माटी से उठ कर आता-सा अनुराग
जब फूल-फूल बनता कलियों का भाग,
तब मुझको मिलते, आते मेरे बाँटे
संकेत भेजते वायु और सन्नाटे।
मैं चल पड़ता हूँ, कलियों के मधु-गाँव
हौले से रखता हूँ, गन्धों पर पाँव
मैं काला, वे उजली भरपूर सुगन्ध
गुन-गुन कर ढूंढ रहा उनका अनुबन्ध ।
ग्रंथों में मुझ पर क्या लिक्खा क्या जानूं
पंथों में क्या बीती कैसे पहचानूँ!
मैं उन पर गुन-गुन करूँ और वे डोलें
उनकी पंखुड़ियाँ मेरी बोली बोलें !
मैं नहीं जानता, बीत गयीं सो रातें
मैं नहीं जानता, कल-किरणों की घातें,
उनकी मधु-गंधें निरख-निरख छू जाना
मैं मलय-गन्ध पर सीखा गूँज सजाना ।
यह मलय और वह माटी बस क्या कहने
निर्मात्री दोनों हैं आपस में बहनें,
इनकी गोदों ही में कलियां हिलती हैं
खिलती हैं, मुझको वे हाजिर मिलती हैं,
गूंजों में भर-भर अर्पण अतल-वितल में
मैं रख-रख आता उनके चरण-कमल में ।
बेले हों, तरु हों, माटी के सब जाये
कलियों के घर जाता हूँ बिना बुलाये ।
कलियों का आँचल ही मेरा ईश्वर है
मधु-गंधों हिलता-डुलता प्रभु-मन्दिर है ।
जग के इस सिकुड़े पाप-पुण्य से ऊपर
गूँजें निर्माण किया करतीं मेरा घर ।
ऊँचे उड़ते, जिस-जिसने मुझको चीन्हा
वे बोले, प्यारा है मिलिन्द मधु-भीना ।