लो गई..उतार चढ़ाव से भरीये साल भी गई...गुजरता पल,कुछ बची हुई उम्मीदेआनेवाली मुस्कराहटों का सबब होगा,इस पिंदार के साथ हम बढ़ चले।जरा ठहरो..देखोइन दरीचों से आती शुआएं...जिनमें असिर ..इन गुजरते लम्हों की कसक, कुछ ठहराव और अलविदा कहने का...,पयाम...नव उम्मीद के झलककुसुम के महक का,जी शाकिर हूँ ..कुछ चापों
तेरी सांसो की महक सांसो में मेरी शामिल हैतेरे बिना सफ़र जिन्दगी का बहुत मुश्किल हैतेरे हर अंग में मेरी मुहब्बत का पाक मंदिर हैये दिल यादों में सदा जिसकी हुआ गाफिल हैचाहत इंसानों की जहाँ हद से गुजर जाती हैऐसे रिश्तों को यहाँ मिलती ना कोई मंजिल हैतन्हा रहता है दर्द सहता है और मुस्कुराता हैहर इंसान अब
पुरखों का घर छूट गयाअम्मा का दिल टूट गयादरवाज़े पे दस्तक दीअन्दर आया लूट गयामिट्टी कच्ची होते हीमटका धम से फूट गयामजलूमों की किस्मत हैजो भी आया कूट गयासीमा पर गोली खानेअक्सर ही रंगरूट गयापोलिथिन आया जब सेबाज़ारों से जूट गया ...
मेरे अपनों ने मेरे संग ये कैसा काम कर डाला मुझे रूसवा ज़माने भर में सरे शाम कर डालामुझे मालूम ना था मेरे घर में कई सर्प पलते हैउन्हे मौका मिला ज्यों ही मुझे तमाम कर डालालाख शक्ति थी रावण में राम से बैर करने कीविभीषण ने मगर हार का इन्तजाम कर डाला ज़माना भर यहाँ करता है श्री राम का
वज्न- 2122, 2122 2122, 212 आदमी चलता कहाँ उठता कदम बिन बात के हो रहा गुमराह देखो, हर घड़ी बिन साथ के काँपती हैं उँगलियाँ उठ दर्द सहलाती रहीं फासला चलता रहा खुद को पकड़ बिन हाथ के॥ नाव नदियां साथ चलती साथ ही पतवार भी देखता है धार नाविक ठाँव कब बिन नाथ के॥ लोग कहते हैं कि देखों त
तेरी तरहा मैं हो नहीं सकता नहीं ये करिश्मा हो नहीं सकतामैंने पहचान मिटा दी अपनी भीड़ मे अब खो नहीं सकताबहुत से काम याद रहते है दिन मे मैं सो नहीं सकताकि पढ़ लूँ पलकों पे लिखी इतना सच्चा हो नहीं सकतासमीर कुमार शुक्ल
धूप मे धूप साये मे साया हूँ बस यही नुस्का आजमाया हूँएक बोझ दिल से उतर गया कई दिनों बाद मुस्कुराया हूँदीवारें भी लिपट पड़ी मुझसेमुद्दतों के बाद घर आया हूँउसे पता नहीं मेरे आने का छुप कर के उसे बुलाया हूँ समीर कुमार शुक्ल
इंसानियत का झंडा कब से यहाँ खड़ा है ...बीठें पड़ी हुई हैं, बदरंग हो चुका है इंसानियत का झंडा, कब से यहाँ खड़ा हैसपने वो ले गए हैं, साँसें भी खींच लेंगेइस भीड़ में नपुंसक, लोगों का काफिला हैसींचा तुझे लहू से, तू
जब कभी सपनों में वो बुलाताहै मुझे बीते लम्हों की दास्तांसुनाता है मुझे इंसानी जूनून का एक पैगामलिए बंद दरवाजों के पार दिखाता हैमुझे नफरत,द्वेष,ईर्ष्या की कोईझलक नहीं ये कौन सी जहां में ले जाताहै मुझे मेरे इख्तयार में क्या-क्यानहीं होता बिगड़े मुकद्दर की याददिलाता है मुझे उसको भी मुहब्बत है यकीं ह
धर्म के नाम पर लोग लड़तेरहे इंसानियत रोज दफ़न होती रही सजदे करते रहे अपने अपनेईश्वर के सूनी कोख मां की उजड़ती रही मूर्तियों पर बहती रही गंगादूध की दूध के बिना बचपन बिलबिलातीरही लगाकर दाग इंसान के माथे परहैवानियत इंसान को डसती रही किस किस को कैसे जगाएं‘राजीव’इंसानियत गहरी नींद मेंसोती रही
जो इंसानियत को मारे, घर-घर लहू बहाये। वो किसने 'राम' समझे, किसने 'खुदा' बनाये।। ये आतिश नवा से लोग ही, मातम फ़रोश हैं, चैन-ओ-अमन का ये वतन, फिर से न डगमगाये। घोला ज़हर किसी ने या, गलती निज़ाम की, गुनहगार इस वतन के, यूँ ही न पूजे जायें। उन्हें खून की हर बूंद का, कैसे हिसाब दें, जो आँसुऔ की कीमत, अबत
मुफलिस को जिंदगी में , जीना भी बता देता है।गुमां ,गुरूर, अकड़ सब, पल भर में झुका देता है ।हों मजबूरियां या चोचले, थोड़ा सा सब्र कर,वक़्त वो मुर्शिद है जो , हर इल्म सिखा देता है।उजाले की ज़रा कीमत तो, तुम उस शख्स से पूछो,चुन -चुन कर जिंदगी के , अरमान जला देता है।भरी महफिल में करके इल्म , वो हँसने हँसाने
मुक्तिका संजीव *मापनी: १२२११ -१२२११ -१२११ मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन*करेंगे कुछ न तो कुदरत न दे कुछ किसी की कब नहीं हसरत रही कुछहँसो भी, हँस पड़ो कसरत नहीं यह हमीं हैं खुद खुदा, किस्मत नहीं कुछतजेंगे हम नहीं ये दल न संसद करेंगे नित तमाशे, गम नहीं कुछबनेगे हम नहीं शंकर, न कंकर न सोये हम, न सोओ तुम, जगो क
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