(1)
चढ़ चलो कि यह धारों की शोभा न्यारी
सागौन-वनश्री, सावन के बहते स्वर,
पाषाणों पर पंखे झल-झल दोलित-सी
नभ से बातें करती बैठी अपने घर !
संध्या हो आयी तारे पहरा देते
इसके अन्तर को छविधर घहरा देते!
ये बढ़ी लाल चट्ठान नुकीली ऐसे
गिरिवर अविन्ध्य को विन्ध्य कहें भी कैसे ।
'चोरल' की दौड़ें, क्या छू लें, क्या छोड़ें
इस राजमार्ग पर अपने वस्त्र निचोड़ें !
पगडण्डी पद-मखमलिया है, बाँकी है
क्या प्रकृति-वधु, स्वर भरे इधर झांकी है !
डालों पर, पंछी जैसे कुछ गाने में
आ रहा मजा, पथ भूल-भूल जाने में।
ऊँचे बट देखें या नीचे की दूबें
भूले भटके भी यहाँ न कोई ऊबें!
मलयज मन्दारों उलझ छिपा-छी खेलें
बन्दनवारें बन उठीं वनों की बेलें !
पंचम के स्वर, उड़ता संगीत संभाले
सारस दल लांघे वन्य-प्रान्त उजियाले ।
मानो नभ के आँगन में खेल बिछाकर ।
गा रहे गीत, उड़ हौले से अकुलाकर
क्या महफिल आज लगी, चिड़ियों को देखा ?
डालों पर अपनी हरी खींच कर रेखा
चिलबिल-चिलबिल बस चैन कहाँ, कैसे हो,
फुदक साँस, उड़ चली, तुम्हारी जग हो !
( 2 )
चोरल है ।
ग्वाले-ग्वालिन हैं गायें हैं
क्या उन्हें देखने मेघ खूब छाये हैं ?
इस वन-रानी पर गगन द्रवित हो आया
हँस-हँस कर शिर पर इन्द्र-धनुष पहनाया
स्तन से मीठी, यह मस्त चाल गरबीली
हंसी, शुभदा, श्यामला, लाल यह पीली ।
पूछें इन पर बन चंवर कि डोल रही हैं
राजत्व प्रकृति इन पर रंग ढोल रही है ।
वह आम्र-डाल पर कोयल कूक उठी है
मधुरायी वन-वैभव लख विवश लुटी है ।
जब गायें लगतीं संध्या में ग्वालिन-घर
जब तालें दे वे झरना, बूंदों के स्वर,
अंगुलियों की परियाँ क्षण आती-जातीं
मटकियों दूध, अपने घर वे पा जातीं ।
छोटे से ग्वाल-किशोर यशोदा-मां के
ये माँग उठे हैं दूध गीत गा-गा के ।
छवि निरख-निरख कह उठी विन्ध्य वन-रानी
तुम "दूधों न्हायो, पूतों फलो" भवानी !
( 3 )
तुम संभल-संभल उतरो प्रिय पगडण्डी से
कुछ इधर-उधर जो किया कि ढुलक पड़ोगे !
यह प्रकृति-कृति या अगम मुक्ति का घर है
यह नया-नया है जितना और बढ़ोगे !
तट चोरल के नटिनी-सी तटिनी जाती
यह राग कौन-सा कुशल निम्नगा गाती ?
ऊंचे चढ़ाव, नीचे उतार, दृग मीचे
गिरि से गिरकर गा उठी गोद को सींचे !
चट्टानें चुभ आयीं कोमल अंगों में
आ गयी विकृति, विधि रचे विविध रंगों में ।
गिर पड़ी गगन से, रोती है, समझा ले
इसकी माँ से कह दो चट गोद उठा ले ।
यह पत्थर की चट्टानों पर अलबेला
विधि-हरियाली पर लगा रंग का मेला
होनी बन, अनहोनी छवि ताक रहा है
फूलों की आँखों निज कृति झांक रहा है।
फूलों के मुकुट लिये डालों की परियां
श्रृंगार कर रहीं हिलती-सी वल्लरियां !
मालव का कृषक संभाले कांधे पर हल
अनुभव करता खेतों पर बैलों का बल ।
किस अजब ठाठ से जाता है मस्ताना
वैभव इसके श्रम पर बलि है, अब जाना ।