प्रस्तुत है वरद आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण एक ओर शरीर माध्यम है तो दूसरी ओर धर्म का साधन भी है शरीर साधन है साधना का आधार है और सिद्धि का वांछितगामी है शरीर के माध्यम से हम सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं अपने लक्ष्य की प्राप्ति ही सिद्धि है आचार्य जी बीस आने की एक कलम के लिए कभी बहुत प्रयासरत रहे थे | ऐसा लगता है कि यह मिल गया वह मिल गया तो सब कुछ हो गया ये सब शरीर की यात्रा के बीच बीच के छोटे छोटे आकर्षक पड़ाव हैं | लेकिन लक्ष्य पाने के बीच में हमारी परीक्षाएं भी होती रहती हैं पुरुष के द्वारा प्रकृति का उद्भव हुआ और पुरुष प्रकृति मिलकर सृष्टि का निर्माण करते हैं और तालमेल खराब होने पर प्रलय होता है संसार का यह अद्भुत स्वरूप है आप लक्ष्य को ध्यान में रखें लेकिन राह का आनन्द लेते रहें नहीं तो चलने में उत्साह कैसे मिलेगा राह का आनन्द अत्यावश्यक है | गीता में अर्जुन व्याकुल होते हैं तो कृष्ण समझाते हैं कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।। कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो। योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।। हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है। दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय। बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।2.49। बुद्धियोग-(समता) की अपेक्षा सकामकर्म दूरसे (अत्यन्त) ही निकृष्ट है। अतः हे धनञ्जय ! तू बुद्धि (समता) का आश्रय ले; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं। बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।। बुद्धि-(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्थामें ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। अतः तू योग-(समता-) में लग जा, क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है। कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
न्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।2.51।। समतायुक्त मनीषी साधक कर्मजन्य फलका त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं।यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।2.52।। जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा। जिनके मन में देश और धर्म के लिए त्याग तपस्या का भाव अभ्यास में आ जाता है वो ये नहीं सोचते कि सफल होने के लिए कर रहे हैं| हम आत्मस्थ होकर अपनी भोगभूमि पर न रहें अपितु अपनी वाणी से किसी को शिक्षित कर दें | समाज की सेवा में रत रहें आदि आदि योगस्थ जीवन की तरफ बढें |