गली में क़दम रखते ही नत्थू ने चैन की साँस ली। गली में अँधेरा था जबकि सड़कों पर अँधेरा छटने लगा था। नत्थू जल्दी से जल्दी गलियों का जाल लाँघकर अपने डेरे पर पहुँच जाना चाहता था। उस बदबू-भरी कोठरी में से निकलकर उसने खुली हवा में चैन की साँस ली। जिस भाँति उसकी रात बीती थी उसकी तुलना में अधजगी गलियों में उसे शान्ति का भास हुआ।
बाईं ओर उसे औरतों के धीमे-धीमे बतियाने और चूड़ियाँ खनकने की आवाज़ आई। उसने पास से गुज़रते हुए देखा। नल के किनारे दो-तीन औरतें अपने-अपने घड़े सामने रखे, बैठी बतिया रही थीं। नल में अभी पानी नहीं आया था। नत्थू को यह भी भला लगा।
कुछ क़दम आगे बढ़ने पर उसके पैर को ठोकर लगी। उसे लगा जैसे उसके पाँव से टकराकर कोई चीज़ बिखर गई है। फिर वह समझ गया और समझते ही उसका शरीर झनझना उठा। एक घर के सामने कोई औरत 'टोना' कर गई थी : कुछ थिगलियों में लिपटे कंकड़ और गुँधे आटे का पुतला और उसमें खोंसी हुई लकड़ी की खपचियाँ थीं। कोई बदनसीब औरत अपना क्लेश किसी दूसरे के घर पर डालने के लिए 'टोना' कर गई थी। नत्थू ने इसे अपने लिए अपशगुन समझा। ऐसी रात बिताने के बाद 'टोने' पर पैर आ जाने पर गहरी खीझ उठी, पर दूसरे ही क्षण वह सँभल गया। आम तौर पर ये 'टोने' बच्चों पर से ग्रह टालने के लिए किए जाते हैं जबकि नत्थू के कोई औलाद नहीं थी। वह आश्वस्त-सा फिर आगे बढ़ गया।
इस गली को वह भली भाँति पहचानता था। जहाँ से वह गली में दाखिल हुआ था वहाँ कुछ दूरी तक मुसलमानों के घर थे। एक-दो धोबियों के, कुछ कसाइयों के जो गली के बाहर छोटी-सी सड़क के किनारे गोश्त की दुकानें लगाते थे। यहीं पर महम्मदू हमामवाला भी रहता था। आगे चलकर कुछ घर हिन्दुओं और सिखों के पड़ते थे और गली के अगले छोर तक पहुँचते-पहुँचते फिर मुसलमान शेखों के घर शुरू हो जाते थे।
एक घर के अन्दर से गुज़रते हुए उसे अन्दर से किसी बूढ़े की आवाज़ आई, “या अल्लाह कुल दी खैर कुल दा भला!" बूढ़ा जागकर सभी के कुल की दुआ कर रहा था। फिर उसके बँखारने और अंगड़ाई लेकर उठने की आवाज़ आई। लोग जाग रहे थे।
वह कुछ ही कदम आगे बढ़ा होगा कि उसका दायाँ पैर फिर किसी लसलसी चीज़ में धंस गया और वह गिरते-गिरते बचा। साथ ही गोबर की तीखी गन्ध आई। उसने खींचकर पैर निकाला तो अधटूटा घड़ा लुढ़क गया। वह समझ गया और जहाँ पहले उसके मुँह में से गन्दी गाली निकलने जा रही थी वहाँ एक हल्की-सी मुस्कान उसके होंठों पर खेल गई। 'टोने' का अपशगुन इस ठोकर ने जैसे धो-पोंछ डाला हो। कुछ दिन से तपिश बढ़ रही थी और आसमान से छींटा नहीं पड़ा था। जब कभी छींटा पड़ने में देर हो जाती तो मुहल्लों में मनचले लड़के टूटे घड़े से गोबर और गाय-घोड़े का मूत्र इकट्ठा करके किसी मूज़ी के घर की ड्योढ़ी में फेंक आते थे। इसे बारिश बुलाने का शगुन माना जाता था।
एक घर के सामने एक आदमी गली में बँधी गाय के पास खड़ा सानी-पानी कर रहा था। पास ही किसी घर में से प्याले खनकने और साथ में चूड़ियाँ खनकने की आवाज़ आई। चाय तैयार हो रही थी। इतने में सामने से कोई औरत दुपट्टे में मुँह-सिर लपेटे मुँह से गुनगुनाती हुई पास से गुज़री। उसने हाथ में कटोरी उठा रखी थी। कोई औरत मन्दिर या गुरुद्वारे में माथा नवाने जा रही है, नत्थू ने मन-ही-मन कहा। बड़े सहज सामान्य ढंग से दिन का व्यापार शुरू हो रहा था। तभी गली के सिरे की ओर से नत्थू को इकतारा' बजाने और साथ में किसी फ़कीर के गाने की आवाज़ आई। यह आवाज़ वह पहले भी सुन चुका था, पर उसने इस फ़कीर को कभी देखा नहीं था। प्रभात के झुटपुटे में यह फ़कीर अक्सर इकतारा बजाता और धीमी आवाज़ में गाता हुआ शहर की गलियों में से गुज़र जाया करता था, विशेषकर रमज़ान के दिनों में जब मुसलमान लोग सुबह-सवेरे उठकर अपना रोज़ा खोलते थे। नज़दीक पहुँचने पर उसने देखा फ़कीर ऊँचे क़द का, लम्बे छरहरे बदन का बूढ़ा आदमी था, छोटी-सी सफेद दाढ़ी और सिर पर चिन्दिया टोपी और लम्बा चोगा और कन्धे पर से बड़ा-सा झोला लटक रहा था। नत्थू रुक गया। वह चाहता था कि फ़कीर के गीत के शब्द उसके कान में पढ़ें :
"तैनूँ गाफला जाग न आई चिड़ियाँ बोल रहियाँ...!" [ऐ गाफ़िल, तू अभी तक सोया पड़ा है जबकि पक्षी चहचहाने लगे हैं]
फ़कीर गीत गाता हुआ आ रहा था। इकतारे की धीमी-सी आवाज़ जो अक्सर नत्थू के सपनों में घुलमिल जाया करती थी और सोए-सोए भी उसे प्यारी लगती थी, अब भी उसे बड़ी मीठी लगी। उसने जेब में से एक पैसा निकालकर फ़कीर के हाथ में दे दिया।
“अल्लाह सलामत रखे! घर भरे रहें!" फ़कीर ने दुआ दी।
नत्थू आगे बढ़ गया।
गली पार करने पर वह कुछ-कुछ उजाले में आ गया। यहाँ से ताँगा हाँकनेवाले गाड़ीवानों का मुहल्ला शुरू हो जाता था। सड़क पर पहुँच जाने पर भी दृश्य बहुत कुछ बदला नहीं था, केवल यहाँ उजाला हो चला था। सड़क किनारे दो-तीन ताँगें खड़े थे, जिनके बम आसमान की ओर उठे हुए मानो सबके लिए दुआ माँग रहे थे। लम्बी दीवार के सामने खड़ा एक गाड़ीवान अपने घोड़े को 'खरहरा' कर रहा था। पास में बैठी दो औरतें गोबर की थापियाँ बना-बनाकर अभी से मिट्टी की दीवार पर लगा रही थीं। सड़क के बीचोबीच एक घोड़ा अपने-आप, अकेला ही सहज-स्वाभाविक गति से चहलकदमी कर रहा था। प्रातःकाल के शान्त सुहावने समय में जगह-जगह हल्की-हल्की जीवन की गति अँगड़ाइयाँ ले रही थी।
नत्थू को लगा जैसे वह टहलने निकला है। वह नहीं चाहता था कि कोई उसे देखे या पहचाने पर साथ ही साथ उसके मन की अपनी बड़बड़ाहट बहुत कुछ दूर हो चुकी थी और वह स्वयं चहलकदमी-सी करता हुआ एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में जा रहा था।
सहसा उसे ख्याल आया छकड़ा कहाँ तक पहुँचा होगा? वह किस ओर जा रहा होगा? बड़ा असंगत-सा सवाल था पर ख्याल आते ही अनायास ही उसके कदम तेज़ हो गए। क्या वह दूर छावनी में पहुँच चुका होगा? सम्भव है सलोतरी के अस्पताल के सामने इस वक़्त खड़ा हो। नत्थू के मुँह से गाली निकली। क्या दिन के वक़्त सुअर को नहीं मारा जा सकता था? सलोतरी को मरे हुए सुअर की क्या ज़रूरत पड़ गई। ज़रूर कहीं सुअर का मांस बेचने के लिए उसे मरवाया गया होगा। रात का व्यापार याद करके उसके बदन में सिहरन-सी हुई। उसने बड़ी भौंडी रात काटी थी, पसीना, सुअर की बू, बन्द कोठरी, सुअर की हुंकारें, तीन बार सुअर ने अपनी थूथनी से उसके पैर चाटे थे और उसकी चमड़ी ही पैरों पर से नोच डाली थी। सुअर के मरने तक नत्थू स्वयं अधमरा-सा हो चुका था। भाड़ में जाए मुरादअली, जहाँ नत्थू का मन आएगा वहीं घूमेगा। उसने जेब पर हाथ लगाकर फिर से नोट की चरमराहट सुन ली। हमें क्या, हमने अपने पैसे खरे कर लिये हैं।
चरनी के पास पहुँचकर वह दाएँ हाथ घूम गया। तभी दूर शेखों के बाग की घड़ी की आवाज़ सुनाई दी। शायद चार का घंटा बजा रही थी। इस वक़्त उसकी आवाज़ कितनी साफ़ सुनाई दे रही थी। दिन के वक़्त कभी सुन नहीं पड़ती थी, शहर के शोर में खो जाती थी। इस वक़्त तो लगता आसमान के रास्ते आकर उसके कानों में पड़ रही है। कुछ ही क्षण बाद दूर शहर के बीचोबीच ऊँचे टीले पर बने शिवाले पर से मन्दिर की घंटियों की आवाज़ आई। आवाजें बढ़ रही थीं। जगह-जगह घरों के दरवाजे खुल रहे थे, कुछ लोग बँखारते अपनी छड़ियाँ सड़क पर पटपटाते घूमने जा रहे थे। एक बकरवाहा अपनी तीन-चार बकरियाँ लिये बकरियों का दूध बेचने निकल पड़ा था। नत्थू के कदम फिर शिथिल पड़ गए। उसे सुबह की शीतल सुहावनी हवा में घूमने में मज़ा आ रहा था।
अब वह गाड़ीवानों का मुहल्ला लाँघ आया था और इमामदीन के मुहल्ले के बाहर ‘कमेटी' के बड़े मैदान के किनारे रेलिंग के साथ-साथ चलता जा रहा था। दाएँ हाथ रेलिंग के पार ढलान थी; और ढलान उतरकर बहुत बड़ा मैदान शुरू हो जाता था। इस मैदान में हर आए दिन कुछ-न-कुछ होता रहता था। जाड़ों में हर इतवार को यहाँ कुत्तों की लड़ाई हुआ करती थी, लोग शर्ते बाँधते थे। ज़ख्मी कुत्ता मैदान में से भागने की कोशिश करता तो चारों ओर खड़ी भीड़ उसे भागने नहीं देती थी। यहीं पर इसी मैदान में नेज़ाबाज़ी हुआ करती थी, हज़ारों का जमाव होता था। यहीं पर बाहर से आनेवाले सरकस लगा करते थे, ताराबाई का सरकस और परशुराम का सरकस। यहीं पर बैसाखी का ढोल बजा करता था और दंगल हुआ करते थे। यहीं पर अब सियासी जलसे होने लगे थे। अब आए दिन जलसे होते थे। इस मैदान में मुस्लिम लीग के जलसे होते थे, और बेलचा पार्टी के भी, जबकि कांग्रेस के जलसे यहाँ से दूर अनाज मंडी के पास छते हुए मैदान में होते थे।
उसने जेब में से बीड़ी निकाली और ठंडी-ठंडी रेलिंग पर बैठकर बीड़ी के कस लगाने लगा।
तभी इमामदीन के मुहल्ले के पीछे से मस्जिद में से अज़ान पढ़ने की आवाज़ आई। प्रभात का अँधेरा एक ओर परत छनकर गिर गया था और आसपास के घर कुछ-कुछ साफ़ नज़र आने लगे थे। नत्थू रेलिंग पर से उतर आया और बीड़ी बुझा दी, और फिर से इमामदीन के मुहल्ले की गलियों का रुख किया। उसे सहसा याद हो आया था कि मुरादअली इसी 'कमेटी' के मैदान के एक ओर कहीं रहता था, उसे यकीनी तौर पर तो मालूम नहीं था लेकिन उसने दो-एक बार मुरादअली को उस ओर से आते देखा था। यों तो मुरादअली शहर-भर में घूमता था, अपनी पतली-सी छड़ी उठाए सड़कों के बीचोबीच चलता कभी किसी मुहल्ले में तो कभी किसी मुहल्ले में नज़र आया करता था। उसकी घनी काली मूंछों के बीच कभी भी उसके दाँत नज़र नहीं आते थे, हँसता भी, तब भी नज़र नहीं आते थे, केवल बाछे खिल जाती थीं और उसके गोलमटोल चेहरे में आँखें, छोटी-छोटी पैनी आँखें साँप की आँखों की तरह चमकती रहती थीं। क्या मालूम यहीं कहीं फिर से नज़र आ जाए। यहाँ से चल देना ही बेहतर है। अगर कहीं उसने देख लिया तो बिगड़ेगा। उसने नत्थू से ताकीद की थी कि सुअर की लाश उठवा देने के बाद वह उसी कोठरी में मुरादअली का इन्तज़ार करे पर नत्थू वहाँ से भाग आया था। सुअर-कटाई के पैसे मिल गए तो क्यों वहाँ कचरे और बू में पड़ा रहता?
नत्थू एक सँकरी गली में दाखिल हो गया और कुछ दूर जाकर दाएँ हाथ को एक दूसरी गली में मुड़ गया जो बल खाती हुई उत्तर की ओर चली गई थी। थोड़ी दूर जाने पर उसके कानों में किसी गान-मंडली की आवाज़ पड़ी, वैसे ही जैसे कुछ देर पहले फकीर के गाने की आवाज़ आई थी। वह कुछ ही क़दम आगे बढ़ पाया था कि दूर सामनेवाली गली के मोड़ पर उसे गानेवालों की आवाज़ अधिक स्पष्ट और ऊँची सुनाई देने लगी। नत्थू समझ गया था कि यह कोई प्रभातफेरी की मंडली होगी। उन दिनों शहर में कुछ ज़्यादा ही जलसे-जुलूस नज़र आने लगे थे। नत्थू की समझ में कुछ भी साफ़ नहीं था। पर हवा में नारे थे और उन्हें वह बहुत दिनों से सुनता आ रहा था। यह गान-मंडली कांग्रेसवालों की जान पड़ती थी क्योंकि मंडली के आगे-आगे कोई आदमी तिरंगा झंडा उठाए आ रहा था। जब मंडली नज़दीक पहुँची तो नत्थू एक ओर को गली की दीवार के साथ सटकर खड़ा हो गया। मंडली गीत गाती हुई सामने से गुजरने लगी। उसने देखा, आठ-दस लोग थे, दो-एक के सिर पर सफ़ेद गांधी टोपी थी, कुछ के सिर पर फैज टोपी थी, दो-एक सरदार भी थे। उम्र-रसीदा लोग भी थे और जवान भी। उसके पास से गुज़रने पर एक आदमी ने ऊँची आवाज़ में नारा लगाया :
"कौमी नारा!"
"बन्दे मारतम!"
"बोल भारतमाता की जय!
महात्मा गांधी की जय!'
इसके बाद सहसा केवल क्षण-भर की चुप्पी के बाद कुछ ही दूरी पर जहाँ एक और गली इस गली को काट गई थी, एक और नारा उठा :
“पाकिस्तान-ज़िन्दाबाद!
पाकिस्तान-ज़िन्दाबाद!
कायदे आज़म-ज़िन्दाबाद!
कायदे आज़म-ज़िन्दाबाद!"
नत्थू ने झट से मुड़कर देखा। तीन आदमी गली के मोड़ पर से सहसा प्रगट हो गए थे और नारे लगाने लगे थे। नत्थू को लगा जैसे गली के बीचोबीच खड़े वे गान-मंडली का रास्ता रोके खड़े हैं। इन तीन आदमियों में से एक के सिर पर रूमी टोपी थी और आँखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा था। वह आदमी गली के बीचोबीच खड़ा मंडली को ललकारता हुआ-सा बोल रहा था, “कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है। इसके साथ मुसलमानों का कोई वास्ता नहीं है!"
इसका जवाब मंडली की ओर से एक बड़ी उम्र के आदमी ने दिया, "कांग्रेस सबकी जमात है। हिन्दुओं की, सिखों की, मुसलमानों की। आप अच्छी तरह जानते हैं महमूद साहिब, आप भी पहले हमारे साथ ही थे।"
और उस वयोवृद्ध ने आगे बढ़कर रूमी टोपीवाले आदमी को बाँहों में भर लिया। मंडली में से कुछ लोग हँसने लगे। रूमी टोपीवाले ने अपने को बाँहों में से अलग करते हुए कहा, "यह सब हिन्दुओं की चालाकी है, बख्शीजी, हम सब जानते हैं। आप चाहें जो कहें, कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है। कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है और मुस्लिम लीम मुसलमानों की। कांग्रेस मुसलमानों की रहनुमाई नहीं कर सकती।"
दोनों मंडलियाँ एक-दूसरे के सामने खड़ी थीं। लोग बतिया भी रहे थे और एक-दूसरे पर चिल्ला भी रहे थे।
वयोवृद्ध कांग्रेसी कह रहा था, “वह देख लो, सिख भी हैं, हिन्दू भी हैं, मुसलमान भी हैं। वह अज़ीज़ सामने खड़ा है, हकीमजी खड़े हैं-"
“अज़ीज़ और हकीम हिन्दुओं के कुत्ते हैं। हमें हिन्दुओं से नफरत नहीं, इनके कुत्तों से नफरत है।" उसने इतने गुस्से से कहा कि कांग्रेस-मंडली के दोनों मुसलमान खिसिया गए।
“मौलाना आज़ाद क्या हिन्दू है या मुसलमान?" वयोवृद्ध ने कहा। "वह तो कांगेस का प्रेजिडंट है।"
"मौलाना आज़ाद हिन्दुओं का सबसे बड़ा कुत्ता है। गांधी के पीछे दुम हिलाता फिरता है, जैसे ये कुत्ते आपके पीछे दुम हिलाते फिरते हैं।"
इस पर वयोवृद्ध बड़े धीरज से बोले, “आज़ादी सबके लिए है। सारे हिन्दुस्तान के लिए है।"
"हिन्दुस्तान की आज़ादी हिन्दुओं के लिए होगी, आज़ाद पाकिस्तान में ही मुसलमान आज़ाद होंगे।"
तभी गान-मंडली में से एक दुबला-पतला सरदार, मैले-कुचैले कपड़े पहने और बगल में बेंत दाबे हुए आगे बढ़ आया, और चिल्लाकर बोला, “पाकिस्तान मेरी लाश पर!"
इस पर कांग्रेस-मंडली के लोग हँसने लगे।
“चुप ओए चुप!" किसी ने उसे चुप कराने को कहा। नत्थू को भी उसकी तीखी खरज आवाज़ सुनकर अटपटा लगा था। लोगों को हँसता देखकर उसने रामझ लिया कि यह कोई सनकी आदमी होगा।
पर वह बोले जा रहा था, “गांधीजी का फरमान है कि पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा, मैं भी पाकिस्तान नहीं बनने दूंगा।"
लोग फिर हँसने लगे।
"गुस्सा थूक दो, जरनैल।"
"बस, बस, जरनैल कभी चुप भी रहा कर!" बख्शीजी ने कहा।
इस पर जरनैल बिगड़ उठा, “मुझे कोई चुप नहीं करा सकता। मैं नेताजी सुभाष बोस की फौज़ का आदमी हूँ। मैं सबको जानता हूँ। आपको भी जानता हूँ..."
लोग हँसने लगे।
पर जब गान-मंडली आगे बढ़ने लगी तो रूमी टोपीवाले ने रास्ता रोक लिया, “आप इधर से मत जाइए, यह मुसलमानों का मुहल्ला है।"
"क्यों?" वयोवृद्ध बोला, “आप सारे शहर में पाकिस्तान के नारे लगाते हैं, कोई आपको रोकता है, और हम तो सिर्फ हुब्बुलवतनी के गीत गा रहे हैं।"
इस पर रूमी टोपीवाला कुछ पिघल-सा गया, पर बोला, “आप लोग जाना चाहते हैं तो जाइए, लेकिन हम इन कुत्तों को तो अपने मुहल्ले में नहीं घुसने देंगे।" और उसने फिर दोनों बाँह फैला दी मानो गली का रास्ता फिर से रोक रहा हो।
तभी नत्थू ने देखा रूमी टोपीवाले से थोड़ा हटकर पीछे की ओर मुरादअली खड़ा था। उसे देखते ही नत्थू का सारा शरीर झनझना उठा। यह कहाँ से पहुँच गया है? नत्थू दीवार के साथ-साथ सरकता हुआ गान-मंडली के पीछे हो गया। मुरादअली ने कहीं देख तो नहीं लिया? गान-मंडली के सदस्यों के पीछे खड़ा वह सचमुच छिप-सा गया था। यहाँ से उसे मुरादअली भी नज़र नहीं आ रहा था। कुछ देर स्तब्ध-सा खड़ा रहने के बाद उसने सिर टेढ़ा करके देखा। मुरादअली वहीं पर खड़ा था और दूर से बहस में उलझे लोगों की बातें सुन रहा था।
नत्थू धीरे-धीरे पीछे की ओर सरकने लगा। जब तक ये लोग बहस में उलझे रहेंगे, मुरादअली भी शायद वहीं बुत बना खड़ा रहेगा। यही मौका है यहाँ से निकल भागने का। अगर मुरादअली ने देख लिया है तो वह ज़रूर डेरे पर पहुँच जाएगा और जवाबतलबी करेगा। कुछ दूर तक सरकते रहने पर नत्थू ने सहसा पीठ मोड़ी और तेज़ चलने लगा और शीघ्र ही गली का मोड़ मुड़कर आँखों से ओझल हो गया और सरपट भागने लगा।