सागर झीललक्खी बंजारा अपने कबीले का मुखिया था। उसका घुमंतू कबीला सारे देश में घूम-घूम कर गुड़ व नमक का व्यापार करता था। यह दल अधिकांश सागर में भी ठहरता था। उन दिनों भी वहां पानी की किल्लत थी। उनके मवेशी अक्सर मर जाते थे। इससे निजात पाने के लिए लक्खी ने एक तालाब खोदने का ठेका 100 मजदूरों को दे दिया। दो साल तक लगातार खुदाई हुई पर एक बूंद पानी नहीं निकला। तब लक्खी ने वरुण देवता का कठिन तप किया। देवता प्रसन्न हुए और उसके सपने में आए। देवता ने लक्खी को कहा कि यदि वह अपने इकलौते बहु-बेटे को तालाब में समर्पित कर दे तो पानी आ सकता है।
लक्खी ने यह सपना अपने परिवार व मित्रों को बताया। समाज के कल्याण के लिए उसने अपने बहु-बेटे को बलिदान करने की ठान ली। कबीले वालों ने विरोध भी किया, पर बेटा मिट्ठू और बहु सुखिया ने जल समाधि लेने का प्रण कर लिया। तालाब के बीचों-बीच एक हिंडोला डाला गया। मिट्ठू और सुखिया उसमें बैठे। जैसे ही हिंडोला झुलाना शुरू हुआ, तालाब में पानी आने लगा। दोनों वहीं डूब गए पर अपने पीछे पानी की विशाल लहरें छोड़ गए। आज भी बंजारे इस तालाब का पानी नहीं पीते हैं
शायद इस कहानी पर यकीन ना हो, पर मध्यप्रदेश के सागर के उपलब्ध सभी पुराने दस्तावेज ‘सागर’ की यही कहानी कहते हैं। कोई पांच सौ साल पहले यह तालाब 1200 एकड़ से बड़ा हुआ करता था। साल-दर-साल यह सिमटता जा रहा है। भारत के अलग-अलग राज्यों में पुराने तालाबों के निर्माण की लगभग ऐसी ही मिलती-जुलती कहानियां प्रचलित हैं। लब्बोलुवाब यह है कि इन जल-कुंडों को तैयार करने के लिए हमारे पुरखों ने अपना बहुत-कुछ न्योछावर किया था, जिसे आधुनिकता की आंधी निगल गई है।