भर-भर आया है सावन नयनों का
पुतली पर कोई झूल गया चुप-चुप-सा
इस प्रथम चरण ने वरण कर लिये सपने
हम सब समेट लाये थे अपने-अपने,
शिशु अन्धुकार पर बिखर गगन के तारे
स्तन नहीं मिला, फिरते थे मारे-मारे
जब भूल चुका 'निज-पर' का जीवन-गान
उस दिन अनन्त से हुई नयी पहचान,
नभ पर लटके से इन्द्रधनुष चूते थे
डालियाँ झुका कर तरु वसुधा छूते थे,
इस व्याप्त गगन के मोह-पंख से प्यारे
हिलते-डुलते थे, तारे न्यारे-न्यारे ।
कितना प्रभात था, उषा गगन पर छायी
फूलों की डालों चढ़ी सवारी आयी !
यों है; ये पलकें भू-रानी ने खोलीं
कोमल गंधें, वृक्षों के सर चढ़ बोलीं
भर-भर आया है सावन नयनों का
यह उत्सव है अधबोले नयनों का ।