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gazal

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जय नव दुर्गा ^^ जय - जय माँ आदि शक्ति -, वज़्न-- 1222 1222 122, अर्कान-- मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन, क़ाफ़िया— आया (आ स्वर की बंदिश) रदीफ़ --- कहाँ से....... ॐ जय माँ शारदा.....! 1 मुहब्बत अब तिजारत बन गई है 2. मै तन्हा था मगर इतना नहीं था "गज़ल"किनारों को भिगा पाता कहाँ सेनजारों को सजा जाता कहाँ सेबंद थ

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तुम सामने पड़े तो ये मन खुशियों से भर गयाढलका हुआ तेरा चेहरा भी थोड़ा निखर गयाखुशियाँ मिली थी एक तरफ़ मायूसी कम नहींगुल वो खिला गुलाब का कितना बिखर गयामन को मेरे तो चैन था हाथों में जब था हाथ छोड़ा जो तूने संग न जाने वो भी किधर गयाक्या तुमको अभी याद हैं लम्हें वो इश्क केजिनके लिए ये वक्त भी हँस कर ठहर

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वक्त की ज़द में कुछ भी हो तुम फिर भी रहना पड़ता हैतेरे बिन इस तन्हाई का ग़म मुझको भी सहना पड़ता हैकितना भी कोई संयम रख ले दर्द तो दिल में होता हैपीर बढे जब हद से ज्यादा उसको तो कहना पड़ता हैकितनी सूरत मिलती हैं इस नदिया को निज जीवन मेंइसके जल को लेकिन फिर भी हरदम बहना पड़ता हैकितना भी कोई गर्व करें

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कोई परदा नहीं जब बीच गैर हम हो नहीं सकतेकिसी और की बाहों में अब तुम सो नहीं सकते बड़ी मुश्किल से मिलती हैं दौलतें प्रेम की जग मेंकोई कीमत लगाओ अब इसे हम खो नहीं सकते मुहब्बत में खुदा एक दूजे को हम ने बनाया हैकोई नफ़रत के बीज बीच में हम बो नहीं सकतेपीर सीने में जो उठती है तुम कहाँ देख पाओगेदिखा के इस

काफ़िया- आ स्वर, रदीफ़- रह गया शायद“गज़ल”जुर्म को नजरों सेछुपाता रह गया शायदव्यर्थ का आईनादिखाता रह गया शायद सहलाते रह गया कालेतिल को अपने नगीना है सबकोबताता रह गया शायद॥ धीरे-धीरे घिरती गईछाया पसरी उसकी दर्द बदन सिरखुजाता रह गया शायद॥ छोटी सी दाग जबनासूर बन गई माना मर्ज गैर मलहमलगाता रह गया शायद॥

मेरी अंजुमन में कोई आता नहीं है गम की कोई सौग़ात लाता नहीं है। टूट कर बिखरा है ज़माने की भीड़ में अपना सर वो कही झुकाता नहीं है।तनहा मर जायेगा ली है क़सम अपने मेहबूब को बुलाता नहीं है। दी है ख़ुदा ने भर के झोली मगर रोटी किसी ग़रीब को खिलाता नहीं है। राज़ से पर्दा हट जाएगा ''अमान ''ज़ख़्म दिल का दिखाता नहीं ह

काफिया- आ स्वर रदीफ़-नहीं यूँ ही वज्न- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२ “गज़ल” बहाने मत बनाओ जी धुआँ उठता नहीं यूँ ही लगाकर आग बैठे घर जला करता नहीं यूँ हीयहाँ तक आ रहीं लपटें धधकता है वहाँ कोना तनिक जाकर शहर देखों किला जलता नहीं यूँ ही॥सुना है जल गई कितनी इमारत बंद कमरों की खिड़कियाँ रो

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अधूरा हूँ तुम्हारे बिन तुमको अंदाज़ तो होगाअनकहा तेरे होठों पे कोई अल्फ़ाज़ तो होगाये माना देख चेहरे को बयां कुछ भी नहीं होतामगर दिल में छुपा रक्खा हो ऐसा राज़ तो होगाये सच है कुछ हवाओं ने नशेमन को उजाडा हैघरौंदे में नए जीवन का फिर आगाज़ तो होगाज़माने के चलन को देख के तुम चुप से रहते होमगर अपनी मुहब

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तेरी खुशबू को मैंने अपनी सांसों में बसाया हैमुहब्बत का असल अंदाज़ ये मैंने निभाया हैमिले हो जब से तुम मुझको बहारें मुस्कुराई हैंसिवा तेरे ना कोई ख्वाब आँखों में समाया हैजिस घड़ी हाथ में लेकर ये पेशानी छुई तुमनेहर एक ग़म ज़माने का मैंने हँस के भुलाया हैतू ये माने या ना माने मगर सच तो न बदलेगातेरी याद

वज़्न- २२१ १२२२ २२१ १२२२ काफ़िया- अ रदीफ़ आओगे “गज़ल” आकाश उठाकर तुम जब वापस आओगेअनुमान लगा लो रुक फिर से पछताओगेहर जगह नहीं मिलती मदिरालय की महफिल ख़्वाहिश के जनाजे को तकते रह जाओगे॥ पदचाप नहीं सुनता अंबर हर सितारों का जो टूट गए नभ से उन परत खिलाओगे॥इक बात सभी कहते हद में रह

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अँधेरा जब किसी इंसान के जीवन में आया हैतन्हा चलना पड़ा है साथ में रहता ना साया हैबड़ी मजबूरियों में रोशनी बिन उम्र गुजरी हैसफ़र ये ज़िंदगी का देख लो मैंने निभाया हैमुफलिसी दौर ऐसा है सभी पीछा छुड़ाते है अमीरों ने तो ऐसे वक्त में भी दिल दुखाया हैखुदाया खेल ये कैसे समझ आते नहीं मुझको वही तो मौज लेता है ज

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मेरे दिल क्यूँ मचलता है तुझे तन्हा ही चलना हैआग अपने लगाते हैं तो फिर जलना ही जलना है हिम से खुद को ढके देखो वो पर्वत मुस्कुराता हैहवाएं गर्म हों उसको तो फिर गलना ही गलना है ख़ता मैंने करी है तो सज़ा भी मैं ही पाऊंगासूरते हाल हो कोई हाथ मलना ही मलना है वक्त ने तय किया जिस चीज़ को वो हुई हरदमसांझ आ ग

बह्र- १२२ १२२ १२२ १२२ काफ़िया- आने रदीफ़- लगा है“गज़ल”यहाँ भी वही शोर आने लगा हैजिसे छोड़ आई सताने लगा है किधर जा पड़ूँ बंद कमरे बताओ तराने वहीं कान गाने लगा है॥ सुलाने नयन को न देती निगाहें खुला है फ़लक आ डराने लगा है॥बहाने बनाती बहुत मन मनातीअदा वह दिशा को नचाने लगा है॥ खड़ी

मापनी-२१२२ २१२२ २१२२ २१२ समांत- आन पदांत- कर “गज़ल” कुछ सुनाने आ गया हूँ मन मनन अनुमान कर झूठ पर ताली न बजती व्यंग का बहुमान करहो सके तो भाव को अपनी तराजू तौलना शब्द तो हर कलम के हैं सृजन पथ गतिमान कर॥ छू गया हो दर्द मेरा यदि किसी भी देह कोउठ बता देना दवा है जा लगा दिलजान

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ज़िन्दगी जी ले कोई क्या झमेले ही झमेले हैंभीड़ है हर तरफ लेकिन यहाँ फिर भी अकेले हैं बड़े आराम से वो भेष भी अपने बदलता हैमगर चालाकियों के खेल ये मैंने ना खेले हैं वो कहता है मैंने तो उम्र भर रिश्ते निभाए हैंमुहब्बत थी नहीं जिनमें ये सब तो ऐसी जेलें हैं आज चमकीला अपना वर्क वो सबको दिखाता हैज़रा तुम ग

जहन में वो तो ख़ाब जैसा है,वो बदन भी गुलाब जैसा है,, बंद आँखों से पढ़ भी सकता हूँ,,तेरा चेहरा किताब जैसा है,, मेरी पलके झुकी है सजदे में,दिल भी गंगा के आब जैसा है,, हर घड़ी ज़िक्र तेरा करता हूँ,ये नशा भी शराब जैसा है,,अर्पित शर्मा "अर्पित"

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मुहब्बत दिल में होती है मगर आँखें जताती हैंखुशबू प्यार की मुझको तेरी बातों से आती हैसभी कुछ पास है मेरे मगर फिर भी अधूरा हूँजिसे जाना कभी आवाज़ वो मुझको बुलाती हैभले वो दूर रहती हो मगर नज़दीक है इतनेकोई भी बात मन की मुझसे वो ना छुपाती हैमुहब्बत में सनम को जिसने भी अपना खुदा मानाकिसी के सामने वो उसके

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कोई तो बात है अदावत है जो हमसे हज़ारों को चाँद को कुछ नहीं होगा जा के कह दो सितारों को जलो कितना भी तुम सूरज ताप अपना दिखाने कोरोक फिर भी न पाओगे तुम आती बहारों को मकां ऊंचा बनाने की हम ही तो भूल कर बैठेसमझ आता नहीं कैसे गिराएं अब दीवारों को कहीं गहराई जो होती तो हम भी सर झुका लेतेझुकाएं सर

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ये माना रास्ते मुश्किल हैं और मन उदास हैज़िन्दगी से नहीं शिकवा अगर रहती वो पास हैहर तरफ आग बरसे है कहीं बादल नहीं दिखतेधरा फिर से हरी होगी मगर पलती ये आस हैबेरुखी जिसने की मुझसे उसे मैंने वहीँ छोड़ामगर तुमको नहीं छोड़ा कहीं पे कुछ तो ख़ास हैमुझे मंज़ूर है सब कुछ मगर अपमान चुभता हैऐसे इंसान की सूरत क

तुम्हारे हुस्न के जलवे हमें अब भी सताते हैंहमें पर कुछ नहीं होता ये गैरों को जताते हैंतुम ही सच जानते हो बस गए कैसे निगाहों मेंमहज़ एक दोस्त हो गैरों को पर हम ये बताते हैंहमें तो बंदिशों ने ज़िन्दगी में ऐसा जकड़ा हैहाल ए दिल कह के ग़ज़लों में ही बस सबको सुनाते हैंयूँ तो झुकना नहीं सीखा हमनें रिश्तों

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