रियो ओलंपिक खत्म हो गया है और अपने साथ तमाम खट्टी मीठी यादें छोड़ गया है। खेल और खिलाड़ियों के प्रति हमारे उदासीन रवैये का एक और उदाहरण सामने आया है। भारतीय खिलाड़ी ओपी जैशा ने रियो ओलंपिक में महिला मैराथन स्पर्धा को याद करते हुए कहा कि मैं वहां मर सकती थी क्योंकि उन्होंने कहा कि उन्हें अधिकारियों द्वारा पानी और एनर्जी ड्रिंक मुहैया नहीं कराया गया जबकि भारत को निर्धारित स्टेशन दिये गये थे। जैशा रियो ओलंपिक की महिला मैराथन स्पर्धा में निराशाजनक दो घंटे 47 मिनट 19 सेकेंड के समय से 89वें स्थान पर रही थी।
जैशा ने कहा वहां काफी गर्मी थी। स्पर्धा सुबह नौ बजे से थी मैं तेज गर्मी में दौड़ी। हमारे लिये कोई पानी नहीं था न ही कोई एनर्जी ड्रिंक थी और न ही कोई खाना। केवल एक बार आठ किलोमीटर में रियो आयोजकों से मुझे पानी मिला जिससे कोई मदद नहीं मिली। सभी देशों के प्रत्येक दो किमी पर अपने स्टॉल थे लेकिन हमारे देश का स्टॉल खाली था।
जैशा फिनिश लाइन पर मैराथन पूरी करने के बाद गिर गयी थी और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा जहां उनके कोच निकोलई स्नेसारेव की एक डाक्टर से बहस हो गयी और फिर उन्हें स्थानीय पुलिस ने आधे दिन के लिये हिरासत में लिया।
जैशा ने कहा हमें हमारे तकनीकी अधिकारियों द्वारा ड्रिंक दी जानी थी यह नियम है। हम किसी अन्य टीम से पानी नहीं ले सकते। मैंने वहां भारतीय बोर्ड देखा लेकिन वहां कुछ नहीं था। मुझे काफी परेशानी हो रही थी। मैं रेस के बाद बेहोश हो गयी। मुझे ग्लूकोज दिया गया मुझे लगा कि मैं मर जाउंगी।
जैशा ने स्नेसारेव की बहस के कारण को स्पष्ट करते हुए कहा मेरे कोच बहुत गुस्से में थे और वह डाक्टरों से भिड़ गये। कोच ने सोचा कि मैं मर गयी हूं। उन्होंने डाक्टरों को धक्का दिया और मेरे कमरे में घुस गये क्योंकि वह जानते थे कि अगर मुझे कुछ भी हो गया तो उन्हें जिम्मेदार ठहराया जायेगा। इस धाविका ने दावा किया कि उसने जब स्टॉल पर पूछा कि उसे पानी क्यों नहीं मुहैया कराया गया तो अधिकारियों से उसे कोई जवाब नहीं मिला।
जैशा ने कहा ‘मैंने अधिकारियों से पूछा कि हमारे लिये वहां पानी क्यों नहीं था लेकिन मुझे कोई जवाब नहीं मिला। मैं नहीं जानती कि वे क्या कर रहे थे। भारतीय एथलेटिक्स दल में काफी लोग थे कोई भी यह काम कर सकता था। उन्होंने कहा, ‘मैं नहीं जानती कि वे कहां थे। मैं बहुत बुरी स्थिति में थी। मेरे कोच को डाक्टर से बुरे व्यवहार का दोषी ठहराया गया लेकिन उन्हें बताया गया कि जैशा लगभग मर गयी है वह क्या करते वहीं भारतीय एथलेटिक्स महासंघ एएफआई ने कहा कि रियो में भारतीय अधिकारियों को एथलीट या उनके कोचों द्वारा किसी भी ड्रिंक की विशेष जरूरत के बारे में नहीं बताया गया था।
एएफआई के सचिव सी के वाल्सन भी रियो में मौजूद थे उन्होंने कहा ‘यह आयोजकों की जिम्मेदारी होती है कि वे पानी और एनर्जी ड्रिंक मुहैया कराये। इसके लिये पूरे कोर्स में पानी और एनर्जी ड्रिंक के कई स्टेशन होते हैं। हम भी अपने एथलीटों को पानी और एनर्जी ड्रिंक दे सकते थे लेकिन किसी ने भी और न ही उनके कोचों ने हमें इसके बारे में सूचित किया कि उन्हें अलग से पानी और एनर्जी ड्रिंक की जरूरत है।’
जब इस घटना के बारे में खेल मंत्री विजय गोयल से पूछा गया तो उन्होंने कि यह भारतीय एथलेटिक्स महासंघ की जिम्मेदारी थी। उन्होंने कहा हर बार कोई छोटी घटना होती है तो हम इसका सं ज्ञान लेते हैं। यह एएफआई का काम था यह महासंघ की जिम्मेदारी है उन्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए थी। जैशा ने कहा कि उन्हें नहीं पता कि इसके लिये कौन जिम्मेदार है।
उन्होंने कहा मैं नहीं जानती कि इसके लिये किसे दोषी ठहराया जाना चाहिए। शायद किसी ने मैराथन की गंभीरता महसूस नहीं की जबकि हमें 42 किमी की दूरी तय करनी होती है। वाल्सन ने यह भी कहा कि 3000 मीटर स्टीपलचेज धाविका सुधा सिंह ने रियो से रवाना होने से एक दिन पहले ही खेल गांव के पालीक्लिनिक से दवाईयां ली थी।
जैशा ऑर्चटेरी पुथिया वीतिल & ये ज्यादातर ओ॰ पी॰ जैशा के नाम से ही जानी जाती है। ये एक भारतीय महिला ट्रैक एन्ड फ़ील्ड की एथलीट है। ये पूर्व में ३००० मीटर के रिकॉर्ड की भी भागीदार रह चुकी है।
भारत की सबसे बड़ी ताकत उसकी युवा आबादी मानी जाती है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी भारत में रहती है। यूएन के अनुसार 2014 तक भारत में करीब 35 करोड़ 60 लाख लोग 10 से 24 वर्ष के बीच की उम्र के थे। इतनी बड़ी युवा आबादी के बावजूद भारत के ओलंपिक में खराब प्रदर्शन के पीछे सबसे बड़ी वजह आर्थिक संसाधनों का अभाव है। भले ही केंद्र सरकार और दुनिया की दूसरी बड़ी संस्थाएं भारत को दुनिया के सबसे तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाओं में एक बताए, खेल-कूद पर खर्च के मामले में वो दुनिया के सबसे पिछड़े देशों में एक है। संसदीय पैनल की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा खेल पर किया जाने वाला कुल खर्च तीन पैसे प्रति व्यक्ति प्रति दिन है।
इतिहास में सबसे अधिक 2400 से ज्यादा ओलंपिक मेडल जीतने वाला अमेरिका खेलों पर प्रति व्यक्ति प्रति दिन 22 रुपये खर्च करता है। वहीं ब्रिटेन 50 पैसे प्रति व्यक्ति प्रति दिन और जमैका 19 पैसे प्रति व्यक्ति प्रति दिन खेलों पर खर्च करता है। अब हर आदमी पर हर रोज तीन पैसे खर्च करके कितने ओलंपिक मेडल लाए जा सकते हैं, ये सबके सामने है। वहीं कुछ लोग ये सवाल भी पूछते हैं कि कोई विकासशील देश केवल ओलंपिक मेडल जीतने के लिए क्यों पैसे खर्च करे, जबकि देश में बेरोजगारी, अशिक्षा और भूख जैसी चीजों के लिए पर्याप्त फंड नहीं है?
विशेषज्ञों की मानें तो भारत में आज भी खेल अच्छा करियर नहीं है। पुरानी कहावत है पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे होगे खराब।” शहरी तबके में विभिन्न खेलों को लेकर आई थोड़ी जागरुकता को छोड़ दें तो आज भी भारतीय माता-पिता बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस इत्यादि बनने का सपना देखते हैं। इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन के प्रमुख नारायन रामचंद्रन ने हाल में मीडिया से कहा था, भारत में खेल हमेशा ही शिक्षा से पीछे रहा है। ज्यादातर भारतीय परिवार अपने बच्चों को ओलंपियन बनाने के बजाय डेंटिस्ट या एकाउंटेंट बनाना पसंद करेंगे।”
जाहिर है भारतीय अभिभावकों की नजर में खेल में उनके बच्चों का भविष्य सुरक्षित नहीं है। ज्यादातर बच्चों को ये चिंता सताती है कि अगर बच्चे खेल में कुछ कर भी गए तो एक उम्र के बाद उनके लिए अपना परिवार चलाना मुश्किल होगा। राष्ट्रीय खेलों या कॉमनवेल्थ खेलों में पदक विजेता खिलाड़ियों के गरीबी-लाचारी के किस्से भारतीय मां-बाप के डर को और पुष्ट करते हैं।
ओलंपिक में भारत के खराब प्रदर्शन के पीछे कुछ लोग क्रिकेट की अतिशय लोकप्रियता को भी एक वजह मानते हैं। रियो ओलंपिक के दौरान ही एक चीनी वेबसाइट ने दूसरे खेलों की तुलना में क्रिकेट की लोकप्रियता हॉकी की फीकी पड़ती चमक और ग्रामीण इलाकों में ओलंपिक के प्रति जागरुकता के अभाव को ओलंपिक में भारत के खराब प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार कारणों में माना। इससे पहले भी कई भारतीय और विदेशी खेल विशेषज्ञ क्रिकेट को अन्य भारतीय खेलों की खराब हालात के लिए जिम्मेदार बता चुके हैं। बगैर किसी अतिश्योक्ति के कहा जा सकता है कि आज के भारत में क्रिकेट ही एक ऐसा खेल है जो देश के लगभग हर हिस्से में लोकप्रिय है। और जिसे लेकर भारतीय मां-बाप का नजरिया भी बदल है। वो अपने बच्चों को क्रिकेटर बनाने के प्रति उदार होने लगे हैं। लेकिन क्या क्रिकेट की लोकप्रियता की कीमत भारत को दूसरे खेलों की बलि देकर चुकानी पड़ेगी
खेल संस्थाओं का रवैया
भारत कितना पैसा खेल पर खर्च करता है और कितने युवा खिलाड़ी बनना चाहते हैं जैसे सवाल अपनी जगह वाजिब हैं। लेकिन इन सवालों के बरक्स एक सवाल ये भी है कि भारत जितना पैसा खेलों पर खर्च करता है और जो लोग खिलाड़ी बनना चाहते हैं उसकी जमीनी हकीकत क्या है? अगर आप खेल से जुड़ी खबरें पढ़ते रहते हैं तो आप विभिन्न खेल संस्थाओं में भ्रष्टाचार, बदहाली नियमों की मनमानी व्याख्या और खिलाड़ियों की उपेक्षा के किस्से पढ़े होंगे। रियो ओलंपिक खुद भारत में खेल प्रशासन की हालत का उदाहरण बनता जा रहा है। भारतीय खेल मंत्रालय और खेल प्राधिकरणों के पदाधिकारियों को खिलाड़ियों से ज्यादा अपनी चिंता रहती है। भारतीय खेल मंत्री और उनके साथियों पर रियो ओलंपिक के आयोजनकर्ताओं ने अभद्र बरताव करने का आरोप लगाया है।
उससे पहले कुश्ती में नरसिंह यादव और सुशील कुमार का विवाद भी भारतीय खेल प्राधिकरण की हकीकत सामने लाता है। ओलंपिक में दो पदक (एक सिल्वर और एक ब्रॉन्ज) जीतने वाले सुशील कुमार को इस मामले में अदालत तक का दरवाजा खटखटाना पड़ा। इस पूरे विवाद की जड़ में था भारतीय कुश्ती संघ के नियमों में स्पष्टता का अभाव। इससे पहले 2010 में भारत में हुए कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान हुए कथित भ्रष्टाचार से देश की पूरी दुनिया में किरकिरी हुई थी। पहले से ही फंड की कमी से जूझ रहे भारतीय खिलाडि़यों को खेल संस्थानों के भ्रष्टाचार के कारण अत्याधुनिक तकनीकी और प्रशिक्षण मिलना लगभग नामुमकिन हो जाता है। जिसका असर ओलंपिक खेलों में दिखाई देता है।