पदांत- नहीं, समांत-अहरी, मापनी-2122 2122 2122 12
“गीतिका”
आप के दरबार में आ
शांति ठहरी नहीं
दिख रहा है ढंग का
पल प्रखर प्रहरी नहीं
झूलती हैं देख कैसे
द्वार तेरे मकड़ियाँ
रोशनी आने न देती
झिल्लियाँ गहरी नहीं॥
वो रहा फ़ानूष लटका
झूलता बे-बंद का
लग रहा शृंगार से
भी रेशमा लहरी नहीं॥
गुंबजों का रंग
उतरा जा रहा बरसात में
बाढ़ सा जल घिर गया
भर शहर नहरी नहीं॥
मंदिरों में बज रही
हैं घंटियाँ महराज की
मौन बैठी मूर्तियों
सुन कान की बहरी नहीं॥
जिस जगह तेरा
सिंगासन उस जगह की बात कर
झुंड गिरगिट का
दिखा मनभावन गिलहरी नहीं॥
न्याय खुद करता
नहीं अन्याय के पीछे पड़ा
कह रहा गौतम खड़ा
बाजार कच्चहरी नहीं॥
महातम मिश्र, गौतम
गोरखपुरी