प्रस्तुत है युगभारतीवंशकेतु आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण संसार वक्र गति से चलता है भावमय संसार है विचार उसका प्रसार है कर्म उस संसार को व्यस्त रखने का प्रभु द्वारा बनाया गया अद्भुत आधार है बिना कर्म के हम जीवित नहीं रह सकते सांस लेना भी एक कर्म है | शरीर में प्राण हैं तो शरीर चलता है लेकिन जब शरीर से प्राण मुक्त हो जाते हैं तो प्राण चलते हैं और प्राण से उसका सूक्ष्म आधार मुक्त होने लगता है तो भाव चलते हैं और भाव भी शान्त हो जाते हैं तो परमात्मा सारी चञ्चलता को अपने भीतर समेट कर निर्विकल्प समाधि में रहता है| यह भारतीय जीवन पद्धति की परिकल्पना है जिस पर बहुत लोग विश्वास करते हैं | कल भैया मोहन कृष्ण जी की माता जी नहीं रहीं और मुकेश जी के साथ भी इसी तरह की दुर्घटना हुई उनके भी कुछ आत्मीय जन अकाल मृत्यु का शिकार हो गये भारतवर्ष का कथात्मक साहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है धन्ना भगत ज्ञानी और परम भक्त थे किसी की शव यात्रा में वे चलते थे तो ढपली बजाते थे गाते थे वे कहते थे | यह भी तो बारात है दूल्हा प्रभु से मिलने जा रहा है लेकिन जब युवा पुत्र नहीं रहा तो ढपली बजाई किन्तु ताल नहीं बन पा रही थी किसी ने कहा आज तो आप सही नहीं बजा पा रहे तो फफक कर रो पड़े |
पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥1॥
आदि की व्याख्या करते हुए आचार्य जी ने मोह का वर्णन किया l मोह से मुक्ति हो इसका प्रयास किया जाता है आपने धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥ बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥ की भी व्याख्या की आचार्य जी जब भी अपने पिता जी को याद करते हैं तो भावों से भर जाते हैं मोह की जड़ें कितनी गहरी होती हैं और उसकी शाखाएं भी बहुत फैली होती हैं यह धैर्य की परीक्षा है मानस पाठ गीता पाठ ऐसे समय अवश्य करने चाहिए |