अँधेरा छटने लगा था जब प्रभातफेरी की मंडली गलियाँ लाँघती हुई "इमामदीन के मुहल्ले में पहुँची। रास्ते में शेरखान के घर से झाड़, बेलचे, कड़ाहियाँ और सफाई का अन्य सामान लेकर वे आगे बढ़ने लगे थे। सुबह की रोशनी में उनके थके-थके पीले चेहरे साफ़ नज़र आने लगे। मेहताजी को छोड़कर लगभग सभी के कपड़े मुचड़े हुए और मैले थे। बख्शी के सिर पर गांधी टोपी एक ओर से चिपकी हुई थी मानो सिर पर लादा हुआ कोई बोझ अभी-अभी फेंककर आया हो। शंकर, मास्टर रामदास और अज़ीज़ ने कन्धों पर झाडू उठा रखे थे। देसराज और शेरखान के हाथों में कड़ाहियाँ थीं। जरनैल लम्बा-सा बाँस उठाए था। दिन की रोशनी में मास्टर रामदास अपने हाथ में झाडू देखकर सकुचाने लगा था।
"ब्राह्मणों से भी झाड़ उठवाते हो गांधी महात्मा, जो करो थोड़ा है। जी! ब्राह्मणों के हाथ में भी झाड़ उठवा दिया!"
और वह हल्के-हल्के हँस दिया। झाड़ उसने पीठ पीछे कर लिया था। अपने वाक्य का किसी ओर से भी उत्तर न पा उसने तनिक ऊँची आवाज़ में बख्शीजी को सम्बोधन करके कहा, "मैं नाली साफ नहीं करूँगा। पहले बोल दूँ।"
“क्यों? तुम्हें सुरखाब के पर लगे हैं?"
"क्यों? गांधीजी अपना शौचालय साफ़ कर सकते हैं, तुम नाली साफ़ नहीं कर सकते!"
“मैं झूठ नहीं कहता, मैं झुक नहीं सकता, झुकता हूँ तो कमर में दर्द उठता है। मुझे पथरी की शिकायत रहती है।"
"गाय के लिए सानी-पानी करते हो तो पथरी की शिकायत नहीं रहती। तामीरी काम करते वक़्त ही तुम्हें पथरी की शिकायत होने लगती है?"
इस पर शंकर घूमकर बोला, "मास्टरजी, हमें प्रचार करना है, कौन सचमुच की नालियाँ साफ़ करनी हैं। नाली मैं साफ़ करूँगा, तुम कड़ाही में कूड़ा उठाते रहना।"
थोड़ी दूर जाने के बाद मंडली एक गली में घूम गई।
“यह किस रास्ते पर चल पड़े हो?"
सहसा पीछे से गोसाईंजी ने चिल्लाकर कहा। मंडली के आगे-आगे चलता हुआ देसराज दाएँ हाथ को घूम गया था, और उसके पीछे सारी मंडली ही उस ओर को जाने लगी थी।
“हाँ-हाँ मना कर दो,” बख्शीजी ने हामी भरी। “सुबह-सुबह इन लोगों के नमाज़ का वक़्त होता है, क्या फायदा मस्जिद के सामने से जाने का।"
“ओ, कश्मीरी?" बख्शीजी ने चिल्लाकर कहा, “तुम सब लोग सोए रहते हो! इधर मस्ज़िद के सामने से जाने को तुमसे किसने कहा है? हमेशा अपनी मनमानी करते हो।"
कश्मीरीलाल रुक गया।
"शेरखान और देसराज उधर घूम गए। हम भी उधर घूम गए। मगर कोई बात नहीं बख्शीजी, मस्ज़िद के सामने गाना बन्द कर देंगे।"
"नहीं-नहीं, कोई ज़रूरत नहीं। देखते नहीं हवा कैसी हो रही है। तुम लौट आओ और पिछली गली में से होकर सीधे चौक की तरफ़ चलो, वहाँ से सड़क पार करके इमामदीन के मुहल्ले में चले जाएँगे।"
मंडली लौट पड़ी, और बाएँ हाथ की तंग गली को लाँघकर थोड़ी देर बाद इमामदीन के मुहल्ले के पास जा पहुँची। यह रास्ता प्रभातफेरी के लिए नया था। आम तौर पर शहर के बाहर की पुरानी बस्तियों में कांग्रेस प्रचार के लिए नहीं जाती थी। कमेटी के मैदान को लाँघकर जाना यों भी दूर पड़ता था। इमामदीन का मुहल्ला कमेटी के मैदान के पार पूर्व की ओर एक सिरे पर था।
एक जगह, चरनी के पास मंडली खड़ी हो गई। कश्मीरीलाल ने, जिसके हाथ में तिरंगा था, सिर ऊँचा उठाकर, पूरे ज़ोर से नारा लगाया, 'इंकलाब!'
जवाब में सभी ने जोश से कहा, "ज़िन्दाबाद!"
“बोलो भारत माता की...जय!"
नारे की आवाज़ सुनकर मुहल्ले के बच्चे भागते हुए, घरों के बाहर आ गए। औरतें टाट के पर्दो के पीछे से झाँकने लगीं। लाल कलगीवाला एक मुर्ग कूदकर कच्ची दीवार के ऊपर चढ़ गया और कुछ देर तक पर फड़फड़ाने के बाद 'कु...क्कडू...कू!' की बाँग लगाई, मानो उसने मुहल्ले की नुमाइन्दगी करते हुए नारे का जवाब दिया हो।
“तुमसे तो यह मुर्ग ही अच्छा है कश्मीरी, देखा, कैसे रोब से बाँग लगाता है!" शेरखान बोला।
"क्यों, कश्मीरी किसी से कम है, कश्मीरी कांग्रेस का कुक्कड़ है।" शंकर ने जोड़ा।
“तू भी सिर पर लाल कलगी लगा ले, कश्मीरी! इसे लाल टोपी ले दो बख्शीजी, फिर बिलकुल कुक्कड़ नज़र आएगा।"
“क्यों, कलगी के बगैर यह कुक्कड़ नज़र नहीं आता? यह मादा कुक्कड़ है, कुक्कड़ी। कश्मीरी कुक्कड़ी...।"
नगर का हास्य-व्यंग्य ऐसा ही था। मौके-बेमौके साथियों के बीच छेड़छाड़ चलती रहती थी।
"बस, बस, अब काम शुरू करो।" बख्शीजी चरनी पर लालटेन रखते हुए बोले।
अधिकांश घर इकहरे, एक-मंज़िला थे। बहुत से घरों के दरवाज़ों पर टाट के पर्दे लटक रहे थे। सामने खुला मैदान था और मैदान के पार, एक-दूसरी के समानान्तर, दो कच्ची गलियाँ थीं। एक गली में नालियाँ थीं, पर कच्ची थीं। दूसरी गली में नालियाँ खोदी ही नहीं गई थीं। गली में ही माल-मवेशी बँधे थे। घरों में से स्त्रियाँ, सिर पर एक-एक दो-दो घड़े रखे पानी भरने जा रही थीं। एक जगह एक बालक भैंस के नीचे से गोबर उठा रहा था। नज़दीक ही चरनी के पास दो बच्चे, मैदान में, एक-दूसरे के सामने बैठे शौच कर रहे थे और बतिया रहे थे।
"तेरी टट्टी पतली क्यों है?"
“मैं बकरी का दूध पीता हूँ। तू क्या पीता है?"
मैदान में ही एक ओर कोने में तन्दूर खड़ा था। यहाँ पहुँचकर लगता था जैसे ये लोग गलियों के ही रास्ते किसी गाँव में प्रवेश कर गए हैं।
"उठाओ बेलचे और तामीरी काम शुरू करो।" बख्शीजी ने कहा।
मेहता और मास्टर रामदास कड़ाही लेकर आँगन की ओर बढ़ गए। शंकर और कश्मीरीलाल ने बेलचे उठाए और नाली साफ़ करने चल पड़े। शेरखान, देसराज और बख्शीजी झाइ उठाकर आँगन बुहारने लगे।
आसपास के लोगों की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या होने जा रहा है। ताँगा हाँकनेवाला एक छाछी अपने घर के बाहर आकर मैदान के किनारे पैरों के बल बैठ गया था पर बख्शीजी को झाड़ लगाते देखकर वह उठ खड़ा हुआ और लपककर बख्शीजी के पास जा पहुंचा।
"क्यों हमें शर्मिन्दा करते हो बाबूजी, हमारा घर तुम बुहारोगे? लाइए झाडू मुझे दीजिए।"
"नहीं, नहीं, यह हमारा ही काम है।" बख्शीजी ने जवाब दिया।
"नहीं बन्दापरवर, कभी यों भी हुआ है, आप पढ़े-लिखे खानदानी लोग हो, हम आपसे झाडू लगवाएँगे, तोबह-इस्तफ़ार! लाइए, मुझे दीजिए, हमें क्यों दोज़ख की आग में धकेलते हो..."
बख्शीजी को उसका व्यवहार भला लगा। कांग्रेस के प्रचार का असर हो रहा है, उन्होंने मन ही मन कहा, यही तामीरी काम का मतलब है, और क्या।
कश्मीरी और शंकर बेलचे उठाए घरों के साथ-साथ जानेवाली कच्ची नाली में से लसलसा कीच निकाल रहे थे। जब से नाली खोदी गई थी, उसमें गन्दा पानी जमा होता रहा था, और अब उसने गहरे नीले रंग के लसलसे कीच का रूप ले लिया था। जितनी मुद्दत यह लसलसा कीच नाली में पड़ा रहा, बदबू नहीं आई, पर जब शंकर और कश्मीरीलाल उसे बेलचों से निकाल-निकालकर नाली के किनारे-किनारे जगह-जगह ढेर लगाने लगे तो बदबू से नाक फटने लगी और मच्छर नाली पर से उड़-उड़कर चारों ओर फैलने लगे। नाली कुछ नहीं तो फुट-भर गहरी रही होगी और उसमें ऊपर तक कीच ही कीच भरा था।
"ओ बादशाहो, यह क्या जुल्म करने लगे हो!"
एक छत की मुंडेर के पीछे खड़ा रँगी हुई दाढ़ीवाला कोई बुजुर्ग बोला, "इधर बीमारी फेंक जाओगे तो उठावाएगा कौन! नाली में पड़ा रहने देते तो कम से कम एक जगह पर बना तो रहता। अब इसके जगह-जगह ढेर लगा जाओगे। पहले से भी ज्यादा गन्दगी फैला जाओगे...।"
बख्शीजी दूर से यह काम देख रहे थे। कमर सीधी करके खड़े हो गए। उन्हें शंकर और कश्मीरीलाल पर गुस्सा आया, “ये जवान लोग कभी नहीं समझेंगे।" वह बुदबुदाए। “तामीरी काम का यह मतलब तो नहीं कि सचमुच नालियाँ साफ़ करने लग जाओ। इसका तो इतना-भर मतलब है कि लोगों का ध्यान सफाई की ओर दिलाओ। और देश की आज़ादी की ओर।"
पर बुजुर्ग अपना सुझाव दे चुकने के बाद मुँडेर पर से हट गया था और बख्शीजी फिर आँगन बुहारने में लग गए थे।
तभी सामनेवाली गली में से एक सफे दरीश बुजुर्ग निकला। हाथ में तसबीह पकड़े हुए था। ज़ाहिर है, मस्ज़िद की ओर जा रहा था। सफ़ेद सलवार, सफ़ेद कुर्ता, ऊपर खुली, नए तर्ज की वास्कट और सिर पर मुशद्दी लुंगी पहने था। चाल-ढाल से ही लगता था कि कोई मजहबी आदमी है। इन लोगों को झाडू लगाते और नालियाँ साफ़ करते देखकर रुक गया। फिर रामदास की ओर देखकर जो झाडू हाथ में लिये, धूल-मिट्टी में भूतना बना खड़ा था, बुजुर्ग बोला, “हम लोगों पर अहसान का बोझ लादने आए हो?" पर वह उनके सेवा-भाव से बहुत प्रभावित हुआ जान पड़ा, “आफ़रीन है, वाह-वाह!" और उसकी आँखें आँगन और गली और नाली पर लगे एक-एक कार्यकर्ता की ओर जाने लगीं। "खुश रहो, वाह-वाह, कैसा नेक दिल पाया है, आफ़रीन है।" वह बार-बार कह रहा था।
"हम क्या सफाई करेंगे बुजुर्गवार, हम कितना कुछ कर सकते हैं," बख्शीजी बुजुर्ग को बोलता देखकर झाडू उठाए उसके पास चले आए थे। पर बुजुर्ग ने समझाते हुए कहा, “मतलब गलियाँ साफ़ करने से नहीं, इसके पीछे जो जज्बा काम कर रहा है, वह बहुत ऊँचा है। आफ़रीन, सद आफ़रीन!" सफेदरीश बुजुर्ग ने कहा और धीमी गति से चलता मुस्कराता हुआ मुहल्ले में से निकलकर मस्ज़िद की ओर जाने लगा। बख्शीजी को उसके मुँह से तामीरी काम की तारीफ़ सुनकर सुहानी खुशी हुई। उन्हें लगा जैसे आज का तामीरी काम सार्थक हो गया है।
“वह देखो मेहताजी और अज़ीज़ की तरफ़।" शेरखान ने हँसकर कहा। "दोनों ने झाड़ को हाथ तक नहीं लगाया। मेहताजी को तो अपने कपड़ों का ख्याल है।"
बख्शीजी ने घूमकर देखा। बड़े साफ़-सुथरे हाथों से मेहता एक-एक कंकड़ उठाकर कड़ाही में सजा रहा था। तर्जनी और अंगूठे से एक-एक कंकड़ उठाता और कड़ाही के पास आकर बड़े करीने से उसमें डाल देता। दूसरी ओर रामदास था, जिसकी मूंछों और बालों पर अभी से मिट्टी की तह जमने लगी थी।
आसपास, बच्चों के अलावा बहुत से लोग इकट्ठे हो गए थे, टाट के पर्दो के पीछे से अनेक लड़कियाँ और औरतें और छतों पर जगह-जगह खड़े मर्द तामीरी काम का प्रदर्शन देख रहे थे।
जरनैल जो अभी तक लम्बा बाँस हाथ में उठाए चरनी के पास खड़ा था, चलता हुआ नाली साफ़ करनेवालों के पास जा पहुंचा।
“नाली खोलने की ज़रूरत है? बाँस लगाऊँ?" उसने फौज़ी अन्दाज़ में पूछा।
आसपास खड़े लोग हँस दिए।
“यह तामीरी काम बकवास है,” शंकर ने कमर सीधी करते हुए कश्मीरीलाल से कहा, “नालियाँ साफ़ करने से स्वराज्य नहीं मिलेगा।"
शंकर और कश्मीरी दोनों पसीना-पसीना हो रहे थे। नाली के किनारे वे तीन जगह पर कीच के ढेर लगा चुके थे।
"बहुत बकबक नहीं किया कर शंकर,” बख्शीजी ने, जो अब गली के बीचोबीच झाड़ उठाए खड़े थे, शंकर का वाक्य सुन लिया था। “भेजे में बहुत अक्ल आ गई है। बापू तो नालायक हैं न, जो हम सबको चरखा कातने और तामीरी काम करने को कहते हैं।"
“कर तो रहा हूँ, तामीरी काम ही कर रहा हूँ और क्या कर रहा हूँ, पर है यह बकवास।"
बख्शीजी सुबह-सुबह शंकर के मुँह नहीं लगना चाहते थे क्योंकि वह बड़ा मुँहफट आदमी था। फिर भी उनसे नहीं रहा गया, “कुछ समझा कर शंकर, यह हमारी देश-भक्ति का चिह्न है, इस तरह हम गरीबों के स्तर तक उतर आते हैं। क्या गरीबी में काम करने जाओगे तो पतलून पहनकर जाओगे? झाड़ लेकर या खादी पहनकर जाते हो तो लोग तुम्हें अपना समझते हैं।"
जब से तामीरी काम करने लगे हो, आन्दोलन ठप्प हो गया है," शंकर ने कहा, “लगाओ झाड़ और कातो चरखे।" और उसने एक और बेलचा कीच से भरकर ढेर पर डाल दिया।
तभी जरनैल ऊँची आवाज़ में बोला, “तुम गद्दार हो। मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम कम्युनिस्ट हो!"
"बस बस, जरनैल!" बख्शीजी ने झट से कहा। जरनैल बोलने लगेगा तो एक और बखेड़ा खड़ा हो जाएगा। उसे रोक पाना नामुमकिन हो जाएगा।
"तुम भी शंकर, वक्त-बेवक्त अपनी हाँकने लगते हो। यह कोई जगह है बहस करने की?"
उसी वक़्त एक आदमी कमेटी के मैदान की तरफ से भागता हुआ आया और शेरखान के घर की गली लाँघकर एक ओर खड़े मुहल्ले के कुछ लोगों के पास जा पहुँचा और उनके साथ खुस-फुस करने लगा। उसने काले रंग की वास्कट पहन रखी थी, और बड़ा उत्तेजित लग रहा था। यों तो इस तरह भागकर आना मामूली-सी बात थी, मगर वह जिस ढंग से भागता हुआ आया था वह आसपास खड़े लोगों को अनूठा-सा लगा। देखते ही देखते इधर-उधर खड़े लोग वहाँ से हटने लगे, केवल छोटे-छोटे बच्चे वहाँ खड़े रह गए। फिर पलक मारते ही टाट के पर्दो के पीछे से स्त्रियाँ हट गईं। एक स्त्री लपककर बाहर आई और शौच करनेवाले दो बच्चों में से एक की बाँह पकड़कर उसे घसीटती हुई घर के अन्दर ले गई।
सकता-सा छा गया। कांग्रेस के कार्यकर्ता हैरान थे कि क्या बात हुई है।
तभी वहीं सफ़ेदरीश जो हाथ में तसबीह पकड़े आफ़रीन-आफ़रीन कहते मुस्कराते हुए यहाँ से गए थे, लौटते दिखाई दिए। मेहता और बख्शीजी साथ-साथ खड़े थे और अनुमान लगा रहे थे कि क्या बात हुई है जो आनन-फानन लोग वहाँ से हट गए हैं। उनका मन हुआ कि बुजुर्ग के पास जाकर उनसे पूछे कि क्या मामला है। हाथ में तसबीह झुलाता हुआ सफ़ेदरीश उनके पास आकर खड़ा हो गया। क्षण-भर वहाँ ठिठका खड़ा रहा, फिर छूटते ही बोला, “आप साहिबान यहाँ से चले जाइए। अगर अपनी खैरियत चाहते हो तो यहाँ से फ़ौरन चले जाओ।" कहते-कहते उसकी आवाज़ ऊँची हो गई और ठुड्डी काँपने लगी और उसका चेहरा पीला पड़ गया।
वह जैसे बख्शीजी और मेहताजी को ही सम्बोधन करके कह रहा था। अन्य कार्यकर्ता लपककर पास आ गए।
“उठ जाइए यहाँ से।" बुजुर्ग बोले जा रहा था, "बस हो चुका जो आपको करना था। सुन रहे हैं आप?" उसकी आवाज़ काँपने लगी थी, "खंजीर के बच्चो, यहाँ से चले जाओ!" वह चिल्लाया। और कदम बढ़ाता हुआ वहाँ से चला गया। चारों ओर चुप्पी छा गई। बख्शी और मेहता एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। बख्शी ने सोचा मुमकिन है शंकर या कश्मीरीलाल ने, जो अक्सर ऊलजलूल बकते रहते हैं, किसी से कुछ कह दिया है जिससे मुहल्लेवालों को बुरा लगा है, मगर यह आदमी तो बाहर से आया था। पहले, यहाँ से जाते समय तो हमारी तारीफ़ करता गया था, अब क्या बात हो गई है जो इतना बौखला गया है।
तभी एक उड़ता हुआ पत्थर आया और बख्शीजी के पास आकर गिरा। कश्मीरीलाल और शंकर हत्बुद्धि-से बख्शीजी की ओर देखने लगे।
"क्या बात है?" मास्टर रामदास ने पास आकर पूछा।
"चलो, यहाँ से चलें, यहाँ कोई गड़बड़ है," बख्शी ने कहा। “यहाँ पर आना ही भूल थी। कहाँ है देसराज जो हमें इधर ले आया है?"
मगर देसराज वहाँ पर नहीं था। किसी को मालूम नहीं था कि वह कब वहाँ से खिसक गया था।
"कोई शरारत है। ज़रूर कोई शरारत है।"
दो-तीन पत्थर एक के बाद एक उड़ते हुए आए। एक पत्थर सीधा रामदास के कन्धे पर लगा।
“निकल चलो यहाँ से, यहाँ ठहरो नहीं।"
कार्यकर्ताओं की मंडली हड़बड़ाकर वहाँ से निकलने लगी।
ऊँचा बाँस हाथ में उठाए जरनैल चिल्लाया, “तुम सब बुजदिल हो, मैं तुम में से एक-एक को जानता हूँ। मैं यहाँ तामीरी काम करके जाऊँगा।"
इस पर बख्शीजी ने कड़ककर, फौज़ी हुक्म सुनाते हुए जरनैल से कहा, "झंडा सँभालो जरनैल, कहाँ है झंडा?"
जरनैल फौरन अटेंशन हो गया और चप्पलें घसीटता चरनी के पास रखे झंडे को उठाने चला गया।
तभी दो पत्थर, एक के बाद एक उड़ते हुए आए, एक चरनी पर गिरा, दूसरा जहाँ जरनैल खड़ा था, ज़मीन पर पड़ा। इसके साथ ही तीन आदमी सामने से गली लाँघकर आए और गली के सिरे पर खड़े हो गए।
मंडली के लोग चुपचाप वहाँ से निकलने लगे। कश्मीरीलाल ने जरनैल के हाथ से झंडा ले लिया। मेहता ने ज़मीन पर रखी कड़ाही वहीं उलट दी जिसमें वह कंकड़ बटोरता रहा था और ख़ाली कड़ाही उठाए मैदान पार करने लगा। बख्शीजी के हाथ में लालटेन झूल रही थी पर उनकी गर्दन झुकी हुई थी।
“बेलचे-कड़ाहियाँ शेरखान के घर में रख दें?" मास्टर रामदास ने बख्शीजी से पूछा।
“अब जैसे हो, चलते जाओ। यहाँ पर रुको नहीं।"
कश्मीरीलाल ने घूमकर देखा, गली के सिरे पर अब तीन की जगह पाँच आदमी खड़े थे। मैदान के पार लोग आकर खड़े हो गए थे और उनकी ओर देखे जा रहे थे। मुहल्ले में से निकलकर वह कुतुबदीन की गली में घुसे तो नानबाई की दुकान पर भी वैसा ही दृश्य देखने को मिला। तीन आदमी जो नानबाई की दुकान के सामने खड़े थे, घूमकर इन लोगों की ओर घूर-घूरकर देखने लगे, मगर इनमें से बोला कोई नहीं।
“कहीं कोई गड़बड़ है।" बख्शीजी ने मेहता से कहा।
"क्या मालूम कश्मीरी या शंकर ने मुहल्ले की किसी लड़की-बड़की को छेड़ा हो। आपने भी तो कांग्रेस में लोफ़र भर्ती कर रखे हैं।"
“कैसी बातें कर रहे हो मेहताजी। कश्मीरी तो सारा वक़्त नाली साफ करता रहा था। यहाँ कोई दूसरी बात जान पड़ती है।"
मोहयालों की गली में मुइने पर उन्हें तीन-चार आदमी गली के सिरे पर खड़े नज़र आए।
“कहाँ जा रहे हो बख्शीजी? उधर नहीं जाओ।" एक लम्बे क़द के मोहयाल व्यक्ति ने, जो बख्शीजी का परिचित था, आगे बढ़कर कहा।
"क्या बात है?"
"बस, उधर मत जाओ।"
"कुछ बताओ तो, हुआ क्या है?"
इस वक़्त तक कश्मीरी, जरनैल और मास्टर रामदास भी बख्शी और मेहता के पास पहुँच चुके थे।
"उधर गली के बाहर देखो।"
बख्शीजी ने सामने की ओर देखा। गली के बाहर, सड़क के पास एक मस्ज़िद थी जिसे 'केलों की मस्ज़िद' कहा जाता था।
"क्या है?"
“आपको कुछ नज़र नहीं आया? मस्ज़िद के दरवाजे के नीचे सीढ़ी की ओर देखिए।"
मस्ज़िद की सीढ़ी पर कोई काली-काली चीज़ पड़ी थी।
"कोई आदमी सुअर मारकर फेंक गया है।"
बख्शीजी ने मेहता के चेहरे की ओर देखा, मानो कह रहे हों 'देखा! मैंने कहा था ना, कोई गड़बड़ है!'
सभी ने घूमकर उस ओर देखा, मस्ज़िद की सीढ़ी पर एक काले रंग का बोरा-सा रखा नज़र आया जिसमें दो टाँगे बाहर को निकली हुई थीं। मस्जिद का हरे रंग का दरवाज़ा बन्द था।
“लौट चलो, यहीं से लौट चलो," मास्टर रामदास ने धीरे-से कहा।
"आख थू!" कश्मीरीलाल ने सुअर की ओर देखकर कहा, और मुँह फेर लिया।
"बख्शीजी, यहीं से लौट चलें। आगे मुसलमानों का मुहल्ला है।" रामदास ने फिर कहा।
"किसी ने शरारत की है।" मेहता बुदबुदाया।
"आपको पक्का मालूम है कि सुअर ही है?" मेहताजी बोले।
"क्या मालूम कोई और जानवर हो।"
“कोई और जानवर होगा तो मुसलमान इतना बिगड़ेंगे?" बख्शीजी ने खीझकर कहा।
जरनैल भी अपनी घनी भौंहों के बीच छिपी छोटी-छोटी आँखें मस्ज़िद की ओर गाड़े खड़ा था, छूटते ही बोला, “अंग्रेज़ ने फेंका है!"
उसके नथुने फड़कने लगे, और वह फिर से चिल्लाकर बोला, "अंग्रेज़ की शरारत है। मैं जानता हूँ।"
“हाँ-हाँ, जरनैल, अंग्रेज़ की ही शरारत है, मगर इस वक़्त तुम चुप रहो।" बख्शी ने उसे समझाते हुए कहा।
"पिछली गली में से घूम जाएँ।” मास्टर रामदास ने फिर कहा। पर अबकी बार जरनैल उस पर बरस पड़ा, “तुम बुज़दिल हो। यह अंग्रेज़ की शरारत है। मैं उसका भंडाफोड़ करूँगा।"
इस पर मेहताजी ने झुककर बख्शी के कान में कहा, "इस पागल को साथ क्यों ले आते हो? यह सभी को मरवाएगा। निकालो इसे कांग्रेस में से।"
सड़क पर गाहे-बगाहे कोई मुसलमान गुज़रता और मस्ज़िद की सीढ़ी पर आँख पड़ते ही पहले तो घूरकर देखता, फिर मुँह फेर लेता और बड़बड़ाता हुआ आगे बढ़ जाता।
सहसा सामनेवाली सड़क पर एक ताँगा सरपट दौड़ता हुआ निकल गया। इसके बाद मस्ज़िद की बग़ल में भागते कदमों की आवाज़ आई। सड़क के पार, बाईं ओर बैठनेवाले कसाई ने टँगे हुए बकरों पर कपड़ा चढ़ाकर दूकान पर ताक चढ़ा दिए। मोहयालों की गली में घरों के दरवाजे बन्द होने लगे।
बख्शीजी ने घूमकर देखा। मास्टर रामदास सरक गया था और दूर गली के सिरे की ओर बढ़ता जा रहा था। थोड़ी दूरी पर उसके पीछे अज़ीज़ और शेरखान भी चले जा रहे थे। गली में जगह-जगह दो-दो, चार-चार लोगों की टोलियाँ खड़ी थीं।
"आप यहाँ से निकल जाएँ बख्शीजी, यहाँ आप लोगों के रहने से इश्तआल बढ़ेगा।" बख्शीजी के मोहयाल मित्र ने समझाते हुए कहा।
बख्शीजी ने उस आदमी की ओर देखा, फिर कश्मीरीलाल से बोले, "झंडा बाँस में से निकालकर तह कर लो।" फिर मोहयाल सज्जन से बोले, "इस सुअर की लाश को तो यहाँ से हटवा दें। जितनी देर लाश वहाँ पड़ी रहेगी, तनाव बढ़ता जाएगा।"
“आप सुअर की लाश को उठाएँगे?" मोहयाल ने हैरान होकर कहा।
"आपको तो, मैं समझाता हूँ, उस तरफ़ जाना भी नहीं चाहिए।"
“मैं इनसे इत्तफ़ाक करता हूँ,” मेहताजी बोले, “हमें इसमें नहीं पड़ना चाहिए। इससे मामला बिगड़ सकता है।"
“पर यहाँ से निकल जाएँगे तो मामला नहीं बढ़ेगा? क्या मुसलमान लोग इस लाश को यहाँ से हटाएँगे?" ।
"वे नहीं हटाएँगे तो किसी भंगी-जमादार का इन्तज़ाम करेंगे। ब-हर सूरत हमें इसमें नहीं पड़ना चाहिए।"
बख्शी ने अपने हाथ की लालटेन एक घर के चबूतरे पर रखी, और मेहता की ओर देखकर बोला, “मेहताजी, आप क्या कह रहे हैं? हम चुपचाप यहाँ से निकल जाएँ और तनाव को बढ़ने दें? अपनी आँखों से न देखा होता तो दूसरी बात थी।" फिर कश्मीरीलाल और जरनैल को सम्बोधन करके बोले, "तुम आ जाओ मेरे साथ।" और वे गली में से निकलकर मस्ज़िद की ओर जाने लगे।
कश्मीरी दुविधा में पड़ गया जाए या न जाए। इमामदीन के मुहल्ले में पत्थर पड़े थे, यहाँ पर न जाने कोई क्या कर बैठे? उसके माथे पर पसीना आ गया। उसने झंडे का बाँस दीवार के साथ खड़ा कर दिया और वहीं ठिठका खड़ा रहा। टाँगों में लरजिश-सी होने लगी। पर उस वक़्त तक जरनैल और बख्शी सड़क पार कर चुके थे। थोड़ी देर तक कश्मीरी वहीं ठिठका खड़ा रहा, फिर वह भी उनके पीछे-पीछे गली में से निकल आया। सड़क पर पहुंचकर उसने पीछे मुड़कर देखा। मोहयाल सज्जन जा चुके थे, केवल मेहताजी वहाँ खड़े थे। उसे लगा जैसे सारी गली सुनसान पड़ गई है। बाएँ हाथ सड़क के किनारे तीन-चार दूकानें थीं, सभी बन्द पड़ी थीं। दाएँ हाथ दूर कुएँ के पास दूकानों की कतार थी, वहाँ भी दूकानें बन्द थीं। और कुछ लोग कुएँ के पास गाँठ-सी बनाए खड़े इसी ओर देखे जा रहे थे। इससे भास हुआ जैसे छज्जों पर जगह-जगह लोग खड़े हैं, लेकिन घरों के दरवाजे बन्द हैं।
"सबसे पहले इस सुअर की लाश को यहाँ से हटाएँ।" बख्शीजी कह रहे थे।
काले रंग का सुअर था। कोई उस पर बोरा डाल गया था, पर बोरे के नीचे से उसकी टाँगें, थूथनी और पेट का कुछ हिस्सा नज़र आ रहा था।
मेहता अभी भी गली में दीवार से लगकर खड़े थे। वह अभी भी असमंजस में थे। सुअर को वहाँ से हटाने में जोखिम तो थी ही लेकिन साथ में उजले खादी के कपड़े गन्दे हो जाने का भी डर था। बख्शी और जरनैल ने सुअर को टाँगों से पकड़ा और उसकी लाश घसीटकर मस्ज़िद की सीढ़ी पर से उतार दी, फिर उसे घसीटते हुए सड़क के पार ले आए और ईंटों के एक ढेर के पीछे ढकेलकर छिपा दिया।
“अभी तो इसे यहीं पर रखो। मस्ज़िद का दरवाज़ा तो खुले। मस्ज़िद की सीढ़ी को धो देते हैं।" बख्शी ने कहा और कश्मीरीलाल से बोले, "तुम जाओ कश्मीरी, इधर पीछे भंगियों के डेरे में चले जाओ। वहाँ म्युनिसपेलिटी के भंगी रहते हैं। देखो, अगर दो भंगी अपना ठेला ले आएँ तो इसे उठवा देते हैं।"
तभी कुएँ की ओर से किसी के भागते क़दमों की आवाज़ आई। तीनों ने घूमकर देखा, एक गाय भागती आ रही थी। उसके पीछे-पीछे एक आदमी सिर पर मुँडासा बाँधे और हाथ में डंडा लिये गाय के पीछे-पीछे भागता हुआ, उसे हाँके लिये जा रहा था। उसकी छाती खुली थी और गले में तावीज झूल रहा था। चिकनी खालवाली, बादामी रंग की गाय थी, मोटी-मोटी चकित-सी आँखें। डर के ही मारे उसकी पूँछ उठी हुई थी। लगता जैसे रास्ता भटक गई है। तीनों ठिठक गए। मुँडासेवाले आदमी ने मुँह लपेट रखा था। गाय को हाँकता हुआ वह सड़क पर से गुज़रा और फिर उसे दाएँ हाथ एक गली की ओर ले गया।
बख्शीजी देर तक ठिठके खड़े रहे। फिर धीरे-से बोले, “लगता है शहर पर चीलें उड़ेंगी। आसार बहुत बुरे हैं।" और उनका चेहरा पहले से भी ज़्यादा पीला और गम्भीर लगने लगा।