घर में घुसते ही श्रीहरि ने सिंधु को आवाज दी
" सिंधु........ सिंधु कहां मर गई........
चल निकल घर से बाहर "
" क्या हुआ जी क्यों चिल्ला रहे हो"
"अब और भी कुछ होने को बाकी रह गया है क्या"
"मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है खुल के बताओ"
" पहले घर से बाहर निकल फिर मैं बताता हूं"
" मैं घर से निकल कर कहां जाऊंगी तुमसे किसी ने क्या कह दिया"
" मैं सारा दिन दो रोटी के जुगाड़ में काम करता हूं और तू यहां मजे से गांव में गुलछर्रे उड़ा दी फिरती हैl ना जाने किस का पाप पेट में ढो रही है""
श्री हरि की बातें सुनकर सिंधु के आंखों से आंसू बहने लगते हैं वह नहीं समझ पाती कि वह बोल क्या रहा है
अपने चरित्र पर हुवे प्रहार से वह आहत हो जाती है अपनी सफाई में वह पुनः ने बोलने का प्रयास करती है
" इतने बरसों से तुम्हारे साथ हूं मगर तुम्हें मुझ पर तनिक भी विश्वास नहीं है?
9 महीने का पेट लेकर मैं कहां जाऊंगी,, मेरी नहीं तो कम से कम अपनी होने वाली संतान के ऊपर दया करो,
तुमसे किसने कह दिया कि यह बच्चा तुम्हारा नहीं है"
"कौन क्या कहेगा, पूरा गांव तो तेरे बारे में जानता है, आज मुखिया मुझे यह बातें ना बताते तो मुझे भी कैसे पता चलताl औरतों के त्रिया चरित्र मैं खूब जानता हूं, दूसरे का पाप मेरे सर मढ रहीहै, जा इस बच्चे के बाप के पास चली जा और निकल यहां से"
" मुखिया मुझसे बदला लेने के लिए झूठ बोल रहा है, तुम मेरे पति हो तुम्हें मुझ पर विश्वास होना चाहिए"
"कैसा विश्वास, मुझे तुझ पर तनिक भी विश्वास नहीं है तू जाती है या तुझे धक्के मार कर बाहर निकालूं"
कहते हुए श्री हरि ने सिंधु के पेट में लात मारी और उसको पकड़कर घसीटते हुए घर से बाहर निकाल दिया और गायों के तबेले में फेंक कर घर का दरवाजा बंद कर दिया।
वह बेचारी घंटों गिड़गिड़ाती और रोती रही, परंतु श्री हरि के हृदय में तनिक भी दया नहीं आई।
अंततः हार कर सिंधू ने गाय के तबेले में शरण ली।
गायों के बीच वह रोती रही परंतु उसके रुदन से जिसका हृदय द्रवित हो जाए ऐसा वहां कोई न था।
मध्य रात तक सिंधू को प्रसव पीड़ा प्रारंभ हो गई और वह बेहोश हो गई ,परंतु परित्यक्ता के तरफ हाथ बढ़ाने वाले को कहीं समाज बहिष्कृत न कर दे ऐसा सोच कर किसी ने सिंधू की मदद नहीं की।
अत्यंत पीड़ा को सहन करते हुए सिंधु ने मूर्छितअवस्था मेंतबेले में एक बच्ची को जन्म दिया, प्रसव उपरांत सिंधु असह्य दर्द के कारण मूर्छित ही रहीl
कहते हैं जिसका कोई नहीं होता उसका ईश्वर होता है, आंख खुलते ही सिंधु ने एक अविस्मरणीय दृश्य देखा, ईश्वर रूपी 1 गौ माता ,मां की भांति उसकी और उसके बच्चे की रक्षा कर रही थी। वह हंकार कर दूसरे पशुओं को उनके नजदीक जाने से रोक रही थी। किसी तरह हिम्मत करके सिंधु बैठी, और उसने अपनी संतान को गोद में उठा लिया और गौ माता को गले लगा कर बोली
" आज तूने मैया बनकर मेरी रक्षा की है, तो अब से मैं केवल मैया ही बनकर रहूंगी। "
अपनी संतान की तरफ देखकर कहा "हाय रे तेरी बदनसीबी, जन्म के लिए तुझे घर भी न मिल सका।"
बालिका का सुरक्षित जन्म तो हो गया , परंतु गर्भनाल अभी भी मां से जुड़ी हुई थी। जिसे काटने के लिए धारदार औजार की जरूरत थी। पर वहां तबेले में ऐसे किसी औजार की उपस्थिति कहां हो सकती थी।
सिंधु ने चारों तरफ नजर दौड़ाई ताकि नाल को काटने के लिए कुछ मिल सके, तभी उसकी निगाह पास में ही पड़े एक पत्थर पर गई, जिसे उसने उठा लिया और उसी से नाल तोड़ने का निश्चय कर लिया ।
अपने ही हाथों से अपनी ही संतान की नाल वह भी पत्थर से तोड़ने का विचार, बहुत ही दर्दनाक था । परंतु उसके पास कोई दूसरा चारा भी नहीं था।
सिंधु ने पत्थर से नाल पर पहला प्रहार किया, परंतु नाल नहीं कटी, एक-एक करके सिंधु ने कुल 16 प्रहार किए अंततः नाल को मजबूर होकर कटना ही पड़ा ।
सिंधु ने अपने कलेजे के टुकड़े को अपने से सीने से लगा लिया।
और विचार करने लगी कि इसे लेकर मैं कहां जाऊं, मुझे कहां आश्रय मिलेगा । अंततः सिंधु ने अपने मां के घर जाने का निर्णय लिया।