"चमचा भाई"
काहो चमचा भाई कैसे कटी रात हरजाई
भोरे मुर्गा बोले कूँ कूँह ठंडी की ऋतु आई
हाथ पाँव में ठारी मोरे साजन की बीमारी
सूरज ओस हवाई घिरि बदरी दाँत पिराई।।
आज का चमचा,
चमचों की के बात कर, हरदम रहते चुस्त
चखें मसाला रस पियें, छौंक लगे तो सुस्त।।
बड़े मतलबी यार हैं, हिलते सुबहो शाम
कंधे पर आसन धरें, चमची सह आराम।।
भंडारी के हाथ से, झूले झूला मेल
चढ़ी कड़ाही देख के, गरम हो गया तेल।।
पकती पूरी लालिमा, उलट पलट पट फेर
चखे स्वाद चमचा तुरत, बिना छंद का शेर।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी