प्रस्तुत है कृतात्मन्आ चार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण शास्त्रोक्त वचन है कि संसार में रहकर संसारी प्रकृति से विरत रहने वाले लोग निन्दनीय होते हैं हमें संसारी भाव से सक्रिय रहना चाहिए कहां विकार है कहां विचार है और कैसा व्यवहार है इसे देखते हुए त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्यार्थे ह्यात्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ हितोपदेश, मित्रलाभ की व्याख्या में आचार्य जी ने बताया कि आत्म के लिए पृथ्वी का साम्राज्य त्यागना चाहिए और आत्म की रक्षा करनी चाहिए इस आत्म के परिशोधन में, अनुसंधान में हमारा देश अनन्त काल से लगा हुआ है और इसी के परिणामस्वरूप हमारे वेद उत्पन्न हुए भूखंड या ब्रह्मांड का मिट जाना नष्ट हो जाना प्रलय है हिन्दू शास्त्रों में मूल रूप से प्रलय के चार प्रकार बताए गए हैं- 1.नित्य, 2.नैमित्तिक, 3.द्विपार्थ और 4.प्राकृत। एक अन्य पौराणिक गणना के अनुसार यह क्रम है नित्य, नैमित्तिक,आत्यन्तिक और प्राकृतिक प्रलय। नित्य प्रलय से हमारा नाता सदैव जुड़ा रहता है लेकिन हमें अनुभव नहीं होता है| हम बढ़ते रहते हैं प्रसन्न रहते हैं लेकिन जब यह वृद्धि ऐसी स्थिति में जाती है कि हमारा मोह इस शरीर से ज्यादा हो जाता है आत्म से नहीं तो उस समय हम इसको बलात्सु रक्षित रखना चाहते हैं बस यहीं प्रकृति से संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है जहां प्रकृति से संघर्ष है वहां दुःख है इस समय प्रकृति से भीषण संघर्ष चल रहा है समुद्र से शोषण पृथ्वी से शोषण मनुष्य सारा संतुलन बिगाड़ने में लगा हुआ है प्रकृति परमात्मा द्वारा निर्मित मां है ऐसे विचारों को चिन्तन को केन्द्र में रखते हुए आचार्य जी चाहते हैं कि अपने गांव सरौंहां में इस तरह के प्रयोग हों कि शौर्यप्रमंडित अध्यात्म चारों ओर विकसित हो सामान्य शरीर से बहुत बड़े बड़े काम हो जाते हैं जब विचार व्यवहार में परिवर्तित होने लगते हैं और प्रकृति का सहयोग मिलता है और परमात्मा कुछ हमसे करवाना चाहता है तो हम माध्यम बन जाते हैं और हमें माध्य बनने का सुकून मिलता है लेकिन दम्भ नहीं होता और नैमित्तिक प्रलय आने तक हम बहुत कुछ कर सकते हैं इसके अतिरिक्त आत्यन्तिक प्रलय क्या होती है अरविन्द भैया का नाम नाना जी का नाम आचार्य जी ने क्यों लिया जानने के लिए सुनें |