कंदराओं में पनपती सभ्यताओं✒️हैं सुखी संपन्न जग में जीवगण, फिर काव्य की संवेदनाएँ कौन हैं?कंदराओं में पनपती सभ्यताओं, क्या तुम्हारी भावनायें मौन हैं?आयु पूरी हो चुकी है आदमी की,साँस, या अब भी ज़रा बाकी रही है?मर चुकी इंसानियत का ढेर है यह,या दलीलें बाँचनी बाकी रही हैं?हैं मगन इस सृष्टि के वासी सभी गर,
“मुझे पता चला कि जब मैंने अपने विचारों पर विश्वास किया था, तो मुझे पीड़ा हुई, लेकिन जब मैंने उन पर विश्वास नहीं किया, तो मुझे पीड़ा नहीं हुई, और यह कि यह हर इंसान के लिए सच है। स्वतंत्रता उतनी ही सरल है। मुझे अपने भीतर एक खुशी मिली जो कभी गायब नहीं हुई, एक पल के लिए भी नहीं। वह आनंद सभी में है, हमेश
हममें से अधिकांश लोग अपने जीवन में शांति और सुगमता चाहते हैं - जीवन तनावपूर्ण, अराजक, भारी, विचलित करने वाला, थकावट भरा हो सकता है।हम उस सब से दूर होना चाहते हैं, पागलपन से बाहर निकलें, और अधिक से अधिक शांति की जगह पर पहुंचें।मैं साझा करने जा रहा हूं कि कैसे एक सरल विधि में शांति का जीवन पाएं। एक मि
क्या सोचता रे पागल मनवा जो वीत गया सो वीत गया । इस झुठे खेल में मूल हि क्या।। कोई हार गया कोई जीत गया ।। क्या सोचता रे .........................हम चाहें वही हो जरुरी नहीं ।
तलबगार है कई पर मतलब से मिलते हैं ये वो फूल हैं जो सिर्फ मतलबी मौसम में खिलते हैं रोक लगाती है दुनिया तमाम इन पर पर देखो मान ये इश्कबाज पक्के जो पाबंदियों में भी मिलते हैं मोहब्बत के रोगी को दुनिया बेहद बदनाम ये करती है जनाब क्यों फिर भी आधी दुनिया हाए इसी पे मरती है कहते हैं कई धोखेबाज भी लेन-देन द
काश भ्रष्टाचार न होता ,फिर भलों का दिल न रोताकानून ढंग से काम करता, काश भ्रष्टाचार न होता। लोकतंत्र भ्रष्ट न होता, रिश्वत का तो नाम न होता संसद ढंग से काम करता काश भ्रष्टाचार न होता।होता चहुँ और निष्पक्ष विकासफैलता स्वतं