प्रस्तुत है शङ्कर आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का सदाचार संप्रेषण इस समय चारों तरफ का वायुमण्डल व्यापारमय हो गया है व्यापार तो उत्तम चीज है लेकिन उसमें विकृति भरने से सारा काला व्यापार हो गया है विचारों को विकृत करके परोसा जा रहा है और वह भी व्यापारिक ढंग से हमारा काम अपने अपने काम करते हुए विचारों को परिष्कृत करने का हैऔर परिष्कृत विचारों को बहुत स्थानों में प्रवेश कराने की आवश्यकता है वैचारिक क्षेत्र में इस समय जो उथल पुथल मची है कि ठीक क्या है समझदार लोग भी उससे घिरे हैं क्योंकि वे भी राजनीति का शिकार हो गए हैं राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥ बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥ राजनीति चारों ओर व्याप्त है और वह भी अनीतिमय l राजनीति में एक तूफान चला हुआ है कि भारत में लोकतन्त्र पश्चिम की देन है जब कि ऐसा नहीं है लोकतन्त्र भारतवर्ष की पद्धति है जब भी राजा लोकव्यवहार से विरत हुआ है उसे अपदस्थ किया गया है l आचार्य जी जब BA में अध्ययनरत थे तो रामास्वामी पेरियार के आन्दोलन से जुड़े एक व्यक्ति ने एक पुस्तक आचार्य जी को दी जिसमें माता सीता के बारे में जो लिखा था उससे आचार्य जी बहुत आहत हुए इस तरह का बहुत सारा गलत साहित्य अभी भी बांटा जा रहा है मनु लिखते हैं यस्मिन् देशे निषीदन्ति विप्रा वेदविदस्त्रयः । राज्ञश्चाधिकृतो विद्वान् ब्रह्मणस्तां सभां विदुः ॥११॥ आचार्य जी ने इसमें आये शब्द सभा की व्याख्या की देखने वाली बात है कि यह कितने पहले लिखा गया है तो फिर लोकतन्त्र पश्चिम की देन कैसे हो गया |