shabd-logo

चोरल

19 अप्रैल 2022

20 बार देखा गया 20

(1)

चढ़ चलो कि यह धारों की शोभा न्यारी

सागौन-वनश्री, सावन के बहते स्वर,

पाषाणों पर पंखे झल-झल दोलित-सी

नभ से बातें करती बैठी अपने घर !

संध्या हो आयी तारे पहरा देते

इसके अन्तर को छविधर घहरा देते!

ये बढ़ी लाल चट्ठान नुकीली ऐसे

गिरिवर अविन्ध्य को विन्ध्य कहें भी कैसे ।

'चोरल' की दौड़ें, क्या छू लें, क्या छोड़ें

इस राजमार्ग पर अपने वस्त्र निचोड़ें !

पगडण्डी पद-मखमलिया है, बाँकी है

क्या प्रकृति-वधु, स्वर भरे इधर झांकी है !

डालों पर, पंछी जैसे कुछ गाने में

आ रहा मजा, पथ भूल-भूल जाने में।

ऊँचे बट देखें या नीचे की दूबें

भूले भटके भी यहाँ न कोई ऊबें!

मलयज मन्दारों उलझ छिपा-छी खेलें

बन्दनवारें बन उठीं वनों की बेलें !

पंचम के स्वर, उड़ता संगीत संभाले

सारस दल लांघे वन्य-प्रान्त उजियाले ।

मानो नभ के आँगन में खेल बिछाकर ।

गा रहे गीत, उड़ हौले से अकुलाकर

क्या महफिल आज लगी, चिड़ियों को देखा ?

डालों पर अपनी हरी खींच कर रेखा

चिलबिल-चिलबिल बस चैन कहाँ, कैसे हो,

फुदक साँस, उड़ चली, तुम्हारी जग हो !

( 2 )

चोरल है ।

ग्वाले-ग्वालिन हैं गायें हैं

क्या उन्हें देखने मेघ खूब छाये हैं ?

इस वन-रानी पर गगन द्रवित हो आया

हँस-हँस कर शिर पर इन्द्र-धनुष पहनाया

स्तन से मीठी, यह मस्त चाल गरबीली

हंसी, शुभदा, श्यामला, लाल यह पीली ।

पूछें इन पर बन चंवर कि डोल रही हैं

राजत्व प्रकृति इन पर रंग ढोल रही है ।

वह आम्र-डाल पर कोयल कूक उठी है

मधुरायी वन-वैभव लख विवश लुटी है ।

जब गायें लगतीं संध्या में ग्वालिन-घर

जब तालें दे वे झरना, बूंदों के स्वर,

अंगुलियों की परियाँ क्षण आती-जातीं

मटकियों दूध, अपने घर वे पा जातीं ।

छोटे से ग्वाल-किशोर यशोदा-मां के

ये माँग उठे हैं दूध गीत गा-गा के ।

छवि निरख-निरख कह उठी विन्ध्य वन-रानी

तुम "दूधों न्हायो, पूतों फलो" भवानी !

( 3 )

तुम संभल-संभल उतरो प्रिय पगडण्डी से

कुछ इधर-उधर जो किया कि ढुलक पड़ोगे !

यह प्रकृति-कृति या अगम मुक्ति का घर है

यह नया-नया है जितना और बढ़ोगे !

तट चोरल के नटिनी-सी तटिनी जाती

यह राग कौन-सा कुशल निम्नगा गाती ?

ऊंचे चढ़ाव, नीचे उतार, दृग मीचे

गिरि से गिरकर गा उठी गोद को सींचे !

चट्टानें चुभ आयीं कोमल अंगों में

आ गयी विकृति, विधि रचे विविध रंगों में ।

गिर पड़ी गगन से, रोती है, समझा ले

इसकी माँ से कह दो चट गोद उठा ले ।

यह पत्थर की चट्टानों पर अलबेला

विधि-हरियाली पर लगा रंग का मेला

होनी बन, अनहोनी छवि ताक रहा है

फूलों की आँखों निज कृति झांक रहा है।

फूलों के मुकुट लिये डालों की परियां

श्रृंगार कर रहीं हिलती-सी वल्लरियां !

मालव का कृषक संभाले कांधे पर हल

अनुभव करता खेतों पर बैलों का बल ।

किस अजब ठाठ से जाता है मस्ताना

वैभव इसके श्रम पर बलि है, अब जाना ।

9
रचनाएँ
बीजुरी काजल आँज रही
0.0
सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के वे अनूठे हिंदी रचनाकार थे। प्रभा और कर्मवीर जैसे प्रतिष्ठत पत्रों के संपादक के रूप में उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जोरदार प्रचार किया और नई पीढ़ी का आह्वान किया हैं |
1

बीजुरी काजल आँज रही-गीत

19 अप्रैल 2022
2
0
0

गगन की रानी के छुप-छुप बीजुरी काजल आँज रही बादलों के घिर आने से प्रात भी अच्छी सांझ रही । सांवली और कुआँरी-सी मगन माटी ने खोले केश गोद पर लहर-लहर आये विविध रंगों के हिलते वेश । छू उठी, छुपा हृ

2

वर्षा ने आज विदाई ली

19 अप्रैल 2022
0
0
0

वर्षा ने आज विदाई ली जाड़े ने कुछ अंगड़ाई ली प्रकृति ने पावस बूँदो से रक्षण की नव भरपाई ली। सूरज की किरणों के पथ से काले काले आवरण हटे डूबे टीले महकन उठ्ठी दिन की रातों के चरण हटे। पहले उदार थ

3

सिर पर पाग, आग हाथों में

19 अप्रैल 2022
0
0
0

सिर पर पाग, आग हाथों में रख पानी का घड़ा जवानी, देख कि प्रियतम खड़ा । मटर इसी पर झूल उठी है सरसों कैसी फूल उठी है गंगा इसकी छवि विलोक कर सीधा रस्ता भूल उठी है। श्रम, तेरे मन्दिर का एक पुजा

4

चोरल

19 अप्रैल 2022
0
0
0

(1) चढ़ चलो कि यह धारों की शोभा न्यारी सागौन-वनश्री, सावन के बहते स्वर, पाषाणों पर पंखे झल-झल दोलित-सी नभ से बातें करती बैठी अपने घर ! संध्या हो आयी तारे पहरा देते इसके अन्तर को छविधर घहरा देते

5

यह तो करुणा की वाणी है

19 अप्रैल 2022
0
0
0

तुम इस बोली में मत बोलो यह तो करुणा की वाणी है। उतरो, चढ़ो, चलो, घूमो पलटो, पर हार नहीं मानो; पत्थर, मिट्टी, लोहा, सोना रोकें, उपहार नहीं मानो । बिन्दु-बिन्दु टुकड़े होते हैं तुम संग्रह का गर

6

छबियों पर छबियाँ बना रहा बनवारी

19 अप्रैल 2022
0
0
0

जब तरल करों से बाँट रहा बून्दें अपार हिल रहा है हवा के झोंकों पर जो बार-बार जो खींच रसा के कीचड़ से रस-रूप-ज्वार पत्तों, डालों, फूलों को बाँट रहा उदार ! तब कौन कि जो उसकी लहरों को टोके ऊँचे उठ

7

आता-सा अनुराग

19 अप्रैल 2022
0
0
0

माटी से उठ कर आता-सा अनुराग जब फूल-फूल बनता कलियों का भाग, तब मुझको मिलते, आते मेरे बाँटे संकेत भेजते वायु और सन्नाटे। मैं चल पड़ता हूँ, कलियों के मधु-गाँव हौले से रखता हूँ, गन्धों पर पाँव मैं

8

तारों के हीरे गुमे

19 अप्रैल 2022
0
0
0

तारों के हीरे गुमे मेघ के घर से जब फेंक चुके सर्वस्व तभी तुम बरसे ! खो बैठे चांदनियों-सी उजली रातें जब तम करता हँस कर प्रकाश से बातें । जब उषा कर रही हाथ जोड़ सन्ध्या-सी जब रात लग उठी विधवा-सी

9

यह उत्सव है

19 अप्रैल 2022
0
0
0

भर-भर आया है सावन नयनों का पुतली पर कोई झूल गया चुप-चुप-सा इस प्रथम चरण ने वरण कर लिये सपने हम सब समेट लाये थे अपने-अपने, शिशु अन्धुकार पर बिखर गगन के तारे स्तन नहीं मिला, फिरते थे मारे-मारे

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए