जब तरल करों से बाँट रहा बून्दें अपार
हिल रहा है हवा के झोंकों पर जो बार-बार
जो खींच रसा के कीचड़ से रस-रूप-ज्वार
पत्तों, डालों, फूलों को बाँट रहा उदार !
तब कौन कि जो उसकी लहरों को टोके
ऊँचे उठते हरिताभ तत्व को रोके
बूंदें नीचे को झरझर गिरती सहस बार
तरु ऊगे, उठे, बढ़े, निकल आये हजार
किरनें इन पर झुक-झुक कर हेरा-फेरी
सौन्दर्य-कोष देने में करें न देरी ।
ऊंचे उठतों की कौन करे बदनामी ?
चढ़ने-बढ़ने में ये हैं अपने स्वामी ।
फूलों से देखो कीचड़ का यह नाता
किस ढब गढ़ता है स्वाद, सुगन्ध विधाता !
चढ़ कर गिरते हैं मातृ-भूमि की गोद
है कौन कि छीने इनका उठता मोद ।
लीला-ललाम, यों सुबह-शाम पर वारी
कुंजों को गढ़ता, देखो कुंजबिहारी !
यह फूलों और फलों को दुलार रहा है
तुमको मौन उन्मत्त पुकार रहा है ।
यों लूट-लूट प्रकृति की महिमा सारी
छवियों पर छवियाँ बना रहा बनवारी
दुनिया बांढ़ों से इसे पुकार रही है
झरने की वानी चरन पखार रही है ।
रातों के तारे नित पहरा देते हैं
दिन में दिनमणि यौवन गहरा देते हैं ।।