लेख, "वृद्धाश्रम की उपयोगिता: क्यों : कारण और निदान"
भारतीय परिवेश और भारतीयता अपने दायित्व का निर्वहन करना बखूबी जानती है। जहाँ तक आश्रमों की बात है अनेकों आश्रम अपने वजूद पर निहित दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं जिसमेँ गृहस्ताश्रम, पथिकाश्रम, शिक्षाश्रम, बाल आश्रम, विधवा आश्रम, वृद्धाश्रम, अनाथ आश्रम, नारी सुरक्षा आश्रम और तीर्थाश्रम इत्यादि जरूरत पड़ने पर पटल पर विद्यमान हो जाते हैं और उनकी सेवा मुहैया हो जाती है जो परिवर्तित परिस्थितियों व समय सर्जित जरूरतों को ध्यान में रखकर सृजित होते रहे हैं। जब कि हम भारतीय अपनी रहनी- करनी के सारे साधन अपने गाँव-घर में उपार्जित करके, अपने जिम्मेदारियों का निर्वहन करने के आदी हैं और उसी में खुशी के साथ ही साथ आत्मीय दायित्व निभाने का सन्तोष मानकर उसके ममत्व व लगाव में झलकतेँ रहे हैं।
पुनरावलोकन करें तो आज के परिवेश को देखकर दिल द्रवित हो जाता है, लाचार माँ- बाप अपनी नाजों से पालित गृहस्ती को बसाकर, दुलारकर और अपने हाथों से सिंचित बाग में तमाम फल-फूल लगाकर उसकी छाया से उस समय बंचित कर दिए जाते है जब उन्हें सबसे अधिक अपनों के सहारे की जरूरत होती है। उनके हाथों के छाले उनकी झूलती झुर्रियां अपनों से पूछना चाहती हैं कि जब इस आश्रम में मेरी जगह नहीं है तो उस वृद्धाश्रम में कौन ऐसा फरिश्ता है जो उन्हें अपनत्व देने के लिए व्याकुल हुआ जा रहा है क्यों मुझे कसाई के कटघरे में ढकेल रहे हो क्या अपराध है मेरा, कुछ तो बताओं मेरे जिगर के टुकड़े मेरे सुपुत्र! बड़े त्याग से पालन किया था। बड़ी उम्मीदें सजाई थी नाती-पोतों के लिए मनौतियां मांगी थी, मंदिरों की ऊँची सीढ़िया चढ़कर घंटियां बजाई थी और तुम आज उन्हीं हड्डियों को अपने से जुदा कर रहे हो जिनमें वह दर्द है जो कँहरता तो था पर आवाज नहीं करता था कि मेरे सलोने की नींद टूट जाएगी। खेलना चाहता था , हँसना चाहता था इन नन्हीं किलकारियों के साथ जो तुम्हारी औलाद है महसूस करना चाहता था तुम्हारा अपना बचपन इस बुढ़ापे में इन अबोध नाती-पोतों के साथ और सुख की नींद सो जाना चाहता था इसी छत के नीचे जिसे हमने अपने अरमानों को कुचल कर बनाया था। जो आज तुम्हारा है, तुम वारिस हो हमारे दुनिया का। इतना बता दो मेरे लाल कि माँ-बाप भार क्यों हैं?, बुढापा अपराध कैसे है, वृद्धाश्रम इसका इलाज है यह सर्वत्र दिखाई देता है पर क्या दर्द दूर होता है इसका निजात करने वाला शायद यह भूल गया कि एक दिन वह भी वृद्ध होगा, तब क्या वह यह दर्द बरदाश्त कर पायेगा। शायद नहीं, क्यों कि उसने परोपकार के नाम पर अपना उपकार किया है और वृद्धाश्रम के नाम पर उन लोगों को दर्द दिया है जो लोग अपने अंतिम पड़ाव पर हैं और अपनों के हूफ़ से वंचित इस लिए कर दिए गए हैं कि घर के अलावा वृद्धाश्रम का विकल्प मौजूद है।
किसी व्यवस्था पर उँगली उठाने का यहाँ तनिक भी विचार नहीं है, गुण-दोष सर्वत्र विद्यमान होते हैं पर भावनाओं के साथ खेलने और उन्हें प्रताड़ित करने का अधिकार भारतीय परंपरा में किसी किसी को नहीं है। आयाती दृष्टिकोण जब भी अपनाए जाते हैं तो कमोवेश यहीं परिणाम होता है। रहन-सहन, खान-पान, वेष-भूषा, विचार सरणी किसी पर थोपी नहीं जाती। अनुकूल होने पर सहर्ष उसे अपनाया जाता है, जरूरी नहीं कि हर वस्तु हर मौसम में लाभदायी हो, हर मकान हर जलवायु के अनुकूल हो, हर विचार सर्वमान्य हो, जरूरी यह है कि हमारी भावना, हमारे आदर्श हमारी नैतिकता किसको समाहित करके खुशी प्राप्त करती है उसको अपनाना और प्रसारित करना उत्तम है।
वृद्धाश्रम क्यों, उसकी उपयोगिता और निदान: पर दृष्टि डालें तो मन गुमराह हो जाता है कि इसकी क्या जरूरत है जब वारिसदार मौजूद है, उपयोगिता को देखें तो कष्ट ही कष्ट होता है कि माँ-बाप अभी जिंदा है और हम उनकी छाया से अपनी सुख-सुविधा के लिए वंचित हैं क्यों कि वृद्धाश्रम है। निदान- बहुत आसान है हम बिना पर उड़ना बंद कर दें और यह जाने कि परमात्मा के बाद अगर कोई आत्मा हमारे भले के लिए पृथ्वी पर है तो वह है माँ-बाप। इनकी आत्मा दुखाकर हम सुखी नहीं रह सकते, इनकी चरणों में चारोधाम है। इनकी पूजा हमारा कर्तव्य है इनका आशीष हमारे सशक्त निधि है। इनको प्यार से रखें और भारतीय सानिध्य को बरकरार रखें। इस जन्नत को जहन्नुम न बनाएं। इस वटवृक्ष को सम्हालें और तमाम व्याधियों से मुक्त रहें।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी