प्रस्तुत है आचक्षुस्आ चार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण प्रापञ्चिक जगत् में रहते हुए सदाचार की ओर उन्मुखता तत्परता जिज्ञासा मनुष्य का पुरुषार्थ है आचार्य जी का कहना है भगवान् की कृपा से ही यह सदाचार वेला चल रही है इसमें किसी को दम्भ नहीं करना चाहिए लिखन बैठि जाकी छबी, गहि-गहि गरब गरूर। भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥ बिहारी इस अपूर्व सुंदरी का चित्र बनाने के लिए, न जाने कितने अहंकारी चित्रकार आए, परन्तु सब असफल सिद्ध हो गए। भाव यह है कि इस रमणी की सुन्दरता की छवि, पल-पल बदलती रहती है। वह चित्र बनाकर जैसे ही चित्र और सुंदरी का मिलान करता है, उसे भिन्नता दिखाई देती है। उसका महान चित्रकार होने का अहंकार चूर हो जाता है। क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः प्रतिक्षण जो नवीनता को प्राप्त करे वह ही रमणीयता का स्वरूप है । जो स्वस्थ है वह न तन का और न मन का दास होता है स्वस्थ अर्थात् अपने में स्थित है जो l भैया संदीप शुक्ल जी (बैच 1983) की बिटिया का संदीप जी से प्रश्न था कि कन्यादान क्या है आचार्य जी ने इसका बहुत अच्छा अर्थ बताते हुए कहा कि परमात्मा भी जब आत्मदान करता है तो सृष्टि की रचना होती है यज्ञ दान तप कभी न त्यागें गीता के सोलहवें अध्याय में अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ (१) का और 17 वें का 25 वां,18 वें से 43 वां का अध्ययन करें l दान सुपात्र को ही करें lप्रकृति के स्थानान्तरण के मूल में भी दान है l जो व्यक्ति जितने स्थान बदलता है उतना ही विकसित होता है l गीता मानस का अध्ययन करें देश को इस समय जागरूक व्यक्ति की आवश्यकता है इसलिए हमें जाग्रत होना है| इसके अतिरिक्त विश्वामित्रीय सृष्टि क्या है,बीजू आम क्या है ऋषि कन्या क्या है आदि जानने के लिए सुनें |