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भाग 19

9 अगस्त 2022

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शहर की सड़क पर निकलते ही पता चल जाता था कि माहौल बदल गया है। मुहल्ला कुतुबदीन की मस्जिद के सामने, सड़क के पार चार हथियारबन्द फौज़ी कुर्सियाँ डाले बैठे थे। सड़क पर चलते हुए हर चौक पर दो-तीन फौजी बन्दूकों से लैस, किसी मकान के चबूतरे पर बैठे या सड़क के किनारे खड़े नज़र आ जाते। शहर में फौज़ तैनात कर दी गई थी। फसादों के चौथे दिन अठारह घंटे का कर्फ्यू लगा दिया गया था, पर आज पाँचवें दिन कर्फ्यू की मियाद केवल बारह घंटे कर दी गई थी-शाम के छह बजे से लेकर सुबह के छह बजे तक। कानों-कान खबर फैल चुकी थी कि बख्तरबन्द गाड़ी में सिटी मैजिस्ट्रेट और डिप्टी कमिश्नर भी मुसल्लह सिपाहियों के साथ शहर का दौरा कर रहे हैं। कहीं-कहीं पर घुड़सवार पुलिस के दो-दो सिपाही कमर में पिस्तोल लटकाए पले हुए आलीशान घोड़ों पर जगह-जगह गश्त कर रहे थे। दफ़्तर, स्कूल, कालिज अभी भी बन्द थे, गलियों के अँधियारे हिस्सों में या नाकों पर अभी भी गिने-चुने लोग बी-भाले उठाए और मुश्कें बाँधे छिप-लुककर बैठे नज़र आते थे, पर कर्फ्यू लग जाने से और फौज़ तैनात कर देने से फ़साद की स्थिति नहीं रही थी। लोग बाहर निकलने लगे थे, एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्लों में भी दाएँ-बाएँ झाँकते हुए जाने लगे थे। ख़बरों का रुख बदल गया था। सुनने में आ रहा था कि दो रिफ्यूजी कैम्प खुलने जा रहे हैं जिनमें 20 गाँवों से आनेवाले लोग ठहराए जाएँगे; कैंटोनमेंट और शहर के दो सरकारी अस्पतालों में न केवल जख्मियों को भरती किया जाने लगा था, बल्कि मुर्दे भी उठा-उठाकर इकट्ठा किए जाने लगे थे। हर ख़बर में डिप्टी कमिश्नर का नाम ज़रूर सुनने में आता था। पाइप मुँह में लगाए वह हर जगह मौजूद था। उनके बारे में सुनते थे कि कर्फ्यू के वक़्त के बाद गश्त करते हुए उसने एक अस्पताल के बाहर एक युवक को देखा, दो बार उसे ललकारा और फिर गोली से उड़ा दिया था। सारे शहर को कान हो गए थे कि अब दंगा-फसाद नहीं हो सकता। कांग्रेस की ओर से एक स्कूल के अन्दर रिलीफ दफ्तर खुल गया था और गाँवों में से आनेवाले लोगों की भीड़ लगी रहती थी। वहाँ पर भी डिप्टी कमिश्नर तीन मर्तबा हो आया था। सार्वजनिक संस्थाओं के साथ मिलकर सरकार मसलों को सुझालाना चाहती थी। सरकार का यह रुझान देखकर सार्वजनिक संस्थाओं के नेता बड़ी पहलकदमी दिखाने लगे थे, उधर सरकारी अफसरों में चुस्ती आ गई थी। यहाँ तक कि सियासी हल्कों में भी डिप्टी कमिश्नर के बारे में राय बदलने लगी थी। भले ही डिप्टी कमिश्नर साम्राज्यवादी मशीन का पुर्जा हो मगर यह डिप्टी कमिश्नर महज़ पुर्जा नहीं है। यह बड़ी सूझबूझवाला और हमदर्द आदमी है। उसी शाम जब डिप्टी कमिश्नर ने अस्पताल के बाहर एक आदमी को गोली का निशाना बनाया था, वह इतना बेचैन हो उठा था कि वह रात-भर सो नहीं सका। प्रोफेसर रघुनाथ का तो कहना था कि यह आदमी वास्तव में प्रशासन के काम के लिए बना ही नहीं है, वह तो कोमल अनुभूतियोंवाला किताबी आदमी है, जिसे ब्रिटिश सरकार ने इस काम पर लगाकर उसके साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। हाँ, कुछ सियासी लोग अभी भी इसे गालियाँ दे रहे थे और कह रहे थे कि सब इसी का किया-कराया है।

दौरे पर निकले रिचर्ड की जीप-गाड़ी हेल्थ-ऑफ़िसर के घर के सामने रुकी। हेल्थ-ऑफिसर को टेलीफोन पर ख़बर दे दी गई थी कि साहब आ रहे हैं और खबर पाने पर वह अन्दर ही अन्दर फूला नहीं समा रहा था। और हेल्थ-ऑफिसर ने जान-बूझकर कोट-पैंट के स्थान पर देसी पोशाक-सिल्क का कुर्ता और नीचे सरसराती पंजाबी सलवार और पेशावरी जूती-पहन रखी थी। उसकी पत्नी ने चाय-कॉफी का इन्तज़ाम कर रखा था। साहब के अन्दर आते ही पाइप के तम्बाकू की महक आँगन-भर में फैल गई। पर डिप्टीकमिश्नर ने न चाय पी, न कॉफी। लगभग पाँच मिनट तक खड़े-खड़े ही बात की। हेल्थ-ऑफ़िसर से हाथ मिलाते ही बोला :

"नाइस! वेरी नाइस! तुम्हें इन दिनों में भी अपनी पोशाक का खूब ध्यान रहता है! देसी पोशाक तुम पर बहुत फबती है।"

फिर हेल्थ-ऑफ़िसर की पत्नी से हाथ मिलाते हुए बोला, “आपके लिए अभी दिन नहीं चढ़ा है, क्या?" क्योंकि हेल्थ-ऑफ़िसर की पत्नी अभी भी ड्रेसिंग गाउन में थी।

फिर हेल्थ-ऑफ़िसर को मुखातिब करके बोला, “रिफ्यूजी कैम्पों में पानी का बन्दोबस्त एक बार फिर देख लेना होगा।" डिप्टी कमिश्नर ने इस लहज़े से कहा मानो अपने-आपसे बात कर रहा हो, “और पानी निकालने की नालियाँ अभी तक नहीं खोदी गई हैं।" उसने सिर हिलाते हुए मुस्कराकर कहा, मुस्कराहट का मतलब था, याद दहानी, कि दो दिन पहले का कहा हुआ काम अभी तक नहीं हो पाया है।

“मैंने इन्तज़ाम कर दिया है, आज से काम शुरू हो जाएगा।"

“गुड," डिप्टी कमिश्नर ने कहा और फिर मुस्कराया, "जिस गाँव में औरतें और बच्चे कुएँ में कूद गए हैं, वहाँ पर बीमारी फैलने का डर है। वहाँ आपको जाना चाहिए।"

हेल्थ-ऑफ़िसर के कान खड़े हो गए। गाँव के लोग भाग-भागकर शहर में आ रहे थे, मैं वहाँ क्या करने जाऊँगा? पर डिप्टी कमिश्नर को हर बात का ध्यान था।

“आज तीसरा दिन है, वहाँ पर लाशें फूलकर सड़ने लगी होंगी। कुएँ में फौरन डिस-इंफेक्टेंट डालना होगा ताकि कोई बीमारी नहीं फैले। कल से रोज़ सुबह आप जाइए। बस का इन्तज़ाम मैंने कर दिया है। दो मुसल्लह सिपाही आपके साथ जाएँगे, डर की कोई बात नहीं है।"

डिप्टी कमिश्नर का हाथ न केवल शहर की नब्ज पर था बल्कि ज़िले-भर की नब्ज पर था।

हेल्थ-ऑफिसर की पत्नी इस बीच कपड़े बदलकर और जूड़ा बनाकर चुस्त-दुरुस्त बनकर आ गई थी। उसने चाय-कॉफी का फिर से आग्रह किया, तो डिप्टी कमिश्नर मुस्करा दिया :

“देअर विल बी टाइम फार टी, मिसेज़ कपूर, बट नॉट नो, थेंक यू!" फिर उसी तरह अपनेपन के स्वर में बोला, “वैल, आपको भी थोड़ी मदद करनी होगी। रिफ्यूजी कैम्प में दो हज़ार खाटें तो आज पहुँच जाएँगी, लेकिन कपड़ों वगैरा का थोड़ा इन्तज़ाम करना ज़रूरी है। एक छोटी-सी स्त्रियों की रिलीफ कमिटी बन जाए तो अच्छा काम हो सकता है।" और रिचर्ड ने फिर मुस्कराकर सिर हिला दिया।

रिचर्ड में यह बहुत बड़ा गुण था। वह बात इस ढंग से करता कि लगता कोई मामला मश्विरे के लिए उठा रहा है, पर वास्तव में वह हुक्म होता, निर्देश होता। हेल्थ-ऑफ़िसर की पत्नी भी फूली नहीं समाई। डिप्टी कमिश्नर की पत्नी के साथ काम करने का मौका मिलेगा, इससे बढ़कर क्या चाहिए। पर पेश्तर इसके कि वह कोई जवाब दे, रिचर्ड हेल्थ-ऑफिसर को साथ लिए ड्योढ़ी लाँघकर बाहर जा चुका था।

“मुर्दो के जलाने के बारे में तुम क्या सोचते हो? मैं समझता हूँ, यह काम म्युनिसिपल कमेटी की तरफ से किया जाना चाहिए, और आम लोगों को इसकी खबर देना ज़रूरी नहीं है, इससे तनाव फिर बढ़ सकता है।"

हेल्थ-ऑफ़िसर सौ फीसदी सहमत था।

“पहले से ही ऐसे किया गया है। गड्ढों में फेंको और जला दो। अब एक-एक की अर्थी उठने लगे तो फिर तनाव बढ़ेगा।" हेल्थ-ऑफ़िसर ने डिप्टी कमिश्नर की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, फिर धीरे से बड़बड़ाया, “पहले एक-दूसरे की मार-काट करते हैं, फिर सरकार से इस बात की आशा भी करते हैं कि सरकार उनके मुर्दो को भी ठिकाने लगाए!"

डिप्टी कमिश्नर ने कनखियों से हेल्थ-ऑफिसर की तरफ़ देखा। क्षण-भर के लिए वह ठिठक-सा गया, फिर मुस्करा दिया, “वैल लैट्स गेट गोइंग। नो टाइम टु वेस्ट।" और सिर हिलाकर जीप में सवार हो गया।

दस मिनट के बाद वह रिलीफ कमेटी के दफ्तर में, जहाँ शहर के चीदा-चीदा लोग इकट्ठे हुए थे, सरकार की रिलीफ-सम्बन्धी योजना का ब्योरा दे रहा था :

"बाज़ार खुल गए हैं। कोयले की चार वैगन रेलवे स्टेशन पर मौजूद हैं, दस वैगन और मंगलवार तक पहुँच जाएँगी। अभी कुछ दिन तक शाम को 6 बजे से सुबह 6 बजे तक कप! जारी रहेगा। साथ में फौज़ भी तैनात रहेगी और पुलिस की गश्त भी जारी रहेगी। शहर में से लाशें उठवा दी गई हैं और इनको ठिकाने लगाने का काम सरकार खुद करेगी। पोस्ट ऑफिस आज दोपहर को खुल जाएँगे, लेकिन पिछली डाक को बाँटने का काम हाथ में नहीं लिया जा सकता, बड़े पोस्ट ऑफिस में सारी डाक बाहर रख दी गई है। हाँ रजिस्ट्री, चिट्ठियाँ और पैकेट बाँटे जाएँगे।" बोलते समय किसी-किसी वक़्त रिचर्ड का चेहरा लाल हो जाता और उसके होंठ थरथरा-से जाते मानो वह भाषण देने का अभ्यस्त न हो, लेकिन कोई भी वाक्य, कोई भी शब्द अनावश्यक नहीं होता था।

“रिफ्यूजी कैम्पों में हम चाहेंगे कि पब्लिक संस्थाएँ सरकार को सहयोग दें। राशन की सप्लाई का इन्तज़ाम कर दिया गया है, टेंट लगा दिए गए हैं। हमें कुछ डॉक्टरों की ज़रूरत होगी, बहुत-से वालंटियरों की भी जो रिफ्यूजियों की देखभाल में मदद दे सकें।...”

बोलते समय रिचर्ड की पैनी नज़र ने सभा में बैठे अनेक व्यक्तियों को पहचान लिया था और उनका रुख भी भाँप लिया था। दहलीज़ के पास मनोहरलाल खड़ा था, काला, मोटा मनोहरलाल, वैसे ही व्यंग्यपूर्ण अन्दाज़ में बाँहें छाती पर लपेटे खड़ा मुसकराए जा रहा था, डिप्टी कमीश्नर के एक-एक वाक्य पर नाक-भौंह चढ़ा रहा था। यह वही आदमी था जो फ़िसादों के पहले बलवाइयों के वफ़द के साथ आया था और रिचर्ड के दफ्तर के बाहर ऊँचा-ऊँचा बोलता रहा था। रिचर्ड की नज़र में यह आदमी यहाँ भी बकवास कर सकता था। दूसरा आदमी कम्युनिस्ट देवदत्त था। पिछले एक साल में रिचर्ड उसे दो बार तीन-तीन महीने के लिए जेल भेज चुका था। यह आदमी फ़िसाद के पहले और फ़िसाद के दिनों में भी फ़िसाद को रोकने की कोशिश करता रहा था, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के कारकुनों को एक साथ मिल बैठने और शहर में अमन बनाए रखने के लिए प्रेरित करता रहा था। इसकी नज़र अभी भी अमन पर ही थी, इस समय यह इसके अतिरिक्त और कोई बात नहीं करेगा। दफ्तर में कांग्रेसी कार्यकर्ता बख्शी तथा अनेक अन्य व्यक्ति थे जिन्हें वह जानता था, बहुत-से वकील थे जिन्हें वह पहचानता था। इसी मजलिस में एक और आदमी भी था जो कांग्रेस में भी था, सोशलिस्ट पार्टी में भी था और सी. आई. डी. (खुफिया पुलिस) में भी था। यह आदमी गड़बड़ भी कर सकता है, मीटिंग में से नारे लगाता हुआ वाक आउट भी कर सकता है, सरकार को गालियाँ भी दे सकता है।

पर रिचर्ड ने सीधी लाइन पकड़ी, शहर की स्थिति पर बहस होने ही नहीं दी, अपने सुझाव दिए और बैठ गया।

अभी रिचर्ड के बैठने की देर थी कि लाला लक्ष्मीनारायण उठ खड़ा हुआ : “हम डिप्टी कमीश्नर साहब को यकीन दिलाते हैं कि शहर की जनता और शहर की सभी संस्थाएँ सरकार के साथ पूरा-पूरा सहयोग करेंगी। हमारी खुशकिस्मती है कि इतना योग्य, इतना हमदर्द, हाकिम इस जिले में मौजूद है...।"

इस पर रिचर्ड उठ खड़ा हुआ, रिलीफ कमेटी के कार्यकर्ताओं से विदा ली और बाहर निकल गया। लक्ष्मीनारायण और कुछ वकील भागते हुए कमरे से उसे जीप तक छोड़ने गए। मीटिंग पन्द्रह मिनट में ख़त्म हो गई। पर तभी पीछे से, दरवाज़े की ओर से सहसा आवाज़ आई :

“यहाँ सभी टोडी इकट्ठे हुए हैं, सरकार की चापलूसी करनेवाले। हम किसी से डरते नहीं हैं, साफ बात मुँह पर कहते हैं। इन फ़िसादों के लिए ज़िम्मेदार कौन है? सरकार उस वक़्त कहाँ थी जब शहर में तनाव बढ़ रहा था, अब कयूं लगाया गया है, उस वक़्त क्यों नहीं लगाया गया? उस वक़्त साहब बहादुर कहाँ थे? हम किसी से डरते नहीं हैं, साफ बात मुँह पर कहते हैं..." मनोहरलाल बोले जा रहा था।

पर उस वक़्त तक जीप जा चुकी थी।

"बस, बस, अब इन बातों को यहाँ लाने की ज़रूरत नहीं है।" रिलीफ कमेटी के कारकुन उठने लगे थे जब एक सज्जन ने उसके पास से गुज़रते हुए कहा, “निकाल लो गालियाँ सरकार को, क्या बना लोगे? इस वक्त सरकार को गालियाँ देने से तुम्हें क्या मिल जाएगा?"

“ओ बख्शीजी, आप भी ऐसी बात कहते हैं? आप भी अब जाकर चरखा कातिए या गलियाँ साफ कीजिए। सियासत आपके वश का रोग नहीं है ।"

“तू इतना चिल्लाता क्यों है? क्या मैं नहीं जानता कि फ़िसाद अंग्रेज़ करवाता है, गांधीजी ने एक बार नहीं, दस बार कहा है..."

"फिर आपने किया क्या है?" ।

"क्या नहीं किया है? मुस्लिम लीग वालों के पास गए हैं कि शहर में अमन रखने के लिए हमारे साथ मिलकर काम करो, डिप्टी कमीश्नर के पास गए हैं कि फौज़ बैठाओ और फ़िसाद को रोको। और हम कर ही क्या सकते थे? और अब जब लोग बर्बाद होकर आए हैं, हमारा क्या फर्ज़ है, हम उनकी मदद करें या सरकार को गालियाँ दें? बड़ा आया इन्कलाबी।"

"हमने भी बहुत देखे हैं, हमसे न बुलवाइए बख्शीजी, हम सब जानते हैं। कांग्रेस के मेम्बर रिफ्यूजी कैम्प में सरकार से सप्लाई के ठेके ले रहे हैं। कहो तो नाम भी बता दूँ?"

“ठेके ले रहे हैं तो मैं क्या करूँ?"

“आप लोगों ने उन्हें कांग्रेस में भी चौधरी बना रखा है।"

तभी एक कारकुन मनोहरलाल के पास आया और मनोहरलाल की कमर में अपना हाथ देकर उसे वहाँ से ले चला, “छोड़ो यार, हमने बहुत देखे हैं। यहाँ सब तोते बैठे हैं, गांधीजी वर्धा में बैठे हुक्म देते हैं तो यहाँ उस पर अमन होने लगता है, लेकिन खुद वह कुछ नहीं सोच सकते।

“डिप्टी कमीश्नर को यहाँ बुलाने का क्या मतलब था?"

पर उसका दोस्त उसे धकेलता हुआ फाटक तक ले गया। गेट पर पहुँचकर मनोहरलाल ने बड़बड़ाना छोड़ दिया।

"लाओ अब सिगरेट तो निकालो, दो कश तो लगाएँ...।"

और दोनों दोस्त गेट के पास चबूतरे पर बैठ गए।

डिप्टी कमीश्नर के चले जाने के बाद बख्शीजी के मन की स्थिति भी कुछ-कुछ वैसी हो रही थी।

"फ़िसाद करवानेवाला भी अंग्रेज़, फिसाद रोकनेवाला भी अंग्रेज़, भूखों मारनेवाला भी अंग्रेज़, रोटी देनेवाला भी अंग्रेज़, घर से बेघर करनेवाला भी अंग्रेज़, घरों में बसानेवाला भी अंग्रेज़...” पर जब से फ़िसाद शुरू हुए थे बख्शीजी के दिमाग में धूल-सी उड़ने लगी थी, बस केवल इतना भर ही बार-बार कहते रहे, 'अंग्रेज़ फिर बाज़ी ले गया।' 'अंग्रेज़ फिर बाज़ी ले गया।' पर शुरू से अखीर तक स्थिति उनके काबू में नहीं आई।

जिस बीच रिचर्ड शहर का दौरा कर रहा था, उसी बीच लीज़ा बोरियत से परेशान हो रही थी। अपने बेड-रूम में से निकलकर वह बड़े कमरे में आ गई। अलमारियों में ठसाठस भरी किताबें छाती का बोझ बनी हुई थीं। लगता समय की गति थम गई है और कुछ भी हिल-डुल नहीं रहा है। हर चीज़ को लकवा मार गया है, अगर कुछ जीवित है तो गौतम बुद्ध और बोद्धिसत्त्वों की आँखें, जो अँधेरे कोनों में छल और कपट से भरी, असंख्य षड्यन्त्रों के जाल बिछाती-सी उसकी ओर देखा करती हैं। शाम के वक़्त इस कमरे में आते हुए उसे डर लगने लगा था, जगह-जगह खड़े बुत उसे विषैले साँपों के सिर जैसे लगते थे।

वह खानेवाले कमरे में आई। यहाँ का वायुमंडल कहीं अधिक शान्त था, यहाँ फूल थे, मद्धिम रोशनी थी, यहाँ बुत न थे, न ही किताबों का बोझ था। यहाँ वातावरण में स्निग्धता थी, व्यक्ति यहाँ सब-कुछ भूल सकता था, बहुत-कुछ याद कर सकता था। ऐसी रोशनी प्रेम करने के लिए बनी थी, अलसाने के लिए, आलिंगनों और चुम्बनों के लिए। लीज़ा को अपना गला रुंधता-सा महसूस हुआ और आँखों में आँसू चुभते-से लगे। अन्दर-ही-अन्दर फिर से कुछ घुमड़ने लगा था और धीरे-धीरे उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। इस कमरे की स्निग्धता भी असह्य सन्नाटे में बदल गई। सहसा उसके अन्दर अकुलाहट-सी उठी, अपनी सिसकी को दबाती हुई वह उठी और किचन की ओर जानेवाले बरामदे के पास ज़ोर से चिल्लाई, "बैरा!"

दूर कहीं से दीवारों की अनगिनत परतों को लाँघती हुई-सी आवाज़ आई:

"मेम साऽऽऽब!"

और कन्धे पर झाड़न लटकाए, खानसामा ढुलकी चाल चलता हुआ मेम साहब के सामने आकर खड़ा हो गया। चार बज रहे थे, वह जानता था क्या आदेश होगा। कभी तीन बजे, कभी चार बजे, कभी साढ़े चार बजे तक मेम साहब का धैर्य चुक जाता था। और वह जिस कमरे में भी होती, चिल्लाकर बुलाती थीं, “बीयर लगाओ, ठंडा बीयर माँगता।"

और लीज़ा हल्की-सी कराहट के साथ फिर खानेवाले कमरे में लौट गई। लीज़ा हाउस कोट पहने ही उसके सामने चली आई थी और हाउस कोट की भी पेटी खुली थी। इस सुनसान बियाबान में रहते हुए बीयर के अलावा कुछ रह नहीं गया था जिससे इनसान अपनी स्थिति को, अपने-आपको भूल सके।

रिचर्ड शाम को आठ बजे के करीब लौटा। लीज़ा नशे में धुत्त सोफे पर ही पड़ी-पड़ी सो गई थी। तिपाई पर बीयर की बोतल में अभी भी कुछ यूंट बच रहे थे। सोफे के एक सिरे पर लीज़ा का सिर लुढ़ककर लटक-सा रहा था और उसके बाल उसके आधे चेहरे पर छितरा गए थे। हाउस कोट ऊपर खिसक आया था जिससे घुटने नंगे हो रहे थे।

"डैम दिस कंट्री, डैम दिस लाईफ!" रिचर्ड सोफे के सामने खड़ा-खड़ा बुदबुदाया।

अपने घर में पहुँचने पर रिचर्ड दूसरी दुनिया में पहुँच जाता था, घर के अन्दर इंग्लैंड की ज़िन्दगी थी, उसकी निजी ज़िन्दगी और उसकी समस्याएँ जिनका बाहर की दुनिया से दूर पार का भी सम्बन्ध नहीं था। बाहर की ज़िन्दगी तो धन्धा था, असल ज़िन्दगी तो घर के अन्दर थी, जो उसकी निजी ज़िन्दगी थी। अलावा उस अध्ययन के जिसमें वह घर और बाहर दोनों को भूल जाता था।

वह सोफे के एक सिरे पर बैठ गया और आगे बढ़कर लीज़ा को गाल पर चूम लिया। अपना फर्ज़ निबाहते हुए औपचारिकता में रात को कभी-कभी जिस उत्तेजना और आग्रह के साथ इस देह को बाँहों में भरा करता था, इस वक्त यही देह उसे स्थूल और मांसल और अनाकर्षक लग रही थी। लीज़ा का वजन फिर से बढ़ने लगा था और उसकी आँखों के नीचे गूमड़ बनने लगे थे। बोरियत के कारण लीज़ा मोटी होती जा रही थी। हर बार घर लौटने पर वह लीज़ा को इस स्थिति में देखता तो उसका मन खिन्न हो उठता।

“लीज़ा!" उसने आगे झुककर लीज़ा के कान में कहा और हाथ बढ़ाकर उसके माथे पर से बाल हटा दिए।

लीज़ा ग़नूदगी में थी। रिचर्ड ने उसे कन्धे से हिलाया। फिर यह देखकर कि लीज़ा इस स्थिति में नहीं है कि मेज़ पर बैठकर भोजन करे, उसे उसके बिस्तर में लिटा देना ही मुनासिब होगा; उसने दायाँ हाथ लीज़ा की गर्दन के नीचे दिया और बायाँ हाथ घुटनों के नीचे और लीज़ा को उठाकर कमरे में ले जाने की कोशिश करने लगा। तभी रिचर्ड को लगा जैसे नीचे से लीज़ा का हाउस कोट गीला हो रहा है, और फिर उसकी नज़र सोफे पर पड़ी...जिस ओर लीज़ा की टाँगें रही थीं, वहाँ पर सोफे की सीट पर गोलाकार में सोफे का एक हिस्सा गीला हो रहा था। लीजा ने सोफे पर फिर पेशाब कर दिया था।

रिचर्ड का मन वितृष्णा से भर उठा। पेशाब की तीखी गन्ध उसकी नाक में गई। रिचर्ड ने खड़े-खड़े ही सिर हिला दिया। कहानी फिर से दोहराई जाने लगी है। अभी लीज़ा साल-भर घर में लन्दन में बिताकर आई थी। उससे पहले वह ऊबकर भारत से भाग गई थी। यह फिर भाग जाएगी। या तो फिर से चली जाएगी या फिर मुझे अपनी तबदीली किसी दूसरी जगह करवानी पड़ेगी।

सोफे की ओर देखकर उसे सहसा एक अनोखी-सी बात याद आ गई और वह मुसकरा दिया। यह सोफा उसने यहाँ तबदील होने पर कमीश्नर लारेंस से लिया था जो स्वयं तबदील होकर लखनऊ जा रहा था। और जब बाद में उसने सोफे पर से कपड़ा उतारा था तो उसके नीचे भी वैसा ही भद्दा चटाख नज़र आया था जैसा अब नज़र आ रहा था। और उसने सुन रखा था कि कमीश्नर की पत्नी भी बोरियत का शिकार थी और वह भी नशे में या तो रोते-रोते या हँसते-हँसते सोफे को गीला कर दिया करती थी। और कमीश्नर भी जगह-जगह अपनी तबदीलियाँ करवाता फिरता था और अन्त में उसकी पत्नी उसे छोड़ गई थी और फौज़ के एक युवा कप्तान के साथ ब्याह कर लिया था। रिचर्ड ने अपनी पत्नी की ओर देखा, फिर सोफे की ओर। इस घर का भी ऐसा ही कुछ हश्र होगा, उसने मन-ही-मन कहा और लीज़ा को उठाए हुए उसे बेड-रूम की ओर ले चला।

बेड-रूम तक पहुँचते-पहुँचते लीज़ा जाग गई थी, कुछ नशा भी उतरने लगा था।

“क्या है रिचर्ड, मुझे कहाँ ले जा रहे हो?"

"तुम्हारा गाउन नीचे से गीला हो रहा है, लीज़ा, मैं तुम्हें तुम्हारे कमरे में ले जा रहा हूँ।"

पर लीज़ा ने इस उत्तर को स्पष्टतः ग्रहण नहीं किया।

लीज़ा को उसने बिस्तर के पास रखी आरामकुर्सी पर बिठा दिया।

"खाना खाओगी, लीज़ा?"

"खाना? कैसा खाना?"

रिचर्ड का मन हुआ उसे दोनों कन्धों पर से पकड़कर झिंझोड़ दे, वह फौरन जाग जाएगी, पर उसने ऐसा कुछ नहीं किया और दोनों हाथ कमर पर रखे उसे घूरता रहा।

लीज़ा ने छितरे बालों के बीच सिर ऊपर उठाया, “रिचर्ड, तुम हिन्दू हो या मुसलमान?"

और यह कहकर वह हौले से हँस दी।

"तुम कब आए, मुझे पता ही नहीं चला।" लीज़ा ने कहा, “तुम दिन का खाना खाने आए हो या रात का?"

रिचर्ड को क्षण-भर के लिए लगा जैसे लीज़ा व्यंग्य कर रही है, कि वह इतनी ज़्यादा नशे की खुमारी में नहीं है जितनी बन रही है। इस पर वह उसके सामने पलँग पर बैठ गया और उसके बाजू पर हाथ रखकर बोला, “आजकल मुझे बहुत काम है, लीज़ा, तुम्हें मालूम होना चाहिए, बहुत काम है, शहर में अनाज की मंडी जल गई है और देहात में 103 गाँव जल गए हैं।"

“एक सौ तीन गाँव जल गए और मुझे पता ही नहीं चला? मैं सोई रही और मुझे पता ही नहीं चला!" फिर शिकायत के लहज़े में बोली, "मुझे बता तो दिया होता रिचर्ड, मुझे जगाकर ही बता दिया होता। इतनी बड़ी-बड़ी बातें हो गईं और मुझे तुमने बताया ही नहीं?"

“सो जाओ लीज़ा, कपड़े बदलकर सो जाओ, तुम्हें नींद आ रही है।"

"तुम मेरे पास बैठो, मैं अकेली नहीं सो सकती।"

"तुम सोओ, लीज़ा, अभी मुझे बहुत काम करना है।"

"इतने गाँव तो जल गए रिचर्ड, अभी भी तुम्हें काम है? अब तुम्हें और क्या काम करना है?"

रिचर्ड ठिठक गया। क्या लीज़ा व्यंग्य कर रही है? क्या उसके दिल में मेरे प्रति घृणा पैदा होने लगी है जो वह इस तरह की बातें करने लगी है?

नशे में डूबे हुए सभी व्यक्तियों की तरह लीज़ा भी, जो मन में आता, कहे जा रही थी। वह कुर्सी पर से उठी और लड़खड़ाती हुई पलँग पर रिचर्ड से सट कर जा बैठी, फिर अपनी बाँहें रिचर्ड के गले में डालकर अपना सिर उसकी छाती पर रख दिया। नहीं, यह नफरत नहीं हो सकती। उसने अनजाने में ही यह वाक्य कह दिया होगा।

“तुम मुझसे प्यार नहीं करते, मैं जानती हूँ, मैं सब जानती हूँ।"

फिर रिचर्ड के बाल सहलाकर बोली, “कितने हिन्दू मरे, कितने मुसलमान मरे, रिचर्ड? तुम्हें तो सब मालूम होगा? अनाज-मंडी क्या होती है?"

रिचर्ड चुपचाप उसकी ओर देखता रहा। उसकी ओर देखते हुए किसीकिसी वक्त रिचर्ड के मन में लीज़ा के प्रति घृणा का भाव भी उठता, जितना ज़्यादा वह नशा करने लगी थी, उतना ही ज्यादा वह उसके लिए अनाकर्षक होती जा रही थी। मांस का लोथड़ा बनती जा रही थी। इस तरह का रिश्ता ज़्यादा दिन नहीं चल सकता। रिचर्ड की आँखें लीज़ा के चेहरे पर ठिठक रहीं। लीज़ा के प्रति उसकी भावनाएँ भी स्पष्ट नहीं थीं। इस लड़की से विवाह-सम्बन्ध बनाए रखे या तोड़ दे, यह सवाल भी अपने कैरियर के सन्दर्भ में ही सोचा जा सकता था। इस वक्त उसके कैरियर में एक निर्णायक घड़ी आ पहुंची थी, जिसमें एक नाजुक-सा सन्तुलन बनाए रखना बेहद ज़रूरी था, यह देखना निहायत ज़रूरी था कि जनता का असन्तोष ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध न भड़के। अभी तक उसने सब काम बड़ी समझदारी और कुशलता से सम्पन्न किए थे। लोग उसकी ईमानदारी से प्रभावित हुए थे। हर बात सटीक बैठी थी। इसलिए इस समय लीज़ा को जैसे-तैसे साथ बनाए रखना ज़रूरी था।

उसने आगे झुककर लीज़ा का गाल चूम लिया।

“सुनो लीज़ा," रिचर्ड ने उत्साह से कहा, "मुझे कल सैयदपुर जाना है, एक कुएँ में डिसइंफेक्टैंट डलवाना है, जहाँ कुछ औरतें डूब मरी थीं। तुम भी साथ क्यों नहीं चलतीं? उधर से हम मोटर में टेक्सिला की ओर निकल जाएँगे। टेक्सिला का म्यूजियम देख लेंगे। क्या कहती हो? वह सारा इलाका बड़ा सुन्दर है।"

लीज़ा ने उनींदी आँखों से रिचर्ड के चेहरे की ओर देखा, “मुझे कहाँ घुमाने से चलोगे, रिचर्ड? मुझे जलते गाँवों की सैर कराओगे? मैं कुछ भी देखना नहीं चाहती, कहीं भी जाना नहीं चाहती।"

“नहीं-नहीं, घर में बैठे रहने में क्या तुक है? अब स्थिति बदल गई है, अब तुम घूम-फिर सकती हो।" रिचर्ड ने उत्साह का स्वाँग बराबर बनाए रखा, “अब हम एक साथ घूम-फिर सकते हैं। यहाँ का देहाती इलाका सचमुच बड़ा सुन्दर है। उस दिन, इस सैयदपुर में ही, फलों के बाग के पास गुज़रते हुए मैंने लार्क पक्षी की आवाज़ सुनी। इस मौसम में वहाँ लार्क पक्षी मिलता है। मुझे नहीं मालूम था कि इस गर्म देश में भी यह पक्षी रहता होगा। मैं हैरान हो गया। और भी तरह-तरह के पक्षी मिलते हैं जिन्हें तुमने पहले कभी नहीं देखा होगा।"

"क्या यह वही जगह है जहाँ औरतें डूब मरी हैं?"

“हाँ वही, कुएँ के साथ ही नदी बहती है और नदी के पार ही फलों का बाग़ है...।"

एक हल्की-सी मुस्कान लीज़ा के होंठों पर आई और वह रिचर्ड के चेहरे की ओर देखती रही, “तुम कैसे जीव हो रिचर्ड, ऐसे स्थानों पर भी तुम नए-नए पक्षी देख सकते हो, लार्क पक्षी की आवाज़ सुन सकते हो?"

"इसमें कोई विशेष बात नहीं है, लीज़ा, सिविल सर्विस हमें तटस्थ बना देती है। हम यदि हर घटना के प्रति भावुक होने लगें तो प्रशासन एक दिन भी नहीं चल पाएगा।"

“यदि 103 गाँव जल जाएँ तो भी नहीं?"

"तो भी नहीं," रिचर्ड ने तनिक रुककर कहा, “यह मेरा देश नहीं है। न ही ये मेरे देश के लोग हैं।"

लीज़ा रिचर्ड के चेहरे की ओर देखती रह गई।

“मगर तुम तो इन लोगों के बारे में किताब लिखने जा रहे थे रिचर्ड! इनकी नस्ल के बारे में। वही न?"

"किताब लिखना और बात है लीज़ा, उसका प्रशासन से क्या मतलब?"

लीज़ा को फिर से गुमसुम देखकर रिचर्ड बोला, “आज मैंने हेल्थ-ऑफिसर की पत्नी से कहा है कि रिफ्यूजियों के लिए सामान इकट्ठा करे यहाँ पर गाँवों से आनेवाले रिफ्यूजियों के लिए दो कैम्प खोले जा रहे हैं। और मैंने उसे यकीन दिलाया है कि तुम इस काम में हाथ बटाओगी।" फिर अपने सुझाव को अधिक स्पष्ट करते हुए बोला, “रिफ्यूजियों के लिए कपड़ा, रिफ्यूजी बच्चों के लिए खान-पान की चीजें और खिलौने तुम इकट्ठा कर सकती हो। इससे तुम्हें घूमने-फिरने का मौका मिलेगा..."

लीज़ा फिर भी चुप बनी रही। रिचर्ड ने फिर झुककर लीज़ा का गाल चूम लिया और दाएँ हाथ से उसके बाल सहलाते हुए बोला, "मैं नहीं रुक सकता लीज़ा, मुझे बहुत काम है, इस वक़्त मुझे अपने दफ्तर में होना चाहिए था।"

और वह उठ खड़ा हुआ।

"फिर मिलूँगा, लीज़ा! मेरा इन्तज़ार नहीं करना...और देहात में चलने के लिए सुबह तैयार रहना। हम आठ बजे निकल जाएँगे।" और वह कमरे से बाहर निकल गया।

लीज़ा देर तक बैठी खुले दरवाज़े की ओर देखती रही, उसके शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। कमरा फिर साँय-साँय करने लगा।

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रचनाएँ
तमस
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'तमस' की कथा परिधि में अप्रैल १९४७ के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है। 'तमस' कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षों की कथा हो जाती है। आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी होने के बावजूद इसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार उदघाटित हो जाता है और पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है। भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल इसका घृणित उपयोग कर रहे हैं।
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तमस भाग 1

9 अगस्त 2022
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आले में रखे दीये ने फिर से झपकी ली। ऊपर, दीवार में, छत के पास से दो ईंटें निकली हुई थीं। जब-जब वहाँ से हवा का झोंका आता, दीये की बत्ती झपक जाती और कोठरी की दीवारों पर साये से डोल जाते। थोड़ी देर बाद ब

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भाग 2

9 अगस्त 2022
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प्रभातफेरी में भाग लेने के लिए आरंभ में दो गिने-चुने लोग ही पहुँचते थे। बाद मे गलियाँ और बाज़ार लाँघते हुए जिस किसी का घर रास्ते में पड़ता वह तोंद खुजलाता, जम्हाइयाँ लेता साथ में शामिल हो जाता था। ह

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भाग 3

9 अगस्त 2022
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गली में क़दम रखते ही नत्थू ने चैन की साँस ली। गली में अँधेरा था जबकि सड़कों पर अँधेरा छटने लगा था। नत्थू जल्दी से जल्दी गलियों का जाल लाँघकर अपने डेरे पर पहुँच जाना चाहता था। उस बदबू-भरी कोठरी में से

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भाग 4

9 अगस्त 2022
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टीले के ऊपर पहुँचकर दोनों ने अपने घोड़े रोक लिये। सामने दूर तक चौड़ी घाटी फैली थी जो पहाड़ों के दामन तक चली गई थी। लगता दूर क्षितिज पर सतरंगी धूल उड़ रही है। विशाल मैदान, कहीं-कहीं छोटी-छोटी पहाड़ियाँ

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भाग 5

9 अगस्त 2022
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अँधेरा छटने लगा था जब प्रभातफेरी की मंडली गलियाँ लाँघती हुई "इमामदीन के मुहल्ले में पहुँची। रास्ते में शेरखान के घर से झाड़, बेलचे, कड़ाहियाँ और सफाई का अन्य सामान लेकर वे आगे बढ़ने लगे थे। सुबह की रो

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भाग 6

9 अगस्त 2022
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साप्ताहिक सत्संग की समाप्ति से पहले पुण्यात्मा वानप्रस्थीजी सदा की भाँति मन्त्रपाठ करने लगे। इस मन्त्रपाठ को वह सत्संग रूपी यज्ञ की 'अन्तिम आहुति' कहा करते थे। गिने-चुने इन विशिष्ट मन्त्रों तथा श्लोको

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भाग 7

9 अगस्त 2022
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दफ्तर में मिलने के बजाय आप लोग घर पर मिलने आए। ज़रूर कोई बहुत ही ज़रूरी काम रहा होगा।" रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा। चपरासी ने चिक उठा दी। नागरिकों के शिष्टमंडल के सदस्य एक-एक करके कमरे के अन्दर दाखिल हुए

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भाग 8

9 अगस्त 2022
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शहर में सब काम जैसे बँटे हुए थे : कपड़े की ज़्यादातर दूकानें हिन्दुओं की थीं, जूतों की मुसलमानों की, मोटरों-लारियों का सब काम मुसलमानों के हाथों में था, अनाज का काम हिन्दुओं के हाथ में। छोटे-छोटे काम

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भाग 9

9 अगस्त 2022
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'ऐसा 'बेवाका' घर है, कोई चीज़ एक बार कहीं रख दो, फिर मिलती ही नहीं, ढूंढ-ढूँढ़ मरो उसे।" लाला लक्ष्मीनारायण अलमारी के सामने खड़े बड़बड़ा रहे थे। अलमारी के निचले खाने में कपड़ों के नीचे उन्होंने एक नन्

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भाग 10

9 अगस्त 2022
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दिन के उजाले में शहर अधमरा-सा पड़ा था, मानो उसे साँप सूंघ गया हो। मंडी अभी भी जल रही थी, म्युनिसिपैलिटी के फायर ब्रिगेड ने उसके साथ जूझना कब का छोड़ दिया था। उसमें से उठनेवाले धुएँ से आसमान में कालिमा

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भाग 11

9 अगस्त 2022
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देवदत्त नहा-धोकर, हाथ मलता हुआ अपने घर के सामने आ खड़ा हुआ। जब कभी वह हाथ मलता हो, या दाएँ हाथ से मुँह और नाक सहलाता हुआ फिर से दोनों हाथ मलने लगे तो समझ लो देवदत्त अपनी कार्य-सूची तैयार कर रहा है। दे

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भाग 12

9 अगस्त 2022
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एक आदमी छज्जे पर पहरा दे।" रणवीर ने घूमकर कहा। मुर्गी काटकर दीक्षा पाने से उसमें भरपूर आत्म-विश्वास पैदा हो गया था। वह दल का सबसे चतुर, सबसे चुस्त और सबसे ज़्यादा कार्यकुशल सदस्य था। उसकी आवाज़ में कड

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भाग 13

9 अगस्त 2022
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नत्थू परेशान था। अपनी कोठरी के बाहर बैठा वह चिलम पर चिलम फूँके जा रहा था। जितना अधिक वह मार-काट की अफवाहों को सुनता, उतना ही अधिक उसका दिल बैठ जाता। बार-बार अपने मन को समझाता, मैं अन्तर्जामी तो नहीं ह

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भाग 14

9 अगस्त 2022
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पहली बस खानपुर से चलकर सुबह आठ बजे गाँव पहुँचती थी। वह नहीं आई। उसके बाद हर घंटे दो घंटे के बाद शहर की ओर से भी और खानपुर की ओर से भी बसें आती थीं। आज दोपहर हो गई, एक भी बस नहीं आई। चाय की दुकान में क

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भाग 15

9 अगस्त 2022
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गुरुद्वारा खचाखच भरा था और संगत मस्ती में झूम रही थी! बस अनमोल समय था। रागी पूरी तन्मयता से आँखें बन्द किए गा रहे थे : “तुम बिन कौन मेरे गोसाईं..." संगत में सबके हाथ जुड़े हुए, आँखें बन्द और सिर वजद

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भाग 16

9 अगस्त 2022
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हरनामसिंह ने दूसरी बार साँकल खटखटाई तो अन्दर से किसी स्त्री की एआवाज़ आई : "घर पर नहीं हैं, मर्द बाहर गए हैं।" हरनामसिंह ठिठका खड़ा रहा। बन्तो की आँखें दाएँ-बाएँ देख रही थीं कि आसपास उन्हें किसी ने

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भाग 17

9 अगस्त 2022
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इस बीच देहात की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर एक और नाटक खेला जा रहा २ था। रमज़ान और उसके साथी ढोक इलाहीबख्श और मुरादपुर की ओर से लूटपाट का सामान उठाए हँसते-बतियाते लौट रहे थे जब उन्हें दूर एक टीले के पास, एक भ

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भाग 18

9 अगस्त 2022
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तुर्क आए थे पर वे अपने ही पड़ोसवाले गाँव से आए थे। तुर्कों के ज़ेहन में भी यही था कि वे अपने पुराने दुश्मन सिखों पर हमला बोल रहे हैं और सिखों के जेहन में भी वे दो सौ साल पहले के तुर्क थे जिनके साथ खाल

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भाग 19

9 अगस्त 2022
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शहर की सड़क पर निकलते ही पता चल जाता था कि माहौल बदल गया है। मुहल्ला कुतुबदीन की मस्जिद के सामने, सड़क के पार चार हथियारबन्द फौज़ी कुर्सियाँ डाले बैठे थे। सड़क पर चलते हुए हर चौक पर दो-तीन फौजी बन्दूक

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भाग 20

9 अगस्त 2022
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हमें आँकड़े चाहिए, केवल आँकड़े! आप समझते क्यों नहीं? आप लम्बी हाँकने लगते हैं, सारी रामकहानी सुनाने लगते हैं, मुझे रामकहानी नहीं चाहिए, मुझे केवल आँकड़े चाहिए। कितने मरे, कितने घायल हुए, कितना माली नु

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भाग 21

9 अगस्त 2022
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अमन कमेटी की मीटिंग के लिए लोग हॉल में इकट्ठे हो रहे थे। यही एक जगह चुनी गई थी जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी, क्योंकि कालिज न हिन्दुओं का था, न मुसलमानो का, कालिज ईसाइयों का था, प्रिंसिपल भी ह

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