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gazal

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विलायत गया न वकालत पढ़ी है।चेहरों पे लिक्खी इबारत पढ़ी है।पढ़ी हैं किताबें, मगर बेबसी में लगाकर के दिल, बस मुहब्बत पढ़ी है।न कर जुल्म इतने के सब्र टूट जाये मेरे भी दिल ने बग़ावत पढ़ी है ।मुनाफे से कम कुछ न मंजूर इसको दुनिया उसूल-ए-तिज़ारत पढ़ी है | मुस्कुराये लब, तो ख

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खोया है कितना, कितना हासिल रहा है वोअब सोचता हूँ कितना मुश्किल रहा है वोजिसने अता किये हैं ग़म ज़िन्दगी के मुझकोखुशियों में मेरी हरदम शामिल रहा है वोक्या फैसला करेगा निर्दोष के वो हक़ मेंमुंसिफ बना है मेरा कातिल रहा है वोपहुँचेगा हकीकत तक दीदार कब सनम कासपनों के मुसाफिर की मंज़िल रहा है वोकैसे यक़ीन

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यूँ मुसलसल ज़िन्दगी से मसख़री करते रहेज़िन्दगी भर आरज़ू-ए-ज़िन्दगी करते रहे एक मुद्दत से हक़ीक़त में नहीं आये यहाँ ख्वाब कि गलियों में जो आवारगी करते रहे बड़बड़ाना अक्स अपना आईने में देखकर इस तरह ज़ाहिर वो अपनी बेबसी करते रहे रोकने कि कोशिशें तो खूब कि पलकों ने पर इश्क़ में पागल थे आंसू ख़ुदकुशी करते रहे आ गया

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यूँ भी दर्द-ए-ग़ैर बंटाया जा सकता हैआंसू अपनी आँख में लाया जा सकता हैखुद को अलग करोगे कैसे, दर्द से बोलोदाग, ज़ख्म का भले मिटाया जा सकता हैमेरी हसरत का हर गुलशन खिला हुआ हैफिर कोई तूफ़ान बुलाया जा सकता हैअश्क़ सरापा ख़्वाब मेरे कहते हैं मुझसेग़म की रेत पे बदन सुखाया जा

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खोया है कितना, कितना हासिल रहा है वोअब सोचता हूँ कितना मुश्किल रहा है वोजिसने अता किये हैं ग़म ज़िन्दगी के मुझकोखुशियों में मेरी हरदम शामिल रहा है वोक्या फैसला करेगा निर्दोष के वो हक़ मेंमुंसिफ बना है मेरा कातिल रहा है वोपहुँचेगा हकीकत

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गिर रही है आँख से शबनम तुम्हारे हिज़्र में एक ही बस एक ही मौसम तुम्हारे हिज़्र में क़तरे-क़तरे में शरारों सी बिछी है चांदनी बन गयी है हर ख़ुशी मातम तुम्हारे हिज़्र में आईना-ओ-

तूने दिल से क्या रुखसत किया जिंदगी वीरान हैसांसें बदन में तो चल रहीं बाकी ना कोई जान हैलाखों जतन मैंने किए तुम याद आना छोड़ दोसब कोशिशें मेरी मगर चढ़ती नहीं परवान हैंतुम मेरे जीवन में थे तो हर जगह लगता था दिलतेरे बिना सूनी ये महफिल अब हुई शमशान हैठीक से सोचा नहीं जब राहें मंजिल की चुनीदेखी हकीकत आज

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*कवयित्री विशेषांक* के लिए रचनाएँ आमंत्रित------

तेरा चेहरा जो दिख जाता वहीँ बरसात हो जातीबिना बोले ही नज़रो से दिलों की बात हो जाती अगर तुम चाँद के जैसा खुद का श्रृंगार कर लेतेये दावा है मेरा खुद ब खुद सुहानी रात हो जाती काश तुम मुस्कुरा कर के मेरे पहलू में आ जातेवो ही मेरे लिए तो खुशियों की सौगात हो जाती तू जिसके पास हो उसका रसूख ऊँचा रहता हैतेर

कैसे मुकर जाओगे+++ *** +++यंहा के तो तुम बादशाह हो बड़े शान से गुजर जाओगे ।ये तो बताओ खुदा कि अदालत में कैसे मुकर जाओगे !! चार दिन की जिंदगानी है मन माफिक गुजार लो प्यारे।आयेगा वक्त ऐसा भी खुद की ही न

टूटे दिलो के तराने लिख रहा हूँ..! नाकाम मोहबत के फ़साने लिख रहा हु.... !! जो थे कभी आबाद उन दिलो के ...! ऐसे बदनसीबों के जमाने लिख रहा हु...!! हाँ एक शायर होने के नाते ...! शबनम से फूलो पे तराने लिख रह

ग़ज़ल सुबह हो गयी मग़र रात अभी बाक़ी है |इस रोशनी में अब कोई साज़िश झिलमिलाती है | |सूरज बहकता सा चाँदनी मुस्कुराती है |हवा का रुख बताने में पत्तियां लड़खड़ाती हैं | |धुँवा इस कदर पसरा आंखें डबडबाती हैं

वो हमारे सर काटते रहेहम उन्हें बस डांटते रहे !!वो पत्थरो से मारते रहेहम उन्हें रेवड़ी बाटते रहे !!लालो की जान जाती रहीहम खुद को ही ठाटते रहे !!माँ बहने बिलखती रहीनेता जी गांठे साँठते रहे !!जान हमारी निकलती रहीहम धैर्य को अपने डाटते रहे !! राजनीति का खेल

काफिया- आनी, रदीफ- लिखेंगे मापनी(बहर)-122 122 122 122 ( दिलों की मुकम्मल कहानी लिखेंगे) “गज़ल” गए तुम कहाँ छड़ निशानी लिखेंगे बचपना बिरह की कहानी लिखेंगे अदाएं उभर कर बढ़ाती उम्मीदें जिसे आज अपनी जुबानी लिखेंगे॥ सुबह नित उठाती जगाती हँसाती जतन मात करती मय सुहानी लि

खुली अगर जुबान तो किस्से आम हो जायेंगे।इस शहरे-ऐ-अमन में, दंगे तमाम हो जायेंगे !!न छेड़ो दुखती रग को, अगर आह निकली ! नंगे यंहा सब इज्जत-ऐ-हमाम हो जायेंगे !!देकर देखो मौक़ा लिखने का तवायफ को भी ! शरीफ़ इस शहर के सारे, बदनाम हो जायेंगे।।दबे हुए है शुष्क जख्म इन्हें दबा ही

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लो गई..उतार चढ़ाव से भरीये साल भी गई...गुजरता पल,कुछ बची हुई उम्मीदेआनेवाली मुस्कराहटों का सबब होगा,इस पिंदार के साथ हम बढ़ चले।जरा ठहरो..देखोइन दरीचों से आती शुआएं...जिनमें असिर ..इन गुजरते लम्हों की कसक, कुछ ठहराव और अलविदा कहने का...,पयाम...नव उम्मीद के झलककुसुम के महक का,जी शाकिर हूँ ..कुछ चापों

तेरी सांसो की महक सांसो में मेरी शामिल हैतेरे बिना सफ़र जिन्दगी का बहुत मुश्किल हैतेरे हर अंग में मेरी मुहब्बत का पाक मंदिर हैये दिल यादों में सदा जिसकी हुआ गाफिल हैचाहत इंसानों की जहाँ हद से गुजर जाती हैऐसे रिश्तों को यहाँ मिलती ना कोई मंजिल हैतन्हा रहता है दर्द सहता है और मुस्कुराता हैहर इंसान अब

पुरखों का घर छूट गयाअम्मा का दिल टूट गयादरवाज़े पे दस्तक दीअन्दर आया लूट गयामिट्टी कच्ची होते हीमटका धम से फूट गयामजलूमों की किस्मत हैजो भी आया कूट गयासीमा पर गोली खानेअक्सर ही रंगरूट गयापोलिथिन आया जब सेबाज़ारों से जूट गया ...

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मेरे अपनों ने मेरे संग ये कैसा काम कर डाला मुझे रूसवा ज़माने भर में सरे शाम कर डालामुझे मालूम ना था मेरे घर में कई सर्प पलते हैउन्हे मौका मिला ज्यों ही मुझे तमाम कर डालालाख शक्ति थी रावण में राम से बैर करने कीविभीषण ने मगर हार का इन्तजाम कर डाला ज़माना भर यहाँ करता है श्री राम का

वज्न- 2122, 2122 2122, 212 आदमी चलता कहाँ उठता कदम बिन बात के हो रहा गुमराह देखो, हर घड़ी बिन साथ के काँपती हैं उँगलियाँ उठ दर्द सहलाती रहीं फासला चलता रहा खुद को पकड़ बिन हाथ के॥ नाव नदियां साथ चलती साथ ही पतवार भी देखता है धार नाविक ठाँव कब बिन नाथ के॥ लोग कहते हैं कि देखों त

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