बिन मंजिल चलते चलते सिंधु थककर सड़क के किनारे पेड़ की छांव में बैठ गईl
एक तो प्रसव उपरांत की कमजोरी, दूसरे पेट में खाने का एक भी निवाले का न होना l
वह भूख और प्यास से बहुत ही व्याकुल हो रही थीl
अपने कलेजे के टुकड़े को अपने आंचल में लपेट कर वह छाती से चिपकाए थी, परंतु केवल ममता के सागर से, दूध के सागर नहीं उफनाया करते l
बच्ची मां के स्तनों को मुंह में लेकर पूरी ताकत लगा कर के पेट भरने का भरसक प्रयास करती, परंतु उसे निराशा ही हाथ लगती, जिससे वह झुंझलाकर रोने लगती l
आंसुओं को देख कर मां भी पसीज जाती परंतु उस वक्त वह बेबस और लाचार थीl
बच्चे की भूख मिटाने के लिए उसे खुद खाना खाने होने की जरूरत थी l परंतु परित्यक्ता की दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कैसे हो, परिवार होते हुए भी वह मां बेटी अनाथों की तरह दरबदर भटक रही थीl
परिस्थितियों से हार कर सिंधु ने भीख मांगने का निर्णय लिया l भटकते भटकते वह रेलवे स्टेशन तक पहुंच गई वहां पर उसने रेल की पटरी पर बैठकर अपनी जान देने की कोशिश की, परंतु जब उसने अपनी बेटी की तरफ देखा तो उसे ऐसा लगा जैसे वह कह रही हो कि
" जब मारना ही था तो जन्म काहे को दिया"
इसे देखकर सिद्धू ने अपना इरादा बदल लिया और रेल की पटरी से हट गईl
फिर वहीं पर कुछ भिखारियों को मांगते हुए देखकर वह भी आने जाने वाले यात्रियों से वह कुछ खाने के लिए मांगने लगीl
इस निष्ठुर दुनिया में कुछ दयावान व्यक्तित्व भी मौजूद है, जो मां बेटी पर तरस खा करके उन्हें कुछ खाने को दे देतेl
पेट के आग बुझाने का इंतजाम तो सिंधु मांगकर करने लगी परंतु, रहने के लिए सिंधु ने शमशान का सहारा लिया l
उसने सोचा" इस जीवित दुनिया के लोगों ने मेरे साथ मुर्दों जैसा व्यवहार किया है, तोअब मुर्दों से डर कैसा?"
कभी-कभी सिंधु, भीख में आटा चावल भी मिल जाता l
परंतु सिंधु के पास रहने का कोई ठिकाना नहीं था तो वह खाना कहां बनाती और कैसे बनाती? अंततः सिंधु ने मुर्दों की चिताओं की आग पर रोटियां सेकी , और श्मशान में ही खाना बनाया l जिंदगी इसी तरह कटने लगी परंतु सिंधु की किस्मत में केवल शमशान पर रोटियां सेकना ही नहीं था l
सिंधु अब रेलवे स्टेशन पर जाती और वहांगाने गा ,गा कर भीख मांगने लगी l जिससे उसे कुछ ज्यादा पैसे मिलने लगेl
सिंधु ने देखा की रेलवे स्टेशन पर कुछ छोटे बच्चे भी अपने पेट भरने के लिए भीख मांग रहे थेl सिंधु उन्हें भी अपने साथ रख ली और उनका भी पालन पोषण करने लगीl