प्रस्तुत है ग्रन्थिन्आ चार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण भैया यज्ञदत्त जी का प्रश्न था | यदि मानस और गीता जैसे ग्रंथ पूजा -स्थल पर रखे रहते हैं तो क्या नहाने से पूर्व उन्हें उठा सकते हैं? इसी के उत्तर में आचार्य जी ने दो प्रसंग बताए आचार्य जी बी एन एस डी में नवीं कक्षा में अध्ययनरत थे तो जे के मन्दिर (राधा कृष्ण मन्दिर कानपुर ) का निर्माण हो रहा था वहां लाल वस्त्र में बंधे कुछ ग्रन्थ रखे थे उन्हें स्पर्श नहीं कर सकते थे दूर से दर्शन कर सकते थे | जगजीवन स्वामी पर शोध करते समय कुटवा (बाराबंकी ) में हस्तलिखित पुस्तक से संबन्धित चर्चा की आचार्य जी ने इन दो घटनाओं की इसलिए चर्चा की कि धीरे धीरे हमारे ग्रन्थ दर्शन के लिए हो गये हैं पढ़ने के लिए नहीं आचार्य जी का कहना है कि वरिष्ठ जनों की भावनाओं को आहत न करें और इन ग्रंथों को अपने पुस्तकालय में भी रखें उनका अध्ययन करें और उन पर लिखें भी यदि हम उनका अध्ययन विचार चिन्तन आदि नहीं करेंगे तो यह दृश्य हमारे सामने कैसे उपस्थित होगा कि अपनों के बीच में युद्धक्षेत्र सजा है द्रुपद सुता के केश खींचता दुःशासन.. हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। स्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।2.37।। यदि युद्ध में तुम मारे जाओगे तो तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी और यदि युद्ध में तुम जीतते हो तो पृथ्वी का राज्य भोगोगे । अतः हे कुन्तीनन्दन! तुम युद्ध के लिये निश्चय करके खड़े हो जाओ यही भाव लेकर हमारा सैनिक सीमा पर डटा रहता है | सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।
आचार्य जी ने आज ही लिखी एक कविता सुनाई जब तक तन में प्राण प्राण में गति गति में उत्साह भरा है और राष्ट्रहित जीवन जीने की भावना भक्ति की अनुपम अबुझ त्वरा है.... सूर्योदय, प्रकृति आदि का आनन्द लें भारत की संवेदनशीलता के साथ हमारे विचार जुड़ जाएं तो हमें एक ऐसा रास्ता दिखाई देता है जो सबका सामञ्जस्य कर देता है और इस सामञ्जस्य को भलीभांति जो निभा लेता है सचमुच में जीवन जीने का आनन्द उसी को मिलता है जीवन के संघर्षों के बीच में इस सदाचार वेला का पूर्ण लाभ लेना चाहिए और संयम स्वाध्याय साधना से संयुत होना चाहिए और कुछ कर गुजरने का हौसला मरना नहीं चाहिए l