प्रस्तुत है वाग्यम आचार्य श्री ओम शंकर जी का देखा जाए तो हम सभी शिक्षक हैं शिक्षक वही जो शिक्षा दे,शिक्षा का अर्थ है संस्कार, मानव जीवन का सुधार, मानव जीवन के चैतन्य को जाग्रत करने की प्रक्रिया शिक्षा के माध्यम से भौतिक, आध्यात्मिक, परालौकिक ज्ञान की उपलब्धि होती है | मन्त्रों में,सिद्धसाधकों के शब्दों में, संतों की वाणियों में उनके अनुभव झलकते हैं उद्भव पालन प्रलय की कहानी तुलसी जी की भाषा में --
सुनहु तात यह अकथ कहानी । समुझत बनइ न जाइ बखानी॥
ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी॥1॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं । बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई । जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥2॥
चारों ओर का परिवेश आनन्दमय रहे तब मनुष्य प्रफ़ुल्लित होता है मनुष्य वानस्पतिक प्रकृति स्वाभाविक प्रकृति को संवारता है पशु पक्षियों को जीवन्त रखता है अर्थात् मनुष्य केन्द्रविन्दु हुआ सनातन भाव के अनुसार हमारे वैदिक ज्ञान ब्राह्मणिक ज्ञान आरण्यिक ज्ञान ब्रह्मसूत्र का ज्ञान पौराणिक ज्ञान औपनिषदिक ज्ञान में सभी का आधार एक ही है हम कौन हैं हमको कहां जाना है हमको क्या करना है डा ज्योति जी का प्रश्न है पूजा की मूर्तियों चित्रों आदि का उचित विसर्जन क्या है आचार्य जी का कहना है हम लोगों को व्यावहारिक ज्ञान में आना चाहिए आस्था और अनुसंधान साथ साथ चलने चाहिए हम लोग आत्मचिन्तन करते हुए परिवार को समाज को दिशा दें व्यापार उद्धार के लिए भी होता है और विकार के लिए भी विकारी व्यापार समाज का नुकसान करते हैं इसको समीक्षित करके चर्चा में लाने का काम युगभारती जैसे संगठनों का है व्यापार में TAX देना चाहिए हमें यह भी देखना चाहिए विकार कहां अधिक है और विचार कहां अधिक है | आत्मसंतुष्ट होने का प्रयास करें |