तुम इस बोली में मत बोलो
यह तो करुणा की वाणी है।
उतरो, चढ़ो, चलो, घूमो
पलटो, पर हार नहीं मानो;
पत्थर, मिट्टी, लोहा, सोना
रोकें, उपहार नहीं मानो ।
बिन्दु-बिन्दु टुकड़े होते हैं
तुम संग्रह का गर्व करो;
बढ़ो, बाढ़ की धारा में
उस मनमानी की दौड़ भरो।
सिंहासन, मुकुट, मुखारविन्द
बढ़ती धारा के कायल हैं;
जो गरज उठें, गिर पड़ें, घने हों-
धनश्याम हैं, बादल हैं।
चलनी में छान रहा कोई
बूँदों-बूँदों को गगन चढ़ा;
पर्वत, पत्थर, कुछ भी बोलें
वह दौड़ रहा है बढ़ा-बढ़ा ।
वह शैल, भूमि की उँगली का
केवल मनहरण इशारा हैं:
यह धारा जी की फिसलन का
मन को अनमोल सहारा है!
तुम सिर देते सकुचाते थे
तरु ने फूलों को फेंक दिया!
उसकी इस एक अदा में यों
भू ने भूलों को फेंक दिया।
फल, फूल, पत्र सब धीरे से
उठते हैं, मिट-मिट जाते हें,
मानो वे राम कहानी-सी
मानव से कहने आते हैं ।
बोलों के मोलों महँगी-सी
मत बोलो गर्व-भरी वाणी;
हर घुटन साँस लिख लेती है,
हारों में चढ़ता है पानी!
मैं उन्नत शिर का गर्व करूं
तुम गिरे अश्रुयों उतर पड़ो;
मैं लिये चाँदनी छा जाऊँ
तुम बन प्रकाश भू पर विचरो !