माँ
शाम के साढे़ छह..... पौने सात बजे का समय रहा होगा। एक अनीश नाम का लड़का, दुकान पर आता है, गांव का रहने वाला था, वह चतुर व चालाक था।
उसका बातें करने का तरीका गांव वालों की तरह का था, परन्तु बहुत ठहरा हुआ लग रहा था। उम्र लगभग तेईस वर्ष का रहा होगा ।
दुकानदार की पहली नज़र उसके पैरों पर ही जाती है । उसके पैरों में चमड़े के जूते थे, सही से पाॅलिश किये हुये।
दुकानदार-- "बोलिए, क्या सेवा करूं ?"
लड़का -- "मेरी माँ के लिये चप्पल चाहिये, मगर लम्बे समय तक चलने वाली चाहिये !"
दुकानदार-- "वह आई हैं क्या ? उनके पैरों का नाप ?"
अनीश ने अपना बटुआ बाहर निकाला, आठ बार फोल्ड किया हुआ एक कागज़ जिस पर पेन्सिल से बनाई हुई थी वह भी दोनों पैर की !
दुकानदार -- "अरे बाबू! मुझे तो चप्पल देने के लिये चप्पल के नम्बर चाहिये था ?"
अनीश ऐसा बोला... मानो कोई आसमान में बादल फूट गया हो --
"क्या नम्बर बताऊँ सेठजी ?
मेरी माँ की ज़िन्दगी बीत गई, पैरों में कभी चप्पल नहीं पहनी। *माँ मेरी मजदूर है, काँटे झाड़ी में भी जानवरों जैसे मेहनत कर- करके मुझे पढ़ाया लिखाया है, पढ़ कर, अब राजकीय सेवा लगी।
आज़ पहला वेतन मिला है ।
दीवाली पर घर जा रहा हूं, तो सोचा माँ के लिए क्या ले जाऊँ ?
तो मन में आया कि अपना पहला वेतन से माँ के लिये चप्पल लेकर आऊँ !"
दुकानदार ने अच्छी मजबूत चप्पल दिखाई, जिसकी छह सौ रुपये दाम थी।
"चलेगी क्या ?"
आगन्तुक अनीश उस दाम के लिये तैयार था ।
दुकानदार ने सहज ही पूछ लिया -- "बाबू !, कितनी वेतन है तुम्हारा ?"
"अभी तो दस हजार, रहना-खाना मिलाकर सात-आठ हजार खर्च हो जाएंगे है यहाँ, और दो हजार माँ के लिये !."
"अरे !, फिर तो छह सौ रूपये... कहीं ज्यादा तो नहीं...।"
तो बात को बीच में ही काटते हुए अनीश बोला -- "नहीं, कुछ नहीं होता !"
दुकानदार ने चप्पल डिब्बे में डाल कर दिया। अनीश ने रुपये दिये और
ख़ुशी-ख़ुशी दुकान से बाहर निकला ।
चप्पल जैसी चीज की, कोई किसी को इतनी महंगी उपहार नहीं दे सकता...
पर दुकानदार ने उसे कहा --
"थोड़ा रुको !"
साथ ही दुकानदार ने एक और डिब्बा अनीश के हाथ में दिया -- *"यह चप्पल माँ को, तेरे इस भाई की ओर से उपहार । माँ से कहना पहली ख़राब हो जायें तो दूसरी पहन लेना, नँगे पैर नहीं घूमना और इसे लेने से मना मत करना !"
दुकानदार की ओर देखते हुए उसकी दोनों की आँखें भर आईं !
दुकानदार ने पूछा --
"क्या नाम है आपकी माँ का ?"
"सीमा ।" उसने उत्तर दिया।
दुकानदार ने एकदम से दूसरी मांग करते हुए कहा--
"उन्हें मेरा प्रणाम कहना, और क्या मुझे एक चीज़ दोगे ?"
"बोलिये।"
"वह पेपर, जिस पर तुमने पैरों की चित्रकारी बनाई थी, वही कागज मुझे चाहिये !"
वह कागज़, दुकानदार के हाथ में देकर, अनीश ख़ुशी- ख़ुशी चला गया !वह फोल्ड वाला कागज़ लेकर दुकानदार ने अपनी दुकान के पूजा घर में रख़ा, दुकान के पूजाघर में कागज़ को रखते हुये दुकानदार के बच्चों ने देख लिया था और उन्होंने पूछ लिया कि -- "ये क्या है पापा ?"
दुकानदार ने लम्बी साँस लेकर अपने बच्चों से बोला --
"माता जी के पग लिये हैं बेटा !!
एक सच्चे सेवक ने उसे बनाया है, इससे कारोबार में बरकत आती है !"
बच्चों ने, दुकानदार ने और सभी ने मन से उन पैरों को और उसके पूजने वाले बेटे को प्रणाम किया ।
माँ तो इस संसार में साक्षात परमात्मा है ! बस हमारी देखने की दृष्टि और मन का सोच श्रृद्धापूर्ण होना चाहिये !