकता रह गया। असला, दूसरी ओर, शेखों के 'किले' में भी चुक गया था, पर उसे छिपाने के लिए बार-बार दोनों ओर से नारे लगाए जा रहे थे। “अल्लाह-हो-अकबर!" के नारे अब एक दिशा की बजाय तीन दिशाओं से आने लगे थे। नारे का जवाब गुरुद्वारे में से भी दिया जाता, पहले से भी ज़्यादा ऊँची आवाज़ के साथ, पर नारों का खोखलापन अब किसी से छिपा नहीं था।
मुख़बरों की खबर थी कि मुसलमानों को बाहर से कुमुक पहुँचनेवाली है, जबकि सिखों का सम्पर्क बाहर से कट गया था। दो आदमी छिपे-लुके कहूटा की ओर कुमुक के लिए भेजे गए थे जो अभी तक लौटकर नहीं आए थे। युद्ध-परिषद् का विचार था कि पैसे दे-लेकर सुलह कर ली जाए और उन्होंने अपने एलची द्वारा शेखों से बात शुरू कर भी दी थी।
गुरुद्वारे के अन्दर, दरवाज़े के पास युद्ध-परिषद् के पाँचों सदस्य तेजासिंह जी के साथ समझौते की शर्तों पर विचार कर रहे थे।
“दो लाख माँगते हैं। दो लाख हम कहाँ से दें?" तेजासिंह ने आवेश में कहा।
"आपने छोटे ग्रन्थी को क्या कहलाकर भेजा था?" एक सदस्य ने पूछा।
समझौते की बातचीत के लिए तेजासिंह ने सोहनसिंह के मर जाने के बाद मीरदाद को बिचौलिया बनाने की कोशिश की थी, क्योंकि वह फ़साद से पहले सुलह कराने की कोशिश करता रहा था। पर उसे जब पता चला कि रुपया ले-देकर गोली चलाना बन्द होगा तो उसने मुँह फेर लिया। लाचार होकर तेजासिंह ने ग्रन्थी के छोटे भाई, जिसे सभी ‘छोटा ग्रन्थी' कहकर पुकारते थे, सन्देश देकर भेजा था।
“मैंने कहा था बीस-तीस हज़ार कहना।" तेजासिंहजी ने कहा, “पर वे दो लाख माँगते हैं।"
"उन्हें पता चल गया होगा कि हमारी हालत कमज़ोर पड़ गई है।"
“उनके बाप को भी पता नहीं चल सकता।" पंसारी हीरासिंह ने तैश में आकर कहा, "हमने उनके कम आदमी नहीं काटे हैं। उन्नीस-बीस का ही फ़र्क होगा, सिंहजी। यह बदकिस्मती हमारी कि असला चुक गया...।"
दूर से फिर आवाज़ आई, “अल्लाह-हो-अकबर!'
"जेवर-गहने कितने इकठे हुए हैं?" एक और सदस्य ने पूछा।
तेजासिंहजी उठकर गुरु-ग्रन्थ साहब की चौकी के सामने रखे एक बक्से के पास गए! उसे खोलकर उन्होंने गहनों को-जो स्त्रियाँ अपने शरीर पर से उतार-उतारकर डाल गई थीं अपने दोनों हाथों में लिया और उनके वजन का अन्दाज़ा लगाते हुए उनका मूल्य आँकने लगे।
“बीस-पच्चीस हज़ार से ज्यादा का नहीं होगा।...वे दो लाख माँगते हैं। हम दो लाख कहाँ से लाएँ?"
"देना चाहें तो दो लाख आप अकेले दे सकते हैं, तेजासिंहजी, आपने बड़ी माया इकट्ठी की है।"
पर तेजासिंह ने इस टिप्पणी की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। "कहो पचास हज़ार देंगे।"
“पचास हज़ार बहुत कम हैं, वे नहीं मानेंगे।"
“तुम कहके तो देखो। नीचे से शुरू करोगे तो कहीं एक लाख पर फैसला होगा।"
तेजासिंह ने छोटे ग्रन्थी को बुला भेजा, “जाओ ग्रन्थीजी, उनके साथ एक लाख तक फैसला कर लो। पर शर्त यह है कि बाहर से आनेवाले लोग नदी पर चले जाएँ, फिर अपने तीन नुमाइन्दे भेज दें, हमारे आदमी थैलियाँ लिए खड़े होंगे।"
छोटे ग्रन्थी ने हाथ बाँधकर कहा, “सत बचन, महाराज, पर अगर उन्होंने कहा कि थैलियाँ पहले दो, हम नदी पार बाद में करेंगे, तो मैं क्या कहूँ?"
इस पर पंसारी फिर तैश में आ गया, “क्यों, क्या हमारी ज़बान का एतबार नहीं है? क्या हम लाहौरिए हैं? अमृतसरिए हैं, कि आज कुछ कहें और कल कुछ? हम सैयदपुर के रहनेवाले हैं, हमारी जबान पत्थर पर लकीर होती है।"
सैयदपुर के निवासी होने का सिखों को भी उतना ही गुमान था जितना मुसलमानों को, सभी को सैयदपुर की लाल मिट्टी पर, बढ़िया गेहूँ पर, लुकाटों के बागों पर, यहाँ तक कि सैयदपुर के कड़े जाड़ों पर और बर्फीली हवा पर समान रूप से नाज़ था, और इसी भाँति अपनी मेहमानवाजी पर, दर्यादिली पर और हँसमुख स्वभाव पर भी नाज़ थ। फ़साद शुरू होने पर दोनों ओर के लोग सैयदपुर के निवासी होने के नाते ही छाती ठोककर मैदान में कूदे थे।
चाँद फिर निकल आया था, जिससे मोर्चेवालों को रात का दृश्य भयावह लगने लगा था। आज रात फिर गोलाबारी हुई तो कुछ भी हो सकता है, आगजनी हो सकती है, लूटपाट हो सकती है। अब सभी निर्णय गलत जान पड़ने लगे थे, गुरुद्वारे में इकट्ठा होना भूल थी, शेख गुलाम रसूल और उसके साथियों से बातचीत तोड़ देना भूल थी, इन भूलों का कोई अन्त नहीं था। अगर दुश्मन पर गालिब आ जाते तो यही भूलें रणनीति की बढ़िया चालें मानी जातीं।
शेख गुलाम रसूल के घर के बाहर चबूतरे पर कुछ लोग बैठे बतिया रहे थे। अपनी लाशें ठिकाने लगाने का इन्हें भी मौका नहीं मिला था, मगर जहाँ गुरुद्वारे की स्थिति एक घिरे हुए स्थान की-सी थी वहाँ शेखों का मकान खुली जगह पर था, उसका सम्पर्क आसपास के सभी गाँवों से था।
चबूतरे पर बैठे मुजाहिद बाहर से आए थे। सभी अपने-अपने कारनामों के किस्से सुना रहे थे, अपने-अपने अनुभव सुना रहे थे :
"हम जब गली में घुसे तो कराड़ भागने लगा, कोई इधर जाए, कोई उधर जाए। हिन्दुओं की एक लड़की अपने घर की छत पर चढ़ गई। हमने देख लिया जी। सीधे दस-बारह आदमी उसके पीछे छत पर पहुँच गए। वह छत की मुँडेर लाँघकर दूसरे घर की छत पर जा रही थी जब हमने उसे पकड़ लिया। नबी, लालू, मीरा, मुर्तज़ा, बारी-बारी से सभी ने उसे दबोचा।
"ईमान से?" एक ने संशय से पूछा।
"कसम अल्लाह पाक की। जब मेरी बारी आई तो नीचे से न हूँ, न हाँ, वह हिले ही नहीं, मैंने देखा तो लड़की मरी हुई।" और वह खोखली-सी हँसी हँसकर बोला, “मैं लाश से ही ज़ना किए जा रहा था।"
"ईमान से?" उसके साथी ने हुंकारा-सा भरते हुए कहा।
"कसम कुरान शरीफ की, मैं ठीक कहता हूँ। पूछ ले जलाल से, यह भी वहीं पर था। तभी हमने देखा, औरत मरी हुई है।" और उसने मुँह टेढ़ा करके थूक दिया।
एक और मुज़ाहिद सुनाने लगा, “वक्त-वक़्त की बात है। एक बागड़ी औरत को हमने गली में पकड़ा। हम कराड़ों के घर के अन्दर से निकल रहे थे। ऐसा हाथ चल रहा था, जो सामने आता, एक बार में गर्दन साफ हो जाती। यह औरत सामने आई तो चिल्लाने लगी। हरामज़ादी कहे जा रहे थी, मुझे मारो नहीं, मुझे तुम सातों अपने पास रख लो, एक-एक करके जो चाहो कर लो। मुझे मारो नहीं।"
"फिर?"
"फिर क्या? अज़ीज़े ने सीधा खंजर उसकी छाती में मारा। वहीं ख़त्म हो गई।"
ढलान पर छिटकी चाँदनी में छोटा ग्रन्थी धीरे-धीरे ढलान पर उतर रहा था। नदी के किनारे मुसलमानों के नुमाइन्दे सन्धि-वार्ता के लिए खड़े थे। गुरुद्वारे की एक खिड़की से ढलान नज़र आती थी, इसलिए बहुत-से लोग दम साधे छोटे ग्रन्थी की ओर देखे जा रहे थे। चाँदनी रात में बस एक काया-सी नीचे उतरती नज़र आ रही थी। तभी छत पर भागते कदमों की आवाज़ आई और एक निहंगसिंह ने वहीं से आवाज़ दी, “पश्चिम से बलवाई आ रहे हैं। दुश्मनों को कुमक मिल गई है।"
और देखते ही देखते दूर से सचमुच बलवाइयों की परिचित आवाज़ कानों में पड़ी : ढोल बजने की आवाज़ और “अल्लाह-हो-अकबर!" नारे की आवाज़।
तेजासिंह का चेहरा उतर गया। बड़ा ग्रन्थी जो खिड़की से जुड़ा अपने छोटे भाई को ढलान उतरता देख रहा था, चिल्ला उठा, “मत जाओ मेहरसिंह, लौट आओ!"
पर छोटे ग्रन्थी ने नहीं सुना, वह बराबर नदी-तट के गोल-गोल पत्थरों पर टेढ़ा-मेढ़ा चलता हुआ नीचे उतरता जा रहा था।
“लौट आओ मेहरसिंह, आ जाओ!"
बड़े ग्रन्थी ने कहा, फिर अनेक आवाजें उठीं। छोटे ग्रन्थी ने एक बार रुककर पीछे की ओर देखा और फिर आगे बढ़ने लगा।
ढोल पीटते और बढ़ते आ रहे बलवाइयों की आवाजें और ज़्यादा नज़दीक आती जा रही थीं। जवाब में अब नदी-तट पर खड़े नुजाहिद भी "अल्लाह-हो-अकबर" के नारे लगाने लगे थे। छोटा ग्रन्थी चाँदनी रात की सफ़ेद और काले बड़े-बड़े चित्तों की रोशनी में खोता चला जा रहा था।
खिड़की में से अब बहुत साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था, लेकिन उन्हें लगा जैसे कुछ लोग छोटे ग्रन्थी से मिलने आगे बढ़कर आए हैं, फिर उन्हें यह भी लगा कि लोगों ने ग्रन्थी को घेर लिया है, फिर यह भी कि कुछ लाठियाँ उठी हैं, चाँदनी में कोई चीज़ चमकने भी लगी थी, जो, या तो किसी की कुल्हाड़ी थी या छोटे ग्रन्थी की तलवार थी। और शीघ्र ही “अल्लाह-हो-अकबर!" का नारा फिर बुलन्द हुआ था।
तेजासिंह को काटो तो खुन नहीं। बडा ग्रन्थी बदहवास होकर चिल्लाया, “मारा गया, मेरा भाई मारा गया!" और बिना सोचे-समझे, नंगे पाँव, निहत्था गुरुद्वारे में से निकलकर, गली पार करके ढलान उतरने लगा।
"रोको, रोको इसे" किसी ने चिल्लाकर कहा, जिस पर दरवाजे पर तैनात निहंगसिंह, ग्रन्थी के पीछे लपका और ढलान के बीचोबीच जाकर उसे कमर से पकड़ लिया और फिर उसे बाँहों में उठाकर वापस लाने लगा।
ढोलक-मंजीरे की आवाजें गाँव में पहुँच चुकी थीं। चारों ओर से नारे गूंजने लगे थे, फिर से गोलियाँ दागी जाने लगी थीं। लोग इधर-उधर भागने लगे।
"जो बोले सो निहाल!"
सत सिरी अकाल!"
हवा को चीरता हुआ नारा उठा।
तलवारें हवा में उठीं और दूसरे क्षण झूमती तलवारों को थामे-थामे सिखों का एक जत्था, जिसके बीच अन्य लोगों के साथ बड़ा ग्रन्थी भी था, नारे लगाता, दुश्मन को ललकारता ढलान उतरने लगा। केस खुले हुए, पत्थरों पर उनके पैर उलटे-सीधे पड़ रहे थे, उन्होंने जैसे मरने-मारने की ठान ली थी।
गुरुद्वारे के अन्दर बाएँ हाथ की दीवार के साथ स्त्रियों और बच्चों का जमघट था। बढ़ते चीत्कार में सभी औरतें जैसे स्वयं ही सिमटकर एक जगह पर आ गई थीं। जसबीर कौर का चेहरा मदहोश-सा हुआ जा रहा था। उसकी कमर से लटकती किरपान की मूठ को अभी भी उसका हाथ कसकर पकड़े हुए था।
अपने-आप ही स्त्रियाँ गायत्री का पाठ करने लगी थीं। गुरुद्वारे में उनकी गुनगुनाती आवाज़ धीरे-धीरे ऊँची उठने लगी।
तभी बाएँ हाथ गली के छोर पर खड़े मकान के पीछे से आग के शोले ऊँचे उठने लगे और वातावरण में पहले से भी अधिक लाली घुलने लगी।
“आग लगी है। स्कूल के पास की गली में आग लगी है। किशनसिंह के घर को आग लगी है।" जसबीर ने सुना पर जैसे उसने कुछ नहीं सुना हो। उसके शरीर में बार-बार एक लहर-सी उठ रही थी और आँखों के सामने कुछ भी साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था, जैसे सब चीजें तैर रही हों, अधखिली रोशनी में उसके इर्द-गिर्द घूम रही हों। वह स्त्रियों के बीच ऐन रोशनी के नीचे खड़ी थी, उसके चेहरे पर से अब भी जैसे जलाल टपक रहा था।
गली के बाएँ सिरे का मोर्चा भुरभुराकर गिर गया। चाँदनी में नहाई ढलान पर कुछ आदमी रेंग-रेंगकर चढ़ते नज़र आए। छत पर खड़े निहंगसिंह ने उन्हें सबसे पहले देखा। उसने किशनसिंह को बताया, लेकिन किशनसिंह ने केवल निराशा में सिर हिला दिया। ढलान चढ़नेवालों की काली, रेंगती आकृतियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही थी। और अब आग की लौ में वे साफ़ नज़र आने लगे थे। पर कहाँ था असला जो उन पर गोली चलाई जाती? किशनसिंह ने दो-एक बार फायर किया, पर फिर चुपचाप बैठ गया।
गुरुद्वारे के बाहर खड़ा सिखों का एक और जत्था बाल खोले नंगी तलवारें हाथ में लिये बाईं ओर गली में आगे बढ़ने लगा। क्योंकि गली के सिरेवाला मोर्चा टूटने पर तुर्क इसी रास्ते गुरुद्वारे पर हमला करनेवाले थे। तभी चिल्लाहट भरी आवाजें आईं, दो-चार गोलियाँ चलने की आवाज़ आईं, फिर सहसा आसमान को चीरती हुई आवाज़ आई : “अल्लाह-हो-अकबर!"
और तलवारें झुलाते सरदार गली के अँधेरे में खो गए।
उसी वक़्त गुरुद्वारे में से उजले कपड़ों में मलबूस स्त्रियों की एक डार-सी निकली। आगे-आगे जसबीर कौर थी, अधमुंदी आँखें, तमतमाता चेहरा। लगभग सभी औरतों ने अपने दुपट्टे सिर पर से उतारकर गले में डाल लिए थे; सभी के पैर नंगे थे। सभी के चेहरे तमतमा रहे थे। मन्त्रमुग्ध-सी वे गुरुद्वारे में से निकलती आ रही थीं।
"तुर्क आ गए! तुर्क आ गए!" कुछ औरतें चिल्ला रही थीं। कोई गुरुवाणी का पाठ कर रही थी, कोई जैसे उन्माद में चिल्लाए जा रही थी :
"जहाँ मेरा सिंहवीर गया है, वहाँ मैं भी जाऊँगी।"
कुछेक के साथ उनके बच्चे थे। दो-एक ने बच्चों को गोदी में उठा रखा था। कुछेक अपने बच्चों को कलाइयों से पकड़े अपने साथ घसीटती लिये जा रही थीं।
गुरुद्वारे में से निकलकर औरतों की यह डार गली में दाईं ओर बाएँ हाथ घूम गई, फिर कुछ दूर जाकर वहाँ दो घरों के बीच छोटी-सी पगडंडी ढलान पर नीचे उतरती थी और बल खाती सीधी कुएँ तक चली गई थी, उसी ओर स्त्रियाँ बढ़ती जा रही थीं।
चारों ओर हाहाकार मचा था। लपलपाती आग की लपटें अब दो जगह से उठने लगी थीं। ढलान पर, मकानों की दीवारों पर, गली के ईंटों के फर्श पर लपटों के साए नाच रहे थे। नदी के जल में लाल लपटों का साया झिलमिला रहा था, पानी अपने-आप ही लाल होने लगा था। इस चीत्कार में घरों के किवाड़ तोड़ने की आवाजें आने लगी थीं। कस्बे में लूट-पाट शुरू हो गई थी। गुरुद्वारे के सामने गली के बीचोबीच निहंगसिंह बर्छा ऊँचा उठाए चिल्ला रहा था:
“आओ तुर्को, आओ! किसमें सकत है, आओ! मैं ललकारता हूँ, आओ!"
स्त्रियों का झुंड उस पक्के कुएँ की ओर बढ़ता जा रहा था, जो ढलान के नीचे दाएँ हाथ बना था, और जहाँ गाँव की स्त्रियाँ नहाने, कपड़े धोने, बतियाने के लिए जाया करती थीं। मन्त्रमुग्ध-सी सभी उसी ओर बढ़ती चली जा रही थीं। किसी को उस समय ध्यान नहीं आया कि वे कहाँ जा रही हैं, क्यों जा रही हैं। छिटकी चाँदनी में कुएँ पर जैसे अप्सराएँ उतरती आ रही हों।
सबसे पहले जसबीर कौर कुएँ में कूद गई। उसने कोई नारा नहीं लगाया, किसी को पुकारा नहीं, केवल 'वाह गुरु' कहा और कूद गई। उसके कूदते ही कुएँ की जगत पर कितनी ही स्त्रियाँ चढ़ गईं। हरिसिंह की पत्नी पहले जगत के ऊपर जाकर खड़ी हुई, फिर उसने अपने चार साल के बेटे को खींचकर ऊपर चढ़ा लिया, फिर एक साथ ही उसे हाथ से खींचती हुई नीचे कूद गई। देवसिंह की घरवाली अपने दूध पीते बच्चे को छाती से लगाए ही कूद गई। प्रेमसिंह की पत्नी खुद तो कूद गई, पर उसका बच्चा पीछे खड़ा रह गया। उसे ज्ञानसिंह की पत्नी ने माँ के पास धकेलकर पहुँचा दिया। देखते ही देखते गाँव की दसियों औरतें अपने बच्चों को लेकर कुएँ में कूद गईं।
जब तुर्क सचमुच गली के बाएँ सिरे से लाशों को रौंदते हुए गुरुद्वारे की ओर बढ़ने लगे तो गुरुद्वारे में एक भी स्त्री नहीं थी, कुएँ के अन्दर से चिल्लाने-चीखने की आवाजें, बच्चों के बिकड़ाट सुनाई देते रहे। गाँव के पास जगह-जगह से “अल्लाह-हो-अकबर" और "सत सिरी अकाल" के नारों के साथ कुएँ में से डूबती औरतों और बच्चों की चीखें मिल गई थीं।
चाँदनी पीली पड़ गई। धीरे-धीरे पौ फटने लगी। रात का ऐन्द्रजालिक वातावरण फिर से छिन्न-भिन्न होने लगा। स्वच्छ, शीतल हवा रोज़ की तरह बहने लगी। गाँव के बाहर पके गेहूँ के खेत इस हवा में झूमने लगे। हवा में लुकाटों की महक थी। नदी की ओर से हवा का झोंका आया, लुकाटों की महक से लदा हुआ। उसमें उन सफ़ेद फूलों की भी भीनी-भीनी गन्ध मिली थी जो इस मौसम में झाड़ियों पर उगते थे। किसी-किसी वक्त लुकाटों के बाग में से तोतों का एक झुंड पर फड़फड़ाता, चीं-चीं करता उड़ जाता। नदी का पानी नीला-नीला हो रहा था। हवा का झोंका आता तो पानी में झुरझुरी-सी होती।
न जाने रात के किस पहर लूटपाट बन्द हो गई थी। अधिक घरों को भी आग नहीं लगाई गई थी क्योंकि गुरुद्वारेवाली गली को छोड़कर गाँव की प्रत्येक गली में मुसलमानों और सिखों, दोनों के घर पाए जाते थे। स्कूल अलग-अलग थे, या नुक्कड़वाले कुछ घर अलग थे। सुबह होने पर आग की लपटें मन्द पड़ गई थीं। छोटे-छोटे घर थे, जलकर राख होते देर नहीं लगी। सुलगते घरों में से अब पीला-पीला धुआँ अधिक निकलने लगा था।
गुरुद्वारे के अन्दर एक बत्ती अभी भी जल रही थी, एक ओर युद्ध-परिषद् के चारों सदस्य अन्तिम घड़ी का जैसे इन्तज़ार कर रहे थे। तेजासिंहजी, थके-माँदे, गुरुद्वारे की रसदवाली कोठरी में गेहूँ की एक बोरी पर सिर झुकाए बैठे थे। किशनसिंह अभी भी छत पर अपनी कुर्सी पर बैठा था। एक निहंगसिंह बर्छा लिए अभी भी दरवाजे की ओट में खड़ा था।
जब रोशनी फैलने लगी तो चीलें और कव्वे, ढेरों-के-ढेरों आसमान में उड़ने लगे। अनेक गिद्ध भी मँडराते हुए आ गए। स्कूल के बाहर खड़े एक रुंड-मुंड पेड़ पर दस-पन्द्रह गिद्ध आकर बैठ गए थे-छोटे-छोटे सिर बड़ी-बड़ी पीली चोंचें। कुछ गिद्ध कुएँ की जगत पर भी आ बैठे थे जहाँ लाशें फूलने लगी थीं और फूल-फूलकर कुएँ के मुँह तक पहुँचने लगी थीं। घरों की मुँडेरों . पर भी जगह-जगह गिद्ध आकर बैठ गए थे। गलियाँ सुनसान पड़ी थीं, बिखरी लाशें गाँव की निःस्तब्धता को और भी गहरा बना रही थीं। अब गाँव की गलियों में कोई धीरे से भी चलता तो उसके पैरों की चाप गूंजती थी। बलवाई लूटपाट का सामान लेकर लौट गए थे, बहुत-से मारे गए थे। गुरुद्वारे के कुएँ की ओर जानेवाले रास्ते पर जगह-जगह औरतों के पराँदे, चुन्नियाँ, चूड़ियाँ गिरी पड़ी थीं। गुरुद्वारे के निकट विशेष रूप से हाथों में से टूटकर गिरी चूड़ियों के टुकड़े जगह-जगह बिखरे पड़े थे। गलियों में टूटे खाली सन्दूक, कनस्तर, खाटें, लूटपाट की कहानी कह रहे थे। मकानों के किवाड़ कहीं अधखुले, तो कहीं टूटे पड़े थे। जगह-जगह उस आँधी के निशान थे जो रात-भर चलती रही थी।
पर लड़ाई अभी बन्द नहीं हुई थी। मोटे कसाई का बड़ा लड़का छिप-लुककर गुरुद्वारे की पिछली खिड़कियों पर तेल छिड़ककर आग लगाने की तैयारी कर रहा था।
सहसा वायुमंडल में एक अजीब-सा शब्द सुनाई देने लगा : गहरा, धीमा, घरघराता-सा शब्द। यह आवाज़ क्या थी? यह आवाज़ कोठरी में बैठे तेजासिंह ने भी सुनी, गुरुद्वारे की छत पर तैनात किशनसिंह ने भी सुनी, शेखों की हवेली में भी सभी के कानों में पड़ी। सभी ठिठक गए। मोटे कसाई का बेटा भी ठिठक गया, जो गुरुद्वारे को आग लगाने जा रहा था। यह कैसी आवाज़ थी? घरघराती गहरी-सी आवाज़ जो बराबर ऊँची होती जा रही थी। दरवाज़ों, दीवारों की ओट में खड़े या बैठे इक्के-दुक्के लोग बाहर झाँकने लगे, किशनसिंह कुर्सी पर से उठ बैठा और भागकर मुँडेर के पास जा खड़ा हुआ।
हवाई जहाज़ था। बड़ा-सा, बड़े-बड़े काले डैनोंवाला हवाई जहाज़। घाटियों-पहाड़ियों के ऊपर डैने फैलाए, घरघराता गाँव की ओर आ रहा था। किसी-किसी वक़्त उसके डैने स्याह काले पड़ जाते, पर किसी वक़्त वे चाँदी की तरह झिलमिलाने लगते। कभी उसका दायाँ डैना नीचे की ओर झुक जाता, कभी बायाँ। हवाई जहाज़ हवा में मानो अठखेलियाँ करता चला आ रहा था।
जब वह नज़दीक पहुँचा तो लोग उठ-उठकर बाहर आने लगे; गलियों, छतों, चबूतरों पर आ-आकर लोग खड़े हो गए और बड़ी उत्सुकता से हवाई जहाज़ की ओर देखने लगे। गाँव के ऊपर उड़ते समय जहाज़ और भी नीचा हो आया था और जहाज़ के अन्दर बैठा चालक-गोरा फौज़ी-अपना हाथ हिला-हिलाकर नीचे खड़े लोगों का अभिवादन कर रहा था। उसकी बड़ी-बड़ी ऐनकों के नीचे कुछ लोगों को उसकी मुस्कराहट नज़र आ गई थी।
"मुस्कराया है, मैंने खुद देखा है।" बाहर खड़ा एक लड़का दूसरे से बोला, “उसने हाथ में सफ़ेद रंग का दस्ताना पहन रखा है। यों हाथ हिला रहा था, तूने नहीं देखा?"
सभी हाथ थम गए, अब और कुछ नहीं होगा, अंग्रेज़ तक फ़साद की ख़बर पहुँच गई है, अब कोई आग नहीं लगाएगा, बन्दूक नहीं चलाएगा। मोटे कसाई के बेटे ने, जिसने गुरुद्वारे की खिड़कियों पर तेल छिड़क दिया था और बस दियासलाई लगाने की ही देर थी, अपने हाथ खींच लिए। लोग मुँह बाए हवाई जहाज़ की ओर देखते जा रहे थे।
कॉकपिट में बैठे गोरे सिपाही ने गुरुद्वारे के ऊपर से उड़ते हुए हाथ हिलाया। नीचे, छत पर खड़े किशनसिंह को लगा जैसे गोरे हवाबाज़ ने उसी को लक्ष्य करके हाथ हिलाया है, उसने अपने साथी सैनिक का अभिवादन किया है। किशनसिंह, जो अभी तक परेशान और बदहवास खड़ा था, उठकर अटेंशन खड़ा हो गया और एड़ियाँ टकराकर सैल्यूट मारी। आख़िर सैनिक सैनिक ही होते हैं, एक सैनिक दूसरे सैनिक को सैल्यूट किए बिना नहीं रह सकता। किशनसिंह का दिल बल्लियों उछलने लगा। बर्मा की लाम में हर शाम वह अपने कप्तान जैक्शन से मिलने जाया करता था। जैक्शन हमेशा बड़े ध्यान से उसकी बात सुनता था और उसके सैल्यूट का जवाब बाकायदा सैल्यूट से दिया करता था।
किशनसिंह ने भावोद्रेक में ज़ोर-ज़ोर से हाथ हिलाते हुए चिल्लाकर कहा :
“गॉड सेव दि किंग, साहिब, गॉड सेव दि किंग!"
हवाई जहाज़ आगे जा चुका था और अब शेखों की हवेली के ऊपर से उड़ रहा था। किशनसिंह आँखें फाड़-फाड़कर उस ओर देखने लगा। शेख के घर की छत पर भी लोग चढ़ आए थे और हाथ हिला-हिलाकर अंग्रेज़ हवाबाज का अभिवादन करने लगे थे। किशनसिंह देखना चाहता था कि गोरे सैनिक ने मुसलों के अभिवादन का जवाब दिया है या नहीं। और उसे सचमुच लगा जैसे पाइलट ने सचमुच हाथ अन्दर खींच लिया है। यह देखकर किशनसिंह को हार्दिक खुशी हुई, वह खड़े-खड़े चहक उठा :
"दो दिन पहले आ जाते साहब, तो हमारा इतना ज़्यादा नुकसान तो नहीं होता, मगर कोई फिक्र नहीं...।"
फिर किशनसिंह को जोश आ गया, मुट्ठियाँ भींचकर, शेखों के घर की ओर देखकर चिल्लाकर बोला, “अब चलाओ गोली, मुसलो, लो मैं सामने खड़ा हूँ! चलाओ गोली! अब क्यों नहीं चलाते! पहले बड़े शेर बनते थे, अब चलाओ गोली!" और भारी-भरकम देहवाला किशनसिंह मुंडेर के पास खड़ा, हाथ झुलाता, मुट्ठियाँ दिखाता पागलों की तरह नाचने लगा।
तेजासिंह सोच रहे थे कि जल्दी से जल्दी शहर पहुँचना होगा और पहुँचकर डिप्टी कमिश्नर साहब को इन सारी घटनाओं का ब्योरा देना होगा, सारे नुकसान की फेहरिस्त बनाकर उन्हें देनी होगी। अब आए तो क्या आए, पर कोई बात नहीं, हमने भी अच्छे भूने हैं, मुसले फिर कभी हमारे साथ लड़ने की हिम्मत नहीं करेंगे।
गुरुद्वारे के पिछवाड़े में खड़े मोटे कसाई के बेटे ने मिट्टी के तेल की बोतल नाली में उँडेलकर चबूतरे के नीचे छिपा दी, सूखी थिगलियाँ गुरुद्वारे के एक झरोखे में से अन्दर को फेंक दी और दियासलाई से सिगरेट सुलगाकर सिगरेट के कश लेता हुआ जिधर से आया था उधर ही लौट गया।
हवाई जहाज़ ने कस्बे के अन्दर तीन चक्कर लगाए। तीसरा चक्कर लगाते समय नीचे खड़े लोग गाँव में भी हाथ हिला-हिलाकर उसके अभिवादन का जवाब दे रहे थे। तीन चक्कर लगाने के बाद वह अन्य गाँवों की ओर आगे बढ़ गया।
कस्बे का माहौल बदल चुका था। लोग बाहर आने लगे थे, लड़ाई बन्द हो गई, लाशें ठिकाने लगाई जाने लगीं, कुछ लोग अपने गहने-कपड़ों की जाँच करने अपने-अपने घरों की ओर चल दिए कि क्या बचा है, क्या कुछ लूट लिया गया है। सेवादार और निहंगसिंह गुरुद्वारे को धोने, साफ़ करने में लग गए। उधर शेख के हुक्म से मस्ज़िद भी बुहारी-धोई जाने लगी। दोनों समुदायों के लोग अपने-अपने धर्मस्थल को धो-धोकर साफ़ कर रहे थे।
जिस-जिस गाँव पर हवाई जहाज़ उड़ता गया, वहीं पर ढोल बजने बन्द हो गए, नारे लगाए जाने बन्द हो गए। आगजनी और लूटपाट बन्द हो गई।