प्रस्तुत है शक्ल आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण आचार्य जी ने अपना एक अनुभव बताया कि नींद न आने पर वे हनुमान चालीसा की शरण में चले जाते हैं तो नींद आ जाती है आचार्य जी ने आज हमारा परिचय श्वेताश्वतर उपनिषद् से कराया ऋषियों के सामने ब्रह्म का एक हरि रूप उभरा होगा किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठाः। अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्॥ ब्रह्म पर चर्चा करते हुए ऋषिगण प्रश्न करते हैं: क्या ब्रह्म (जगत का) कारण है? हम कहाँ से उत्पन्न हुए, किसके द्वारा जीवित रहते हैं और अन्त में किसमें विलीन हो जाते हैं? हे ब्रह्मविदो! वह कौन अधिष्ठाता है जिसके मार्गदर्शन में हम सुख-दुःख के विधान का पालन करते हैं? कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या । संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः ॥ काल, प्रकृति, नियति, यदृच्छा,जड़-पदार्थ, प्राणी इनमें से कोई या इनका संयोग भी कारण नहीं हो सकता क्योंकि इनका भी अपना जन्म होता है, अपनी पहचान है और अपना अस्तित्व है। जीवात्मा भी कारण नहीं हो सकता, क्योंकि वह भी सुख-दुःख से मुक्त नहीं है। मानस में जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार । संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥ विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं :--
अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥
विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं l
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं । दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं ॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू । मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ॥
भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता मन पर ही आचार्य जी ने अपनी रची एक बहुत अच्छी कविता सुनाई मन कभी अतल गहराई या गगन समान ऊंचाई में....कविता का भाव लेखन का भाव,निर्माण का भाव,संगठन का भाव, सामाजिक विचारणा का भाव,कर्म का भाव आदि स्वभाव है भाव अपना क्रियाशीलता का है वैचारिक हो या मानसिक हो मन तो प्रेरक है इसलिए मन की साधना होती है | तुलसी आदि कवियों ने मन के साथ सामंजस्य बैठाने का प्रयास किया है | मन मनुष्य का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है | आचार्य जी ने सुनि रन घायल लखन परे हैं....का अत्यन्त मार्मिक प्रसंग सुनाया इन प्रसंगों को जो अंदर तक हमें भिगो देते हैं अपने परिवारों को सुनाएंगे तो संस्कार अवश्य विकसित होंगे विचार पल्लवित होंगे और सामर्थ्य भी आयेगा |