प्रस्तुत है पूतात्मन् आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण युगभारती लखनऊ की कल एक बैठक लखनऊ में है बैठक किसी योजना को विस्तार देने के लिए एक व्यवस्थित व्यवस्था का प्रारम्भ है| हर कार्यों में हर व्यवस्थाओं में विचार होता है पहले भाव उठता है फिर विचार होता है और उसके बाद क्रिया होती है दीनदयाल विद्यालय के निर्माण के पीछे उद्देश्य था कि वहां राष्ट्रोन्मुखी विचारोन्मुखी शिक्षा होगी और ऐसे विद्यार्थी तैयार होंगे जो अपनी घर गृहस्थी चलाने के साथ साथ समाज को संचेतना प्रदान करेंगे | गीता में दूसरे अध्याय में 59 वें से 72 वें छन्द तक पढ़ने की आचार्य जी ने सलाह दी
विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोऽप्यस्य, परं दृष्ट्वा निवर्तते।। (गीता 2/59)
इन्द्रियों द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले पुरुषों के विषय तो निवृत्त हो जाते हैं क्यों कि वे ग्रहण ही नहीं करते; किन्तु
उन का राग नहीं निवृत्त होता, आसक्ति लगी रहती है। सम्पूर्ण इन्द्रियों को विषयों से समेटने वाले निष्काम कर्मी का राग भी 'परं दृष्ट्वा'- परमतत्त्व परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाता है। हम इस प्रकार की शिक्षा को प्रेरित करते हैं
कि हमें एक अच्छी नौकरी मिल जाए | लेकिन हमारे अन्दर यह जिज्ञासा नहीं है कि हमारा दिमाग जो सबसे विशाल कम्प्यूटर है वो किसने बनाया तैत्तिरीय उपनिषद्की शिक्षा वास्तविक शिक्षा है जिसे हम लोगों ने समझने का प्रयास नहीं किया |आचार्य जी ने यह भी बताया जो कल की बैठक में वो बताने वाले हैं |