एक खिलौने वाला ने अपने बेटे को खिलौना बनाने की कला सिखाने का निश्चय किया। वह बड़ा होकर खिलौने वाला ही बना। दोनों अब साथ में अपने खिलौनें बेचने बाजार जाते। पिताजी के खिलौने डेढ़ - दो सौ रुपए में बिकते पर बेटे के खिलौने का मूल्य पांच - छह रुपये से ज्यादा ना मिलते। बाजार से आने के बाद खिलौने वाले ने, अपने बेटे को पास बिठाता और खिलौने बनाने में हुई त्रुटि के बारे में बताता और अगले दिन उस गलती को सुधारने के लिए समझाता । यह क्रम बहुत सालों तक चला। लड़का काफी समझदार था वह अपनी निर्माण कला में सुधार करने का प्रयत्न करता रहा। कुछ समय बाद उस लड़के के खिलौने भी डेढ़ सौ रुपए तक बिकने लगें। खिलौने वाला अब भी अपने बेटे को उसी तरह समझाता और खिलौने बनाने में होने वाली गलती के बारे में अपने बेटे को बताता। बेटे ने अपनी निर्माण कला पर और भी अधिक ध्यान दिया और उसकी निर्माण कला और भी अधिक निखारने लगी। अब खिलौने वाले के बेटे के खिलौने चार - पांच सौ रुपए तक बिकने लगें। बेटे की निर्माण कला को सुधारने का क्रम खिलौने वाले ने अब भी बंद नहीं किया। एक दिन बेटे ने झुंझलाकर कहा, 'आप तो कमियाँ निकालना बंद ही नहीं करते। मेरी निर्माण कला अब तो आप से भी बेहतर हो गयी है। मुझे मेरे खिलौने के लिए चार - पांच सौ रुपए तक मिल जाते हैं लेकिन आपके खिलौने के मूल्य अब भी दो - अढ़ाई सौ रुपए ही है।' खिलौने वाले ने अपने बेटे को समझाते हुए कहा बेटा ! जब में तुम्हारी उम्र का था तब मुझे मेरी निर्माण कला का अहंकार हो गया था और फिर मैनें अपनी निर्माण कला में सुधार की बात छोड़ दी। तब से मेरी प्रगति रुक गयी और में दो सौ रुपए से अधिक के खिलौनें ना बना सका। अपनी गलतियों को समझने और उसे सुधारने के लिए हमेशा तैयार रहो ताकि बहुमूल्य खिलौने बनाने वाले श्रेष्ठ खिलौने वालों की श्रेणी में पहुंच सको।'