गुजर गया अब के ये सावन बिना कोई बरसात हुएसब शिकवे हमने कह डाले बिन तेरी मेरी बात हुए प्यार लुटा के बैरी होना सबके बसकी बात नहींदिल की हालत वो ही जाने जिसपे ये आघात हुए मुझे शिकायत है उस रब से जिसने तुमको भेज दियाप्यासे को नदिया जल जैसे तुम भी मेरी सौगात हुए हाथ पकड़ क
"ग़ज़ल" जानकर अंजान को तुम जो खिलौना दे गए तोड़कर अरमान इसका कर भगौना दे गए दिल कहे कि पूछ लो हाथ कितने साथ थे ले के आए आप अरमा औ बिछौना दे गए॥खेलना है नियति जिसकी झूमकर जो खेलतेटूटकर बिखरे हैं वे उनको बिनौना दे गए॥आह में भी चाह देखों भूख जिनका खेलना हाथ कोमल को कठिन तुम घिनौना दे गए॥काँपते हैं डर के
मैंने सोचा बहुत मैं भुला दूँ तुम्हें लेकिन ये मुझसे हो ना सकातेरी छवियां ना दिखला दें आंसू मेरे मैं तो जहाँ में रो ना सकाउल्फ़त की राहों में हरदम यहाँ संगदिल ज़माने ने घायल कियामैं तड़पा चाहे जितना मगर कांटे औरों की राहों में बो ना सका लाख तोहमत लगीं दामन पे मेरे और हम आखिर जुदा हो गएवो समझेंगे क्या
बेरुखी को भी निभाना चाहिएहो सके तो पास जाना चाहिएक्या पता वो बिन पढ़ी किताब होखर खबर उनको सुनाना चाहिए।।बाँचकर मजमून अपने आप सेबेवजह नहिं खौफ खाना चाहिए।।पूछ लो शायद वे अति अंजान होंहर शहर को घूम आना चाहिए।।यदि दिखे हँसती अमीरी दूर सेवक्त को भी मुस्कुराना चाहिए।।लोग हैं की भाप लेते दिल जिगरकोहिनूर मि
चाहा बहुत ना दिल से तुझे दूर कर सकेभूलूँ तुम्हें ना वो मुझे मजबूर कर सके आनंद वो मैंने पा लिया जिसकी तलाश थीबाकी नशे ना मुझको कभी चूर कर सके एक तेरी उल्फत ने मुझे ऊंचा उठा दियाबाकी जतन ना मुझको यहाँ मशहूर कर सके यूँ तो दीवाने भी कई हर मोड़ पे मिलेतेरी चाहतों के जैसा ना पर नूर कर सके रग रग में तुम ही
विलायत गया न वकालत पढ़ी है।चेहरों पे लिक्खी इबारत पढ़ी है।पढ़ी हैं किताबें, मगर बेबसी में लगाकर के दिल, बस मुहब्बत पढ़ी है।न कर जुल्म इतने के सब्र टूट जाये मेरे भी दिल ने बग़ावत पढ़ी है ।मुनाफे से कम कुछ न मंजूर इसको दुनिया उसूल-ए-तिज़ारत पढ़ी है | मुस्कुराये लब, तो ख
खोया है कितना, कितना हासिल रहा है वोअब सोचता हूँ कितना मुश्किल रहा है वोजिसने अता किये हैं ग़म ज़िन्दगी के मुझकोखुशियों में मेरी हरदम शामिल रहा है वोक्या फैसला करेगा निर्दोष के वो हक़ मेंमुंसिफ बना है मेरा कातिल रहा है वोपहुँचेगा हकीकत तक दीदार कब सनम कासपनों के मुसाफिर की मंज़िल रहा है वोकैसे यक़ीन
यूँ मुसलसल ज़िन्दगी से मसख़री करते रहेज़िन्दगी भर आरज़ू-ए-ज़िन्दगी करते रहे एक मुद्दत से हक़ीक़त में नहीं आये यहाँ ख्वाब कि गलियों में जो आवारगी करते रहे बड़बड़ाना अक्स अपना आईने में देखकर इस तरह ज़ाहिर वो अपनी बेबसी करते रहे रोकने कि कोशिशें तो खूब कि पलकों ने पर इश्क़ में पागल थे आंसू ख़ुदकुशी करते रहे आ गया
यूँ भी दर्द-ए-ग़ैर बंटाया जा सकता हैआंसू अपनी आँख में लाया जा सकता हैखुद को अलग करोगे कैसे, दर्द से बोलोदाग, ज़ख्म का भले मिटाया जा सकता हैमेरी हसरत का हर गुलशन खिला हुआ हैफिर कोई तूफ़ान बुलाया जा सकता हैअश्क़ सरापा ख़्वाब मेरे कहते हैं मुझसेग़म की रेत पे बदन सुखाया जा
खोया है कितना, कितना हासिल रहा है वोअब सोचता हूँ कितना मुश्किल रहा है वोजिसने अता किये हैं ग़म ज़िन्दगी के मुझकोखुशियों में मेरी हरदम शामिल रहा है वोक्या फैसला करेगा निर्दोष के वो हक़ मेंमुंसिफ बना है मेरा कातिल रहा है वोपहुँचेगा हकीकत
गिर रही है आँख से शबनम तुम्हारे हिज़्र में एक ही बस एक ही मौसम तुम्हारे हिज़्र में क़तरे-क़तरे में शरारों सी बिछी है चांदनी बन गयी है हर ख़ुशी मातम तुम्हारे हिज़्र में आईना-ओ-
तूने दिल से क्या रुखसत किया जिंदगी वीरान हैसांसें बदन में तो चल रहीं बाकी ना कोई जान हैलाखों जतन मैंने किए तुम याद आना छोड़ दोसब कोशिशें मेरी मगर चढ़ती नहीं परवान हैंतुम मेरे जीवन में थे तो हर जगह लगता था दिलतेरे बिना सूनी ये महफिल अब हुई शमशान हैठीक से सोचा नहीं जब राहें मंजिल की चुनीदेखी हकीकत आज
*कवयित्री विशेषांक* के लिए रचनाएँ आमंत्रित------
तेरा चेहरा जो दिख जाता वहीँ बरसात हो जातीबिना बोले ही नज़रो से दिलों की बात हो जाती अगर तुम चाँद के जैसा खुद का श्रृंगार कर लेतेये दावा है मेरा खुद ब खुद सुहानी रात हो जाती काश तुम मुस्कुरा कर के मेरे पहलू में आ जातेवो ही मेरे लिए तो खुशियों की सौगात हो जाती तू जिसके पास हो उसका रसूख ऊँचा रहता हैतेर
कैसे मुकर जाओगे+++ *** +++यंहा के तो तुम बादशाह हो बड़े शान से गुजर जाओगे ।ये तो बताओ खुदा कि अदालत में कैसे मुकर जाओगे !! चार दिन की जिंदगानी है मन माफिक गुजार लो प्यारे।आयेगा वक्त ऐसा भी खुद की ही न
टूटे दिलो के तराने लिख रहा हूँ..! नाकाम मोहबत के फ़साने लिख रहा हु.... !! जो थे कभी आबाद उन दिलो के ...! ऐसे बदनसीबों के जमाने लिख रहा हु...!! हाँ एक शायर होने के नाते ...! शबनम से फूलो पे तराने लिख रह
ग़ज़ल सुबह हो गयी मग़र रात अभी बाक़ी है |इस रोशनी में अब कोई साज़िश झिलमिलाती है | |सूरज बहकता सा चाँदनी मुस्कुराती है |हवा का रुख बताने में पत्तियां लड़खड़ाती हैं | |धुँवा इस कदर पसरा आंखें डबडबाती हैं
वो हमारे सर काटते रहेहम उन्हें बस डांटते रहे !!वो पत्थरो से मारते रहेहम उन्हें रेवड़ी बाटते रहे !!लालो की जान जाती रहीहम खुद को ही ठाटते रहे !!माँ बहने बिलखती रहीनेता जी गांठे साँठते रहे !!जान हमारी निकलती रहीहम धैर्य को अपने डाटते रहे !! राजनीति का खेल
काफिया- आनी, रदीफ- लिखेंगे मापनी(बहर)-122 122 122 122 ( दिलों की मुकम्मल कहानी लिखेंगे) “गज़ल” गए तुम कहाँ छड़ निशानी लिखेंगे बचपना बिरह की कहानी लिखेंगे अदाएं उभर कर बढ़ाती उम्मीदें जिसे आज अपनी जुबानी लिखेंगे॥ सुबह नित उठाती जगाती हँसाती जतन मात करती मय सुहानी लि
खुली अगर जुबान तो किस्से आम हो जायेंगे।इस शहरे-ऐ-अमन में, दंगे तमाम हो जायेंगे !!न छेड़ो दुखती रग को, अगर आह निकली ! नंगे यंहा सब इज्जत-ऐ-हमाम हो जायेंगे !!देकर देखो मौक़ा लिखने का तवायफ को भी ! शरीफ़ इस शहर के सारे, बदनाम हो जायेंगे।।दबे हुए है शुष्क जख्म इन्हें दबा ही